आज मैं जो ये लेख डाल रहा हूँ ये परम आदरणीय माननीय अन्योनास्ती जी के अथक प्रयाश और मेहनत के कारण ही सम्भब हो सका (तेरा तुझे समर्पित क्या लागत है मोर )मैं ये लेख माननीय अन्योनास्ती जी के चरणों में समर्पित कर रहा हूँ
''शब्द नित्य है या अनित्य '' यह एक लम्बी और संभवता कभी न ख़त्म होने वाली चर्चा का विषय भी हो सकता है अपने अध्ययन में जो कुछ समझ और ग्रहण कर पाया उसके आधार पर मैं यहाँ पर कुछ कहने का प्रयास कर रहा हूँ
'' अनेक दार्शनिको का मत है क्यूँ कि शब्द प्रयास के फल स्वरूप उत्पन्न होता है अतः वह नित्य हो ही नहीं सकता और क्यूँ कि शब्द कि उत्पत्ति होती है ,,,,,,अतः ये विचार कि शब्द नित्य है गलत है' ''
.............शब्द इसलिए भी नित्य नहीं है क्यूँ कि एक निश्चित समय के बाद उसकी अनुभूति रुक जाती है ,,, उसका आभास ख़त्म हो जाता है ,,,,,, शब्द के वेग को घटाया और बढाया जा सकता है ........ यदि यह नित्य है तो ये नहीं होना चाहिए था ,,,,,,,,,,, इससे भी इसकी अनित्यता ही प्रमाणित होती है इस मत के दार्शनिको का कथन है कि हजारो प्राकट्य- कर्ता मिल कर भी '' किसी नित्य वस्तु ' को घटा या बढा नहीं सकते हैं ...... अब शब्द को नित्य स्वीकारने वाले दार्शनिको का मत भी जन लिया जाये
उनका मानना है उपरोक्त विचार कि शब्द नित्य नहीं अनित्य है स्वीकारना गलत है ,,,,,,,उनका मानना है कि शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती केवल प्रकटीकरण होता है
क्यूँ कि शब्दों का प्रकटी - करण मात्र होता है , उत्पत्ति नहीं ------ इससे पता चलता है कि शब्द पहले से उपलब्ध थे अतः शब्द की नित्यता सिद्ध होती है,,,, इसे हम इस प्रकार समझ सकते है ,,, जब हम चकमक पत्थर के दो टुकडो को आपस में रगड़ कर अग्नि प्राप्त करते हैं तो अग्नि की उत्पत्ति नहीं होती बल्कि उसका प्रकटी - करण मात्र होता है
,,,, ,शब्द उर्जा है और उर्जा का विनाश नहीं होता उसकी अवस्था परिवर्तित होती रहती है
,,,, जिस प्रकार चकमक पत्थर में अग्नि, प्रकटी करण से पहले वह अग्नि उसमे उर्जा के रूप में स्थित थी ठीक इसी प्रकार उच्चारण - कर्ता के आभाव में शब्द अदृश्य रूप में विद्यमान था किसी समय विशेष पर जब शब्द की अनुभूति नहीं होती है तो यह नहीं समझना चाहिए की शब्द अनित्य है बल्कि उसका एक ही कारण है ,,, कि शब्द का उच्चारण करने वाली वस्तु का विषय (शब्द ) से संपर्क नहीं हो सका था ,,,,,,जिस प्रकार, ' क 'शब्द नित्य है इसे आने बाली पीढियां उसी रूप में जानेगी और पिछली पीढियां भी उसी रूप में जानती रही हैं -------- चाहे उसके स्थूल (भौतिक ) रूप में कितना ही परिवर्तन क्यूँ न हो जाये (क, k),,,,, शब्द का वेग कभी घटता या बढ़ता नहीं है बल्कि शब्द की पुनरावर्ती उसके वेग की तीव्रता या मंदता का अनुभव कराती है अतः शब्द नित्य है और हमारे पास कोई कारण नहीं की हम कह सके की शब्द अनित्य है ,,,,,,,अब दूसरे पक्ष द्वारा ये जोर देकर कहा जा सकता है,, कि शब्द वायु का परिवर्तित रूप है वायु के ही संग्रह - विग्रह से ही इसकी उत्पत्ति होती है ----- अतः हम मान सकते है कि वायु का अभिर्भाव ही शब्द के लिए हुआ है अब क्यूँ कि शब्द वायु से उत्पन्न होता है इस लिए ये नित्य नहीं हो सकता है (एक दार्शनिक ),,,,, मेरे विचार से उपरोक्त विचार ही सारहीन है क्यूँ कि अगर शब्द केवल वायु का परिवर्तन मात्र होता तो उसे व्यक्त करने के लिए किसी माध्यम की आबश्यकता नहीं पड़ती वह स्वतंत्र रूप से वायु से निर्मित हो सकता था परन्तु ऐसा नहीं होता है ; वायु स्वतंत्र रूप से कोई शब्द उत्पन्न नहीं करती है बल्कि
हम कह सकते है वायु एवं शब्द में सहअस्तित्व है जिस प्रकार ' दूध में माखन ' घुला होता है ठीक इसी प्रकार शब्द वायु में मिला होता है
--------दूध को विलोकर मक्खन प्राप्त किया जा सकता है ठीक इसी प्रकार मुख से जब शब्द का उच्चारण होता है तो वायु विक्षोभित होती है और हमें शब्द का आभास हो जाता है ,,परन्तु इसका ये मतलब भी नहीं है की वायु रहित क्षेत्र मेंशब्द नहीं होता बल्कि शब्द तो हर जगह विद्यमान रहता है, बस हमारी कर्नेंद्रियाँ ( श्रवणेन्द्रियाँ ) उसे ग्रहण नहीं करती है जब हम आंख बंद करके मनन करते है तब क्या वो अवस्था शब्द रहित होती है -------नहीं ऐसा नहीं होता ; परन्तु वायु से शब्द की उत्पत्ति की विचारकता समाप्त हो जाती है ------मनन करने से मन में अनेक तरह के विचार उत्पन्न होते है और वे शब्द का ही सम्मिश्रण है , अब चूंकि मन स्थूल शरीर का भाग नहीं होता अतः वहां वायु के होने का सवाल ही नहीं है
,,,,, चूंकि मन आत्मा का भाग है और आत्मा पञ्च तत्व से निर्मित नहीं होती अतः शब्द पञ्च तत्व से निर्मित नहीं होते है...... अब नयी व्याख्या के अनुसार हम कह सकते है की शब्द एक तरह का आकर्षण है या चुम्बकीय क्षेत्र है ,,,,जो समय अनुसार स्थान परिवर्तन करके नित्य रहता है -------अब ये सिद्धांत कि वायु के संग्रह- विग्रह से शब्द की उत्पत्ति होती है कितना भ्रामक है ,,,,,, हम वंशी बजाते है गिटार वजाते है और भी कितने तरीके के वाद्य यंत्र है उन सब में शब्द का प्रकटी करण ही होता है निर्माण नहीं वंशी में प्रवाहित वायु हमारे शरीर से उर्जा ग्रहण करके वेग प्राप्त करती है और छिद्रों से विक्षुद्रित होती है और शब्द का प्रकटीकरण होता है ///// शब्द पुनः विश्रित होकर वायु में घुल जाताहै यह शब्द का उर्जा रूप है .... इसी प्रकार अन्य वाद्य यंत्रो का भी यही गुण है
,,,,,,अब वेदांग का यह कथन पूर्णता सत्य प्रतीत होताहै '' वायु का निर्माण ही शब्द के लिए हुआ है '' क्यूँ कि बिना वायु के हमारी कर्ण- इन्द्रियां शब्द का आभास नहीं कर सकती है .... अतः ये आबश्यक है की शब्द के आभास के लिए वायु हो
इन उदाहरणों से स्पस्ट है कि शब्द अनादि , अनन्त और नित्य हैं इसी लिए वेदों को भी नित्य कहा गया है क्यूँ कि वेद न तो कभी उत्पन्न किये गए है और न ही उत्पन्न किये जा सकते है और न किसी व्यक्ति द्वारा किसी भी स्थिति में उनकी रचना ही की जा सकती है
. इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है ''अक्षरम ब्रह्म स्वभावो अध्यात्म मुच्यते ''
शब्द को ही ब्रह्म बताया है अतः वेद की अपौरुषेयता पर संदेह करना ...... कठिन ही नहीं असंभव है ..... और ये विचार करना की वेद की रचना किसी ईश्वर या ब्रह्मा द्वारा हुई है गलत है यूँ कि वेद नित्य शव्दों संग्रह है किताब का नाम नहीं है ,
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5 टिप्पणियाँ:
क्या शुरू में यह लिखना जरुरी था ?
''बहुत गंभीर विषय पर एक सारगर्भित एवं सार्थक प्रयास तथा विषय- वस्तु की संक्षिप्त एवं स्पष्ट प्रस्तुति के लिए बधाई''
परन्तु आरंभिक पंक्तियों के कारण मेरी टिप्पणियों का महत्त्व ही समाप्त हो जाता है
thenetpress.com kabhi halke-fulkepan se man ko gudgudata hai to kabhi parveen shukl aur anyonaasti ji ke bhari-bharkam vichar sochne ko mazboor kar dete hain. sabko badhai/
प्रवीन जी थोडा हाथ हल्का रखिये. इतनी भारी भरकम बातें आम पाठक की समझ से बाहर हैं .
प्रवीन मै तो तुम्हारी प्रतिभा से हतभ्रत हूँ इतने गम्भीर विषय पर इतनी बडिया कलम चलाई है कि अपने इस बेटे पर जितना भी गर्व करूँ कम है अनोन्योस्ती जी के आशीर्वाद से तुम बहुत बडिया लिख रहे हो तुम्हारी ये बहुयायामी प्रतिभा के लिये बधाई और आशीर्वाद बहुत सुन्दर और ग्यानवर्धक आलेख है
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