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5.12.10

Suman Kalyanpur-'Ek jurm karke humne...' in 'Shama'

3.12.10

लल्लू भैया की शादी

मंच पर अपनी दुल्हन के संग स्थान ग्रहण किए लल्लू भइया बड़े मुस्कुरा रहे थे। आसपास बाराती व घराती अपने आप में मस्त थे । लल्लू भइया के चेहरे पर इतना मेकअप थोपा गया था कि जब-जब भी वह हँसते थे तो कुछ-कुछ रावण जैसे प्रतीत होते थे । लल्लू भइया को देखते-देखते पुरानी यादो में खो गया ।उन् दिनों लल्लूजी ने सोलहवें वसंत में प्रवेश किया था । हर कन्या को देखकर उनका मन का मयूर बन कर नृत्य करने लगता था । अपने ही मोहल्ले में रहने वाली एक कन्या पर लल्लू लट्टू हो गए थे । अब उसके घर के आस-पास ही उनका समय व्यतीत होने लगा । उनके घरवालों को उनका घर से बाहर रहना खला नहीं क्योंकि उन्होंने लल्लू जी को कई महीनों पहले ही आवारा घोषित कर दिया था । कन्या का नाम कम्मो था । वह दसवीं कक्षा की छात्रा थी । लल्लू भइया भी दसवीं कक्षा में थे । बस एक बार ही तो फेल हुए थे । आख़िर एक दिन उनकी मेहनत रंग लायी । लल्लू भइया ने कम्मो को फंसा लिया । अब लल्लू जी अपने गोल-मटोल शरीर वाले व्यक्तित्व पर अभिमान करने लगे तथा अपने साथियों के साथ किसी जीते हुए योद्धा की भांति हाथी जैसी मस्तानी चाल में चलते थे । कम्मो भी प्रसन्न थी उसे लल्लू के रूप में उसे एक व्यक्तिगत सहायक जो मिल गया था । वह उनसे अपना हर प्रकार का कार्य करवाती थी। लल्लू भइया भी कम्मो के प्रेमपाश में जकडे हुए उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते रहते। उन्होंने अपनी पढाई को संन्यास देकर कम्मो के गृह कार्य में अपना पूरा समय देना आरम्भ कर दिया था। कम्मो की सहेलियां कम्मो से ईर्ष्या भाव रखने लगीं थीं तथा अपने लिए भी लल्लू जैसे सुयोग्य बॉय-फ्रेंड खोजने का प्रयास करने लगीं थीं। लल्लू भइया कम्मो के प्रेम में खो कर प्रेम गीत लिखने लगे थे। एक दिन उनके पिता जी ने उनका लिखा प्रेम गीत पढ़ लिया और उनकी जमकर मरम्मत की। किन्तु लल्लू भइया के शरीर में भी राँझा,मजनूं व फरहाद जैसे महान प्रेमियों जैसा रक्त भरा था सो वे अपने प्रेम-पथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए। एक दिन कम्मो छत पर लल्लू जी द्वारा दिए गए उपहार संग खेल रही थी। तभी उसके पड़ोस में रहने वाली उसकी सखी ने उस उपहार को भेंट करने वाले के विषय में कम्मो से पूछा। कम्मो ने मासूमियत से सबकुछ बता दिया। यह सुनते ही वह लड़की भड़क गई तथा कम्मो से बोली कि वह पंडित होकर एक नीच जाति के लड़के से कैसे मित्रता कर सकती है? कम्मो को जैसे सदमा सा लग गया उसने गुस्से में लल्लू द्वारा दिया गया उपहार छत से नीचे फैंक दिया । उस दिन लल्लू भइया का पहली बार ह्रदय टूटा था । वह ऋग्वेद के दसवें मंडल में वर्णित पुरूष सूक्त में विराट द्वारा चार वर्णों की उत्पत्ति को कोस रहे थे । कितने दुखी थे वह उस दिन । मित्रों के लाख समझाने के बावजूद भी उनका दुःख कम नही हुआ । उन्होंने गुटखा खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया और नशे में पार्क में कई घंटे चक्कर खाकर पड़े कम्मो से अपना ध्यान बंटाने के लिए लल्लू जी मुंह-तोड़ खेल मुक्केबाजी सीखना प्रारंभ कर दिया। वह स्टेडियम में अत्यधिक परिश्रम करने लगे। यह क्रम भी अधिक दिनों तक न चल सका । एक दिन उनके साथी मुक्केबाज़ ने उन्हें रिंग में ऐसा धोया कि उनका मुंह टमाटर जैसा लाल कर दिया । कई दिन शर्म के मारे वह घर से नहीं निकले । अब उन्होंने कई कन्यायों से एक साथ नैना मिलाने आरंभ कर दिये परन्तु सभी ने उन्हें भाई बनाना ही पसंद किया । एक कन्या की माँ ने तो लल्लू जी के कालर पकड़कर दो चार झापड़ भी रसीद दिये। पर लल्लू भइया हिम्मत नहीं हारते थे। यदि कोई कन्या उन्हें गलती से भी देख लेती वह उससे राखी या थप्पड़ ही लेकर लौटते थे। समय बीता और उन्होंने एक छोटी-मोटी नौकरी ढूँढ ली। सड़कों पर दौड़ लगाते और बसों में धक्के खाते-२ उनका "कन्या पटाऊ अभियान" चालू रहा। उनके प्रत्येक मित्र के पास गर्ल-फ्रेंड थी। अब उनके लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था। किंतु कमबख्त किस्मत ऐसी थी कि कोई लड़की उन्हें घास नहीं डालती थी। अपनी इज्ज़त बचाने का उन्होंने एक उपाय खोजा। उन्होंने एक-दो कन्याओं को बहन बना लिया व कभी-२ उनके साथ घूमने-फिरने निकल जाते। जब कोई मित्र उन कन्यायों के विषय में पूछता तो वह आँख मार के मुस्करा देते। मित्र यह समझता कि वे सब लल्लू भइया कि गर्ल-फ्रेंड हैं। एक दिन उनके माता-पिता ने उनकी शादी पक्की कर दी। माँ-बाप कि चिंता जायज थी। क्योंकि लल्लू भइया कि उम्र काफ़ी हो गई थी तथा जो कोई भी रिश्ता लेकर आता था लल्लू जी के व्यक्तित्व को देख कर भाग खड़ा होता था। आख़िर एक लड़की का बाप एक दिन फंस ही गया। लल्लू जी के माँ-बाप ने चट मंगनी पट ब्याह की नीति अपनाई और उनके फेरे पडवा दिये। मित्रों ने पकड़कर हिलाया तो होश में आया। आशीर्वाद समारोह आरम्भ हो चुका था। हम सबने भी लल्लू भइया को बधाई दी व उनके संग कैमरे में कैद हो गए। मंच से उतरते हुए लल्लू जी के पिता जी पर दृष्टि गई तो उन्हें देखकर ऐसा लगा कि जैसे वे ईश्वर से कह रहे हों कि भला हो उसका जो उसने उनके लड़के की उम्र निकलने से पहले ही शादी करवा दी। लल्लू भइया को मुड़कर देखा तो प्रतीत हुआ कि वह भी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे। रात को घर लौटते हुए मैं और मेरे मित्र पहले और अब के लल्लू भइया में तुलना करते हुए उनके सुखी विवाहित जीवन की कामना कर रहे थे।

1.12.10

बेटियों की माँ-------- कहानी

कहानी--- बेटियों  की माँ
सुनार के सामने बैठी हूं । भारी मन से गहनों की पोटली पर्स मे से निकाल कर कुछ देर हाथ में पकड़े रखती हूं । मन में बहुत कुछ उमड़ घमुड़ कर बाहर आने को आतुर है । कितन प्यार था इन जेवरों से । जब कभी किसी शादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते । किसी राजकुमारी से कम नही लगती थी । खास कर लड़ियों वाला हार कालर सेट पहन कर गले से छाती तक सारा झिलमला उठता । मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादी व्याह हो तो सारे जेवर पहून । मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे । दिल में टीस उठती है ----- दबा लेती हू ---- लगता है आगे कभी व्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा -------- बनने संवरन की इच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जाएगी । सब हसरतें लम्बी सास खींचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हू । सामने बेटी बैठी है -------- अपने जेवर तुड़वाकर उसके लिए जेवर बनवाने है ----- क्या सोचेगी बेटी ----- मा का दिल इतना छोटा है ? अब मा की कौन सी उम्र है इतने भारी जेवर पहनने की ------------- अपराधी की तरह नज़रें चुराते हुए सुनार से कहती हू ‘ देंखो जरा, कितना सोना है ? वो सारे जेवरों को हाथ में पकड़ता है - उल्ट-पल्ट कर देखता है - ‘इनमें से सारे नग निकालने पड़ेंगे तभी पता चलेगा ?‘‘
टीस और गहरी हो जाती है --------इतने सुन्दर नग टूट कर पत्थर हो जाएगे जो कभी मेरे गले में चमकते थे । शायद गले को भी यह आभास हो गया है -------बेटी फिर मेरी तरफ देखती है ----- गले से बड़ी मुकिल से धीमी सी आवाज़ निकलती है ---हा निकाल दो‘ ।
उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी या अपने सपनों में खोई हुई मा की आखें में देखने का समय ही नही था । शायद उसकी आखों में वही कुछ था जो आज मेरी आखें में है, दिल में है ---- शरीर के रोम-रोम में है । अपनी मा का दर्द कहा जान पाई थी । सारी उम्र मा ने बिना जेवरों के काट दी । वो भी तीन बेटियों की शादी करते-करते बूढ़ी हो गई थी । अब बुढ़े आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं । बच्चे कहा समझ पाते हैं ---- मैं भी कहा समझ पाई--- इसी परंपरा में मेरी बारी है फिर कैसा दुख ----मा ने कभी किसी को आभास नहीं होने दिया, उन्हें शुरू से कानों में तरह-तरह के झूमके, टापस पहनने का शौक था मगर छोटी की शादी करते-करते सब कुछ बेटियों को दे दिया । फिर गृहस्थी के बोझ में फिर कभी बनवाने की हसरत घरी रह गई । किसी ने इस हसरत को जानने की चेष्टा भी नही की । औरत के दिल में गहनों की कितनी अहमियत होती है ---- यह तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उन्हें सोने के टापस मिले । मा के चेहरे का नूर देखते ही बनता था ‘देखा, मेरे दोहते ने नानी की इच्छा पूरी कर दी‘‘ वो सबसे कहती ।
धीरे-धीरे सब नग निकल गए थे । गहने बेजान से लग रहे थे । शायद अपनी दुर्दाशा पर रो रहे थे --------------‘ अभी इन्हें आग में गलाना पड़ेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना निकलेगा ।‘‘
‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्‌ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।
उसने गैस की फूकनी जलाई । एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा, उसमें उसने गहने डाले और फूकनी से निकलती लपटों से गलाने लगा । लपलपाटी लपटों से सोना धधकने लगा । एक इतिहास जलने लगा ---- टीस और गहरी हुई । लगा जीवन में अब कोई चाव ----- नही रह गया है ---- एक मा‘-बाप के बेटी के लिए देखे सपनों का अन्त हो गया और मेरे मा- बाप के बीच उन प्यारी यादों का अन्त हो गया ----- भविष्य में अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हू तो ठेस लगती है । मेरी तीन समघनें और मैं एक तरफ खड़ी बातें कर रही है । इधर-उधर लोग खाने पीने में मस्त है । कुछ कुछ नज़रें मुझे ढूंढ रही है । थोड़ी दूर खड़ी औरतें बातें कर रही है । एक पूछती है ‘लड़की की मा कौन सी है ? ‘‘दूसरी कहती है ‘अरे वह जो पल्लू से अपने गले का आर्टीफिशल नेकलेस छुपाने की कोशिश कर रही है ।‘‘ सभी हस पड़ती हैं । समघनों ने शायद सुन लिया है ----- उनकी नज़रें मेरे गले की तरफ उठी --------- क्या है उन आखों में जो मुझे कचोट रहा है ---- हमदर्दी ----- दया--- नहीं--नहीं व्यंग है, बेटिया जन्मी हैं तो सजा तो मिलनी ही थी ----- उनके चेहरे पर लाली सी छा जाती है । बेटों का नूर उनके चेहरे से झलकने लगता है । अन्दर ही अन्दर ग‌र्म से गढ़ी जा रही हूं, क्यों ? क्या बेटियों की मा होना गुनाह है ---- सदियों से चली आ रही इस परंपरा से बाहर निकल पाना कठिन है । आखें भर आती हैं । साथ खड़ी औरत कहती है बेटियों को पराए घर भेजना बहुत कठिन है और मुझे अन्दर की टीस को बाहर निकालने का मौका मिल जाता है । एक दो औरतें और सात्वना देती है । ---- आसुयों को पोंछकर कल्पनाओं से बाहर आती हू । मैं भी क्या उट पटाग सोचने लगती हू --- अभी तो देखना है कि कितना सोना है । शायद उसमें थोड़ा सा मेरे लिये भी बच जाए । सुनार ने गहने गला कर सोने की छोटी सी डली मेरे हाथ पर रख दी । मुटठी में भींच कर अपने को ढाढस बंधाती हू । इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास समाया हुआ था । तोल कर हिसाब लगाती हू तो बेटी के जेवर भी इसमें पूरे नही पड़ते है ------ मेरा सैट कहा बनेगा । फिर सोचती हू सास का सैट रहने देती हू ---- बेटी को इतना पढ़ा लिखा दिया है एक महीने की पगार में सैट बनवा देगी । मुझे कौर बनावाएगा ? मगर दूसरे ही पल बेटी का चेहरा देखती हू । सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पड़ेंगे कि तुम्हारे मा-बाप ने दिया क्या है------ नहीं नही मन को समझाती ह अब जीवन बचा ही कितना है । बाद में भी इन बेटियों का ही तो है । एक चादी की झाझर बची थी । उस समय - समय भारी घुघरू वाली छन छन करती झाझरों का रिवाज था ----- नई बहू की झाझर से घर का कोना कोना झनझना उठता । साढ़े तीन सौ ग्राम की झाझर को पुरखों की विरासत समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नही पड़ रहे थे दिल कड़ा कर उसे भी सुनार को दे दिया । सुनार के पास तो यू पुराने जेवर आधे रह जाते है ------- झाझर को एक बार पाव में डालती हू -------------- बहुत कुछ आखें में घूम जाता है । बरसों पहले सुनी झकार आज भी पाव में थिरकन भर देती है । मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज बेसुरी लग रही है ---शायद आज मन ठीक नही है । उसे भी उतार कर सुनार को दे देती हू ।
सुनार से सारा हिसाब किताब लिखवाकर गहने बनने दे देती हू । उठ कर खड़ी होती हू तो लड़खडार जाती हू । जैसे किसी ने जान निकाल दी हो । बेटी बढ़कर हाथ पकड़ती है---- डर जाती हू कहीं बेटी मेरे मन के भाव ने जान ले । उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।
सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू । ाायद बाकी बेटियों की मायें भी ऐसा ही सोचती होंगी । आज पहली बार लगता है मेरी आधुनिक सोच कि बेटे-बेटी में कोई फरक नहीं है , चूर-चूर हो जाती है --- जो चाहते हैं कि समाज बदले बेटी को सम्मान मिले --- वो सिर्फ लड़की वाले हैं । कितने लड़के वाले जो कहते है दहेज नहीं लेंगे ? वल्कि वो तो दो चार नई रस्में और निकाल लेते है । उन्हें तो लेने का बहाना चाहिए । लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर । लगता है तीसरी बेटी की शादी पर बहुत बूढ़ी हो गई हू ----- शादियों के बोझ से कमर झुक गई है ----- खैर अब जीवन बचा ही कितना है । आगे बेटियां कहती रहती थी ‘मा यह पहन लो, वो पहन लो---- ऐसे अच्छी लगती है -----‘अब बेटिया ही चली गई तो कौन कहेगा । कौन पूछेगा ----मन और भी उदास हो जाता है । रीता सा मन----रीता सा बदन- लिए हफते बाद सुनार के यहा फिर जाती हू ---- बेटी साथ है ---- बेटी के चेहरे पर चमक देखकर कुछ सकून मिलता है ।
जैसे ही सुनार ने गहने निकाल कर सामने रखे, बेटी का चेहरा खिल उठता है ---- उन्हें बड़ी हसरत से पहन-पहन कर देखती है और मेरी आखों के सामने 35 वर्ष पहले का दृष्य घूम गया--------मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है -----मैं वही तो कर रही जो मेरी मा ने किया ---बेटी की तरफ देखती हू उसकी खूशी देखकर सब कुछ भूल जाती ---- अपनी प्यारी सी राजकुमारी बेटी से बढ़कर तो नहीं हैं मेरी खुायॉं -----मन को कुछ सकून मिलता है ----जेवर उठा कर चल पड़ती हॅ बेटी की ऑंखों के सपने देखते हुूए । काष ! मेरी बेटी को इतना सुख दे, इतनी शक्ति दे कि उसको इन परंपराओं को न निभाना पड़े ----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- अपनी बेटी के लिए----मेरी ऑंखों में चमक लौट आती है -----पैरों की थिरकन मचलने लगती है --------------।

सामाजिक बंधन- तारकेश्वर गिरी.

सामाजिक बंधन एक ऐसा बंधन हैं, जो न तो किसी तरह का या किसी देश का संविधान हैं और ना ही कानून। बल्कि ये एक ऐसी परम्परा हैं जो सदियों से चली आ रही हैं।
परंपरा भी ऐसी कि अलग-अलग। एक तरह कि नहीं। अगर हम बात हिंदुस्तान कि ही करे तो पुरे हिंदुस्तान मैं सैकड़ो तरह कि सामाजिक मान्यताएं हमें मिल जाएँगी। सामाजिक मान्यताएं धार्मिक रीती रिवाज को भी जन्म देती हैं और समाज को एक सूत्र में बांधने का भी काम करती हैं।
धार्मिक मान्यताएँ कि तरफ अगर हम अपना ध्यान करें तो उसमे भी हमें काफी भिन्नता दिखाई देती हैं, जैसे कि पूजा पद्धति को ही ले ले, बंगाल का हिन्दू वर्ग काली कि पूजा करता हैं तो उत्तर भारत के लोग दुर्गा और वैष्णव देवी कि पूजा करता हैं, उत्तर भारत के लोग कृष्ण और राम कि पूजा करते हैं तो दक्षिण भारत के लोग वेंकटेश और जगन्नाथ जी कि उपासना करते हैं, ये उपासना पद्धति आज जरुर धार्मिक बन गई हैं मगर किसी ज़माने में सिर्फ सामाजिक तरीका ही था।
शादी -विवाह के तरीके भी कुछ ना कुछ भिन्न हो ते हैं, हिमाचल के कुछ आदिवाशी कबीले में एक प्रथा हैं कि चाहे वो कितने ही भाई क्यों ना हो, शादी सिर्फ बड़े भाई कि ही होगी और पत्नी वो सबकी बनेगी( महाभारत काल में द्रोपदी कि तरह)। राजस्थान के आदिवाशी कबीलों में शादी से पहले लड़का एक साल तक लड़की के घर रहता हैं और अगर वो एक साल तक लड़की के घर का खर्च उठा सकता हैं तभी शादी कि बात आगे बढ़ेगी वर्ना ख़त्म।
और भी ना जाने कितनी परम्पराएँ जन्म देती हैं एक राष्ट को जिसे हम भारत वर्ष या हिंदुस्तान कहते हैं। इतनी सारी सामाजिक भिन्नताएं होने के बावजूद भी हिंदुस्तान एक जुट हैं।
ये मेरा पहला लेखा हैं नेट प्रेस के लिए। लेख लम्बा ना हो जाय इसलिए फिर कभी।

प्रेमिका की जलती चिता में कूदकर प्रेमी ने दी जान

सिरसा: हरियाणा के सिरसा में प्रेमिका की जलती चिता में कूदकर एक 17 साल के लड़के ने जान दे दी। लड़की के परिवार वालों को इस प्रेम संबंध पर आपत्ति थी और घर वालों के इस व्यवहार से आजिज होकर लड़की ने खुदकुशी कर ली थी।
यह घटना सिरसा जिले के रोड़ी गांव की है। वीरपाल कौर 9वीं में पढ़ती थी और वह अपने ही स्कूल के 11वीं में पढ़नेवाले बिट्टू सिंह से प्यार करती थी। बिट्टू पंजाब के मालसिंहवाला गांव का रहनेवाला था और वह यहां पर अपने मामा के साथ रहता था। वीरपाल और बिट्टू पिछले 2 साल से एक दूसरे को प्यार करते थे।
बिट्टू से रिलेशनशिप की बात जब वीरपाल के घर वालों को पता चली, तब उन्होंने उसको जबरदस्त छाड़ लगाई। इससे दुखी होकर पिछले 26 नवंबर को वीरपाल ने अपनी बॉडी पर किरोसीन छिड़क ली और आग लगा ली। इसके बाद उसे सिरसा हॉस्पिटल ले जाया गया, जहां पिछले सोमवार को उसकी मौत हो गई।
जैसे ही बिट्टू को वीर पाल के मरने की खबर मिली, वह परेशान हो गया। इसके बाद वह वहां पहुंचा जहां पर वीरपाल के परिवार वाले उसका अंतिम संस्कार कर रहे थे। जांच से पता चला कि वह सोमवार से गायब था। उसकी साइकल श्मशान घाट के पास मिली है। पता चला है कि वह वीरपाल की चिता के पास उस समय गया, जब सब लोग वहां से लौट आए थे।
रोड़ी थाना के सब इंस्पेक्टर और केस के जांच अधिकारी बच्चन सिंह ने कहा कि बिट्टू जैसे ही वहां पहुंचा, उससे रहा नहीं गया। वह अपनी प्रेमिका की जलती चिता में कूद गया। बिट्टू की मौत के बारे में लोगों को तब पता चला, जब चिता में दो लोगों की जली हुई बॉडी के अंश के दिखे।
इसीबीच सिरसा के एसपी सतिन्दर गुप्ता ने कहा यह ऑनर किलिंग का मामला नहीं है। पहली नजर में यह आत्महत्या का केस लगता है। हमने बॉडीज को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया है

30.11.10

उल्‍टे अक्षरों से लिख दी भागवत गीता

मिरर इमेज शैली में कई किताब लिख चुके हैं पीयूष : आप इस भाषा को देखेंगे तो एकबारगी भौचक् रह जायेंगे. आपको समझ में नहीं आयेगा कि यह किताब किस भाषा शैली में लिखी हुई है. पर आप ज्यों ही शीशे के सामने पहुंचेंगे तो यह किताब खुद--खुद बोलने लगेगी. सारे अक्षर सीधे नजर आयेंगे. इस मिरर इमेज किताब को दादरी में रहने वाले पीयूष ने लिखा है. इस तरह के अनोखे लेखन में माहिर पीयूष की यह कला एशिया बुक ऑफ वर्ल् रिकार्ड में भी दर्ज है. मिलनसार पीयूष मिरर इमेज की भाषा शैली में कई किताबें लिख चुके हैं. उनकी पहली किताब भागवद गीता थी. जिसके सभी अठारह अध्यायों को इन्होंने मिर इमेज शैली में लिखा. इसके अलावा दुर्गा सप्, सती छंद भी मिरर इमेज हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा है. सुंदरकांड भी अवधी भाषा शैली में लिखा है. संस्कृत में भी आरती संग्रह लिखा है. मिरर इमेज शैली में हिन्दी-अंग्रेजी और संस्कृत सभी पर पीयूष की बराबर पकड़ है. 10 फरवरी 1967 में जन्में पीयूष बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. डिप्लोमा इंजीनियर पीयूष को गणित में भी महारत हासिल है. इन्होंने बीज गणित को बेस बनाकर एक किताब 'गणित एक अध्ययन' भी लिखी है. जिसमें उन्होंने पास्कल समीकरण पर एक नया समीकरण पेश किया है. पीयूष बतातें हैं कि पास्कल एक अनोखा तथा संपूर्ण त्रिभुज है. इसके अलावा एपी अधिकार एगंल और कई तरह के प्रमेय शामिल हैं. पीयूष कार्टूनिस् भी हैं. उन्हें कार्टून बनाने का भी बहुत शौक है. piyushdadriwala 09654271007

28.11.10

बच्चों व बड़ों के परिश्रम से सफल रही चित्रकला प्रतियोगिता-२०१०

बच्चों के अपने खास दिन बाल दिवस(१४ नवंबर,२०१०) पर शोभना वैलफेयर सोसाइटी रजि. द्वारा एंड्रयूज गंज स्लम सोसाइटी रजि.(आर्थिक नहीं) के सहयोग से राम प्रसाद बिस्मिल पार्क, एंड्रयूज गंज, नई दिल्ली में चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन किया गया. जिसमें लगभग २०० बच्चों ने बढ़-चढ कर भाग लिया. इस प्रतियोगिता के मुख्य अतिथि थे सूचना भवन के तकनीकी निदेशक श्री एम. नजीरुद्दीनविशेष अतिथि थीं क्षेत्र की निगम पार्षद श्रीमती सविता गुप्ता. चित्रकला प्रतियोगिता के पश्चात रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया गया.जिसका शुभारंभ श्री विनोद बोहोट के सुरीले गीतों से हुआ. हास्य कलाकार श्री गुरजिंदर सैनी ने विभिन्न प्रकार की आवाजें निकाल कर बच्चों को खूब हँसाया. श्री राजेंद्र कलकल (कवि व इस प्रतियोगिता के जज) तथा श्री रंजीत चौहान ने अपनी-२ रचनाओं के माध्यम से सभी का मनोरंजन किया. इस पूरे कार्यक्रम के प्रबंधक व दिल्ली पुलिस के हास्य कवि श्री सुमित प्रताप सिंह ने अपनी चिर-परिचित शैली में कविता पाठ करके बच्चों व बड़ों को आनंदित किया. सी.एन.ई.बी. चैनल द्वारा इस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण किया गया.रंगारंग कार्यक्रम के पश्चात सभी विजेताओं को पुरस्कार व सभी बच्चों को रिफ्रेशमेंट दिया गया. शोभना वेलफेयर सोसाइटी रजि. की अध्यक्षा श्रीमती शोभना तोमर ने इस प्रतियोगिता को सफल बनाने के लिए सभी अतिथिगणों , सभी स्वयंसेवकों व एंड्रयूज गंज स्लम सोसाइटी को धन्यवाद दिया व सभी बच्चों को खूब पढ़ने व आगे बढ़ने को प्रेरित किया.

27.11.10

ब्रिटेन में कम होते जा रहे रोजगार के मौके.

ब्रिटेन में आर्थिक मंदी और आर्थिक पुनरुद्धान में सुस्ती के कारण रोजगार के मौके कम होते जा रहे हैं। इस के मद्देनजर ब्रिटिश गृहमंत्री टेरेसा मेए ने हाल ही में जानकारी दी कि सरकार ने योजना बनाई है कि अगले साल अप्रैल से ब्रिटेन में नौकरी पाने के लिए आने वाले विदेशियों की संख्या पर और अधिक सख्त नियंत्रण लगना शुरू होगा।

ब्रितानी राजकीय सांख्यकी ब्यूरो के हालिया आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 में नौकरी पाने के लिए ब्रिटेन आए विदेशियों की संख्या 1 लाख 90 हजार से ज्यादा थी,जो 2008 से करीब 30 हजार कम है। सरकारी योजना के अनुसार ब्रिटेन में पढाई पूरी करने के बाद 2 सालों के प्रैक्टिस के लिए छात्रों को वीजा देने पर भी सख्त नियंत्रण लगाया जाएगा।

मेरी ट्रेड फेयर यात्रा

प्रगति मैदान में ट्रेड फेयर आरंभ हो चुका है यह समाचार जनसंपर्क साधनों व जासूस मित्रों द्वारा मेरे कानों तक पहुँच चुका था. कई बार मेला देखने का विचार किया था किन्तु कोई न कोई काम होने के कारण नहीं जा सका. माताश्री कई दिनों से व्यापार मेले में जाने के लिए कह चुकी थीं. मैंने भी सोचा कि जब श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को अपने कन्धों पर डोली लटकाकर तीर्थयात्रा करवा डाली तो मैं क्या अपनी मैया को ट्रेड फेयर में भी नहीं घुमा सकता. इस प्रकार एक दिन दृढ निश्चय कर माता श्री को अपनी फटफटिया पर बिठाकर मैं ट्रेड फेयर की यात्रा करवाने चल पड़ा. अब आपके मन में ये विचार कौंध रहा होगा कि श्रवण कुमार की भांति मैं माता-पिता दोनों को एक साथ ट्रेड फेयर की यात्रा पर क्यों नहीं ले गया. तो हुज़ूर इसका भी कारण है. मेरे पिता श्री तो दूसरों (जेबकतरों,चोरों व अन्य अपराधी) को यात्रा(जेल की) करवाते हैं फिर मैं उनका तुच्छ पुत्र ट्रेड फेयर की यात्रा के लिए उनके इस सुकार्य में कैसे बाधा ( डालने का साहस कर सकता हूँ. कुछ समय के पश्चात मैं व माताश्री प्रगति मैदान पहुँच गए. पार्किंग में अपनी फटफटिया को पटक कर हम ट्रेड फेयर के प्रवेशद्वार पर पहुंचे. वहाँ हमारा स्वागत पुलिस में कार्यरत एक महिला द्वारा बुरी तरह चिल्लाकर किया गया. प्रवेश द्वार से भीतर जाने के उपरान्त जब मैंने माता श्री से पुलिसवाली द्वारा इस प्रकार अभद्रता प्रकट करने पर खिन्नता प्रकट की तो माता श्री ने इसका कारण बताया कि वह शायद अपने घर में कोई परेशानी झेल रही होगी अथवा अपनी ड्यूटी से तंग होगी. मैंने कहा कि फिर सरकार पर अहसान क्यों कर रही है जब बस की नहीं है तो नौकरी क्यों नहीं छोड़ देती. खैर हम आगे बढे. मैं आज्ञाकारी पुत्र की भांति माताश्री के पीछे-२ चला जा रहा था. सर्वप्रथम हम दिल्ली के पांडाल में घुसे. अत्यधिक भीड़ थी.कुछ समय बाद ऐसा लगा कि दम घुट जाएगा. बड़ी मुश्किल से हम बाहर निकले. अंदर क्या-क्या देखा कुछ भी याद न रहा. बाहर निकल माता श्री ने इलेक्ट्रोनिक्स सामान के पांडाल की और इशारा किया. हम वहाँ की ओर चल पड़े. नए-२ प्रकार के सामानों के दर्शन हुए.वहाँ चीन के बने सस्ते व घटिया सामान पर जनता टूट पड़ रही थी. शायद उन्हें इसका अनुमान न था कि इन सामानों से हुई आय से चीन भारत के जवानों के सीने छलनी करने के लिए गोलियाँ बनाएगा. इसके पश्चात हम खादी के पांडाल की ओर चल पड़े. सामने देखा तो पुलिसवाले कुछ लड़कों को पीटते हुए ला रहे थे. पता करने पर ज्ञात हुआ कि वे लड़की छेड़ रहे थे. शायद लड़की छेड़ते समय वे यह भूल गए थे कि जिस नारी जाति का वो अपमान कर रहे थे उसी की कोख से ही उनका जन्म हुआ था. खादी भण्डार में भिन्न-२ प्रकार के खादी वस्त्रों से भेंट हुई. यदि महात्मा गाँधी जीवित होते तो वो भी खादी के इतने सारे रूप देखकर दंग रह जाते.वहाँ से निकले तो सामने पाकिस्तान का पांडाल दिखा. हमने सोचा कि चलो इस मुएँ पाकिस्तानी पांडाल की भी खैर-खबर ले ली जाये.भीतर बहुत भीड़ थी. कोई वहाँ का सामान लेने का इच्छुक न था.ऐसा लगता था कि जैसे सभी भारतीय मात्र पाकिस्तानियों को डराने के एकमात्र उद्देश्य से ही वहाँ पहुंचे थे. यह भारतीयों की पाकिस्तानी व्यापारियों को घूरती आँखों को देखकर प्रतीत हो रहा था. पूरा पांडाल डर के मारे थर-२ काँप रहा था.वहाँ से निकलकर हमने उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश की संस्कृति देखी. राजस्थान, पंजाब तथा दक्षिण भारतीय राज्यों को भी निकट से जाना. अब हम बिहार के पांडाल में थे. वहाँ से माता श्री ने कुछ चूड़ियाँ खरीदीं.बिहार के व्यंजनों का स्वाद लेने की इच्छा हुई. हमने लिट्टी चोखा खाया किन्तु उसमें हमने धोखा ही खाया क्योंकि वह बिलकुल बेस्वाद था.हम थोड़ा और आगे बड़े तो सामने हिमाचल प्रदेश का पांडाल था. मेरे मना करने के बावजूद माता श्री मुझे साथ ले गयीं. वहाँ आनंद आया.हिमाचल की चाय मजेदार थी.जी किया कि काश! ऐसी चाय सदैव पीने को मिले.रात होनेवाली थी. ठण्ड भी बढ़ गयी थी. मैं माता श्री को संग लेकर अपनी फटफटिया पर सवार हो घर की ओर निकल पड़ा. माता श्री अत्यधिक प्रसन्न थीं व ट्रेड फेयर फिर से(अगले वर्ष) देखने की इच्छा जता रही थीं.