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10.6.10

कार नहर में गिरी, तीन सदस्य मरे

फतेहाबाद । फतेहाबाद जिले में गांव भूंदड़वास में भाखड़ा नहर में बुधवार सुबह करीब छह बजे मारुति कार गिर जाने से पंजाब के मानसा जिले के गांव कुलरियां के एक ही परिवार के तीन लोगों की मौत होगी। कार में सवार चार सदस्यदिल्ली से आ रहे थे। कार चला रहे परिवार के मुखिया को बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका। इस हादसे से गांव कुलरियां में शोक के कारण किसी घर में चूल्हा नहीं जला।
गांव कुलरिया के रहने वाले धर्मपाल शर्मा स्कूलों में ग्रीष्मकालीन अवकाश होने के चलते नई दिल्ली में रिश्तेदारों के घर गए अपने 15 वर्षीय बेटे सतनाम उर्फ हैप्पी, 13 वर्षीय बेटी सोनिया तथा 36 वर्षीय पत्नी मूर्ति देवी के साथ मारुति कार में लौट रहे थे। शर्मा पूरी रात्रि कार चलाने की वजह से अनिद्रा महसूस कर रहे थे कि अचानक सुबह के छह बजे हरियाणा के फतेहाबाद जिले के गांव भूंदड़वास के निकट उन्हें झपकी आ गई और वे कार पर नियंत्रण खो बैठे। इससे कार भाखड़ा नहर में जा गिरी। हादसे के बाद धर्मपाल को नहर के किनारे खड़े लोगों ने बाहर निकल लिया।
कार में सतनाम व उसकी पत्नी आगे वाली सीट पर बैठे थे और दोनों बच्चे पिछली सीट पर सो रहे थे। सतनाम कार के शीशे तोड़कर जैसे-तैसे बाहर निकल आया। इसी दौरान रतिया से सब्जी लेने जा रहे एक युवक ने कार को नहर में गिरी देखकर अपना साफा धर्मपाल की तरफ फेंक दिया। इसके सहारे वह बाहर आ गया। कुछ समय बाद ही कार नहर में समा गई।
इससे उनकी पत्नी, बेटा व बेटी तेज पानी में बह गए और उनकी मौत हो गई। गोताखोरों ने सतनाम व सोनिया के शवों को बाहर निकाल लिया, लेकिन मूर्ति देवी की तलाश जारी है।

9.6.10

लो क सं घ र्ष !: आर्थिक जीवन और अहिंसा -2

पिछली तीन चार शताब्दियों से धीरे-धीरे सारी विश्व आर्थिक व्यवस्था इस स्वतः चालित तथाकथित ‘आदर्श,‘ व्यवस्था के तहत संचालित हो रही है। कहा जा सकता है कि यदि ये दावे सचमुच सही हैं तो यह व्यवस्था अहिंसक समाज के मूल्यों पर भी सटीक बैठती नजर आती है। सिद्धांतों तथा ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर ये दावे कैसे और कितने खरे बैठते हैं यहाँ हम इस सवाल पर संक्षेप में विचार करेंगे। तथ्यों और इतिहास के आईने में झँाककर देखने पर बाजार व्यवस्था का यह तथाकथित अहिंसक सामाजिक मूल्यों अर्थात सामाजिक व्यक्ति के स्वतंत्र स्वैच्छिक निर्णय करने और उन्हें लागू करने की व्यवस्था पेश करने वाला आदशीकृत चित्र बालू की दीवार पर खड़ा यथार्थ के सर्वथा विपरीत नजर आएगा। अनेक वैकल्पिक और उच्च सामाजिक मूल्यों के प्रणेताओं ने इस काल्पानिक आदर्श व्यवस्था का सही चेहरा ही नहीं दिखाया है, सर्व-सम्मत मूल्यों मान्यताओं पर आधारित अहिंसा, समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की नींव पर खड़ी वैकल्पिक व्यवस्थाओं के प्रारूप भी पेश किए हैं।
बाजार व्यवस्था ने सभी इन्सानों को मात्र ‘आर्थिक‘ मानव केवल निजी लाभ-लोभ, लालच की असीम चाहत से प्रेरित माना हैं। उनका राष्ट्र भी बाजार, उसके मूल्यों और उनको अक्षुण्य रखने में लगे राष्ट्रवाद की नींव पर स्थापित किया गया है। स्ंास्कृति भी इसी बाजार की चेरी मात्र बना दी गई है। इस व्यवस्था ने यह भी माना है कि सभी लोगों मंे शुरू से ही समान रूप से प्रतियोगिता में भाग लेने की क्षमता विद्यमान होती है। इस मत के अनुसार सभी के संसाधन, क्षमता में अवसर शुरआती दौर में समान मानने के बावजूद जो असमानताएँ एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ तथा बढ़ता हुआ केन्द्रीकरण आदि पैदा होते हंै और बढ़ते हंै वे स्वाभाविक, प्राकृतिक और न्यायाधारित पुरस्कार माने गए हैं, विशेष क्षमताओं, परिश्रम, लगन आदि इनके प्रभाव पर अंकुश लगाने से इस मत के अनुसार मानव समाज की प्रगति बाधित और सीमित हो जाएगी। वैसे इस मत के कट्टर अनुयायी तो समाज का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं करते हैं। कहा जाता है कि इस व्यवस्था के निर्णय बाजार में स्वतंत्र रूप से निर्धारित कीमतों के आधार पर किए जाते हैं जो सूचनाओं, प्रेरणाओं और अवसरों का सर्वसुलभ बयान करती हैं।
इतिहास और वर्तमान स्थिति पर नजर डालने पर उपर्युक्त कथनों का असत्य और खोखलापन साफ नजर आ जाएगा। पूँजीवाद के पूर्व की व्यवस्थाओं ने एक गहरी और बहुमुखी विषमताओं वाला समाज छोड़ा था। स्वतंत्र, समान और न्यायपूर्ण प्रतियोगिता के लिए इसमें रत्ती भर भी जगह नहीं थी। केवल एक व्यक्ति के साथ बँधे रहने की मजबूरी एक पूरे वर्ग में से किसी के साथ बँधे रहने की विवशता बन गई। इससे भी खराब तो यह हुआ कि ऐसे मजबूरी के बंधन भी सर्वसुलभ नहीं हो पाये। अनप्रयुक्त श्रमिकों की फौज को एक अनिवार्य, नैसर्गिक जरूरत या सच मान लिया गया। कभी कभार राजकीय दया दृष्टि की तजबीज के साथ। बाजार व्यवस्था का मूल नियम है जो जितना मजबूत और सक्षम है, इस प्राणी जगत की डारविन द्वारा प्रतिपादित गलाकाटू सामाजिक प्रतियोगिता उसे लगातार उतना ही अधिक समृद्ध तथा विपन्न जन को उतना ही असमावेशित और लगातार विपन्तर करता रहेगा।
राज्य हमेशा शक्तिशाली के नियन्त्रण में रहा है। व्यावहारिक स्तर पर हमेशा नहीं तो बहुधा सारे संास्कृतिक, आर्थिक कानूनी उपादान शक्ति के पिछलग्गू रहे हैं। इस तरह अस्वैच्छिक या परिस्थितिगत असमावेशन तथा विपन्नता को राजकीय तथा सांस्कृतिक बल ने एक व्यवस्थागत हिंसा का रूप दे दिया। सच है कि प्रतिरोध की संस्कृति, व्यवहार और नैतिकता एक छोटे से तबके द्वारा अक्षुण्य रखी गईं है जो इस व्यवस्था के चरित्र को उजागर करती है और परिवर्तन की प्रक्रियाओं और ताकतों की लौ को बाले रखती है। इस तरह कहा जा सकता है कि भयावह छद्म और खुली दोनों प्रकार की हिंसा पर आधारित बाजार व्यवस्था का ऊबड़-खाबड़ सातत्य बहुसंख्यक लोगों उनके देशों और समुदायों के पसीने, आसुँओं और खून की नींव पर खड़ा है और उनसे तरबतर रहता है। पिछली तीन-चार शताब्दियों जितनी खुली और प्रच्छन्न हिंसक और अन्याय भरी सदियाँ पहले कभी नहीं देखी गई थीं। यह विडम्बना और अधिक त्रासद हो जाती है इसलिए कि अब मानव मात्र को ऐसी हिंसा से मुक्ति दिलाने के सारे साजो सामान और शर्तें विद्यमान हैं।
सारांश यह है कि मानव समाज की प्रगति अपनी संभावनाओं को सिकरा नहीं पाई है। वह अनेक परिस्थितियों वश पनपी हिंसाधारित सामाजिक सम्बंधों के नागपाश तोड़ने की संभावनाएँ विकसित कर चुका है, खासकर तकनीकी क्षेत्र में। किन्तु सामाजिक व्यवहार तथा व्यवस्था में नहीं। वह अभी भी कबीर वाणी ‘‘सहज मिले सो क्षीरसम, माँगे मिले सो पानी। कह कबीर वह रक्तसम, ज्या में खींचातानी।‘‘ को जीवन का जीवन्त, ठोस आधार नहीं बना पाया है। इसमें शक्तिशाली लोगों द्वारा संस्थागत प्रच्छन्न रूप से थोपी गई हिंसा और इस हिंसा के स्वैच्छिक, स्वतंत्र, समता और एकजुटता को नष्ट करने की बार-बार देखी गई क्रूर शारीरिक हिंसा की बहुत बड़ी भूमिका है। एक अहिंसक समाज के निर्माण के रास्ते ज्ञान-विज्ञान, चेतना तथा संवेदी एकजुटता तथा तात्विक सारगर्भित लोकतंत्र ने उपलब्ध करा दिए हैं। नतीजन बहुस्तरीय, बहुआयामी प्रतिरोध और संघर्ष, हिंसा और अहिंसा की पक्षधर शक्तियों के बीच चल रहा है। इस अहिंसक समाज रचना हेतु संघर्ष की सफल परिणति में ही मानवता का भविष्य निहित है। उपर्युक्त समाज विज्ञानी विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अहिंसा और स्वतंत्र, स्वैच्छिक चयन की आपसी समानता, अथवा दोनों की गहरी एकरूपता को समझे बगैर आर्थिक जीवन में अहिंसा के स्थान को समझ पाना काफी दुष्कर है। स्वतंत्र, स्वैच्छिक चयन वह नहीं होता है जो देखने में औपचारिक और प्रक्रिया के रूप में ‘‘स्वतंत्र और स्वैच्छिक‘‘ हो, कई निर्णय मात्र सतही स्तर पर स्वतंत्र होते हैं। जैसे वे फैसले जो किसी दृश्य अथवा अदृश्य दबाव, विकल्पों की उपलब्धि को समाप्त करके, बाहरी ताकतों, प्रभावों, प्रलोभनों आदि द्वारा तयशुदा या प्रस्तुत किए गए विभिन्न किन्तु सीमित विकल्पों की सीमा में बाँधकर मानसिक, भौतिक, शारीरिक ताड़ना, प्रताड़ना, भय आदि द्वारा आतंकित करके और निर्णयकर्ता के परिवेश को निर्धारित, प्रभावित, सीमाबद्ध करके उसकी मानसिकता और मानस को ही अन्यजनों की निर्मिती बना दंे, केवल सतही, द्रष्टव्य और औपचारिक रूप में ही स्वतंत्र और स्वैच्छिक समझे जा सकते हैं। इस तरह निर्धारित जीवन किसी भी सामाजिक प्राणी को स्वतंत्र और स्वैच्छया वरणित जीवन से विपथित कर देता है। भौतिक और स्पष्टतया खुले तौर पर शारीरिक डर या उत्पीड़न के अभाव में भी ऐसी संभावनाओं की उपस्थिति तथा उनसे रक्षा या परित्राण के संभावना की अनुपस्थिति भी स्पष्ट और खुली शारीरिक हिंसा, रक्तपात आदि के समान ही हिंसक स्थिति होती है। कुछ बिरले, अनूठे व्यक्तित्वों तथा उनके संगठनों का ऐसी स्थिति से प्रतिरोध तथा अपनी स्वतंत्रता की दमदार ताल ठोककर की गई व्यावहारिक शब्देतर घोषणाओं का लम्बा इतिहास एवं उनकी स्मृतियाँ, तथा गाथाएँ निःसंदेह युगों-युगों तक मानवता की थाती बने रहते हैं। किन्तु प्रभुत्व और वर्चस्वी तबकों द्वारा ऐसे महावीरों की छवि को कलुषित करने के उपक्रम भी थम नहीं पाए हैं।


-कमल नयन काबरा
-मोबाइल: 09868204457
(क्रमश:)

दिन भर होती रही रिमझिम बारिश, मौसम खुशगवार

फतेहाबाद: बदरा जमकर इतने बरसे की दिनभर लगी झड़ी के चलते पारा एकदम लुढ़क गया। साथ ही रिमझिम बारिश से किसानों की झुलस रही फसलों को एक बार फिर जीवनदान मिल गया, वहीं बदन झुलसाने वाली गर्मी से भी भारी राहत मिल गई है। बरसात के चलते दिनभर सुहावना मौसम रहा। हालांकि शहर के निचले इलाकों में बरसाती पानी भर जाने से आवागमन में परेशानी का सामना भी करना पड़ा। दिनभर बरसात होने के कारण राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर दस के दोनों ओर पानी भर गया। इस कारण दुपहिया व छोटे चौपहिया वाहन चालकों को भारी परेशानी झेलनी पड़ी। हालांकि दिनभर की झड़ी से अहसास हो रहा था कि शायद इस बार की मानसून ने एक सप्ताह पहले ही दस्तक दे दी है। पिछले चार दिन पूर्व तक क्षेत्र का तापमान 48 डिग्री तक पहुंच चुका था, वहीं आज यह गिर कर 15 डिग्री तक आ पहुंचा। मौैसम के मिजाज में आई गिरावट के चलते दिन में ही ठंड का अहसास होने लगा। बिघड़ चौक, जवाहर चौक, भट्टू रोड व अंबेडकर चौक सहित विभिन्न मार्गो पर एक से दो फुट तक पानी भर गया । समैन,संवाद सूत्र के अनुसार ेमवार को हुई आषाढ़ माह की पहली बरसात से किसानों के चेहरे खिल उठे। बरसात से किसानों के साथ-साथ ग्रामीणों को भी गर्मी से बड़ी निजात मिली है। टोहाना क्षेत्र के गाव समैन, भीमेवाला, नागला, नागली, कन्हड़ी, गाजूवाला, लोहाखेड़ा, पिरथला, पारता सहित आस-पास के क्षेत्र में हुई तेज बरसात ने एक बार फिर किसानों के चेहरों को खिला दिया। किसानों का मानना है कि आषाढ़ महीने में बरसात होने से फसलों के लिए अपने आप में कई फायदे है। किसान मानते है कि इस महीने में बारिश होने से खेतों में धान की फसल की रोपाई का कार्य किया जा सकता है। धान के साथ-साथ खेतों में बाजरे की फसल की बिजाई की जा सकती है। तेज गर्मी व लू के कारण जल रही नरमे की फसल को इस बरसात से एक नया जीवनदान मिला है। क्षेत्र के किसानों का कहना है कि यदि यह बरसात समय पर नही होती तो शायद इस बार नरमे की पूरी फसल से किसानों को हाथ धोना पड़ सकता था। उधर क्षेत्र के ग्रामीणों ने इस बरसात का स्वागत किया है। ग्रामीणों का कहना है कि पिछले दिनों पड़ी तेज गर्मी ने उनको बेहाल कर दिया था,लेकिन बरसात ने उनके लिए एक बड़ी राहत का कार्य किया है। बरसात से तापमान में आई गिरावट के कारण क्षेत्र का मौसम भी सुहावना व खुशगवार होने हो गया।

हरियाणा में अब एक आईजी साहब फंसे छेड़छाड़ मामले में

चंडीगढ़ । हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ का मामला अभी पूरी तरह शांत भी नहीं हुआ है कि प्रदेश के एक और पूर्व सीनियर पुलिस ऑफिसर के खिलाफ छेड़छाड़ का मामले में केस दर्ज किया गया है। पूर्व आईजी एम.एस. अहलावट के खिलाफ कथित छेड़छाड़ का यह मामला भी आठ साल पुराना है। आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक यमुनानगर पुलिस ने मंगलवार को पूर्व आईजी अहलावट के खिलाफ मामला दर्ज किया। अहलावट पर आरोप है कि उन्होंने अपने पास शिकायत लेकर आई एक महिला वकील से छेड़छाड़ की। महिला वकील आठ साल पहले 8 मई 2002 को एसपी कैंप ऑफिस (रेजिसडेंस)में उनके पास धमकियां मिलने की शिकायत लेकर गई थीं। महिला वकील को अपने पति और अन्य लोगों के खिलाफ दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराने पर धमकियां मिलनी शुरू हो गई थीं।

8.6.10

लो क सं घ र्ष !: आर्थिक जीवन और अहिंसा -1

मानव समाज को और उसके अभिन्न अंग मानव मात्र को अपनी जिन्दगी को जीने की प्रक्रिया में अनेक प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की जरूरत होती है। आधुनिक विनिमय अर्थव्यस्थाओं में इन वस्तुओं को पाने के लिए नियमित रूप से और आमतौर पर बढ़ती हुई मात्रा में मौद्रिक आय की जरूरत होती है। किन्तु मौद्रिक आय अपने आप में समाज और व्यक्ति की जरूरतें पूरी नहीं कर सकती हैं। इस मौद्रिक राशि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की, और आम तौर पर बढ़ती हुई मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन और उचित दामों पर उनका वितरण होेना जरूरी है, अन्यथा अर्थव्यस्था का सबको जीवन-यापन के साधन उपलब्ध करानेे का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा। सामाजिक श्रम-विभाजन के कारण किसी खास वस्तु या सेवा के उत्पादन में लगे व्यक्ति को भी अपनी अनेक प्रकार की अन्य वस्तुओं और सेवाओं की जरूरतें पूरी होने का आश्वासन रहता हैं। यहाँ तक कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के चलते सुदूर देशों में उत्पादित वस्तुएँ और सेवाएँ भी दूर-दूर के देशों में उपलब्ध हो जाती हैं। संक्षेप में परस्पर सम्बंधित आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य जैसे सामाजिक प्राणी का अस्तित्व उसके व्यक्तित्व का समुचित पल्लवन और उसके जीवन की सार्थकता, अपनी विविध भौतिक और गैर-भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के साथ-साथ शेष समाज की इन जरूरतों की पूर्ति में समुचित योगदान करने में निहित माने जा सकते हैं। वास्तव में अपनी निजी जरूरतों की पूर्ति और शेष समाज के इन्हीं उद्देश्यों हेतु सक्रियता एक तरह से संयुक्त, अभिन्न रूप से जुड़ी हुई प्रक्रियाएँ हंै। विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाएँ, नियम-कायदे, ज्ञान, तकनीकें, भावनात्मक संास्कृतिक पक्ष और इनसे जुड़ी अनवरत जारी तथा निरन्तर विकास मार्गीय प्रक्रियाएँ आपस में गहराई से जुड़ कर एक जीवन समाज की रचना करतें हंै। इस तरह व्यक्ति के वजूद के साथ-साथ समाज के सौहार्द, समरसता और सम्यक् विकास की गहरी तथा अविच्छिन्न परिपूरकता, सामाजिक सम्बन्धों की न्याय संगत प्रकृति और उनके टिकाऊपन अथवा सातत्य की शर्ताें के अनुपालन की अपेक्षा करतें हैं। वास्तव में यह कहा जा सकता हैं कि सामाजिक विकास की दशा, दिशा और गति के
निर्धारण में इन सामाजिक संबन्धों की प्रकृति अथवा गुणवत्ता की महती भूमिका होती है। आर्थिक जीवन में अहिंसा का स्थान इसी संदर्भ मे प्रकट होता हैं।
आम तौर पर आधुनिक युग में बहुप्रचलित सिद्धान्तों (अर्थात विभेदित समाजों में वर्चस्ववान तबकों द्वारा स्वीकृत या मान्यता प्राप्त सिद्धान्तों) के अनुसार उत्पादन वृद्धि और इस वृद्धि का विद्यमान बाजार की ताकतों, प्रक्रियाओ,ं और उनके समीकरणों के द्वारा उनके ‘कुशलता‘ के प्रतिमानों के अनुरूप निर्धारण आर्थिक जीवन के औचित्य की खरी और पर्याप्त कसौटी है क्या अर्थजगत की यह वांछित मानी गई तथा स्वतः स्वभावतः प्राप्त ‘कुशलता‘ सामाजिक जीवन के सुचारु संचालन और उच्च मानव मूल्यों की सार तत्व अहिंसक जीवन प्रणाली से संगत है? इन सिद्धान्तों (जिन्हें आरोपित विश्वास कहना ज्यादा वस्तुपरक अथवा तथ्य संगत होगा) की खास बात यह है कि इन्हें लागू करने के लिए किन्हीं कानूनों या बाहरी सत्ता की जरूरत नहीं मानी गई है, प्रतिपादित किया गया है कि हर व्यक्ति अपने संसाधनों क्षमताओं के अनुसार अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बिना रोक-टोक या व्यवधान के काम करे तो सभी लोगों के काम मिलकर एक व्यवस्थित, आदर्श या आप्टिमम समष्टिगत व्यवस्था का बिना किसी पृथक प्रयास के निर्माण और संचालन कर पाएँगे।
इस स्व-प्रेरित, स्वनियामित और स्वतः संचालित निजाम को स्वतंत्रता या स्वैच्छिक चयन अथवा वरण करने की आजादी के उच्च, उदात्त आदर्श के अनुकूल बताकर प्रचारित या महिमामंडित किया जाता रहा है। हर व्यक्ति अपना अपना रास्ता चुनता और तय करता है। इसलिए दावा किया जाता है कि यह व्यवस्था किसी पर किसी की हिंसा, वर्चस्व और दबाव नहीं थोपती है। यहाँ तक कि इस व्यवस्था का नाम भी ‘‘स्वतंत्र अथवा उन्मुक्त या ‘एकला चालो रे’‘ बाजार व्यवस्था रख दिया गया है। इस स्वचालित, स्वतः नियामित बाजार या निजी पूँजी व्यवस्था में असंख्य लोगों के पृथक-पृथक, अपने निजी स्वार्थ या मकसद से प्रेरित निर्णय और कर्म निजी लाभ को प्राथमिकता देने वाले और सचेतन रूप से बिना किसी सामाजिक प्रतिबद्धता अथवा उत्तरदायित्व विहीन माने गए हैं। फिर भी इनका संयुक्त, अनिच्छित, वस्तुगत प्रभाव अर्थव्यवस्था की सभी इकाइयों को आदर्श संतुष्टि देने में सक्षम माना गया है। किसी जमाने में इसी स्थिति के लिए कहा गया था कि निजी शुद्ध स्वार्थों जैसे अवगुण पर आधारित व्यवस्था, बाजार की मध्यस्थता के कारण सभी की जरूरतें पूरा करने, सभी को अपने काम के अनुरूप पारिश्रमिक देने तथा सबके बीच न्यायोचित सम्बन्ध बनाने वाले सार्वजनिक गुण में तब्दील हो जाता है। इस तरह मूल्यों और मान्यताओं के स्तर पर इस बाजार व्यवस्था और इसके कुशल संचालन को स्वतंत्रता, स्वैच्छिक निर्णय तथा आपसी सम्बंधों के औचित्य की कसौटी पर खरा बताकर प्रचारित किया जाता रहा है।

-कमल नयन काबरा
(क्रमश:)

लो क सं घ र्ष !: तमसो मा ज्योर्तिगमय

बिजली न होने से जो समस्यायें होती हैं, उनकी सूची हम आप बैठकर किसी भी समय बना सकते हैं, परन्तु एक समस्या मेरे संज्ञान में अभी तक नहीं थी, वह यह कि कुछ ऐसे कुआंरे हैं जिनके घर में भी अंधेरा है और जीवन में भी बिजली न होने के कारण इन बेचारों की शादी भी नहीं हो पा रही है। मैं जो लिख रहा हूँ आप इसे गप्प न समझिये। खबर जो आई है उसे मैं अक्षरशः नकल किये देता हूॅ:-
-अधिवक्ता निर्मल सिंह ठीक ठाक परिवार के हैं। देखने सुनने में भी ठीक हैं और कमाते भी अच्छा है। इसके बावजूद इन्हें विवाह के लिये बढ़िया घर से रिश्ता नहीं मिल रहा।
-अमरेश यादव दुग्ध विभाग में काम करते हैं, बढ़िया नौकरी है। सामाजिक स्थिति ठीक ठाक है। घर परिवार अच्छा होने के बावजूद इनका अब तक विवाह नहीं हो सका हैं।
इन युवाओं का मंगल और शनि ठीक हैं राहु और केतु का योग भी अच्छा है.... दर असल इन युवाओं की कुण्डली में है बिजली संकट दोष। इस दोष के कारण लोग इस गांव में अपनी बिटिया ब्याहना नहीं चाहते।’’
यह केवल इन दो व्यक्तियों की बात नहीं है। यहां के अनेक युवा अविवाहित हैं। यह व्यथा-कथा है, राजधानी लखनऊ के करीब के ग्रामों की।
इन खबरों में मजा न लीजिये न चुटकुले बाजी कीजिए। हमको इनकी इस गंभीर समस्या से पूरी हमदर्दी है, परन्तु हम कर ही क्या सकते हैं।
पुराने संस्कृत वाक्यों में अब भी बड़ा दम है। मैं एक ही सलाह दे सकता हूॅ कि सभी दुखी युवक एक सामूहिक जप समारोह आयोजित करें और जब तक बिजली व्यवस्था ठीक न हो प्रतिदिन यही पढ़ते रहें-
तमसो मा ज्योर्तिगमय

-डॉक्टर एस.एम हैदर

7.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा- अंतिम भाग


भीतर और बाहरः चैकस और मजबूत

जो चीज हमने 20वीं सदी के इतिहास में देखी और जिससे हम कुछ सीख सकते हैं वे शोषण और अत्याचारों के खिलाफ हुईं क्रान्तियाँ तो थीं ही, पर साथ ही ये भी कि क्रान्ति कर लेने के बाद उसे सँभालना, उसे वक्त के कीचड़ में धँसने से रोकना और भी बड़ी, और भी कठिन जिम्मेदारी होती है। यह जिम्मेदारी क्यूबा ने निभाई, वहाँ के लोगों ने और करिश्माई क्रान्तिकारी नेताओं ने निभाई। इंकलाब को नाकाम करने वाली ताकतों को खदेड़ना और बाकी रहे लोगों के साथ उत्पादन के समाजवादी ढाँचे का निर्माण करना, लोगों के बीच संपत्ति के सामूहिक सामाजिक स्वामित्व की समझदारी पैदा करना और इस रास्ते पर चलते हुए भी दुनिया की रफ्तार के साथ पीछे न होना, अदब में, तहजीब में, विज्ञान में, नये-नये कारनामे अंजाम देना और इस सब को इंकलाब के दायरे के भीतर इस तरह समेटना कि न किसी को दम घुटता महसूस हो और साथ ही इंकलाब का दायरा भी बगैर शोरगुल के अपना कद बढ़ाता जाए-ये सब क्यूबा ने खुद सीखा और दुनिया में इंकलाब की ख्वाहिश रखने वालों को सिखाया।
यह सब तो लम्बी तैयारी वाले रोज-रोज, इंच-इंच बढ़ने वाले काम हैं लेकिन लोगों की ऐसी हर कोशिश को नाकाम करने के लिए जो ताकतें सक्रिय हैं, उनसे निपटना, अंदर और बाहर व्यूह रचना कर पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के जबड़ों से इंकलाब को बचाना भी बेहद मुश्किल काम था। लोगों को लगता है कि जब तक सोवियत संघ था तब तक क्यूबा को कोई समस्या नहीं थी। यह सच नहीं है। यह रास्ता कभी आसान नहीं था। जब सोवियत संघ था तब भी देश के भीतर की आबादी को समाजवादी उत्पादन पद्धति में ढालने के प्रयास बरसों की मेहनत और चींटी की चाल ही साबित होते थे। इसके बावजूद नये-नये कल्पनाशील कार्यक्रमों के जरिये लोगों को इस दिशा में आगे बढ़ाना और एक गौरव भाव का विकास करते हुए बाकी दुनिया को रास्ता दिखाना इंकलाब के बाद का एक जरूरी काम था जिसे क्यूबा ने कर दिखाया ।

जिंदगी के बारे में नजरिया बदल गयाः मारक्वेज

हमारे वक्त के एक महान रचनाकार और नोबल से सम्मानित गाब्रिएल गार्सिया मारक्वेज उर्फ गाबो का मानना है कि 1958 के पहले तक वे मनोरंजन पूर्ण लेखन करते थे, व्यंग्यात्मक राजनीतिक लेखन भी करते थे लेकिन 1959 की 1 जनवरी को क्यूबा में जो क्रांति हुई, उसने जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बदल दिया। क्यूबा के इंकलाब ने ऐसा सिर्फ गाबो की जिदगी में ही नहीं किया था, बल्कि लैटिन अमेरिका की पूरी आबादी ही जिंदगी, आज़ादी और इंकलाब के ऐसे सुरूर में आ गई थी जो सुरूर आज तक फीका नहीं पड़ सका। उसके बाद से तो खैर सारी दुनिया के ही वे सारे लोग क्यूबा, फिदेल और चे के प्यार की गिरफ्त में पड़ते रहे जिन्हें इंसानियत और न्याय से प्यार है।
बहरहाल तो हुआ यूँ कि पूँजीवादी मुल्कों की प्रेस और मीडिया क्यूबा की क्रान्ति को बदनाम करने की काफी कोशिश कर रहे थे। एक रोज़ कोलंबिया में रह रहे और वहाँ के अखबार से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे गाबो से क्यूबा का एक प्रतिनिधि आकर मिला और उसने गाबो को क्यूबा आने, वहाँ की न्याय व अन्य व्यवस्थाएँ देखने का आमंत्रण दिया। क्यूबा की आजादी, वहाँ के लोगों की मासूमियत, ईमानदारी और अपने इंकलाब के लिए सम्मान देखकर गाबो ताजिंदगी क्यूबा के प्यार में रच बस गए। इसके कुछ ही महीनों बाद उन्हें क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार द्वारा बनाई गई समाचार एजेंसी ’प्रेन्सा लेटिना’ में काम करने का मौका मिला। बाद में गाबो को प्रेन्सा लेटिना का प्रतिनिधि बनाकर न्यूयाॅर्क भी भेजा गया। धीरे-धीरे गाबो और फिदेल की दोस्ती भी बढ़ती गई। दरअसल जब मारक्वेज ने 1970 में ’ दि स्टोरी आॅफ अ शिप रेक्ड’ लिखी थी तो उसमें एवेन्चुरा नामक जहाज की गति की गणना में कुछ गलती थी, जिसकी तरफ सबसे पहले मारक्वेज का
ध्यान फिदेल ने ही खींचा था। तब से हमेशा मारक्वेज अपनी किताब छपने के पहले पांडुलिपि फिदेल कास्त्रो को पढ़ाते हैं, और सारी दुनिया में वे लैटिन अमेरिका की शोषण से आजादी, अस्मिता और कोलंबिया व अन्य लैटिन अमेरिकी देशों में संघर्षरत क्रान्तिकारियों की ओर से मध्यस्थ्ता करते हैं, उनकी माँगों को दुनिया के सामने लाते हैं।

चे के शब्दों में फिदेल

क्यूबा की क्रान्ति के सबसे अहम, सबसे अद्भुत और भूकंपकारी तत्व का नाम है फिदेल कास्त्रो। फिदेल के व्यक्तित्व की यह खासियत है कि वह जिस भी आंदोलन में भागीदारी करेगा, उसका नेतृत्व करेगा। उसके अंदर महान नेतृत्व के गुण हैं और इनके साथ साफगोई, ताकत, और साहस के साथ उसकी लोगों की इच्छा को पहचानने की अद्वितीय क्षमता ने उसे इतिहास में ये सम्मानजनक जगह दिलाई है। भविष्य में उसका असीमित विश्वास और उसे अपने साथियों से ज्यादा साफ और दूर तक समझ कर उससे दो कदम आगे का फैसला ले सकने की उसकी क्षमताओं ने, उसकी सांगठनिक योग्यता और कमजोर करने वाले भेदों का विरोध करने की उसकी ताकत ने, लोगों के लिए उसके बेतहाशा प्यार ने और जन कार्रवाई का रुख तय कर सकने की उसकी क्षमता ने क्यूबा की क्रान्ति का सबसे अहम किरदार बनाया है।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(समाप्त)

लो क सं घ र्ष !: न उनकी दोस्ती अच्छी, न उनकी दुश्मनी अच्छी

(हतोयामा)
आप नें देखा अभी जापान में क्या हुआ ? आम तौर पर लोग यही समझते हैं कि अमेरिका व जापान के बीम गाढ़ी- छनती है। अब यह राज़ खुलता नज़र आता है कि सरकारी स्तर पर चाहे यह सत्य हो परन्तु जनता के स्तर पर ऐसा विचार सही नही है।
आप जानते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के अवसर पर उक्त दोनो देश एक दूसरे क प्रबल विरोधी थे। यही कारण था कि अमेरिका नें जापान के दो शहरों हीरोशिमा एँव नागासाकी पर परमाणु बम बरसा कर दोनो को बर्बाद कर दिया था। बाद में दोनो देश मित्र बने यह मित्रता इतनी बढ़ी कि जापान के दक्षिणी द्वीप ओकिनावा में अमेरिका नें अपना सैन्य अड्डा स्थापित कर लिया । अब स्थिति यह है कि अमेरिकी फौज का वहाँ आधा हिस्सा मौजूद है।
अमेरिका तो दुनिया भर में दादागीरी भी करता है और स्वार्थ पूर्ति भी। जापानी जनता को भी इस बात का एहसास हुआ उसने इस अड्डे को हटवाने के लिये आवाज़ उठाई।
पिछले साल सितम्बर में वहाँ प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले हतोयामा नें अपने चुनावी वादों नें अमेरिका सैन्य अड्डे फुतेन्वा को स्थानातरिक करने का वादा किया था, लेकिन बाद में वाशिंगटन को खुश रखने के लिये वह अपने वादे से मुकर गये।
इस फैसले से प्रधानमंत्री के गठबंधनसहयोगी सोशल डेमोक्रेट्स नाराज हो गये। इस निर्णय के कारण हाल में हुए जनमत संग्रह में उनकी लोकप्रियता 70 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत पहुंच गई।
अन्ततः 63 वर्षीय हतोयामा को यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा ‘‘सरकार जनता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाई।’’
क्या मेरे इस सवाल को आप मानेंगे।
उनकी दोस्ती अच्छी, उनकी दुश्मनी अच्छी।

डॉक्टर एस.एम हैदर

6.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-5




साम्राज्यवाद का दुःस्वप्नः क्यूबा और फिदेल


आइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश और छोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ओबामा-भूलचूक लेनी-देनी भी मान ली जाए तो अमेरिका के 10 राष्ट्रपतियों की अनिद्रा की एक वजह लगातार एक ही मुल्क बना रहा - क्यूबा।
1991 में जब सोवियत संघ बिखरा और यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ भी एक के बाद एक ढहती चली गईं तो यह सिर्फ पूँजीवादियों को ही नहीं वामपंथियों को भी लगने लगा था कि अब क्यूबा नहीं बचेगा। फिर जब फिदेल कास्त्रो की बीमारी और फिर मौत की अफवाह फैलाई गई तब भी यही लगा था कि फिदेल के मरने के बाद कौन होगा जो इतनी समझदारी और कूटनीति से काम लेते हुए क्यूबा को अमेरिकी आॅक्टोपस से बचाये रख सके।
लेकिन क्यूबा बना रहा। न केवल बना रहा बल्कि अपने चुने हुए रास्ते पर मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।
फिदेल कास्त्रो को मारने और क्यूबा की आजादी खत्म करने की कितनी कोशिशें अमेरिका की तरफ से हुई हैं, इसकी गिनती लगाते-लगाते ही गिनती बढ़ जाती है। सन 2006 में यू0के0 में चैनल 4 ने एक डाॅक्युमेंट्री प्रसारित की थी जिसका शीर्षक था-कास्त्रो को मारने के 638 रास्ते (638 वेज टु किल कास्त्रो)। फिल्म में फिदेल कास्त्रो को मारने के अमेरिकी प्रयासों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया था जिसमें सी.आई.ए. की मदद से फिदेल को सिगार में बम लगाकर उड़ाने से लेकर जहर का इंजेक्शन देने तक के सारे कायराना हथकंडे अपनाए गए थे। तकरीबन 40 बरस तक फिदेल कास्त्रो के सुरक्षा प्रभारी और क्यूबा की गुप्तचर संस्था के प्रमुख रहे फेबियन एस्कालांते बताते हैं कि ’लाल शैतान’ को खत्म करने के लिए अमेरिका, सी0आई0ए0 और क्यूबा के भगोड़े व गद्दारों ने हर मुमकिन कोशिश की। फिल्म के निर्देशक डाॅलन कैन्नेल और निर्माता पीटर मूर ने अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहे ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात की, जिन पर फिदेल की हत्या की कोशिशों का इल्जाम है। उनमें से एक सी0आई0ए0 का रिटायर्ड अधिकारी फेलिक्स रोड्रिगुएज भी था जो 1961 में क्यूबा पर अमेरिकी हमले के वक्त क्यूबा के विरोधियों का प्रशिक्षक था और जो 1967 में चे ग्वेवारा के कत्ल के वक्त बोलीविया में भी मौजूद था। यहाँ तक कि अमेरिकी जासूसी एजेंसियों की नाकामियों से परेशान होकर अमेरिकी हुक्मरानों ने फिदेल को मारने के लिए माफिया की भी मदद ली थी।
कुछ बरसों पहले 80 पार कर चुके फिदेल कास्त्रो भाषण देते हुए हवाना में चक्कर खाकर गिर गए थे। उनकी पैर की हड्डी भी इससे टूट गई थी। बस, फिर क्या था। अमेरिकी अफवाह तंत्र पूरी तरह सक्रिय होकर फिदेल की मृत्यु की अफवाहें फैलाने लगा। लेकिन फिदेल ने फिर दुनिया के सामने आकर सब अफवाहों को ध्वस्त कर दिया। जब फिदेल के डाॅक्टर से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या उनकी जिंदगी का यह आखिरी वक्त है तो डाॅक्टर ने कहा कि फिदेल 140 बरस की उम्र तक स्वस्थ रह सकते हैं।
लेकिन फिदेल ने क्यूबा की जिम्मेदारियों को सँभालने में सक्षम लोगों की पहचान कर रखी थी। सन् 2004 से ही धीरे-धीरे फिदेल ने अपनी सार्वजनिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। फिर 2006 में फिदेल ने अपनी जिम्मेदारियाँ अस्थायी तौर पर राउल कास्त्रो को सौंपीं। चूँकि राउल कास्त्रो फिदेल के छोटे भाई भी हैं इसलिए सारी दुनिया में पूँजीवादी मीडिया को फिर दुष्प्रचार का एक बहाना मिला कि कम्युनिस्ट भी परिवारवाद से बाहर नहीं निकल पाए हैं। लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि राउल कास्त्रो फिदेल के भाई होने की वजह से नहीं बल्कि अपनी अन्य योग्यताओं की वजह से क्यूबा के इंकलाब के मजबूत पहरेदार चुने गए हैं। सिएरा मास्त्रा के पहाड़ों पर 1956 में जिस सशस्त्र अभियान में चे और फिदेल अपने 80 अन्य साथियों के साथ ग्रान्मा जहाज में मैक्सिको से क्यूबा आए थे, राउल उस अभियान का बेहद महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। बटिस्टा की फौजों से चंद महीनों के भीतर हुई सैकड़ों मुठभेड़ों में फिदेल, चे, राउल और उनके 10 अन्य साथियों को छोड़ बाकी सभी मारे गए थे। यह भी कम लोग जानते हैं कि फिदेल के कम्युनिस्ट बनने से भी पहले से राउल कम्युनिस्ट बन चुके थे। न सिर्फ जंग के मैदान में एक फौज के प्रमुख की तरह बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियों का भी राउल कास्त्रो ने मुकाबला किया है। मंदी के संकटपूर्ण ौर में खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज क्यूबा के जिस शहरी खेती के प्रयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है, वह दरअसल राउल कास्त्रो की ही कल्पनाशीलता का नतीजा है।
बेशक पूरी दुनिया में फिदेल एक जीवित किंवदंती हैं इसलिए क्यूबा से बाहर की दुनिया में हर क्यूबाई उपलब्धि चे और फिदेल के खाते में ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि फिदेल ने अपना इतना विस्तार कर लिया है कि वहाँ अनेक अनुभवी व नये लोग तैयार हैं। राउल कास्त्रो सिर्फ फिदेल के भाई होने का नाम ही नहीं, बल्कि इंकलाब की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयार लोगों में से एक नाम है।

इंकलाब का बढ़ता दायरा

आज सोवियत संघ को विघटित हुए करीब दो दशक पूरे हो रहे हैं। ऐसी कोई बड़ी ताकत दुनिया में नहीं है जो अमेरिका को क्यूबा पर हमला करने से रोक सके। क्यूबा से कई गुना बड़े देश इराक और अफगानिस्तान को अमेरिका ने सारी दुनिया के विरोध के बावजूद ध्वस्त कर दिया। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट शासन है लेकिन बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट ही उसे कम्युनिज्म के रास्ते से भटका हुआ कहते हैं। उत्तरी कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु शक्ति संपन्न बनने का रास्ता अपनाया है। फिर अब अमेरिका को कौन सी ताकत क्यूबा को नेस्तनाबूद करने से रोकती है? वह ताकत क्यूबा की क्रान्तिकारी जनता की ताकत है जिसे पूरी दुनिया की मेहनतकश और इंसाफ पसंद जनता अपना हिस्सा समझती है और अपनी ताकत का एक अंश सौंपती है।
पिछले बीस बरसों से वे लगातार चुनौतियों से जूझ रहे हैं अनेक मोर्चों पर बिजली की कमी की समस्याएँ, रोजगार में कमी, उत्पादन और व्यापार में कमी और बाहरी दुनिया के दबाव अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं ही, फिर भी, इतने कम संसाधनों और इतनी ज्यादा मुसीबतों के बावजूद क्यूबा ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और जन पक्षधर जरूरी चीजों को अपने नागरिकों के लिए अनुपलब्ध नहीं होने दिया। अप्रैल 2010 में क्यूबा के लाखों युवाओं को संबोधित करते हुए राउल कास्त्रो ने कहा कि ’इतनी मुश्किलों में से उबरने की ताकत सिर्फ सामूहिक प्रयासों और मनुष्यता को बचाने की प्रतिबद्धता से ही आती है, और वह ताकत समाजवाद की ताकत है।’ ये सच है कि कई मायनों में क्यूबा की जनता आज सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन वे जानते हैं कि इसका सामना करने और हालातों को अपने पक्ष में मोड़ लेने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। सर्वग्रासी पूँजीवाद अपने जबड़े फैलाए क्यूबा के इंकलाब को निगलने के लिए 50 वर्षों से ताक में है। चे ने 1961 में लिखा था कि गलतियाँ तो होती हैं लेकिन ऐसी गलतियाँ न हों जो त्रासदी बन जाएँ। क्यूबाई जनता जानती है कि समाजवाद के बाहर जाने की गलती त्रासदियाँ लाएगी।
आज सिर्फ क्यूबा में ही नहीं, सारी दुनिया में हर उस शख्स के भीतर की आवाज फिदेल और क्यूबा के लोगों और क्यूबा की आजादी के साथ है जिसके भीतर अन्याय के खिलाफ जरा भी बेचैनी है। आज चे, फिदेल और क्यूबा सिर्फ एक देश तक महदूद नाम नहीं हैं बल्कि वे पूरी दुनिया के और खासतौर पर पूरे दक्षिण अमेरिका के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रतीक हैं। अमेरिका जानता है कि फिदेल और क्यूबा पर किसी भी तरह का हमला अमेरिका के खिलाफ एक ऐसे विश्वव्यापी जबर्दस्त आंदोलन की वजह बन सकता है जिसकी लहरों से टकराकर साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नाव तिनके की तरह डूब जाएगी।
क्यूबा की प्रेरणा, जोश और फिदेल की अनुभवी सलाहों के मार्गदर्शन में आज लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सरमायादारी के खिलाफ आंदोलन मजबूत हुए हैं और वेनेजुएला और बोलीविया में तो परेशानहाल जनता ने इन शक्तियों को सत्ता भी सौंपी है। अपनी ताकत को बूँद-बूँद सहेजते हुए पूरी सतर्कता के साथ ये आगे बढ़ रहे हैं। क्यूबा ने उनकी ताकत को बढ़ाया है और वेनेजुएला के राष्ट्रपति चावेज और बोलीवियाई राष्ट्रपति इवो मोरालेस के उभरने से क्यूबा को भी बल मिला है। अमेरिकी चक्रव्यूह से अन्य देशों को भी निजात दिलाने के लिए वेनेजुएला की पहल पर लैटिन अमेरिकी देशों को एकजुट करके ’बोलीवेरियन आल्टरनेटिव फाॅर दि अमेरिकाज’ (एएलबीए) और बैंक आॅफ द साउथ के दो क्षेत्रीय प्रयास किए हैं जिनसे निश्चित ही पूँजीवाद के बनाए भीषण मंदी के दलदल में फँसे देशों को कुछ सहारा भी मिलेगा और साथ ही समाजवादी विकल्प में उनका विश्वास बढ़ेगा। अब तक इन प्रयासों में हाॅण्डुरास, निकारागुआ, डाॅमिनिका, इक्वेडोर, एवं कुछ अन्य देश जुड़ चुके हैं। यह देश मिलकर अमेरिका की दादागीरी को कड़ी व निर्णायक चुनौती दे सकते हैं। नये दौर में ऐसी ही रणनीतियाँ तलाशनी होंगी।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(क्रमश:)