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15.12.09

अभिव्यक्ति और प्रस्तुति का अनूठा हस्ताक्षर डा.विष्णु सक्सैना


सिकन्द्राराऊ(पवन पंडि़त) साहित्य की बहुत कोमल विधा है। इसलिये समय-समय पर इसकी कोमलता के साथ छेडछाड होती रही है। एक वह समय था कि कवि सम्मेलन के मंच पर गीत हस्ताक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ करता था और एक दो हास्य कवियों को चटनी के बतौर आमंत्रित कर लिया जाता था। धीरे-धीरे ये चटनी गीत जैसे ज़ायकेदार सुपाच्य भोजन को ही चट करने लगी और गीत की स्थिति बडी दयनीय होती चली गयी। उस काल के गीत विधा के शीर्षस्थ रचनाकारों में कुछ तो इस लडाई को लड ही न सके, कुछ ने कमज़ोरी छुपाते हुये अपने को गज़ल की ओर मोड लिया, कुछ ने लडाई लडी भी तो अकेले पड जाने के कारण समाप्त हो गये। परिणामत: हास्य का झंडा बुलंद होता चला गया। बलबीर सिंह रंग, रमानाथ अवस्थी, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, भारत भूषण और डा. कुँवर बेचेन के बाद एक बहुत बडा अंतराल आया... एक बार को तो एसा लगने लगा कि गीत कहीं मंच से समाप्त न हो जाये। तब 80 और 90 के दशक में गीत की चिंगारी लेकर एक ऐसा युवा गीतकार मंच पर आया जिसे सुन कर सभी हतप्रभ रह गये, धीरे-धीरे इस चिंगारी ने मशाल का रूप ले लिया। प्रकृति परिवर्तन माँगती है और यह परिवर्तन ही आज हिन्दी कवि सम्मेलनों की आवश्यकता बन गया है। इस कवि के स्वर में जितनी कशिश है उतने ही अंतस तक स्पर्श करने वाले शब्द----
हमने देखें हैं पत्थर पिघलते हुये,
शीत जल में से शोले निकलते हुये,
तुम न बदलोगी ये कैसे विश्वास हो
हमने देखे हैं मौसम बदलते हुये,
इस बदले हुये मौसम में अपने इंद्रधनुषी गीतों की छटा बिखेरने वाले इस गीतकार का नाम है डा. विष्णु सक्सैना । जो हाथरस जिले की सिकन्दराराऊ तहसील के निवासी हैं। प्रायमरी से लेकर इंटर तक की शिक्षा यहीं से लेने के बाद स्नातकीय शिक्षा के लिये राजस्थान जाना पडा। उदयपुर से चिकित्सा शास्त्र में प्रथम श्रेणी की डिग्री ले यह अपने ही नगर में आकर निजी क्लीनिक में रोगियों का उपचार कर रहे हैं। इतनी व्यस्तताओं में से जो भी खाली समय बचता है उसे कविता के रस से भर लेते हैं।
पेशे से चिकित्सक डा. विष्णु सक्सैना अपने अन्दर एक नाज़ुक सा, कोमल सा दिल भी रखते हैं इसलिये इनकी कविता में दर्द भी है और उसका इलाज भी। डा. सक्सैना को कविता विरासत में मिली है। इनके दादा श्री चन्द्रभान शशिरवि तो जिकडी भजनों के सिद्ध कवि थे, उन्होंने न जाने कितनी गज़लें और लोकगीत लिखे। ग्रामीण परिवेश में जीवन यापन होने के कारण उनकी समस्त रचनाओं में गाँव की मिट्टी की सोंधी-सोंधी गंध भी समाहित थी। पिता श्री नारायण प्रकाश और माँ श्रीमती सरला सक्सैना के सुसंस्कारित प्रयासों के प्रतीक डा. विष्णु के कविता के मंच पर आने से गीत को पुनर्जीवन तो मिला ही है साथ ही श्रोता जिस मानसिकता से हास्य व ओज की कविताओं को सुनता था, आज उतने ही मनोयोग से उनके गीतों को सुनने के लिये लालायित होता है। दिनों दिन बढती लोकप्रियता का ही परिणाम है कि अपनी छोटी सी उम्र में लगातार ऊँचाइयाँ छू रहे हैं। इसलिये आज उन्हें आकाशवाणी, टीवी, तथा स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में यथोचित सम्मान मिल रहा है।
मुस्कुराहट के पन्ने पलट दो ज़रा
बाँच लूँगा सभी प्यार की पोथियाँ,
नेह की बात होगी निबन्धों में जब
कसमसायेंगीं आपस की अनुभूतियाँ,
कविता तो एक तपस्या की तरह है, जिसमें सब कुछ भूल कर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। खुद को डुबोना पडता है तभी जीवन का वास्तविक आनन्द आता है। विष्णु जी की रचनाओं में भी कुछ ऐसी ही अनुभूतियाँ हैं, प्रेम की सूक्ष्म संवेदनाओं की विवेचना है---
क्यूँ बिछाकर दुपट्टा हरी घास पर
मेरे सपनों को उसमें समेटा बता?
एक चटका हुआ आँसुओं का कलश
काँपते हाथ से क्यूँ समेटा बता?
मन करता है कि बस विष्णु सक्सैना पढते रहें और हम सुनते रहें। इनके प्रेम गीतों में विशेष बात ये है कि चाहे वह संयोग पक्ष हो या वियोग पक्ष, कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता।
थाल पूजा का लेकर चले आइये
मंदिरों की बनावट सा घर है मेरा।
* * * *
लाँघना ना कभी देहरी प्यार में
चाहे मीरा को मोहन मिले न मिले।
साहित्य साधना के लिये दृढता, धेर्य और त्याग की भी ज़रूरत होती है। ये सब इनकी कविताओं में पढने और सुनने से दिखाई देता है। यही कारण है कि इनके शब्द आत्मा की गहराई से निकल कर सशक्त प्रस्तुति के माध्यम से जब श्रोताओं के सामने आते हैं तो बरबस ही मुँह से आह और अन्दर से वाह निकलने लगते है---
वंदनवारें तो बांध नहीं पाया पर
चौखट पर दोनों आँखें बंधी हुयी हैं,
तुम आओगे तो एक फूल तोडोगे
सारी कलियाँ खिलने से रुकी हुयी हैं,
इनकी कविताओं में मात्र नायक नायिकाओं के प्रेम प्रसंग ही नहीं अपितु उनके माध्यम से देश की समस्याओं को भी हल करने की कोशिश की गयी है।
मस्ज़िद हैं आप तो मुझे मन्दिर ही मान लो,
हो आयतों में तुम मुझे श्लोक जान लो,
कब तक सहेंगे और रहेंगे अलग-अलग
मैं पूजूँ तुम्हें तुम मेरे दिल में अज़ान दो,
ये कहते हैं कि कवि और श्रोताओं के बीच की दूरी को कम करने के लिये हमें अपने तमाम पूर्वाग्रहों को छोड कर आम बोल चाल की भाषा का ही प्रयोग करना चाहिये जिससे श्रोता आसानी से आपकी बात आत्मसात कर लेगा, तभी कला को पूर्ण सम्मान मिलेगा।
इस व्यावासायिकता के युग में सभी गुटबन्दियों से अलग डा. सक्सैना ने हमें बताया कि उनके 'मधुवन मिले न मिले' 'स्वर अहसासों के 'खुश्बू लुटाता हूं' नामक गीत संग्रह तथा 'प्रेम कविता' 'तुम्हारे लिये' नामक सीडी बाज़ार में उपलब्ध हैं। कवि सम्मेलनों की घटती लोकप्रियता के बारे में वे कहते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया तथा अश्लील फूहड हास्य ने अच्छे श्रोता कवि सम्मेलनो से दूर कर दिये हैं।
गत दिनों अनेक सम्मानों से सम्मानित विष्णु जी ओमान, अमेरिका, इसराइल, थायलेंड, दुबई, हांगकांग, नेपाल में भी अपने रसीले गीतों की फुहार छोड कर आये हैं। साँवला सलोना, हरदम मुस्कराता, सुदर्शन तथा विलक्षण प्रतिभा का ये युवा कवि डा. विष्णु सक्सैना आज हिन्दी कविता की धडकन बन गया है। उसके प्रशंसकों की असीम शुभ कामनायें यदि फलीभूत हो गयीं तो भविष्य का ये इकलोता गीतकार होगा जिसे देख कर आंखें तृप्ति का और मन अतृप्ति का आभास करेगा--
आओ मेंहन्दी महावर की शादी करें,
उम्रभर साथ रहने का आदी करें,
फूल से पंखुरी अब न होगी अलग,
सारे उद्यान में ये मुनादी करें,
हमको जितना दिखा- सिर्फ तुमको लिखा
अब ये पन्ना यहीं मोड दें---------------

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