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17.5.10

नकली दूध के परिणाम

हम लोग जो दूध पि रहे है उसमे से ज्यादा तर बनावटी है/बनावटी दूध कार्सिनोजेनिक होता है / इस तरह के दूध के बहुत भयानक परिणाम होते है / यह केंसर पैदा करता है / इस के अन्दर जो सोडा होता वह दिल ,किडनी और लीवर के लिए हानिकारक होता है. यूरिया जो इसमें मिलाया जाता है वह साइड इफेक्ट्स होते है /स्टार्च हमारी पाचन नाली को नुकसान पहुचाता है / जेंताम्यिसिन जिससे नकली दूध बनाया जाता है केंसर को जनम देता है कास्टिक सोडा एसिडिटी, अल्सर, और अन्त्रिओं के रोगों को जनम देता है./ लम्बे समय तक बनावटी दूध पिने से जोड़ो का दर्द ,तुब्र्क्लोसिस , हेपेतैतास ऐ और बी हो जाता है.एक सर्वे ने बताया है की लगबघ १२ परदेशो में दूध में बहुत जयादा पेस्त्तिसैदाज़ यानि दवयिया मिली है जो की सेहत के लिए बहुत हानिकारक है.

संरक्षण वृक्षों जीवों और वन्यजीवों का या इंसानों का भी

कुछ भागों में वृक्षों के संरक्षण का कानून लागू है। वृक्षों की सुरक्षा आवश्यक है पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने के लिए और वन्यजीवों की सुरक्षा भी आवश्यक है। लुप्तप्राय जीवों की सुरक्षा के लिए पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकना भी आवश्यक है, पशुओं से काम लेने के लिए। हमारे देश की एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री को बराबर पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने में लगी हुई हैं और इस कार्य के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा है लेकिन शासन तंत्र का कोई भी व्यक्ति चाहे वह पूर्व हो या वर्तमान इंसानों के प्रति सुरक्षा के लिए नहीं सोचता।
अस्तित्व की लड़ाई केवल वन्यजीवों या जलजीवी प्राणियों में ही नहीं बल्कि पक्षियों में भी पाई जाती है। इंसान ही ऐसा प्राणी है जिसमें बुद्धि, विवेक और करूणा का भाव पाया जाता है लेकिन अधिसंख्यक इंसानों ने भी अपने अंदर का यह भाव खो दिया है और पशुवत हो चले हैं। अपने को सभ्य कहने वाला इंसानों का समाज अपने कमजोरों को असभ्य कहता है और इंसानियत से गिरकर ऐसे कमजोरों के लिए उनका स्थान पैरों में रखता है। उन्हें ऊपर उठने और तरक्की करने से रोकता है, अगर वह हिम्मत करके आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यह सभ्य समाज कभी उनका अंग भंग करता है, कभी वन्यजीव समझकर उनका शिकार करता है और कभी पालतू जीव समझकर बिना खाना दिये उनसे भरपूर मेहनत लेता है और इसके खिलाफ अगर कोई आवाज उठती है तो उसे सभ्य समाज सामूहिक रूप से दबा देता है।

सभ्य समाज ही नहीं, तथाकथित सभ्य समाज द्वारा रचित सभ्य एवं असभ्य समाज द्वारा निर्वाचित सरकारें भी तथाकथित सभ्य समाज की मदद में खड़ी रहती हैं और निर्वाचित सरकार में हिस्सेदारी रखने वाले लोग जनसाधारण का प्रतिनिधित्व न करके केवल चुनिंदा लोगों का प्रतिनिधित्व करते और अपने को उनके साथ आगे बढ़ाने के लिए उनकी चाटुकारिता करते हुए दिखते हैं (अपवाद को छोड़कर)। यह चाटुकार प्रतिनिधि केवल जीव-जन्तुओं और जीव-जन्तुओं की सुरक्षा के नाम पर फायदा उठाने वाले लोगों के लिए काम करते हैं, वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए कानून बनाते हैं लेकिन वनवासियों के विरूद्ध उठ खड़े होते हैं और कभी-कभी उनके विरूद्ध अपने आकाओं को मदद पहुंचाने के लिए युद्ध का एलान करते हैं।

आइए व्रत लें, जीवों के प्रति क्रूरता न अपनाने का, वन्य जीवों और वृक्षों की सुरक्षा का और इसी के साथ वनवासियों और तथाकथित सभ्य समाज द्वारा निर्धारित असभ्य समाज को ऊपर उठाने का, यदि ऐसा न हुआ तो देश खुशहाल नहीं रहेगा।

मोहम्मद शुऐब एडवोकेट

16.5.10

खता करता है कातिल और हम शरमाये जाते हैं

क़ातिल और जल्लाद में क्या अन्तर है ? क़ातिल हर शहर, हर देहात में बन्दूके ताने बड़ी शान से घूम रहे हैं, लोग झुक-झुक कर बड़े भय्या, बड़े दादा कह कह कर सलाम, राम जुहार कर रहे हैं। वे गर्व का अनुभव कर रहे हैं। हत्यायें करना भी ‘स्टेटस सिंबल‘ बन गया है। बम्बई नर संहार की अदालती सुनवाई के दौरान अजमल कसाब का हाव-भाव कथा बताता रहा। यही न, कि उसने एक बड़ा कारनामा कर दिखाया, बड़े पुण्य का काम किया, अपने को बड़ा जेहादी मानता रहा। लेकिन यह सारा ग़ुरूर उस समय चकनाचूर हो गया जब उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई और वह रोने लगा, आंसू बहाने लगा। क्या यह प्रायश्चित या पश्चाताप था ? नहीं। यदि ऐसा होता तो सुनवाई के दौरान भी कभी ऐसा करता। इस समय का रोना यह साफ बताता है कि उसे ख़ुद अपनी मौत सामने दिखाई दी। अफ़सोस तो इस पर होता है कि 166 से अधिक मौतों पर भी वह ज़रा भी न पिघला।
समाज की मान्यतायें भी ख़ूब है, क़ातिल के प्रति वह इतने ‘सेनसिखि‘ नहीं हैं, जितना जल्लाद के प्रति है, जल्लाद तो अपनी क़ानूनी डियुटी अन्जाम देता है, वह किसी बेख़ता को नहीं मारता।
खुद जल्लाद भी र्शमाता है- एक ख़बर अहमद उल्ला जल्लाद को अपने पेशे से नफ़रत है। ग़रीबी के बावजूद वह अपने बेटे को इस पेशे में नही डालना चाहता। कैसरबाग लखनऊ की एक गली में इस रहने वाले के काम के बारे में उसके पड़ोसी भी नहीं जानते थे जब जान गये तो उसने अपना निवास बदल लिया। वह कहता है कि जिनको मैंने फांसी दी जब वह दृश्य मैं याद करता हूँ तो मैं परेशान हो जाता हूं देखिये। एक कातिल वह एहसास नही करता जो एक जल्लाद करता है-
खता करता है कातिल और हम शरमाये जाते हैं।

डॉक्टर एस.एम हैदर

Why Men Don't Cry _ Writer- Kamlesh Chauhan all rights reserved @2010

Why Men Don’t Cry?


Written By Kamlesh Chauhan

Copyright @ 2010







We are going all the way through very rebellious period where women are becoming more and more candid, Independent and career oriented which is mostly conventional to young male generation. Women reject to take physical, verbal and mental abuse which is great challenge to men world. If we say abuse has been stopped against women that are our erroneous belief. Look at human trafficking, People think Prostitution is an old trade instead of ending that trade, Society accepts without taking a measure on such an evil.



Why Men are abusive? Why Men don’t cry? Do we ever think about these issues?

It’s easy to play victim or blaming attacking men only than taking a stand on it. No relation is worry or problem free. Every marriage has problems. There is a time when Parents from both side to arbitrate and there is time when families take leave from both adults married kids. Some time they do need to consult them sometime we let them figure out their own issues.



But we all failed to see some serious concern about abusive pattern in both among men and women. Men also deal with abusive women physical, verbal or manipulative controlling, nagging behaviors. Men mostly don’t complain. They show their anger but feel ashamed to be abused by their female partners. Women world is frustrated with men ruling them for centuries. Now women are not only assertive but they are getting aggressive. Some girls being abused as child at parents home, some being isolated when they witnessed abuse at parental home. Some parents beat, scold their girls as child so when young girl get married she is already on her high horns not let her mate to take advantage of her as her young mate is ready to shower love and kindness. Women mostly less abusive but nagging, controlling weapon been used on their innocent loving, kind mate to take revenge on men something their forefathers done to family women. Do Men complain or cry in this situation?



At the time of hunting and gathering men were encouraged to be tough. Society expects men to be tough under every circumstance and keep their emotions in check. Crying considered as weakness among men. For that reason men experienced loneliness when they can’t express their grief, love, hate and antipathy if men don’t show their emotions, tears and fears they will end up bitter and angry men. In my opinion there is nothing wrong to be shed tears; Men are human just like us women. Men should express their anger with emotions not by physical force. Crying in men should not be sign of weakness as long as they don’t cry 24 hours and seven days.

15.5.10

हाय रे ! लोकतान्त्रिक देश की पुलिस, तूने ! जान ले ली

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक अपहरण के मामले में रूबी चौरसिया को पुलिस उठाकर थाने ले गयी 19 वरिशीय रूबी के साथ पुलिस ने पुलिसिया तरीके से पूछ-ताछ की। जिससे अपमानित महसूस होकर रूबी चौरसिया ने आत्महत्या कर ली । प्रदेश में प्रतिदिन किसी अपराध के भी पूछ-ताछ में पड़ोसियों तक के बच्चो को पुलिस दबाव बनाने के लिए अविधिक रूप से पकड़ ले जाती है और हफ़्तों पूछ-ताछ के बहाने थानों में कैद रखा जाता है। अधिकांश मामलो में वसूली होती है और बाद में छोड़ भी दिया जाता है या सारा कृत्य पुलिस के उच्चाधिकारियों की जानकारी में होता है कोई घटना घटित होती है तो सबसे पहले औरतें व लड़कियों को पुलिस निशाना बनाती है जो औरतें व लडकियां थानों में हफ़्तों रहकर आती है वह सामाजिक प्रतारणा व जग हँसी से बच नहीं पाती हैं। जिसमें तमाम सारी औरतें मानसिक रूप से विछिप्त भी हो जाती हैं पुलिस का मुख्य निशाना अब अपराधी नहीं रहा है अपितु मध्य वर्गीय घरों के छात्र होते हैं और पुलिस अनावश्यक रूप से उनको घरो से पकड़ ले जाती है और अपने हथकंडे अपना कर वसूली करती है। वसूली न देने पर वह कहती है कि एक भी मुकदमा लिख दिया जायेगा तो जिंदगी भर न्यायलय के चक्कर लगते रह जाओगे और भविष्य चौपट हो जायेगा। बाराबंकी में इस समय आबकारी विभाग और दुकानदारों से मारपीट हो गयी थी जिसमें पुलिस ने कोई नामजद अभियुक्त गिरफ्तार करने में विशेष सफलता नहीं पायी तो उसने नामजद अभियुक्तों के बच्चो, औरतो और रिश्तेदारों को अघोषित रूप से कैद कर रखा था जिसकी भी जानकारी शासन-प्रशासन के अधिकारियो को भी थी। बहादुर से बहादुर लोग पुलिस के इन गैर कानूनी हथकंडो व वसूली का विरोध नहीं कर पाते हैं।
पुलिस का स्वरूप बर्बर युग की याद दिलाता है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियो की पुलिस और आज की लोकतान्त्रिक देश की पुलिस में कोई अंतर नहीं है। ब्रिटिश पुलिस सरेआम गाँव के गाँव वालो को पीट डालती थी तो लोकतान्त्रिक देश की पुलिस थाने के अन्दर बंद कर पीटती रहती है। हम चाहे जितना सभ्य होने का लोकतान्त्रिक होने का दावा करें यहाँ पर आकर हम सब मजबूर हैं।

लोकतान्त्रिक देश की पुलिस हजारो रुबियो की जान ले चुकी है और आगे भी जान लेती रहेगी।

सुमन
फोटो: हिंदुस्तान से साभार

बबुआ ! कन्या हो या वोट...............

भारतीय संस्कृति में दान को बड़े विराट अर्थॊं में स्वीकारा गया है। कन्यादान और मतदान दोनों में अनेक समानताएं  हैं। कन्यादान का दायरा सीमित होता है वहीं मतदान के दायरे में सारा देश आ जाता है । कन्यादान एक मांगलिक उत्सव है.......मतदान उससे भी बड़ा मांगलिक उत्सव है। कन्यादान करना एक उत्तरदायित्व है.....मतदान करना बड़ा उत्तरदायित्व है। कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर मनको अपार शान्ति मिलती है। मतदान के उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर भी आप अमन-शान्ति चाहते हैं। कन्यादान के लिए लोग दर-दर भटक कर योग्य वर की तलाश करते हैं परन्तु मतदान के लिए क्या शीलवान (ईमानदार) पात्र  की तलाश करते हैं.......?  यह एक बड़ा प्रश्न है इसका उत्तर आप अपने सीने में टटोलिए अथवा इस लोकगीत में खोजिए!
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बबुआ ! कन्या हो या वोट...............

                                        -डॉ0 डंडा लखनवी

बबुआ ! कन्या हो या वोट ।
दोनों की गति एक है बबुआ ! दोनों गिरे कचोट ।।
                           õ
कन्या  वरै  सो पति कहलावै, वोट  वरै सो  नेता,
ये अपने  ससुरे को दुहते, वो जनता  को  चोट ।।
                           õ
ये    ढूंढें   सुन्दर    घर - बेटी, वे  ताकें   मतपेटी,
ये  भी अपनी गोट फसावै, वो   भी  अपनी गोट ।।
                           õ
ये  सेज  भी बिछावै अपनी, वो  भी  सेज बिछावै,
इतै बिछै नित कथरी-गुदड़ी उतै बिछै नित नोट ।।
                          õ
कन्यादानी   हर दिन रोवे, मतदानी   भी   रोवे,
वर  में हों   जो   भरे कुलक्षण, नेता  में  हों खोट ।।
                          õ
कन्या  हेतु  भला  वर ढूंढो, वोट  हेतु  भल  नेता,
करना  पड़े  मगज  में  चाहे  जितना घोटमघोट ।।
                       õ  õ      õ  õ

14.5.10

दिलों में नहीं आई दरारें




लेखक : कुलवंत हैप्पी
पिछले कई दिनों से मेरी निगाह में पाकिस्तान से जुड़ी कुछ खबरें आ रही हैं, वैसे भी मुझे अपने पड़ोसी मुल्कों की खबरों से विशेष लगाव है, केवल बम्ब धमाके वाली ख़बरों को छोड़कर। सच कहूँ तो मुझे पड़ोसी देशों से आने वाली खुशखबरें बेहद प्रभावित करती हैं। जब पड़ोसी देशों से जुड़ी किसी खुशख़बर को पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि अलग हुए भाई के बच्चों की पाती किसी ने अखबार के मार्फत मुझ तक पहुंचा दी। इन खुशख़बरों ने ऐसा प्रभावित किया कि शुक्रवार की सुबह अचानक लबों पर कुछ पंक्तियाँ आ गई।

दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच जो है फासला मिटा दे, मेरे मौला,
नफरत की वादियों में फिर से, मोहब्बत गुल खिला दे, मेरे मौला,

सच कहूँ, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच अगर कोई फासला है तो वो है दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच, मतलब राजनीतिक स्तर का फासला, दिलों में तो दूरियाँ आई ही नहीं। रिश्ते वो ही कमजोर पड़ते हैं, यहाँ दिलों में दूरियाँ आ जाएं, लेकिन यहाँ दूरियाँ राजनीतिज्ञों ने बनाई है। साहित्यकारों ने तो दोनों मुल्कों को एक करने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी है। अगर दिलों में भी मोहब्बत मर गई होती तो शायद श्री ननकाणा साहिब जाने वाले सिखों का वहाँ गर्मजोशी से स्वागत न होता, गुजरात की सीमा से सटे पाकिस्तान में खण्डहर बन चुके जैन मंदिरों को मुस्लिम अब तक संभाले न होते, शोएब के मन में सानिया का घर न होता, जाहिदा हीना जैसे लेखिका कभी पाकिस्तान की डायरी न लिख पाती और नुसरत फतेह अली खाँ साहिब, साजिया मंजूर, हस्न साहिब दोनों मुल्कों की आवाम के लिए कभी न गाते।

दिल चाहता है कि दोनों मुल्कों की सरकारों में साहित्यकार घूस जाएं, और मिटा दें राजनीतिज्ञों द्वारा जमीं पर खींची लकीर को। एक बार फिर हवा की तरह एवं अमन पसंद परिंदों की तरह सरहद लाँघकर बेरोक टोक कोई लाहौर देखने जाए, और कोई वहाँ दे दिल्ली घूमने आए। पंजाब में एक कहावत आम है कि जिसने लाहौर नहीं देखा, वो पैदा ही नहीं हुआ, ऐसा होने से शायद कई लोगों का पैदा होना होना हो जाए। जैन समाज खण्डहर हो रहे अपने बहुत कीमती मंदिरों को फिर से संजीवित कर लें, हिन्दु मुस्लिम का भेद खत्म हो जाए और बाबरी मस्जिद का मलबा पाकिस्तान में बसते हिन्दुओं पर न गिरे। हवाएं कुछ ऐसी चलें कि दोनों तरह अमन की बात हो, वैसे भी पाकिस्तानी आवाम भारत को अपने बड़े भाईयों के रूप में देखती है।

जी हाँ, जब हिन्दुस्तान में महिला आरक्षण बिल पास हुआ था, तो पाकिस्तानी महिलाओं ने अपने हकों के लिए वहाँ आवाज़ बुलंद की, और दुआ की कि भारत की तरह वहाँ भी महिला शक्ति को अस्तित्व में ला जाए। भारत में जब अदालत का फैसला 'गे समुदाय' के हक में आया तो पाकिस्तान में 'गे समुदाय' भी आवाज बुलंद कर उठा, जो कई वर्षों से चोरी चोरी पनप रहा था, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारतीय अदालत का फैसला पाकिस्तान में दुबक कर जीवन जी रहे गे समुदाय में भी जान फूँक जाएगा।

पाकिस्तानी आवाम व हिन्दुस्तानी जनता के दिलों में आज भी एक दूसरे के प्रति मोहब्बत बरकरार है, शायद यही कारण है कि पाकिस्तान में संदेश नामक सप्ताहिक अखबार की शुरूआत हुई, जो सिंध में बसते हिन्दु समाज की समस्याओं को पाकिस्तानी भाषा में उजागर करता है। पाकिस्तानी मीडिया हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों को ज्यादा अहमियत नहीं देता, लेकिन संदेश ने हिन्दु समाज के लिए वो काम किया, जिसकी कल्पना कर पाना मुश्किल है। इतना ही नहीं, पंजाबी बोली को बचाकर रखने के लिए पाकिस्तानी पंजाब में भी कई संस्थाएं सक्रिय हैं।

पाकिस्तान की सीमा से सटे पंजाब में कबूतर पालने का चलन आज भी है। लेकिन कबूतर पालकों की खुशी तब दोगुनी हो जाती है, जब कोई पाकिस्तानी अमन पसंद परिंदा उनकी छत्री पर एकाएक आ बैठता है। उनको वैसा ही महसूस होता है जैसा कि सरहद पार से आए किसी अमन पसंद व्यक्ति को मिलकर। काश! इन परिंदों की तरह मानव के लिए भी सरहदें कोई अहमियत न रखें। लेखक की दिली तमन्ना है कि एक बार फिर से Diwali में अली और Ramjan में राम नजर आएं।

लो क सं घ र्ष !: ताहि बधे कुछ पाप न होई

देश के वर्तमान स्थिति के क्रम में कुछ प्रश्न मन को मथने लगते हैं- जीव हत्या कथा पूर्ण रूपेण वजिर्त होना चाहिये या इसकी अच्छाई-बुराई परिस्तिथियों के अनुसार तय होगी ? जिहाद, धर्म युद्ध या होली-वार सही हैं या ग़लत ? अपराध पर पश्चाताप या प्रायश्चित किन हालात में स्वीकार करना चाहिये ?
इन बातों पर धर्म गुरूओं, विद्धानों, विधि, वेताओं, समाज शास्त्रियों एँव राजनीतिज्ञों नें पक्ष-विपक्ष में बहुत बहसें की है। मानवधिकारवादियों नें कुछ अलग रूख़ अपनाया है। विस्तार से बात आज नहीं होगी, इस समय केवल संकेत।
ऊपर तीन प्रश्न लिखे गये- पहले के संबंध में यह कहना चाहूँगा कि गाँधी और गोडसे के साथ अगर एक जैसा व्यवहार हो तो मानवता तड़प उठेगी। ईसा, सुफ़सत तथा इमाम हुसैन एँव उनके परिवार की ज़िन्दगी को ख़त्म कर देना अत्यतं निन्दनीय एँव घृरिणत कार्य था। परन्तु क़ातिलों को, वे जहाँ जहाँ भी हों क्या प्रत्येक दशा में क्षमा-दान देना उचित होगा। यदि व्यक्ति, समाज या मानवता को सुरक्षित रखना है तो ऐसे हत्यारों के लिये तुलसीदास का यह निणर्य ठीक है।
ताहि बधे कुछ पाप न होई।
जिहाद, धर्मयुद्ध या पवित्र युद्ध, यदि अपराध या अपराधियों के हतोत्साहन के लिये हों तो ग़लत न होगी लेकिन खुद अपराधियों नें इसका इतना अधिक दुरूपयोग किया कि यह शब्द ही घृणित हो गये। अब चाहें ‘अल्लाहो अकबर‘ कहिये या ‘हर हर महादेव‘ आतंकवादियों, उग्रवादियोें के कृत्य जायज नहीं ठहराये जा सकते। जन-आक्रोश हमेश उचित नहीं हुआ करते।
तीसरा प्रश्न- बम्बाई आतंकी हमला कितना क्रूर था, कितनी महिलायें विधवा हुई, कितने बच्चों के माँ बाप खत्म हुये- 166 की हत्या, 350 ज़ख्मी, जानमाल का असीमित नुक़सान। अब इस माह जब अजमल क़स्साब को फांसी की सजा़ सुनाई गई तो उसके आंसू निकले वह रोने लगा। क्या यह पश्चाताप था ? क़तई नहीं। यदि पश्चाताप होता तो वह सुनवाई के दौरान कभी रोता। उस दरमियान तो वह बड़ा ढीठ बना रहा। अब जब रोया तो उसे ख़ुद अपनी मौत याद आई। फांसी की सजा़ तो लगता है उसके लिये बहुत ही कम है। ‘रहीम‘ की पंक्ति भी बहुत हल्की हो गई।
खीरे का मुंह काट के, मलिये लोन लगाय।

डॉक्टर एस.एम हैदर

13.5.10

एक बार एक जज साहब बोले

न्यायिक कार्य से छुट्टी पाने के बाद कुछ देर के लिए जज साहब का हमारे साथ बैठना हुआ। बातचीत के दौरान जज साहब बोले, ‘‘ मेरा एक मुसलमान दोस्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्यकर्ता है।’’
मेरा संबंध उस लोकसभा क्षेत्र है जहां से किसी जमाने में सुभद्रा जोशी और अटल बिहारी बाजपेयी चुनाव लड़ा करते थे। सुभद्रा जोशी ने उस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंधित बहुत सारे साहित्य अपने क्षेत्र में वितरित किये और तत्समय का यह किशोर रूचिपूर्वक उस साहित्य को पढ़ता रहा। किसान इंटर कालेज, महोली, जिला सीतापुर में मैंने इंटरमीडिएट में जुलाई 1963 में दाखिला लिया, वहां मेरा एक दोस्त एक दिन खेलकूद और व्यायाम के लिए मुझे अपने साथ ले गया तब मुझे पता लगा कि वह व्यायाम और खेलकूद के लिए संघ शाखा लगाती है। दूसरे दिन मेरे मना करने से पहले मेरे दोस्त ने मुझे खुद शाखा में जाने से यह कहकर मना कर दिया कि शाखा संचालक को मेरे वहां जाने पर आपत्ति थी। आगे शिक्षा ग्रहण के दौरान मैंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बारे में सुनकर और पढ़कर बहुत कुछ जाना समझा।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक ऐसा संगठन है जिसके सामने हमेशा एक काल्पनिक दुश्मन रहता है, बिना दुश्मन की कल्पना किये संघ अपने कार्यकर्ताओं को शिक्षण और प्रशिक्षण नहीं दे सकता। शाखा में व्यायाम खेलकूद के साथ-साथ लाठी-डण्डा भी चलाना सिखाया जाता रहा है और अब आधुनिक युग में आधुनिक हथियारों की भी जानकारी दी जाती है। सिर्फ शाखा में ही नहीं बैठकों में भी मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगला जाता है। मुगल शासकों से लेकर आज के साधारण मुसलमानों तक के खिलाफ वहां बुद्धि का विकास किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र कायम करने के लिए हर प्रयास किया जाता है और हर प्रयास करने की शिक्षा दी जाती है। मुसलमानों को पाकिस्तानी कहकर उन्हें देश से निकालने की बात की जाती है और कहा जाता है कि इस देश में रहने वाले मुसलमानों का हिन्दूकरण करना आवश्यक है। संघ की राजनीतिक औलाद भाजपा अपने अलावा हर पार्टी के खिलाफ मुसलमानों के तुष्टिकरण का इल्ज़ाम लगाती है, इसकी धार्मिक और सामाजिक औलादें हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए मुसलमानों के खिलाफ विषवमन करती रहती हैं। जहां पर मुस्लिम समाज के और मुसलमानों के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ ज़हर उगला जाए वहां पर कोई मुसलमान रह सकता है यह सोचने का विषय है।

फिर भी सब कुछ जानने के बावजूद जज साहब बोले थे कि उनका एक दोस्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्यकर्ता है और यह जानकारी उनको कैसे होती अगर वह खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता होते।

सोचिए और सोच कर बताइए!

-मोहम्मद शुऐब एडवोकेट