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25.7.09

मिड -डे मील

पुराने से फटे टाट पर
स्कूल के पेड के नीचे
बैठे हैं कुछ गरीब बस्ती के बच्चे
कपडों के नाम पर पहने हैं
बनियान और मैले से कछे
उनकी आँखों मे देखे हैं कुछ ख्वाब
कलम को पँख लगा उडने के भाव
उतर आती है मेरी आँखों मे
एक बेबसी,एक पीडा
तोडना नही चाहती
उनका ये सपन
उन्हें बताऊँ कैसे
कलम को आजकल
पँख नही लगते
लगते हैँ सिर्फ पैसे
कहाँ से लायेंगे
कैसे पढ पायेंगे
उनके हिस्से तो आयेंगी
बस मिड -डे मीळ की कुछ रोटियाँ
नेता खेल रहे हैं अपनी गोटियाँ
इस रोटी को खाते खाते
वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा
और इस लिये नेताओं की झोली उठायेगा
काश कि इस
देश मे हो कोई सरकार
जिसे देश के भविष्य से हो सरोकार्


2 टिप्पणियाँ:

निर्मला जी सबसे पहले तो इस साईट पर आपका तहेदिल से स्वागत करते हैं!
इस रचना के माध्यम से आपने पाठकों को एक कड़वी सचाई से बाखूबी अवगत करवाया. बहुत शुक्रिया ! हालाँकि हमें पता है कि आप साहित्य सृजन में हमेशा व्यस्त रहती हैं. फिर भी आशा है, आपका लेखन सहयोग हमेशा बना रहेगा. एक बार फिर आपका कोटिश धन्यवाद!

माँ आज कल की परिस्थिति की कड़बी सच्चाई को आपने जिस ढंग से व्यक्त किया है, उसके लिए मैं आप को बहुत बहुत बहुत धन्यबाद देता हूँ माँ मैं समझता था की आज कल ईसी तीखी रचनाये लिखने का जिम्मा आप ने सिर्फ मुझ पर छोड़ रक्खा है आप की इस रचना को पढ़ कर मेरा भ्रम टूट गया मैं नत मस्तक हूँ " ये लायने आर पार हो गयी
"वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा
और इस लिये नेताओं की झोली उठायेगा
मेरा प्रणाम स्वीकार करे
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

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