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14.6.10

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-5

आईये आज की चर्चा की शुरुआत करते हैं सामाजिक , सांस्कृतिक और एतिहासिक महत्व से संवंधित विविध विषयों पर केंद्रित कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट से ।

" ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम है। पर सार्वजनिक रूप से अपने को अभिव्यक्त करना आप पर जिम्मेदारी भी डालता है। लिहाजा, अगर आप वह लिखते हैं जो अप्रिय हो, तो धीरे धीरे अपने पाठक खो बैठते हैं।" यह कहना है श्री ज्ञान दत्त पांडे जी का मानसिक हलचल के २६ जनवरी के पोस्ट अपनी तीव्र भावनायें कैसे व्यक्त करें? पर व्यक्त की गई टिपण्णी में ।

वहीं उड़न तश्तरी .... के १३ फरवरी (प्रेम दिवस ) के पोस्ट मस्त रहें सब मस्ती में... में श्री समीर भाई ने बहुत ही मार्मिक बोध कथा का जिक्र किया है कि" एक साधु गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार डंक मार कर छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया..........!"

जबकि २९ मार्च के घुघूतीबासूती पर प्रकाशित पोस्ट गाय के नाम पर ही सही में पॉलीथीन की थैलियाँ हमारे पर्यावरण के लिए कितना घातक हैं यह महसूस कराने कि विनम्र कोशिश की गई है जो प्रशंसनीय है ।

सारथी के २२ अप्रैल के एक पोस्ट अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले !">अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले ! में श्री शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारगर्भित विचारों को पढ़ने के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि सचमुच पश्चिमी सभ्यता के प्रति हमारा रुझान हमारी संस्कृति को कलंकित कर रहा है । शास्त्री जी कहते हैं कि -"पिछले कुछ सालों से भारत में विदेशी पत्रिकाओं एवं सीडी की बाढ आई हुई है. इसका असर सीधे सीधे हमारी युवा पीढी पर हो रहा है. इसके सबसे अच्छे दो नमूने हैं “प्रोग्रेस” के नाम पर भारतीय जवानों को शराबी बनाने की साजिश (पब संस्कृति) और बाबा-बाल्टियान दिवस (वेलेन्टाईन) जैसे मानसिक-व्यभिचार पर आधारित त्योहार ।"

क्वचिदन्यतोअपि..........! के २४मईके पोस्ट आकाश गंगा को निहारते हुए .... में श्री अरविन्द मिश्र विजलिविहिन गाँव का बहुत ही सुन्दर तस्वीर प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं ।

वहीं प्रेम ही सत्य है के ३० मई के पोस्ट समझदार को इशारा काफी पर मीनाक्षी जी मानवीय संवेदनाओं को बड़े ही सहज ढंग से अभिव्यक्त करती दिखायी देती हैं ।

जबकि रंजना भाटिया जी के ब्लॉग कुछ मेरी कलम से के २५ जून के पोस्ट कविता सुनाने के लिए पैसे :) पर सन १९६० का एक सच्चा वाकया सुनाती हुयी कवियित्री रंजू कहती है-"यह किस्सा ।सन १९६० के आस पास की बात है दिल्ली के जामा मस्जिद के पास उर्दू बाजार का .यहाँ एक दुकान थी मौलवी सामी उल्ला की ॥जहाँ हर इतवार को एक कवि गोष्ठी आयोजित की जाती ॥कुछ कवि लोग वहां पहुँच कर अपनी कविताएं सुनाया करते सुना करते और कुछ चर्चा भी कर लेते सभी अधिकतर शायर होते कविता लिखने ,सुनाने के शौकीन ,सुनने वाला भी कौन होता वही स्वयं कवि एक दूजे की सुनते , वाह वाह करते और एक दूजे को दाद देते रहते..........!"२५ अप्रैल २००९ को प्रकाशित आलेख पर अचानक जाकर निगाहें ठिठक जाती है , जिसका शीर्षक है देश का बीमा कैसे होगा ? इस आलेख में एक सच्चे भारतीय की अंत: पीडा से अवगत हुआ जा सकता है ।

दालान में प्रकाशित इस आलेख की शुरुआत इन शब्दों से हुयी है -"देश का बीमा कैसे होगा ? किसके हाथ देश सुरक्षित रहेगा ? इतिहास कहता है - किस किस ने लूटा ! जिस जिस ने नहीं लूटा - वोह इतिहास के पन्नों से गायब हो गया ! गाँधी जी , राजेन बाबु , तिलक इत्यादी को अब कौन पढ़ना और अपनाना चाहता है ?"

इसी क्रम में दूसरा आलेख जो पढ़ने के लिए मजबूर करता है वह है कभी गिनती से जामुन खरीदा है ..... जी हाँ , ममता टी वी पर ३० मार्च को प्राकशित इस आलेख में ममता जी कहती है कि "आपको गिनती से जामुन खरीदने का अनुभव हुआ है कि नही हम नही जानते है पर हमें जरुर अनुभव हुआ है । गिनती से जामुन खरीदने का अनुभव हमें हुआ है और वो भी गोवा में ।"ममता टी वी एक गृहस्वामिनी की कलम से निकले सुझाव, वर्णन, चित्र एवं अन्य आलेख से संवंधित ऐसा चिट्ठा है जिसके कुछ पोस्ट पढ़ते हुए आप अपने दर्द को महसूस कर सकते हैं ।

इसी क्रम में तीसरा आलेख जो पढ़ने के लिए मजबूर करता है वह है मार्केटिंग का हिंदी फंडा यह आलेख आशियाना का १५ मई २००९ का पोस्ट है , जिसमे बताया गया है कि "एक लड़के को सेल्समेन के इंटरव्यू में इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी।" हिन्दुस्तान में हिन्दी का ऐसा दुर्भाग्य? सचमुच निंदनीय है । यह ग़ाज़ियाबाद निवासी रवीन्द्र रंजन का निजी चिट्ठा है और अपने पञ्च लाईन से आकर्षित करता है, जिसमें कहा गया है कि कुछ कहने स‌े बेहतर है कुछ किया जाए, जिंदा रहने स‌े बेहतर है जिया जाए.... !

इसी क्रम में आगे जिस आलेख पर नज़र जाती है वह है - आज भी हर चौथा भारतीय भूखा सोता हैधनात्मक चिन्तन पर २१ अगस्त को प्रकाशित पोस्ट के माध्यम से ब्लोगर ने कहा है कि जब भारत विश्व शक्ति बनकर उभरने का दावा कर रहा है,ऐसे समय देश में हर चौथा व्यक्ति भूखा है। भारत में भूख और अनाज की उपलब्धता पर भारत के एक ग़ैर-सरकारी संगठन की ताज़ा रिपोर्ट को प्रस्तुत किया गया है इस ब्लॉग पोस्ट में ।

फुरसतिया" के २३ सितंबर के एक पोस्ट मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन पढ़ते हुए जब हम अनायास ही श्री अनूप शुक्ल जी के दोहे से रू-ब-रू होते हैं तो होठों से ये शब्द फ़ुट पड़ते है - क्या बात है ...! एक बानगी देखिये- "मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन, आलू बीस के सेर हैं, नीबू पांच के तीन।
चावल अरहर में ठनी,लड़ती जैसे हों सौत, इनके तो बढ़ते दाम हैं, हुई गरीब की मौत।"


-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

13.6.10

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-4

वहीं मँहगाई के सन्दर्भ में हवा पानी पर प्रकाशित एक कविता पर निगाहें जाकर टिक जाती हैं जिसमें कहा गया है कि हमनें इस जग में बहुतों से जीतने का दावा किया पर बहुत कोशिशों के बाद भी हम मँहगाई से जीत नहीं पाए। वहीं कानपुर के सर्वेश दुबे अपने ब्लॉगमन की बातेंपर फरमाते हैं-कुछ समय बाद किलो में, वस्तुएँ खरीदना स्वप्न हो जाएगा, 10 ग्राम घी खरीदने के लिए भी बैंक सस्ते दर पर कर्ज उपलब्ध कराएगा। नमस्कार में प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव की कविता छपी है जिसमें कहा गया है कि-मुश्किल में हर एक साँस है, हर चेहरा चिंतित उदास है। वे ही क्या निर्धन निर्बल जो, वे भी धन जिनका कि दास है। फैले दावानल से जैसे, झुलस रही सारी अमराई। घटती जातीं सुख सुविधाएँ, बढ़ती जाती है मँहगाई।
आमजन से मेरा अभिप्राय उन मजदूरों से है जो रोज कुआँ खोदता है और रोज पानी पीता है। मजदूरों की चिंता और कोई करे या करे मगर हमारे बीच एक ब्लॉग है जो मजदूरों के हक और हकूक के लिए पूरी दृढ़ता के साथ बिगुल बजा रहा है। जी हाँ वह ब्लॉग है बिगुल। यह ब्लॉग अपने आप को नई समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक मानता है और एक अखबार के मानिंद मजदूर आंदोलनों की खबरे छापता है यह ब्लॉग तमाम मजदूर आंदोलनों की खबरों से भरा-पड़ा है। चाहे वह गोरखपुर में चल रहे मजदूर आन्दोलन की खबर हो अथवा गुड़गाँव या फिर लुधियाना का मामला, पूरी दृढ़ता के साथ परोसा गया है।
सामाजिक सरोकारों के प्रति दृढ़ता के साथ अग्रणी दिखा लोकसंघर्ष ब्लाग। इस ब्लाग में मुहम्मद शुऐब का ज्वलंत मुद्दों पर जनआकांक्षाओं के प्रति समर्पित आलेख जवाबदेही ध्यान आकृष्ट करता रहा-पूरे वर्ष भर और लोकसंघर्ष में ‘सुमन‘ के लेख कुछ ज्यादा तीखे दिखे। कुल मिलाकर यह ब्लाग अपने जन सरोकारों को प्रस्तुत करने की दिशा में सर्वाधिक चर्चित रहा।
वहीं संवाद डाट काम के माध्यम से भी जाकिर अली रजनीश ने सम्मान की एक नई परम्परा की शुरूआत की। उनका सामुदायिक ब्लाॅग तस्लीम लगातार अंधविश्वास के घटाटोप अंधकार को नष्ट करता दिखाई दिया। साथ हीं साइंस ब्लॉगर एसोसिएशन और लखनऊ ब्लॉगर एसोसिएशन ने ब्लॉग जगत में चर्चित साझा मंच बनने की दिशा में अपने महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए।
आइए अब चलते हैं एक ऐसे ब्लॉग पर जहाँ होती है प्राचीन सभ्यताओं की वकालत। जहाँ बताया गया है कि प्रारम्भ में आदिमानव ने संसार को कैसे देखा होगा? गीजा का विशाल पिरामिड 20 साल में एक लाख लोगों के श्रम से क्यों बना? फिलिपीन के नए लोकसभा भवन के सामने मनु की मूर्ति क्यों स्थापित की गई है? ऐसे तमाम रहस्यों की जानकारी आपको मिलेगी इस ब्लॉग ‘‘मेरी कलम से‘‘ पर।
इस ब्लॉग के दिनाँक 05.04.2009 के प्रकाशित आलेख-‘‘यूरोप में गणतंत्र या फिर प्रजातंत्र ने मुझे बरबस आकर्षित किया और मैं इस ब्लॉग को पढ़ने के लिए विवश हो गया। इस आलेख में बताया गया है कि-यूरोप के सद्यः युग में गणतंत्र (उसे वे प्रजातंत्र कहते हैं) के कुछ प्रयोग हुए हैं। इंग्लैंड में इसका जन्म हिंसा से और फ्रांस में भयंकर रक्त-क्रांति से हुआ। कहा जाता है, फ्रांस की राज्य-क्रांति ने अपने नेताओं को खा डाला, और उसी से नेपोलियन का जन्म हुआ, जिसने अपने को ‘सम्राट‘ घोषित किया, और इसी में हिटलर, मुसोलिनी एवं स्टालिन सरीखे तानाशाहों का जन्म हुआ। कैसे उत्पन्न हुआ यह प्रजातंत्र का विरोधाभास?
इसमें यह भी उल्लेख है कि-व्यक्ति से लेकर समष्टि तक एक सामाजिक-जीवन खड़ा करने में भारत के गणतंत्र के प्रयोग संसार को दिशा दे सकते हैं। कुटुंब की नींव पर खड़ा मानवता का जीवन शायद ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ को चरितार्थ कर सके।
प्राचीन सभ्यताओं की वकालत के बाद आइए चलते हैं सार्वजनिक जीवन से जुड़े व्यवहारों-लोकाचारों में निभाती, टूटती मानवीय मर्यादाओं पर बेबाक टिप्पणी करने वाले और कानूनी जानकारियाँ देने वाले दो महत्वपूर्ण ब्लॉग पर। एक है तीसरा खम्भा और दूसरा अदालत
ऐसा ही एक आलेख तीसरा खम्भा ब्लॉग पर मेरी नजरों से दिनाँक 31.05.2009 को गुजरा। आलेख का शीर्षक था आरक्षण से देश गृहयुद्ध की आग में जलने न लगे। इसमें एक सच्चे भारतीय की आत्मिक पीड़ा प्रतिविम्बित हो रही है। इस तरह के अनेक चिंतन से सजा हुआ है यह ब्लॉग। सच तो यह है कि अपने उद्भव से आज तक इस ब्लॉग ने अनेक सारगर्भित पोस्ट दिए हैं, किन्तु वर्ष-2009 में यह कुछ ज्यादा मुखर दिखा।
आइए अब वहाँ चलते हैं जहाँ बार-बार कोई न जाना चाहे , जी हाँ हम बात कर रहे हैं अदालत की। मगर यह अदालत उस अदालत से कुछ अलग है। यहाँ बात न्याय की जरूर होती है, फैसले की भी होती है और फैसले से पहले हुई सुनवाई की भी होती है मगर उन्हीं निर्णयों को सामने लाया जाता है जो उस अदालत में दिया गया होता है । यानी यह अदालत ब्लॉग के रूप में एक जीवंत इन्सायिक्लोपीडिया है। मुकद्दमे में रुचि दिखाने वालों के लिए यह ब्लॉग अत्यन्त ही कारगर है , क्योंकि यह सम सामयिक निर्णयों से हमें लगातार रूबरू कराता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भिलाई छत्तीसगढ़ के लोकेश के इस ब्लॉग में दिनेशराय द्विवेदी जी की भी सहभागिता है , यानी सोने पे सुहागा।


-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-3

वर्ष -2008 में 26/11 की घटना को लेकर हिन्दी ब्लॉग जगत काफी गंभीर रहा। आतंकवादी घटना की घोर भत्र्सना हुई और यह उस वर्ष का सबसे बड़ा मुद्दा बना, मगर इस वर्ष यानी 2009 में जिस घटना को लेकर सबसे ज्यादा बवाल हुआ वह है समलैंगिकता के पक्ष में दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला। पहली बार हिन्दुस्तान ने समलैंगिकता के मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से बहस किया है। हिन्दी ब्लॉग जगत ने भी इसके पक्ष विपक्ष में बयान दिए और देश में समलैंगिकता पर बहस एकबारगी सतह पर गई
किसी ने कहा कि लैंगिक आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव का स्थान आधुनिक नागरिक समाज में नहीं है, पर लैंगिक मर्यादाओं के भी अपने तकाजे रहे हैं और इसका निर्वाह भी हर देश काल में होता रहा है, तो किसी ने कहा कि भारतीय दंड विधान की धारा 377 जैसे दकियानूसी कानून की आड़ में भारत के सम लैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों को अकारण अपराधी माना जाता रहा है, लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने किसी भी प्रकार के यौन और जेंडर रुझानों से ऊपर उठकर सभी नागरिकों के अधिकार को मान्यता देने का ऐतिहासिक कार्य किया है तो किसी ने कहा की यह विडंबना ही कहा जाएगा कि अंग्रेजों द्वारा 1860 में बनाया गया यह कानून खुद इंग्लैंड के कानूनी किताबों में से सालों पहले मिट चुका, लेकिन भारत में यह उनके जाने के बाद भी दशकों तक कायम है आदि।
रेखा की दुनिया ने अपने 09 जुलाई 2009 के अंक में समलैगिकता की जोरदार वकालत करते हुए लिखा है जिस देश में कामसूत्र की रचना हुई आज उसी धरती पर वात्स्यायन के वंशज काम संबंधी अभिरुचि को बेकाम ठहराने में लगे हैं घृणा के इस दोहरे मापदंड पर उनका गुस्सा देखने लायक है इस आलेख में। महाशक्ति के दिनांक 29.07.2009 के आलेख का शीर्षक है समलैंगिंक बनो पर अजीब रिश्ते को विवाह का नाम न दो, विवाह को गाली मत दो । परमेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं कि वह दृश्य बड़ा भयावह होगा जब लोग केवल अप्राकृतिक सेक्स के लिए समलैगिंक विवाह करेंगे, अर्थात संतान की इच्छा विवाह का आधार नहीं होगा। अपने ब्लॉग पर अंशुमाल रस्तोगी कहते हैं कि अब धर्मगुरु तय करेंगे कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। नया जमाना के 16 अगस्त 2009 के पोस्ट वात्स्यायन, मिशेल फूको और कामुकता (2) के अनुसार समलैंगिकों की एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में फूको ने कहा ‘कामुकता’ को दो पुरूषों के प्रेम के साथ जोड़ना समस्यामूलक और आपत्तिजनक है। ‘‘अन्य को जब हम यह एक छूट देते हैं कि समलैंगिता को शुद्धतः तात्कालिक आनंद के रूप में पेश किया जाए, दो युवक गली में मिलते हैं, एक- दूसरे को आँखों से रिझाते हैं, एक-दूसरे के हाथ एक-दूसरे के गुप्तांग में कुछ मिनट के लिए दिए रहते हैं। इससे समलैंगिकता की साफ सुथरी छवि नष्ट हो जाती है।
दस्तक ने अपने 11 अगस्त 2009 के पोस्ट में टी.वी चैनलों का उमड़ता गे प्रेम पर चिंता व्यक्त की है । कहा है कि 2 जुलाई का दिन दिल्ली हाई कोर्ट का वह आदेश, पूरा मीडिया जगत के शब्दों में कहें तो खेलने वाला मुद्दा दे गया। जी हाँ हम बात कर रहें हैं हाईकोर्ट के उस आदेश का जिसमें देश में अपनें मर्जी से समलैगिंक संबंध को मंजूरी दे दी गई थी। ठीक हाँ भाई समलैंगिक को मंजूरी मिली। उनको राहत मिला। पर उनका क्या जिनका चैन हराम हो गया। आखिर जो गे नहीं उनकी तो शामत आ गई।
इधर चैनल वालों को ऐसा मसाला मिल गया जिसको किसी भी चैनल ने छोड़ना उम्दा नहीं समझा। उधर इस चक्कर में और दूसरें मुद्दे जरूर छूट गए। दिलीप के दलान से श्रनसल 10, 2009 को एक घटना का जिक्र आया कि घर की घंटी बजी, साथ-साथ बहुत लोगों की। अंदर से गुड्डी दौड़ती हुई आई, झट से दरवाजा खोला। बाहर खड़े भैया ने गुड्डी से कहा गुड्डी ये तुम्हारी भाभी हैं। गुड्डी के चेहरे पर खुशी की जगह बारह बज गए और वह फिर दोबारा जितनी तेजी से दौड़ती हुई आई थी उतनी तेजी से वापस दौड़ती हुई माँ के पास गई, और माँ से बोली माँ भैया आपके लिए भैया लेके आए हैं। परिकल्पना पर भी मंगलवार, 29 जुलाई 2009 को ऐसी ही एक घटना का जिक्र था जिसका शीर्षक था-शर्मा जी के घर आने वाली है मूंछों वाली बहू, बहूभोज में आप भी आमंत्रित हैं। बात कुछ ऐसी है के 7 जुलाई 2009 के एक पोस्ट ‘यहाँ’ आसानी से पूरी होती है समलैंगिक साथी की तलाश, में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि क्लबों, बार, रेस्टोरेंट व डिस्कोथेक में होती हैं साप्ताहिक पार्टियाँ। पिछले 10 वर्षों से लगातार बढ़ रही है समलैंगिक प्रवृत्ति। पिछले छह वर्षों में बढ़ा है समलैंगिकता का चलन। समलैगिकों में 16 से 30 वर्ष आयु वर्ग के लोगों की संख्या अधिक दक्षिणी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली में होती हैं। अप्राकृतिक संबधों को गलत नहीं मानते समलैंगिक। उनके लिए प्यार का अहसास भी अलग है और यौन संतुष्टि की परिभाषा भी अलग है। समलिंगी साथी के आकर्षण का सामीप्य ही उन्हें चरम सुख प्रदान करता है तभी तो चढ़ती उम्र में वह एक ऐसे हमराही की तलाश करते हैं जो तलाश उन्हें आम आदमी से कुछ अलग करती है।
इस सन्दर्भ में भड़ास के तेवर कुछ ज्यादा तीखे दिखे जिसमें उसने स्पष्ट कहा कि समलैंगिकता स्वीकार्य नहीं बल्कि उपचार्य है । मोहल्ला का समलैंगिकता पर कानून की मुहर से प्रकाशित शीर्षक में कहा गया है कि नैतिकता ये कहती है कि यौन संबंधों का उद्देश्य संतानोत्पत्ति है, लेकिन समलैंगिक या ओरल इंटरकोर्स में यह असंभव है। वहीं ब्लॉग खेती-बाड़ी के दिनाँक 05 जुलाई 2009 के एक पोस्ट में समलैंगिकता के सवाल पर बीबीसी हिन्दी ब्लॉग पर राजेश प्रियदर्शी की एक बहुत ही यथार्थ टिप्पणी आई है, जो थोड़ा असहज करने वाली है लेकिन समलैंगिक मान्यताओं वाले समाज में इन दृश्यों से आप बच कैसे सकते हैं? हमारे देश में इस वक्त दो अति-महत्वपूर्ण किंतु ज्वलंत मुद्दे हैं-पहला नक्सलवाद का विकृत चेहरा और दूसरा मँहगाई का खुला तांडव। आज के इस क्रम की शुरुआत भी हम नक्सलवाद और मँहगाई से ही करने जा रहे हैं। फिर हम बात करेंगे मजदूरों के हक के लिए कलम उठाने वाले ब्लॉग, प्राचीन सभ्यताओं के बहाने कई प्रकार के विमर्श को जन्म देने वाले ब्लॉग और न्यायालय से जुड़े मुद्दों को प्रस्तुत करने वाले ब्लॉग की।
आम जन के दिनांक 23.06.2009 के अपने पोस्ट नक्सली कौन? में संदीप द्विवेदी कहते हैं, कि गरीबी में अपनी जिन्दगी काट रहे लोग क्यों सरकार के खिलाफ बन्दूक थाम लेते हैं इसे समझने के लिए आपको उनकी तरह बन कर सोचना होगा। सरकार गरीबी और बेरोजगारी खत्म करने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन यह दिनों दिन और भयानक होती जा रही है। इसका कारण हम आप सभी जानते हैं। रोजाना छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सलियों के हाथों मारे जाते हैं और जो बच जाते हैं वे मलेरिया या लू के चपेट में आ कर अपने प्राण त्याग देते हैं। क्या अब सरकार नक्सलियों का ख़ात्मा लिट्टे की तरह करेगी? लेकिन इतना याद रखना होगा कि लिट्टे ने अपने साथ 1 लाख लोगों की बलि ले ली। क्या सरकार इसके लिए तैयार है। नक्सलियों के साथ आर-पार की लड़ाई से बेहतर है कि हम अपनी घरेलू समस्या को घर में बातचीत से ही सुलझा लें वरना एक दिन यह समस्या बहुत गंभीर हो जाएगी।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

12.6.10

चोरों से सरकारी कार्यालय भी महफूज नहीं

चोरों ने किया तहसील कार्यालय के एयरकंडीशनर पर हाथ साफ
सफीदों,(हरियाणा): आजकल सफीदों में चोरों का साया इतना बढ़ गया है कि उनसे आम जनमानस के साथसाथ सरकारी कार्यालय भी महफूज नहीं हैं। इसका जीताजागता उदाहरण सफीदों का मिनी सचिवालय हैं जहां स्थित तहसीलदार कार्यालय की उप रजिस्ट्रार शाखा के कक्ष में लगे एयरकंडीशनर पर से चोरों ने हाथ साफ कर दिया। चोरों को यहां के प्रशासन का भी कोई डर नहीं रह गया है। सबसे अहम बात यह है कि चोरी की वारदात का स्थल सफीदों का मिनी सचिवालय है जहां पर उपमंडल अधिकारी(नागरिक), उप पुलिस अधीक्षक व तहसीलदार कार्यालय सहित कई अन्य कार्यालय स्थित है तथा यहीं पर ही इन सभी अफसरों के आवास भी बने हुए हैं। इस मामले में सफीदों के तहसीलदार ज्ञानप्रकाश बिश्र्रोई ने एयरकंडीशनर चोरी की रिपोर्ट पर दर्ज करवाई है। उनके द्वारा दर्ज करवाई गई रिपार्ट में कहा गया है कि तहसील कार्यालय में मलकियत के बैनामे, इकरारनामे, मुखत्यारनामे व वसीयत आदि के दस्तावेजों को पंजीकृत करने से संबंधित कक्ष के इस एयरकंडीशनर किसी ने चोरी कर लिया है। पुलिस ने अज्ञात चोरों के खिलाफ चोरी का मामला दर्ज करके छानबीन शुरू कर दी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब तो चोरों ने तहसील कार्यालय का एयरकंडीशनर चोरी किया है, अगर कल को कोई इसी कार्यालय का रिकार्ड चोरी करके ले गया तो या होगा? प्रशासन एयरकंडीशनर तो नया ले आयेगा लेकिन रिकॉर्ड कहां से लाएगा?

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-2

वर्ष-2009 में जो कुछ भी हुआ उसे हिंदी चिट्ठाजगत ने किसी भी माध्यम की तुलना में बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है। चाहे बाढ़ हो या सूखा या फिर मुम्बई के आतंकवादी हमलों के बाद की परिस्थितियाँ, चाहे नक्सलवाद हो या अन्य आपराधिक घटनाएँ, चाहे पिछला लोकसभा चुनाव हो अथवा हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनाव या साम्प्रदायिकता, चाहे फिल्में हों या संगीत, चाहे साहित्य हो या कोई अन्य मुद्दा, तमाम ब्लॉग्स पर इनकी बेहतर प्रस्तुति हुई है।
कुछ ब्लॉग ऐसे है जिनकी चर्चा कई ब्लॉग विश्लेषकों के माध्यम से विगत वर्ष 2008 में भी हुई थी और आशा की गई थी कि वर्ष 2009 में इनकी चमक बरकरार रहेगी। ब्लॉग चर्चा के अनुसार सिनेमा पर आधारित तीन ब्लॉग वर्ष 2008 में शीर्ष पर थे । एक तरफ तो प्रमोद सिंह के ब्लॉग सिलेमा सिलेमा पर सारगर्भित टिप्पणियाँ पढ़ने को मिली थीं, वहीं दिनेश श्रीनेत ने इंडियन बाइस्कोप के जरिए निहायत ही निजी कोनों से और भावपूर्ण अंदाज से सिनेमा को देखने की एक बेहतर कोशिश की थी। तीसरे ब्लॉग के रूप में महेन के चित्रपट ब्लॉग पर सिनेमा को लेकर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिली थी। हालाँकि समयाभाव के कारण परिकल्पना पर केवल एक ब्लॉग इंडियन बाइस्कोप की ही चर्चा हो पाई थी। यह अत्यन्त सुखद है कि उपर्युक्त तीनों ब्लाॅग्स वर्ष 2009 में भी अपनी चमक और अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल रहे हैं ।
इसीप्रकार जहाँ तक राजनीति को लेकर ब्लॉग का सवाल है तो अफलातून के ब्लॉग समाजवादी जनपरिषद, नसीरुद्दीन के ढाई आखर, अनिल रघुराज के एक हिन्दुस्तानी की डायरी, अनिल यादव के हारमोनियम, प्रमोद सिंह के अजदक और हाशिया का जिक्र किया जाना चाहिए। ये सारे ब्लाॅग्स वर्ष 2008 में भी शीर्ष पर थे और वर्ष 2009 में भी शीर्ष पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं ।
वर्ष 2008 में संगीत को लेकर टूटी हुई, टूटी हुई, बिखरी हुई आवाज, सुरपेटी, श्रोता बिरादरी, कबाड़खाना, ठुमरी, पारूल चाँद पुखराज का चर्चित हुए थे, जिनपर सुगम संगीत से लेकर क्लासिकल संगीत को सुना जा सकता था, पिछले वर्ष रंजना भाटिया का अमृता प्रीतम को समर्पित ब्लॉग ने भी ध्यान खींचा था और जहाँ तक खेल का सवाल है, एनपी सिंह का ब्लॉग खेल जिंदगी है पिछले वर्ष शीर्ष पर था। पिछले वर्ष वास्तु, ज्योतिष, फोटोग्राफी जैसे विषयों पर भी कई ब्लॉग शुरू हुए थे और आशा की गई थी कि ब्लॉग की दुनिया में 2009 ज्यादा तेवर और तैयारी के साथ सामने आएगा। यह कम संतोष की बात नहीं कि इस वर्ष भी उपर्युक्त सभी ब्लाॅग्स सक्रिय ही नहीं रहे अपितु ब्लॉग जगत में एक प्रखर स्तंभ के मानिंद दृढ़ दिखे। निश्चित रुप से आनेवाले समय में भी इनकी दृढ़ता और चमक बरकरार रहेगी यह मेरा विश्वास है।
यदि साहित्यिक लघु पत्रिका की चर्चा की जाए तो पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा धारदार दिखी -मोहल्ला। अविनाश मोहल्ला के कॉलम में चुने ब्लॉगों पर मासिक टिप्पणी करते हैं और उनकी संतुलित समीक्षा भी करते हैं। इसीप्रकार वर्ष 2008 की तरह वर्ष 2009 के अनुराग वत्स के ब्लॉग ने एक सुविचारित पत्रिका के रूप में अपने ब्लॉग को आगे बढ़ाया हैं।
आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि भारतीय सिनेमा में जीवित किंवदंती बन चुके बिग बी श्री अमिताभ बच्चन जल्द ही अपना हिंदी में ब्लॉग शुरू करेंगे। यह घोषणा उन्होंने 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के अवसर पर की है। उन्होंने कहा है कि-यह बात सही नहीं है कि मैं सिर्फ अंग्रेजी भाषा के प्रशंसकों के लिए लिखता हूँ। अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर खुलासा किया है कि वह जल्दी ही हिंदी और अन्य भाषाओं में ब्लॉग लिखने की चेष्टा करेंगे, ताकि हिंदी भाषी प्रशंसकों को सुविधा हो। जबकि मनोज बाजपेयी पहले से ही हिन्दी में ब्लॉग लेखन से जुड़े हैं।
पिछले वर्ष ग्रामीण संस्कृति को आयामित कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया था खेत खलियान ने, वहीं विज्ञान की बातों को बहस का मुद्दा बनाने में सफल हुए थे पंकज अवधिया अपने ब्लॉग मेरी प्रतिक्रया में। हिन्दी में विज्ञान पर लोकप्रिय और अरविन्द मिश्रा के निजी लेखों के संग्राहालय के रूप में पिछले वर्ष चर्चा हुई थी सांई ब्लॉग की, ग़ज़लों, मुक्तकों और कविताओं का नायाब गुलदस्ता महक की, ग़ज़लों का और गुलदस्ता है अर्श की, युगविमर्श की, महाकाव्य की, कोलकाता के मीत की, डॉ. चन्द्र कुमार जैन की, दिल्ली के मीत की, दिशाएँ की, श्री पंकज सुबीर जी के सुबीर संवाद सेवा की, वरिष्ठ चिट्ठाकार और सृजन शिल्पी श्री रवि रतलामी जी का ब्लॉग“ रचनाकार की, वृहद् व्यक्तित्व के मालिक और सुप्रसिद्ध चिट्ठाकार श्री समीर भाई के ब्लॉग“ उड़न तश्तरी“ की, " महावीर" " नीरज " "विचारों की जमीं" "सफर " " इक शायर अंजाना सा…" "भावनायें... " आदि की।
इसी क्रम में हास्य के एक अति महत्वपूर्ण ब्लॉग ठहाका हिंदी जोक्स तीखी नजर बनततमदज बामुलाहिजा चिट्ठे सम्बंधित चक्रधर का चकल्लस और बोर्ड के खटरागी यानी अविनाश वाचस्पति तथा दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका आदि की । वर्ष 2008 के चर्चित ब्लॉग की सूची में और भी कई महत्वपूर्ण ब्लॉग जैसे जबलपुर के महेंद्र मिश्रा के निरंतर, अशोक पांडे का “कबाड़खाना“, डाॅ राम द्विवेदी की अनुभूति कलश, योगेन्द्र मौदगिल और अविनाश वाचस्पति के सयुक्त संयोजन में प्रकाशित चिट्ठा हास्य कवि दरबार, उत्तर प्रदेश के फतेहपुर के प्रवीण त्रिवेदी का “प्राइमरी का मास्टर“ लोकेश जी का “अदालत“, बोकारो झारखंड की संगीता पुरी का गत्यात्मक ज्योतिष, उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर सकल डीहा के हिमांशु का सच्चा शरणम्, विवेक सिंह का स्वप्न लोक, शास्त्री जे सी फिलिप का हिन्दी भाषा का सङ्गणकों पर उचित व सुगम प्रयोग से सम्बन्धित सारथी, ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल और दिनेशराय द्विवेदी का तीसरा खंभा आदि की चर्चा वर्ष-2008 में परिकल्पना पर प्रमुखता के साथ हुई थी और हिंदी ब्लॉगजगत के लिए यह अत्यंत ही सुखद पहलू है, कि ये सारे ब्लॉग वर्ष-2009 में भी अपनी चमक बनाये रखने में सफल रहे हैं।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-1

आज जिस प्रकार हिंदी ब्लागर साधन और सूचना की न्यूनता के बावजूद समाज और देश के हित में एक व्यापक जन चेतना को विकसित करने में सफल हो रहे हैं वह कम संतोष की बात नही है। हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देने में हर उस ब्लाॅगर की महत्वपूर्ण भूमिका है जो बेहतर प्रस्तुतीकरण, गंभीर चिंतन, सम सामयिक विषयों पर सूक्ष्मदृष्टि, सृजनात्मकता, समाज की कुसंगतियों पर प्रहार और साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से अपनी बात रखने में सफल हो रहे हैं। ब्लॉग लेखन और वाचन के लिए सबसे सुखद पहलू तो यह है कि हिन्दी में बेहतर ब्लॉग लेखन की शुरुआत हो चुकी है जो हम सभी के लिए शुभ संकेत का द्योतक है। वैसे वर्ष-2009 हिंदी ब्लाॅगिंग के लिए व्यापक विस्तार और वृहद प्रभामंडल विकसित करने का महत्वपूर्ण वर्ष रहा है। आइए वर्ष -2009 के महत्वपूर्ण ब्लॉग और ब्लॉगर पर एक नजर डालते हैं
हिंदी ब्लॉग विश्लेषण -2009 की शुरुआत एक ऐसे ब्लॉग से करते हैं जो हिंदी साहित्य का संवाहक है और हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में दृढ़ता के साथ सक्रिय है। वैसे तो इसका हर पोस्ट अपने आप में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है , किन्तु शुरुआत करनी है इसलिए 20 जून-2009 के एक पोस्ट से करते हैं। हिंदी युग्म के साज -वो-आवाज के सुनो कहानी श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हिंदी के मूर्धन्य कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानीइस्तीफासे मुंशी प्रेमचंद की कहानी इस्तीफा को स्वर दिया है पिट्सवर्ग अमेरिका के प्रवासी भारतीय अनुराग शर्मा ने।
शपथ-इस्तीफा के बाद राजनीति का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू पुतला दहन, पुतला दहन का सीधा-सीधा मतलब है जिन्दा व्यक्तियों की अन्त्येष्टि। पहले इस प्रकार का कृत्य सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों तक सीमित था। बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में रावण-दहन की परम्परा थी, कालांतर में राजनैतिक और प्रशासनिक व्यक्तियों के द्वारा किए गए गलत कार्यों के परिप्रेक्ष्य में जनता द्वारा किए जाने वाले विरोध के रूप में हुआ। पुतला-दहन धीरे-धीरे अपनी सीमाओं को लाँघता चला गया। आज नेताओं के अलावा महेंद्र सिंह धौनी से लेकर सलमान खान तक के पुतले जलते हैं। मगर छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक बाप ने अपनी जिंदा बेटी का पुतला जलाकर पुतला-दहन की परम्परा को राजनैतिक से पारिवारिक कर दिया और इसका बहुत ही मार्मिक विश्लेषण किया है शरद कोकास ने अपने ब्लॉग पास-पड़ोस पर दिनांक 24.07.2009 को प्रेम के दुश्मन शीर्षक से। शपथ, इस्तीफा, पुतला दहन के बाद आइए रुख करते हैं राजनीति के चैथे महत्वपूर्ण पहलू मुद्दे की ओर, जी हाँ ! कहा जाता है कि मुद्दों के बिना राजनीति तवायफ का वह गजरा है, जिसे शाम को पहनो और सुबह में उतार दो अगर भारत का इतिहास देखें तो कई मौकों और मुद्दों पर हमने खुद को विश्व में दृढ़ता से पेश किया है लेकिन अब हम भूख, महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों से लड़ रहे हैं। आजकल मुद्दे भी महत्वाकांक्षी हो गए हैं। अब देखिये ! पानी के दो मुद्दे होते हैं, एक पानी की कमी और दूसरा पानी की अधिकता। पहले वाले मुद्दे का पानी हैंडपंप में नहीं आता, कुओं से गायब हो जाता है, नदियों में सिमट जाता है और यदि टैंकर में लदकर किसी मुहल्ले में पहुँच भी जाए तो एक-एक बाल्टी के लिए तलवारें खिंच जाती हैं। दूसरे वाले मुद्दे इससे ज्यादा भयावह हैं यह संपूर्ण रूप से एक बड़ी समस्या है। जब भी ऐसी समस्या उत्पन्न होती है, समाज जार-जार होकर रोता है, क्योंकि उनकी अरबों रुपये की मेहनत की कमाई पानी बहा ले जाता है। सैकड़ों लोग, हजारों मवेशी अकाल मौत के मुँह में चले जाते हैं और शो का पटाक्षेप इस संदेश के साथ होता है - अगले साल फिर मिलेंगे !
ऐसे तमाम मुद्दों से रूबरू होने के लिए आपको मेरे साथ चलना होगा बिहार, जहाँ के श्री सत्येन्द्र प्रताप ने अपने ब्लॉग जिंदगी के रंग पर दिनांक 07.08.2009 को अपने आलेख कोसी की अजब कहानी में ऐसी तमाम समस्यायों का जिक्र किया है जिसको पढ़ने के बाद बरबस आपके मुँह से ये शब्द निकल पड़ेंगे कि क्या सचमुच हमारे देश में ऐसी भी जगह है जहाँ के लोग पानी की अधिकता से भी मरते हैं और पानी होने के कारण भी। ऐसा नहीं कि श्री सत्येन्द्र अपने ब्लॉग पर केवल स्थानीय मुद्दे ही उठाते हैं, अपितु राष्ट्रीय मुद्दों को भी बड़ी विनम्रता से रखने में उन्हें महारत हासिल है। दिनांक 04.06.2009 के अपने एक और महत्वपूर्ण पोस्ट-यह कैसा दलित सम्मान?, में श्री सत्येन्द्र ने दलित होने और दलित होने से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने रखा है दलित महिला नेत्री मीरा कुमार के बहाने। जिंदगी के रंग में रँगने हेतु एक बार अवश्य जाइए ब्लॉग जिंदगी के रंग पर-मुद्दों पर आधारित ब्लॉग की चर्चा के क्रम में जिस चिट्ठे की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है वह है-आदिवासी जगत और ब्लॉगर हैं-श्री हरि राम मीणा। यह ब्लॉग आदिवासी समाज को लेकर फैली भ्रांतियों के निराकरण और उनके कठोर यथार्थ को तलाशने का विनम्र प्रयास है। दिनांक 22.05.2009 को प्रकाशित अपने आलेख आदिवासी संस्कृति-वर्तमान चुनौतियों का उपलब्ध मोर्चा में श्री मीणा आदिवासी समाज के ज्ञान भंडार को डिजिटल शब्दों के साथ साइबर संसार में फैलाना चाहते हैं। अब आइए उस ब्लॉग की ओर रुख करते हैं जो एक ऐसे ब्लाॅगर की यादों को अपने आगौश में समेटे हुए है जिसकी कानपुर से कुबैत तक की यात्रा में कहीं भी माटी की गंध महसूस की जा सकती है। अपने ब्लॉग मेरा पन्ना में कानपुर के जीतू भाई कुवैत जाकर भी कानपुर को ही जीते हैं। वतन से दूर, वतन की बातें, एक हिन्दुस्तानी की जुबाँ से अपनी बोली में! दिनांक 09.09.2009 को इस ब्लॉग के पाँच साल पूरे हो गए। इंटरनेट के चालीस साल होने के इस महीने में हिंदी के एक ब्लॉग का पाँच साल हो जाना कम बड़ी बात नहीं है।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

11.6.10

लो क सं घ र्ष !: एंडरसन की चाकरी- भोपाल गैस काण्ड

(मेरा क्या कर लोगे)

यूनियन कार्बाईड के प्रमुख वारेन एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद शासक दल ने और सरकार के अधिकारियों ने जिस तरह से उसकी मदद की है वह अपने में एक महत्वपूर्ण उदहारण है । वैचारिक स्तिथि में हम लोग यूरोपीय और अमेरिकन भक्त हैं हमारे वहां का अभिजात्य वर्ग पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चापलूसी में लगा रहता था और अब अमेरिकन साम्राज्यवाद की चापलूसी में लगा रहता है। हम सबको याद होगा की राष्ट्रवाद के प्रबल प्रवक्ता व तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के अमेरिका यात्रा पर वहां के राष्ट्रपति ने शराब का भरा गिलास इनके ऊपर गिरा दिया था, सब चुप रहे। तत्कालीन रक्षा मंत्री श्री जार्ज फर्नांडीज जब अमेरिका यात्रा पर गए तो वहां प्रोटोकॉल के विपरीत जामा तलाशी हुई और कोई विरोध नहीं हुआ। मनमोहन सिंह जी तो अमेरिका में काफी दिन रहकर नौकरी किये हैं वह कैसे विरोध कर सकते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों के ये सब राजनेता चाकर होते हैं। डी.एम और एस.पी नियमित रूप से वहां से पगार पाते हैं। न्याय व्यवस्था के भी अधिकारी पीछे नहीं रहते हैं। इन कंपनियों के अधिकारी होली-दिवाली से लेकर ईद-बकरीद तक तमाम तरह के तोहफे इनको भेंट करते रहते हैं। तो फैसले भी उन्ही के पक्ष में ही होते हैं पूर्व मुख्य न्यायधीश उच्चतम न्यायलय श्री अहमदी साहब ने रिट याचिका ख़ारिज की थी। अगर वही रिट याचिका किसी सामान्य व्यक्ति के खिलाफ होती तो निश्चित रूप से उसके ऊपर अंतर्गत धरा 304 आई.पी.सी का वाद चलता। भारतीय दंड संहिता में इस बात की व्यवस्था है कि वही अपराध साधारण आदमी करे तो आजीवन कारावास की सजा हो सकती है और वही अपराध बड़ा आदमी करे तो पुलिस को जांच करने का अधिकार भी नहीं रहता है और उसके ऊपर वाद चलने के लिए न्यायलय की अनुमति की आवश्यकता होती है यह प्रक्रिया सामान्य प्रक्रिया है । एंडरसन एक मल्टी नेशनल कंपनी का मुखिया था। उसके खिलाफ राजनेता, न्यायलय, कानून, संविधान को जानबूझ कर खामोश रहना ही था। यह व्यवस्था हम समझते है की हमारे जीवन को सुखमय करने के लिए है जबकि विधि के नाम पर आप को अपाहिज और पंगु करने के लिए है। सरकार की इच्छा थी मल्टी नेशनल कंपनी के मुखिया को सारी सुविधाएं देकर उसके देश वापस भेजना था , वह काम उन्होंने खूबसूरती से कर दिया। व्यवस्था लाखो लोगो के रोजगार छीन कर भूखो मरने के लिए मजबूर करती हैं और उनके हिस्से की हवा पानी जमीन उद्योगपतियों के तिजोरियो में बंद होने के लिए है।

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

10.6.10

लो क सं घ र्ष !: आर्थिक जीवन और अहिंसा -3

मानवीय प्रगति का लम्बा इतिहास काफी अंशों तक और कई अर्थों में स्वैच्छिक एवं स्वतंत्र वरण-चयन के प्रयासों का इतिहास हैं। फलतः ऐसे सहज स्वतंत्र सामाजिक जीवन को सर्व-संगत, सर्व-सुलभ, जन-जन का अमिट और अक्षुण्य अधिकार माना जा सकता है। अधिकार के रूप में प्राप्ति को ठोस सच्चाई में बदलने के अनेक उतारांे-चढ़ाओं का इतिहास अहिंसा के प्रसार का इतिहास माना जा सकता है। मनुष्य जैसे सामाजिक जीव के बहुआयामी अस्तित्व का कोई भी भाग जिसे विचारण विवेचन की सुगमता के लिए कुछ अशों तक अलग-अलग करके देखने की परिपाटी बहुप्रचलित हो चुकी है। यहाँ तक कि अनेक लोग इस पृथकीकरण को यथार्थ का प्रतिविम्ब तक मान बैठते हैं। एक ओर स्वैच्छिक-स्वतंत्र वरण की गई तथा दूसरी ओर इनको कुचल-मसल कर आरोपित बलात् या जबरन थोपी गई जीवन-यात्रा के संघर्ष से अछूता नहीं रह पाता हैं। यह हिंसा प्रतिहिंसा और अहिंसा का संघर्ष आदिकाल से मानवीय-सामाजिक जीवन और उसकी व्यवस्था में पग-पग पर परिलक्षित होता आया है। बेशक, इन्सान वर्तमान समय की असंख्य विसंगतियों विद्रूपताओं और त्रासदियों के उपरान्त भी अनेक अर्थों में एक गौरव पूर्ण और निहित संभावनाओं को सृजनात्मक साकार रूप रंग वाली क्षमताओं और ठोस उपलब्धियों में विश्वास रख सकता है। मानव समाज प्राप्त क्षमताओं और संसाधनों के स्तर पर एक समता, न्याय, अहिंसा और भाई चारे को ठोस यथार्थ में परिणत कर संभावना के एक अभूतपूर्व ऊँचे मुकाम पर पहुँच चुका है।
मानव जीवन का शायद ही कोई अंग इस प्रगति मंे भागीदार नहीं हो पाया हो। किन्तु यह कोई सर्वत्र पुष्पाच्छादित मधुर और सुवासित यात्रा पथ नहीं रहा है। इसमें काँटे, शूल, चुभन ही नहीं पसीने, आँसुओं, खून और घृणित-जघन्य प्रवृत्तियों और वारदातों का सिलसिला भी कहीं आशीर्वाद तो कहीं अभिशाप बनकर बदस्तूर चला है। विडम्बना यह है कि इन नकारात्मकताओं, विचलनों और गिरावटों को समझा गया है, इनसे लड़ा और जूझा भी गया है और ये संघर्ष अनवरत चल भी रहे हैं। इन गिरावटों और नकारात्मक प्रवृत्तियों को हिंसा की प्रबलता और उसके दुष्परिणामों के रूप में देखा जा सकता है। इनसे बचकर सकारात्मक सात्विकता की ओर बढ़ने के प्रयास अहिंसा अथवा स्वतंत्रता, स्वैच्छिकता के सामूहिक सामाजिक स्वरूप को सर्वव्यापी करने के प्रयासों की तरह समझे जा सकते हैं।
सच है कि ये स्वैच्छिकता, स्वतंत्रता, अहिंसामय समाज-निर्माण की ओर प्रयाण के प्रयास सामाजिक मानवीय अस्तित्व और उसे अक्षुण्य तथा अर्थवान बनाने के अभियान एक हद तक प्रयास में सक्रिय हैं। लेकिन हम यहाँ संक्षेप में उसे आर्थिक अर्थात जीवन यापन की मुख्यतः भौतिक जरूरतों और उनसे जुड़े मानवीय-सामाजिक सम्बन्धों तक ही सीमित रखेंगे।

-कमल नयन काबरा
-मोबाइल: 09868204457
(समाप्त)

लो क सं घ र्ष !: रात गंवाई जाग कर, दिवस गवायों सोय

सुख, दुख, हर्ष, विषाद को व्यक्त करने का अधिकार सभी को है, परन्तु इनके लिये कुछ शर्तें हैं, कुछ शिष्टाचार हैं। आजकल शादी विवाह एँव अन्य अवसरों पर ‘हर्ष-फायरिंग‘ का बड़ा प्रचलन हैं। यह स्टेटस- सिंबल बन गया है। परन्तु ऐसा क्या हर्ष जो दूसरों के दुख का कारण बने- ‘ई डोलत हैं, मगन हवे, उनके फाटत अंग‘।
एक साथ कई जिलों से इस प्रकार की खबरें आई है अखबार लिखता है हर्ष फायरिंग में शनिवार को फैजाबाद में दो, रविवार को बलारामपुर व हरदोई में एक एक मौते हो चुकी हैं। बेनीगंज क्षेत्र में रात द्वारचार के समय हुई फायरिंग से दुल्हन के भाई की मौत हो गई। घर में कोहराम मच गया। बारात बिना दुल्हन के ही बैरंग वापस लौट गई। अम्बेडकर नगर जिले में द्वारपूजा के दौराल हो रही फायरिंग के बीच गोली से मांगलिक कार्य करा रहे पुरोहित गंभीर रूप से घायल हो गये। भगदड़ मच गई, कन्या पक्ष के लोगों नें बारातियों की जम कर पिटाई की। नशे में घुत राजेश उपाध्याय , फायरिंग के समय नाल ऊपर नहीं उठा सके थे।
यह तो फायरिंग की बात हुई। अन्य बाते- मैरिज हालों में कार्यक्रम हमेशा देर से शूरू होते हैं।, तेज आवाज की म्युजिक, नाच-गानों की उचक-फांद, आतिश-बाजियाँ तथा हंगामें फिर सड़कों पर जुलूस में बारातियों का चलना, लड़के लड़कियों क रोक एण्ड रोल। कुल मिला कर यह कि अपनी खुशी में आस पास की आराम कर रही जनता को देर तक जगाना है। न बच्चे पढ़ाई कर सकते हैं, न मरीजों को आराम मिल सकता है। गुम हो गये। न समाज के समझ के समझदार व्यक्ति कुछ बोलते हैं, न सरकार कोई नियम बनाती है। बड़े आदमी, आम जनता का सुखचैन छीन रहे हैं। कबीर ने जो कुछ भी कहा हो- हम इन बड़े आदमियों के लिये यही कहेंगे-
रात गंवाई जाग कर, दिवस गवायों सोय
-डॉक्टर एस.एम हैदर