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30.6.10

पायल के ग़मों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं

समस्त प्राणियों में केवल मानव ही अकेला वह प्राणी है जिसमें ऊपर जाने और नीचे गिरने की असीमित संभावनायें छुपी हैं, वही देवता भी है और दानव भी।
हम यहाँ महिलाओं बात करेंगे- अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें वे पुरूषों से बहुत आगे हैं- उन्हों नें प्रगति के प्रकाश-स्तम्भ स्थापित किये हैं, परन्तु गिरावट में भी वे किसी से पीछे नहीं।
इस सबंध में जिनेवा के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान की एक रिर्पोट यह बताती है कि अपराध की अंधेरी दुनिया में भी महिलाओं का दबदबा बढ़ रहा है। इस अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मुताबिक़ दुनिया भर में महिला गैंगस्टर की संख्या बढ़ कर छः लाख साठ हजार हो गई है। ब्रिटेन और अमेरिका में होने वाले सगंठित अपराधों में तो महिलाओं की हिस्सेदारी 25 से 50 फीसदी तक है।
हम महिला शकिृकरण की बातें करते हैं- देखिये यहाँ पर भी उसने शक्ति का प्रर्दशन किया है, यह और बात है कि परमाणु-बम बनाने के मामले में जैसे एक वैज्ञानिक नें अपनी बुद्धि का दुरूपयोग किया था, वैसे ही यहाँ शक्ति की दुरूपयोग हुआ है।
कहते हैं महिलाओं के आगे बढ़ाने और नीचे गिराने में पुरूषों का अकसर प्रत्यक्ष या परोक्ष हाथ होता है। इस हेतु रिपोर्ट के आगे के शब्दों पर ध्यान दीजियें- अध्ययन में न्यूयार्क के लैटिन क्वींस गिरोह का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि कैसे पारिवारिक और यौन हिंसा क वजह से महिलाएं अपराध की दुनिया में घुसी ?
उक्त के आधार पर अब दो बातों पर ग़ौर कीजिये- पहली यह कि पूरी दुनिया में पाश्चात्य देश यह ढ़िंढ़ोरा पीटते हैं कि उनके यहाँ की महिलाओं को अन्य देशों की अपेक्षा अधिक स्वंतत्रता और अधिकार प्राप्त हैं- अब ऐसी स्वतंत्रता से क्या हासिल जिससे वे अपराधी बनें ?
दूसरी बात यह है कि उनके अपराध पुरूषों की क्रूरता की प्रतिक्रियाये हैं। प्रतिक्रिया में भी दुख छिपा होता है।
वहाँ का पुरूष अपने स्वार्थ में महिला को स्वतंत्रता का रंगीन स्वप्न दिखा कर क्लबों तक खींच लाता है, वह उसे खेल-वस्तु समझता है तथा कपड़ो की तरह बदलता है- अन्यथा वह उसे इतना मजबूर बना देता है कि या तो वह अपराधी बनती है या अपने को बाज़ार में बेचने पर विवश हो जाती है। जब वह एक पुरूष से पीछा छुड़ाती है तो दूसरा पुरूष हमदर्दी का मुखौटा लगा कर शोषण हेतु उसके द्वार पर जाकर खड़ा हो जाता है- महिला के अंर्तमन की टीस और दर्द को कोई नहीं समझता। पुरूष एवँ महिला की मानसिकता को ‘शकील‘ ने चित्रित किया है:-
यह इश्को-हवस के दीवाने बेकार की बातें करते हैं
पायल के ग़मों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं।

डॉक्टर एस.एम हैदर
फ़ोन : 05248-220866

महिला खेत पाठशाला का तीसरा सत्र

मकड़ियों ने दी चुरड़े को मात

गत दिवस गाँव निडाना की महिला खेत पाठशाला के तीसरे सत्र में महिलाओं ने कपास के खेत में 5-5 के समूह में 10-10 पौधों का बारिकी से अवलोकन एवं निरीक्षण करते हुए पाया कि कपास के इस खेत में चुरड़ा नामक कीट न के बराबर है। इसे परभक्षी मकड़ियों ने लगभग चट ही कर दिया। महिलाओं ने कपास के पौधों पर हानिकारक कीट हरे तेले के बच्चों का शिकार करते हुए लाल जूँ को मौके पर ही पकड़ लिया। महिलाओं ने खेत पाठशाला के इस सत्र में सफेद मक्खी के शिशुओं के पेट में एनकार्सिया नामक कीट के बच्चों को पलते देखा है। 5-5 के इन महिला समूहों को सुश्री राजवन्ती, गीता, मीना, सरोज, केलां एवं बीरमती ने नेतृत्व प्रदान किया। प्रशिक्षकों के तौर पर डाक्टर कमल सैनी, मनबीर रेढु, रनबीर मलिक व डाक्टर सुरेन्द्र दलाल उपस्थित थे। दस-दस पौधों पर कीट अवलोकन एवं उनकी गिनती के बाद आपस में चर्चा करके चार्ट किये तदोपरांत सब समूहों के सामने अपनी-अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस दौरान उन्होने बताया कि कपास के इस खेत में आज के दिन हरा तेला, सफेद मक्खी, चुरड़ा आदि सम्मेत सभी रस चूसक हानिकारक कीट आर्थिक हानी पहूँचाने के स्तर से काफी निचे हैं। कपास का भस्मासुर मिलीबग तो पच्चास पौधों पर सिर्फ एक ही मिला। अतः इस सप्ताह कपास के इस खेत में कीट नियंत्रण के लिये किसी कीटनाशक का स्प्रे करने की कोई आवश्यकता नही है।

महिला खेत पाठशाला के इस सत्र में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय में कार्यरत अर्थशास्त्री डाक्टर राजेंद्र चौधरी महिलाओं के इस खेत प्रशिक्षण कार्यक्रम को नजदीक से देखने व समझने के लिए उपस्थित थे। उन्होने बताया कि आज किसान का खर्चा मुख्यतौर पर तीन चिजों- खाद, बीजों व किटनाशकों पर होता है। निडाना में पिछले तीन सालों से जारी इन खेत पाठशालों में जारी प्रयोगों ने किसान का किटनाशकों पर होने वाला खर्चा तो लगभग खत्म सा ही कर दिया। उन्होने आशा कि की आने वाले दिनों में किसानों के अपने अनुभव से बीज और खाद के खर्चे भी कम होंगे। उन्होने यह भी कहा कि इस पाठशाला के माध्यम से खेती में महिलाओं की भूमिका को स्वीकार कर के एक ऩई शुरूआत की गई है। उन्होने आशा प्रकट की कि आज जो निडाना में हो रहा है वह कल पूरे हरियाणा में होगा। यह नई राह दिखाने के लिए निडाना गांव का आभार जताया।

29.6.10

पिता की खोज कीजिये

कम्पनियाँ हमेशा ग्राहक की जेब पर नज़र रखती है तथा नये-नये शिगूफ़े खिलाती हैं। खास तौर से युवा वर्ग की भावनाओं को भुनाती हैं। ‘वैलेनटाइन डे‘ के बाद अब ‘फादर्स डे‘ का क्रेज पैदा कर रहीं हैं। विज्ञान को आधार बना कर यह उकसावां दे रही हैं कि यदि असली पिता को पहचानना है तो डी0एन0ए0 टेस्ट कराइये।
दिल्ली स्थित कम्पनी ‘इडियन बायोसेंसेस‘ तथा एक अन्य कम्पनी ‘पेटेरनिटी टेस्ट इंडिया‘ ने पितृत्व-परीक्षण के लिये 25 प्रतिशत तक डिस्काउंट देने की घोषणा की है। यह बाज़ार अब तेज़ी से बढ़ रहा है।
विज्ञान के कुछ आविष्कार और खोजें ऐसी है जिनसे समाज को नुकसान ज़रूर पहुँचा है, इसी कारण इन्हें अभिशाप कहा गया। वास्तव इनका दुरूपयोग करे (नादानी से या जान बूझ कर) तो यह प्रयोगकर्ता की ग़लती है। विज्ञान का कोई दोष नहीं है।
हिरोशिमा-नागासकी का बंम काण्ड हो, चेर्नेबल का रैडियेशन, भोपाल गैस काण्ड, अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भस्थ कन्या भ्रूण का पता लगा कर उसकी हत्या करके समाज के लिंग अनुपात को बिगाड़ देना, इन सब बातों में विज्ञान का क्या दोष है ?
ग़ौर कीजिये भरे-पूरे परिवार में विश्वास के साथ सभी सुख शान्ति से रह रहे है। एक युवा पुत्र को माता-पिता का आर्शीवाद प्राप्त है। एक दम से लड़के में डी0एन0ए0 टेस्ट का जुनून पैदा होता है। मान लीजिये दाल में कुछ काला है, टेस्ट इसे सत्यापित करता है। घर परिवार, समाज में हड़बोंग मचा, दादिहाली सभी रिश्ते धाराशायी हुए। उत्तराधिकारी के झगड़े पड़े- बाप से ज़्यादा ख़ता माँ की निकली। वह मुँह दिखाने लायक़ नहीं रही। माँ पर अत्याचार हुआ तो कभी तो असली बाप मिल गया, कभी भीड़ में गुम हो गया, ढूढे न मिला।
अनेक टेस्ट भी अविश्वसनीय होते हैं- कुछ तकनीकी खराबी से और कुछ प्रायोजित होते हैं। इसी लिये नार्को टेस्ट एवँ ब्रेन-मैपिंग को केस का आधार नहीं बनाया जाता। हत्या सबंधी या खाद्य अपमिश्रण के टेस्टों को अपने स्वार्थ में कुछ का कुछ करवा दिया जाता है, तो क्या यही खेल डी0एन0ए0 टेस्ट में नहीं खेला जा सकता?
आग के ऐसे खेल न खेलिये, जिसमें हाथ झुलस जाय। ऐेसा न हो आप का घर बिगड़ जाय और कोई हंस हंस कर यह पढ़ रहा हो।
इस घर को आग लग गई, घर के चिराग़ से।

डॉक्टर एस.एम हैदर
फ़ोन : 05248-220866

28.6.10

भोपाल मामले से कुछ सीख - सेवानिवृत्त न्यायधीश उच्चतम न्यायालय


इस सम्बंध में कोर्ट के निर्णय से ऐसा लगता है कि भारत अब भी विक्टोरियन साम्राज्यवादी, सामन्ती दौर में है, और जो सोशलिस्ट सपनों से बहुत दूर है।
उन वर्षों में जिन राजनैतिक दलों के हाथों में सत्ता थी, वे इस भारी अपराधिक लापरवाही के लिये दोषी है। इस घटना से सम्बंधित असाधारण बात तो यह है कि यूनियन कारबाइड में संलिप्त सब से बड़ा अधिकारी वारेन एंडरसन तो पिक्चर में लाया ही नहीं गया।
2 दिसम्बर 1984 को भोपाल में जो बड़े पैमाने पर हत्याकाण्ड हुआ वह एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन की भारी गलती का परिणाम था। जिसने भारतीयों की जिन्दगियों को अश्वारोही क्रूर योद्धाओं के समान रौंदा। इसमें लगभग 20,000 लोगों की गैस हत्या हुई फिर भी 26 वर्षों की मुकदमें बाजी के बाद अपराधियों को केवल 2 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी गई। ऐसा तो केवल अफरातफरी वाले देश भारत ही में घटित हो सकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति एवं श्वेत संसार तथा श्यामल भारतीय, प्रधानमंत्री, तालिबान एवं माओवादी नक्सलवाद पर कर्कश आवाजे उठाते हैं। मगर यह नहीं देखते कि इस जन संहार पर जो, भारत के एक पिछड़े इलाके में अमेरिकन ने किया, अदालती फैसला आने में 26 वर्ष लग गये।
चूँकि भारत एक डालर प्रभावित देश है, इसीलिये गैसजन संहार को एक मामूली अपराध जाना गया। लगता है कि भारत पर मैकाले की विक्टोरियन न्याय व्यवस्था अब भी लागू है। हमारी संसद और कार्यपालिका को उनके जीवन और उस नुकसान से लगता है कोई वास्ता ही नहीं है। न्यायपालिका का भी यही हाल है, वह भी अहम मामलों में तुरन्त फैसला देने के अपने मूल कर्तव्य के प्रति लापरवाह है। संसद को भला इतना समय कहां कि वह अपने नागरिकों के जीवन को सुरक्षित करने के कानून बनाये। वह तो कोलाहल में ही बहुत व्यस्त हैं। इस प्रकार के अपराध के लिये जो तफ़तीशी न्यायिक विलम्ब हुआ वह अक्षम्य है।
अगर कार्यपालिका के पास जरूरी आजादी, तत्परता एवं निष्ठा हो, अगर सही जज नियुक्त हो और सही प्रक्रिया में अपनाई जाये तो भारतीय न्यायालय भी सही न्याय करने में सक्षम होंगे।

विश्वास भंग हुआ
यह भी हुआ कि आम आदमी के लिये यह समाजवादी लोकतंत्र बराबर एक निराशा का कारण बना रहा। यह विरोधाभास समाप्त होना चाहिये। हमारे पास असीमित मानव संसाधन हैं, जिससे हम अपने राष्ट्रपिता की प्रतिज्ञा की पुर्नस्थापना कर सकते हैं, उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि हर आंख के आंसू को पोछा जाये। परन्तु भारतीय प्रभु सत्ता के इस विश्वास को भोपाल ने हास्यास्पद ढंग से भंग कर दिया गया। एक समय था जब हर वह गरीब आदमी जो भूखा और परेशान था और ब्रिटिश सामा्रज्य का विरोध कर रहा था, वह कांग्रेसी कहा जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब कांग्रेसी सत्ता में आये, फिर प्रत्येक भूखा लड़ाकू कम्युनिस्ट कहा गया। जब अनेक राज्यों में कम्युनिस्ट सत्ता में आये, और वहां बहुत से भूखे थे, वह भूखे गरीब नक्सलवादी कहे गये। क्या भारत का कुछ भविष्य भी है? हां जरूर है। शर्त यह है कि यहां के गौरवपूर्ण संविधान और अद्भुत सांस्कृति परम्पराओं में कार्ल माक्र्स एवँ महात्मा गाँधी के दष्टिकोण को शमिल करने की समझ पैदा की जाय। क्या हमारे पास इतना विचार-बोध हैं ? क्या न्यायाधीश ऐसी लालसा रखते हैं? भोपाल पर दिया निर्णय तो यही ज़ाहिर करता है कि भारत अब भी साम्राज्यवादी सामंती विकटोरियन युग मे है, और समाजवादी स्वप्नों से कोसों दूर है।
इस परिणाम की असाधारण बात यही है कि युनियन कारबाइड में संलिप्त सब से बड़ा अफ़सर वारेन एनडरसन को मामलो से बाहर रक्खा गया। यह तो इन्साफ का मज़ाक बनाया गया। मुख्य अपराधी को तो व्युह रचना से अलग हीं रक्खा गया। अब जो छोटों को अभियुक्त बनाया तो इससे यही प्रतीत हुआ कि उन लाखों का मज़ाक बना जिन लोगों को भुगतान पड़ा। अपराध क्षेत्र से शक्तिशालियों को मुक्त कर देने का अर्थ क़ानून को लंगड़ा कर देना। क्या एक अमेरिकी अपराधी की भारतीय कोर्ट के आर्डर के अन्र्तगत जांच नहींे की जा सकती ? इस प्रकार के भेद-भाव से न्याय हास्यास्पद बनता है। जब मूल अधिकारों का हनन हो तो जजों के कार्यक्षेत्र कें ऐसे केसों की सुनवाई निहित है, 26वर्ष बीत गये, इतने जज होते हुए भी सुप्रीम कोर्ट नें अब तक क्या किया ? तुरन्त सुनवाई हेतु भारत-सरकार भी कोर्ट तक नहीं गई ? अब क़ानून मंत्री कहते है कि जो दो वर्ष की सश्रम करावास की सज़ा दी गई है, उससे वह प्रसन्न नहीं है। इस 26 वर्ष की अवधि में भारतीय दण्ड विधान की धारा 300 से 304 में कोई संशोधन न प्रस्तावित किया गया न ही किया गया और न सख्त दण्ड का प्रावधान किया गया। यह बात भी संसद एवँ कार्यपालिका की अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाही की द्योतक है। उन दिनों में जो भी राजनैतिक दल सत्ता में रहे वह भी इस अपराधिक चूक के लिये दोषी हैं। क्योंकि भारतीय मानव पर अपराधिक कृत्य हुआ और वे सोते रहे। भुक्त भोगियों को मुनासिब मुआवज़ा तक नहीं दिया गया। यूनियन कारबाइड द्वारा वित्त-पोषित एक बड़े अस्पताल का निर्माण भोपाल में जरूर करवाया गया, लेकिन यह भी गरीबों के लिये नहीं अमीरों के लिए था। यह समझने कि अस्पताल लशों पर बना फिर भी वंचितो की पहुँच वहाँ तक नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट बजाय इसके कि निचले कोर्ट से मुकदमा मंगा कर तुरन्त निर्णय देता, वह अपने ही भत्ते और सुविधायें बढ़ाने में तल्लीन रहा।
यू0एस0 के लिये वारेन एंनडरसन एक बन्द अध्याय है। इस अत्यंत शक्तिशाली परमाणु राष्ट्र की न्याय अध्याय करने की अलग सोच है। इस बात से भारतीय जन मानस में इतना साहस होना चाहिये कि वह ‘डालर-उपनिवेशवाद‘ का कड़ा विरोध करे। अमेरिकन विधि के शासन से मुक्त हैं ? जब बहुं राष्ट्रीय निगम अधिनायकों के दोष की बात आ जाए तब श्यामल भारत को श्वेत-न्याय से संतुष्ट होना ही हैं ? हालांकि वाशिंगटन हमेशा व्यापक मानवाधिकार घोषणा-पत्र के प्रति वफ़ादारी की क़समें खाता है, परन्तु पब परमाणु-सन्धि की बात आती है तो उसकी डंडी अपने हितों की तरफ़ झुका देता है। भारत में यह साहस भी नहीं होता कि वह धोके के विरोध में कोई आवाज़ उठाये। हमारे पास बहुराष्ट्रीय निगम है जिसका वैश्विक अधिकार क्षेत्र है। एंडरसन एक अमेरिकी है और यूनियन कारबाइड थी ?
इसके आज्ञापत्र एशियाई ईधन के लिए ही हैं, भारतीय न्याय व्यवस्था लगता है कि केवल नगर पालिकाओं एवँ पंचायतों के लिये ही है, इससे आगे नहीं।


-वी0आर0 कृष्णा अय्यर
पूर्व मुख्य न्यायधीश
उच्चतम न्यायलय

the hindu से साभार
अनुवादक: डॉक्टर एस.एम हैदर

हरियाणा में 7 दिन में 6 ऑनर किलिंग

चंडीगढ़ । हरियाणा में कायदा-कानून खत्म हो चुका है। यहां प्रशासन की नहीं हत्यारों की चलती है। एक हफ्ते के भीतर ऑनर किलिंग के नाम पर छह हत्याएं यही साबित करती हैं कि राज्य सरकार इस मसले पर गंभीर नहीं है। ऐसा लग रहा है कि राज्य को चलाने वाले लोग इन पाषाणयुगीन मानसिकता रखने वालों को मौन समर्थन देते हैं। पिछले सात दिनों की इन घटनाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि हरियाणा में हालात कितने खराब हैं। यहां एक हफ्ते में 6 हत्याएं हो चुकी हैं। पहली घटना 20 जून को, दूसरी 25 जून और तीसरी ठीक दो दिन बाद यानी 27 जून को घटी।
20 जून: जाट समुदाय के रहने वाले युवक और युवती ( रिंकू और मोनिका) को निमरीवाली गांव में युवती के परिजनों ने मार डाला। युवती की हत्या करने वालों में युवती के पिता, भाई और चाचा (या ताऊ) शामिल थे। इनके अलावा युवती के कजन्स भी इसमें शामिल थे। हत्यारे परिजनों ने इन दोनों की लाशों को बाद में अपने घरों में भी टांग दिया ताकि दूसरे लोग यह नजारा देख सकें और प्रेम करने की कथित गलती न कर सकें।
25 जून: सोनीपत में एक दादी ने अवैध संबंधों के संदेह में अपने बेटों की मदद से दो नाबालिग पोतियों की हत्या कर दी। दोनों लड़कियों की लाश शुक्रवार को मिली थी। शनिवार को पुलिस ने तीनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। बताया जाता है कि सोनीपत निवासी सुरेंद्र वर्मा ने दो शादियां की थीं। उनके पहली पत्नी से एक लड़का था विजय (16)। दूसरी पत्नी से एक बेटी थी चंचल (14 साल)। विजय पहले अनाथाश्रम में रहता था। कुछ दिनों पहले वह अपने पिता और अन्य परिजनों के साथ रहने आया था। घरवालों को संदेह था कि चंचल और उसकी चचेरी बहन राज कुमारी (12)के विजय के साथ अवैध संबंध हो गए हैं। इसी संदेह में सुरेंद्र वर्मा की मां विद्या देवी अपने दो बेटों - सूरज वर्मा और चांद वर्मा - के साथ चंचल और राजकुमारी को एक रिश्तेदार के घर जाने के बहाने कार में ले गई। रास्ते में दादी ने अपने बेटों की मदद से दोनों पोतियों का गला घोंटकर मार दिया और लाशें पश्चिमी यमुना नहर में फेंक दी। तीनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
27 जून: सोनीपत में ही ऑनर किलिंग की एक और घटना घटी जिसमें दो परिवारों ने मिल कर पति पत्नी को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया। 25 साल के दीपक कुमार और 18 साल की टीना झा की शादी का मुखर विरोध कर रहे दोनों के परिवार वालों ने शादी के बाद भी दोनों पर दबाव बनाना जारी रखा था। दोनों ने पानीपत के समाल्खा में ट्रेन के आगे कूद कर जान दे दी।

27.6.10

छोटी-बड़ी बातों का कामरेड - कामरेड राजेन्द्र केसरी

(फोटो कैप्शन: तीन साल पहले जब हमने इंग्लैण्ड की एक शोध छात्रा क्लेर हेस को बीड़ी उद्योग पर अध्ययन करने का काम सौंपा था तो उसने राजेन्द्र केसरी का इस विषय पर लंबा इंटरव्यू लिया था। ये फोटो उसी वक्त उसने इन्दौर में शहीद भवन में लिया था जो उसने कामरेड राजू के प्रति अपनी श्रृद्धांजलि के साथ भेजा है।)

लोहे की हरी अल्मारी के भीतर एक पुराना सा टाइपराइटर इंतजार कर रहा है कि कोई उसे बाहर निकालेगा। कोई दरख्वास्त, कोई नोटिस, कोई सर्कुलर, कोई परचा - कुछ तो होगा जिसे टाइप होना होगा। टाइपराइटर के साथ ही वे सारी दरख्वास्तें, नोटिस, सर्कुलर और परचे भी इन्तजार कर रहे हैं कि कोई उन्हें टाइप करेगा, आॅफिस पहुँचाएगा, कोर्ट ले जाएगा, नोटिस बोर्ड पर लगाएगा। 27 मई को गुजरे आज महीना होने को आया, इंतजार खत्म ही नहीं होता।
एक बूढ़ी अम्मा है। साँवेर के नजदीक एक गाँव में रहती है। मांगल्या के पास की एक गुटखा फैक्टरी में काम करती थी। वहाँ राजू ने यूनियन बनायी हुई है। वहीं से वो राजू केसरी काॅमरेड को जानती है। बस में सत्रह रुपये खर्च करके इन्दौर में पार्टी के आॅफिस शहीद भवन तक आती है। वो शहीद भवन आकर राजू केसरी से मिलना चाहती है कि वो उसके देवर के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाये। उसे पुलिस के पास जाकर रिपोर्ट लिखवानी है कि उसके देवर ने उस पर बहुत बड़ा पत्थर उठाकर फेंका। वो शहीद भवन में आकर राजू का कई बार तो घंटों इंतजार करती है। काॅमरेड राजू आते हैं, अम्मा से हँसी-मजाक करते हैं, अपना काम करते हैं लेकिन अम्मा के साथ रिपोर्ट लिखवाने नहीं जाते। बूढ़ी अम्मा खूब गुस्सा हो जाती है। काॅमरेड राजू हँसकर उसका गुस्सा और कोसना सुनते रहते हैं। अम्मा अपने सत्रह रुपये बेकार जाने का हवाला देती है। काॅमरेड राजू हँसते-हँसते उससे कहते हैं कि अम्मा मेरे घर चलकर सो जाना। मैं खाना भी खिला दूँगा और 17 रुपये भी दे दूँगा।
मैं उस दिन वहीं शहीद भवन में ही थी। सब काॅमरेड राजू और बूढ़ी अम्मा की बातचीत सुनकर हँस रहे थे। मैंने राजू केसरी से कहा, ’’काॅमरेड, क्यों बूढ़ी अम्मा को सताते हो? उसकी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवा देते?’’ राजू बोला, ’’काॅमरेड आप जानती नहीं हो। मैं खुद अम्मा के गाँव उसके घर जाकर आया, वो पत्थर भी देखकर आया जो ये बोलती है कि इसके देवर ने इस पर फेंका था, लेकिन इसे लगा नहीं। अब मैं पुलिस को जाके क्या बोलूँ कि इसके देवर ने इसको पत्थर मारा जो इसको लगा नहीं इसलिए उसको गिरफ्तार कर लो? फिर जब इसको इसका देवर कल सचमुच में पत्थर मारेगा तो फिर अम्मा को कौन बचाएगा?’’ अम्मा बड़बड़ाती रही, राजू टाइप करते-करते मुस्कुराते रहे, मैं अम्मा को समझाने की कोशिश करके निकल आयी।
जाॅब कार्ड बनवाना है, राशन कार्ड बनवाना है, लेबर कमिश्नर के पास जाना है, पेंशन दिलवानी है, ऐसे ढेर छोटे-बड़े कामों को काॅमरेड राजू केसरी को करते देखने की यादें हैं। यादें और भी हैं। विनीत ने बताया कि राजू केसरी की पहली याद वो है जब काॅमरेड रोशनी दाजी हमें छोड़ चली गयी थी। रोशनी की अंतिम यात्रा निकलने के पहले राजू केसरी सैकड़ों मजदूरनियों का जुलूस लेकर नारे लगाते हुए पहुँचा था। बेशक राजू सहित सभी रो रहे थे लेकिन सबकी आवाज बुलंद थी - ’काॅमरेड रोशनी दाजी को लाल सलाम’।
बीड़ी मजदूरिनों को संगठित करने, रेलवे हम्मालों की यूनियन बनाने, गुटखा फैक्टरियों में काम करने वाली औरतों का संगठन खड़ा करने जैसे अनेक कामों से राजू केसरी पार्टी का काम आगे बढ़ा रहे थे। बीड़ी के बारे में तो वे बताते भी थे कि इन्दौर की बीड़ी बनाने वाली बाइयाँ दूसरी जगहों की बीड़ी मजदूरों से कितनी अच्छी स्थिति में हैं। इन्दौर में सभी बीड़ी कारखानों के मजदूरों में राजू का काम फैला था और 3 हजार से ज्यादा बीड़ी मजदूर एटक के सदस्य बने थे। हाल में मुंबई में हुए बीड़ी-सिगार मजदूरों के राष्ट्रीय सम्मेलन में राजू को बीड़ी-सिगार फेडरेशन के मध्य प्रदेश के संयोजक की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गयी थी।
लड़ने में काॅमरेड राजू केसरी नंबर एक थे। मुझे खुद बताते थे कि कामरेड, आज फलाने की धुलाई कर दी। आज किसी को धक्का मारकर बाहर कर दिया। कामरेड बसन्त मुझे एक दिन बोले, ’’ये राजू हर चीज में झगड़ा डालता है। अड़ जाता है तो किसी की सुनता ही नहीं।’’ उनके साथ लगभग हर वक्त रहने वाले कामरेड सत्यनारायण बोले कि हम दोनों हर रोज लड़ते थे। आज शहीद भवन में सब कामरेड्स आँखें नम किये इंतजार करते हैं कि राजू आये और लड़ाई करे।
जब से इन्दौर में महिला फेडरेशन का काम शुरू किया, तभी से कामरेड मोहन निमजे और काॅमरेड राजू केसरी अपनी यूनियन की महिलाओं को महिला फेडरेशन की गतिविधियों में हमेशा भेजते रहे। अभी 8 मार्च 2010 को महिला दिवस के लिए मैंने काॅमरेड राजू से बात की तो वो प्रोमेड लैबोरेटरीज की कर्मचारी महिलाओं से बात करने के लिए हमारे साथ गये, गेट मीटिंग ली और बोले, ’’मैं मैनेजर से बात करूँगा कि 8 मार्च के दिन वो तुम लोगों की जल्दी छुट्टी कर दे ताकि तुम लोग महिला दिवस के जुलूस में शामिल हो जाओ, लेकिन अगर वो न माना तो तुम लोग आधे दिन की तनख्वाह कटवा कर आ जाना। छुट्टी मिले या नहीं लेकिन आना जरूर।’’ सारी महिलाएँ जोर से सिर हिलाकर बोलीं कि बिल्कुल आएँगे और 8 मार्च को आधे दिन की छुट्टी लेकर महिलाएँ आयीं और जुलूस में शामिल हुईं।
27 मई को जब राजू हमें छोड़कर चले गये तो बीड़ी मजदूरनियाँ, रेलवे हम्माल, प्रोमेड लैबोरेटरीज और तमाम कारखानों के मजदूर फिर छुट्टी लेकर आये अपने लड़ाकू काॅमरेड को आखिरी सलाम कहने। सबकी आँखों में आँसू थे लेकिन उन्होंने राजू से सीख लिया था कि आँखों में आँसू भले हों लेकिन किसी भी काॅमरेड को लाल सलाम कहते वक्त आवाज नहीं काँपनी चाहिए।
मिल मजदूर के लड़के थे राजू केसरी। एक दिन अपने बारे में बता रहे थे कि जब सिर्फ 14 बरस की उम्र थी तब उनके पिता दुर्घटना की वजह से काम करने लायक नहीं रह गये थे। सन 1975 में राजू ने पार्टी आॅफिस में पोस्टर चिपकाने की नौकरी 40 रुपये महीने पर की थी। काॅमरेड पेरीन दाजी कहती हैं कि ’’राजू पार्टी आॅफिस में झाड़ू लगाता था। उसका रंग काला था, तो शुरू में तो हम सब उसे कालू ही कहते थे। राजू तो वो बाद में बना।’’ झाड़ू लगाते-लगाते और पोस्टर चिपकाते-चिपकाते काॅमरेड राजू ने दसवीं पास की और टाइपिंग भी सीख ली। पार्टी के तमाम नोटिस और तमाम कागज टाइप करने की जिम्मेदारी तब से राजू ने ही संभाली हुई थी।
एक दिन मैंने उनसे पूछा कि जब आप पार्टी से जुड़े तो कम्युनिज्म से क्या समझते थे? तो बोले कि ’’काॅमरेड, 14 बरस की उम्र में मैं कुछ नहीं समझता था। सिर्फ इतना जानता था कि लाल झण्डा पकड़ना सम्मान की बात है। उस वक्त लाल झण्डे की लोग बहुत इज्जत करते थे। उन दिनों इन्दौर की कपड़ा मिलों में 30-35 हजार मजदूर काम करते थे और मजदूरों की आवाज केवल मिल क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पूरे शहर में सुनी जाती थी।’’
सन् 1975 में ही मेरी माँ कामरेड इन्दु मेहता ने भी पार्टी की सदस्यता ली थी। उन्हीं दिनों मुझे एक चिट्ठी में मेरी माँ ने लिखा था कि ’’तुम लोगों के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़कर जाना चाहती हूँ। इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए समाजवाद कायम करने का संघर्ष जरूरी है।’’ उस वक्त मेरी माँ की उम्र 53 वर्ष थी। वो काॅलेज में राजनीतिशास्त्र पढ़ाती थीं, उन्होंने समाजवाद और माक्र्सवाद के बारे में कई किताबें पढ़ी थीं। लेकिन राजू केसरी जैसे काॅमरेड्स उतनी किताबें नहीं पढ़ते। माक्र्सवाद के बारे में उनकी समझ पार्टी स्कूल से बनती है। वो मानवता की जरूरत और मानवता के लिए संघर्ष के माक्र्सवादी पाठ वहीं सीखते हैं। राजू केसरी मुझे कहा करते थे कि हमने तो माक्र्सवाद काॅमरेड इन्दु मेहता से ही सीखा।
ट्रेड यूनियन की राजनीति भी राजू केसरी ने काम करते-करते और अपने वरिष्ठ साथियों के काम करने के तरीकों को देखकर सीखी। पिछले 35 बरसों में पार्टी और कम्युनिस्ट विचारधारा से राजू ने गहरा संबंध बना लिया था। सही-गलत के बारे में और नये तरीकों की जरूरत के बारे में भी वो सोचते थे और बात करते थे। एक दिन शहीद भवन में बोले, ’’काॅमरेड, मैं ट्रेड यूनियन के काम से संतुष्ट नहीं हूँ। मजदूर हमारे पास आते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके हकों की लड़ाई लाल झण्डे वाली यूनियन ही लड़ सकती है। हम उनका संगठन बनाते हैं। उनके हक की लड़ाई लड़ते हैं। मैनेजमेंट को मजदूरों के हक में झुकाते हैं, लेकिन जब उनकी माँग पूरी हो जाती है तो उन्हें यूनियन की जरूरत नहीं महसूस होती। वो सब छोड़-छाड़कर चले जाते हैं। बताइए काॅमरेड, अगर हम मजदूरों को उनके स्वार्थों से ऊपर उठाकर उनकी राजनीतिक समझ नहीं बना पाये तो ट्रेड यूनियन का क्या काम किया?’’ इन जायज सवालों का सामना करते हुए भी राजू को इस बात में कभी संदेह नहीं रहा कि रास्ते तभी निकलते हैं जब संघर्ष और कोशिशें जारी रखी जाती हैं। इसीलिए उसने लगातार मजदूरों, कर्मचारियों के नये-नये संगठन बनाना जारी रखा। हाल में आपूर्ति निगम के हम्मालों का संगठन और प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों व कर्मचारियों का संगठन बनाने में राजू ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। अपनी तरह से वो कोशिश भी करते थे कि यूनियन में शामिल मजदूर भत्ते-तनख्वाहों तक ही न रुकें बल्कि उनका सही राजनीतिक विचार भी बने। एक बार 15 अगस्त को हम्माल यूनियन के मजदूरों के बीच झण्डा फहराते हुए राजू केसरी मजदूरों से बोले कि ’’भगतसिंह ने हिन्दुस्तान की ऐसी आजादी के लिए कुर्बानी तो नहीं दी थी जहाँ हमारे बच्चों को दूध न मिले, काॅपी-किताब न मिले, उल्टे हम धर्म के नाम पर लड़ें और सब तरह की बेईमानियाँ करें। ये तो भगतसिंह और आजादी के उन सब दीवानों के साथ नाइन्साफी है।’’
असंगठित क्षेत्र में यूनियन को फैलाने का जो काम काॅमरेड राजू केसरी और उनके साथी काॅमरेडों ने किया, उसका महत्त्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि वो ऐसे वक्त में किया गया काम है जब असंगठित तो दूर, संगठित क्षेत्रों की ट्रेड यूनियनों में भी हताशा का माहौल है।
उदारीकरण के मजदूर विरोधी माहौल में ट्रेड यूनियन की राजनीति कितनी कठिन है, राजू जैसे काॅमरेड्स इस किताब को अपने अनुभव की रोशनी में रोज पढ़ते हैं। मैंने उनसे पूछा था कि, ’’काॅमरेड, फिर आप पार्टी के साथ अभी तक क्यों जुड़े हैं?’’ वो बोले, ’’काॅमरेड मैंने आशा नहीं छोड़ी है कि एक वैकल्पिक समाज, शोषणरहित समाज व्यवस्था एक दिन जरूर आएगी। लोग समाजवाद के महत्त्व को एक दिन जरूर समझेंगे। हमें एक अच्छा नेतृत्व चाहिए बस, एक दिन हम समाजवाद के सपने को जरूर सच कर लेंगे।’’
रात को दस-साढ़े दस बजे तक राजू पार्टी का काम करते रहे और फिर आधी रात अचानक अपने अधूरे काम, अधूरी लड़ाइयाँ और अधूरे सपने छोड़कर वो चले गए। मैं उनके घर गयी तो पूरा मोहल्ला भीगी आँखों के साथ बैठा था। उनकी 17 बरस की लड़की शानो मुझसे बात करने लगी अपने पापा के बारे में। मुझसे बोली, ’’आपकी पार्टी कितनी अच्छी है। मेरा भाई भी पार्टी ज्वाइन कर सकता है क्या? अभी वो सिर्फ 13 साल का है। पापा उसे इन्जीनीयर बनाना चाहते थे।’’
उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि इतिहास अपने आपको इस शक्ल में दोहराये, ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि जैसे कम उम्र में राजू को पार्टी ज्वाइन करने की जरूरत पड़ी, वैसे ही उसके बेटे को पड़े। हम सब जो बचे हैं, पार्टी में राजू केसरी की खाली जगहों को देर-सबेर भर ही लेंगे। लेकिन राजू के बच्चों को इन्जीनीयर, डाॅक्टर, कलाकार या जो भी बनना हो, वो बनने का उन्हें अवसर मिलना चाहिए। हम सभी को मिलकर राजू के बच्चों की अच्छी पढ़ाई की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए। बच्चे जब बड़े हों तो सोच-समझकर पार्टी से जुड़ें, वैसी दुनिया बनाने की कोशिशों में अपना हिस्सा बँटाएँ जिसका सपना उनके पापा देखते थे और जिन्दगी की आखिरी साँस तक उसको सच करने की खातिर वे हर छोटा-बड़ा काम करते रहे।
कामरेड राजू केसरी को लाल सलाम।
जया मेहता,
संदर्भ केन्द्र, 26, महावीर नगर, इन्दौर -452018

26.6.10

मेहनत रंग लायी एक पिता की

बरेली जनपद के सीबीगंज इलाके में तत्कालीन सहायक पुलिस अधीक्षक जे रविन्द्र गौड़ के दिशा निर्देशन में मुकुल गुप्ता नाम के नौजवान को पुलिस ने पकड़ कर हत्या कर दी थी। मुकुल गुप्ता के पिता ब्रजेन्द्र गुप्ता ने न्यायलय की शरण लेकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई थी जिसकी विवेचना स्थानीय पुलिस को ही दी गयी थी जिसपर ब्रजेन्द्र गुप्ता ने माननीय उच्च न्यायलय इलाहाबाद में याचिका दायर कर सी.बी.आई जांच कराने की मांग की थीकानूनी दांव पेच के बाद 20 फरवरी 2010 को न्यायलय ने सी.बी.आई जांच के आदेश दिए। जांच के उपरांत सी.बी.आई ने अब वर्तमान में पुलिस अधीक्षक बलरामपुर जे रविन्द्र गौड़ समेत 11 पुलिस कर्मियों के ऊपर हत्या हत्या के सबूत मिटाने का वाद दर्ज कराया है।
कानून के रक्षकों द्वारा वह-वाही इनाम प्राप्त करने के लिए नवजवानों को पकड़ कर हत्या का सिलसिला बहुत पुराना हो रहा है। पीड़ित पक्ष द्वारा आवाज उठाने पर कोई कार्यवाही नहीं हो पाती है यदि किसी तरह प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज भी हो जाती है तो उसकी विवेचना उसी विभाग के निचले स्तर के अधिकारी करने लगते हैं। विवेचना के नाम पर विवेचना अधिकारी साक्ष्य मिटाने का ही काम करते हैं इसलिए आवश्यक यह है एनकाउन्टर में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर पुलिस विभाग से अतिरिक्त जांच एजेंसी से जांच करनी चाहिए जिससे जनता का विश्वास पैदा होगा और फर्जी तरीके से एनकाउन्टर के नाम पर हत्याएं रोकी जा सकती हैं।
बधाई के पात्र हैं श्री ब्रजेन्द्र गुप्ता जिन्होंने ने अपने पुत्र की हत्या के अपराधियों को सजा दिलाने के लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। एक अधिवक्ता होने के नाते मैं उनका कष्ट समझ सकता हूँ कि उन्होंने न्याय प्राप्त करने के लिए कितने कष्ट सहे होंगे। अभी उनको हत्यारों को सजा कराने के लिए काफी प्रयास करने होंगे

हिसार में ऑनर किलिंग

हिसार । इज्जत के लिए हत्या करने का एक और मामला सामने आया है। अपने मजहब से बाहर लव मैरिज करने वाले युवक की हत्या कर दी गई। युवक का शव शुक्रवार को हिसार के एक होटेल से मिला। युवक के परिवार वालों ने हत्या का इल्जाम लड़की के परिवार वालों पर लगाया है। पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक , 28 वर्षीय इस युवक का नाम प्रणव कुमार (बदला हुआ नाम) था। वह एक मुस्लिम युवती से लव मैरिज करने के बाद से हिसार के अर्बन एस्टेट-2 में अपने परिवार से अलग रह रहा था। पुलिस की तफतीश में पता चला है कि प्रणव को गुरुवार को लड़की के परिजनों ने फोन करके बुलाया था। लेकिन शुक्रवार सुबह उसकी लाश, हिसार के बस अड्डे के सामने स्थित होटल के कमरा नंबर 121 से बरामद हुई। प्रणव के शरीर पर चोट के गहरे निशान पाए गए हैं। कमरे से हथोड़ा व कुछ बोतलें भी बरामद हुई हैं। एएसपी पंकज नैन ने बताया कि युवक हिसार के एक प्राइवेट स्कूल में कंप्यूटर ऑपरेटर था। उसके पिता हिसार की एक फैक्ट्री में फोरमैन के पद पर कार्यरत हैं। प्रणव ने 15 नवंबर 2009 को जयपुर की मुस्लिम लड़की रुखसाना (बदला हुआ नाम) से लव मैरिज की थी। प्रेम प्रसंग के दौरान रुखसाना के परिजनों ने प्रणव के खिलाफ अपहरण व बलात्कार का केस दर्ज कराया था, लेकिन रुखसाना ने पुलिस को प्रणव के पक्ष में बयान दिया और दोनों ने शादी कर ली थी। प्रणव के पिता ने पुलिस को बताया कि इस शादी से रुखसाना के परिवार वाले खुश नहीं थे और उन्होंने ही आलोक की हत्या की है। बताया जाता है कि रुखसाना के पिता राजस्थान से एक राजनीतिक पार्टी के प्रदेश महासचिव हैं। पुलिस प्रवक्ता के अनुसार होटेल में कमरा किसी दूसरे के नाम से बुक करवाया गया था। पुलिस मामले की तहकीकात रुपयों के लेन-देन से लेकर सट्टेबाजी आदि जैसे पहलुओं पर भी गौर करते हुए कर रही है। पुलिस के अनुसार युवक अपनी पत्नी के साथ देर रात तक मोबाइल पर संपर्क में था।

25.6.10

कितने मुनासिब हैं विशेष पुलिसिया दस्ते- अंतिम भाग

विशेष बलों के जरिए होने वाली फर्जी गिरफ्तारियों का सिलसिला उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल भी मनगढ़ंत कहानी पर फर्जी गिरफ्तारी करने के मामले में अदालत में मुँह की खा चुकी है। दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की करतूत तब सामने आईं, जब अदालत ने मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार किए गए कथित आतंकियों को रिहा कर दिया। इन कथित आतंकियों को स्पेशल सेल ने 2005 में मुठभेड़ के बाद दिल्ली से गिरफ्तार किया था। इन पर भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून पर हमले की साजिश का आरोप था। जिसे स्पेशल सेल ने एक बड़ी कामयाबी के तौर पर प्रचारित किया था। जबकि गिरफ्तार किए गए सभी चारो लोग पुलिस की तरफ से पेश की गई चार्जशीट के विरोधाभासी ब्यौरों के आधार पर निचली अदालत द्वारा बरी कर दिए गए हैं। अदालत ने स्पेशल सेल के कामकाज से असंतोष व्यक्त करते हुए बार-बार टिप्पणी की है कि स्पेशल सेल ने अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल किया है। दिल्ली पुलिस ने मार्च 2005 में जिन चार लोगों को आतंकी बताकर गिरफ्तार किया था, पाँच साल बाद जब वे छूटे तो उनके पास न तो वह उल्लास था और न वे सपने, जो उन्होंने पुलिसिया साजिश का शिकार होने से पहले सँजोये थे।
आउट ऑफ टर्न प्रमोशन लेकर फर्जी एनकाउंटर करके अपनी पीठ थपथपाने वाली पुलिस से जन्मे विशेष दस्ते अब आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर लोगों को निशाना बना रहे हैं। ऐसे में ये सवाल करना सहज हो जाता है कि आखिर देश का संविधान जो आजादी, जो सहूलियतें देता है, उसको नुकसान पहुँचाने वाले पुलिसकर्मी निर्दोष कैसे हो सकते हैं? क्या इन दस्तों के कारनामों से संविधान की मूल भावना को चोट नहीं पहुँचती है? दरअसल राजनीति में दिनों-दिन बढ़ती जा रही गैर-जिम्मेदारी ऐसे सवालों से मुँह चुरा रही है। जबकि सत्ता अपने अपने अपराध को छिपाने के लिए खौफजदा समाज बनाने की कोशिश में है। एक ऐसा समाज जहाँ हर किसी को केवल अपने जान और माल की चिंता में ही व्यस्त रहने की मजबूरी हो और सत्ता के पक्षपाती कदमों के संगठित
प्रतिरोध की स्थितियाँ ही न बन पाएँ। यही कारण है कि अधिकारों का दुरुपयोग करने के तमाम आरोपों के बावजूद विशेष पुलिस दस्तों को बनाए रखा जा रहा है। सत्ता भययुक्त समाज बनाने के लिए
धीमी न्याय प्रक्रिया का फायदा उठाकर इन बलों का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। यही कारण है कि किसी भी बड़ी वारदात के बाद चैबीस या अड़तालीस घंटे के भीतर एक साथ कई गुनाहगारों की गिरफ्तारी हो जाती है। साजिशकर्ता जानते हैं कि जब तक मामला निष्कर्ष पर पहुँचेगा और अदालत का फैसला आएगा, तब तक बात पुरानी हो चुकी होगी। इसके अलावा ये विशेष दस्ते फर्जी गिरफ्तारियों और मनगढंत कहानियों के जरिये अपने औचित्य का भी बचाव करते हैं। क्योंकि जब तक इस तरह के अपराध होते रहेंगे या होने की सम्भावनाएँ जताई जाती रहेंगी, तब तक इन विशेष दस्तों के बने रहने का तर्क मजबूत रहेगा। कुल मिलाकर विशेष दस्तों को मिलने वाली विशेष सुविधाएँ इस तरीके के भ्रष्टाचार के लिए मनोबल देती हैं।
कहने का साफ मतलब है कि जब देश का सामान्य कामकाज सामान्य नियमों से चल सकता है,तो विशेष कानून और विशेष कार्य बल कितने जरूरी हैं? अगर ऐसे बलों की आवश्यकता है तो यह तय करने की जिम्मेदारी किसकी है कि इन बलों से नैसर्गिक न्याय की अवधारणा को कोई चोट न पहुँचे। अगर कोई नागरिकों की गरिमा को नुकसान पहुँचाता है तो ऐसे लोगों को दंडित करने की जिम्मेदारी किसकी है ? वक्त रहते सामान्य विधि प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं को मजबूत किया जाना जरूरी है, ताकि किसी भी तरह के विशेषाधिकार के बल पर नागरिकों की अस्मिता पर चोट करने वाली कारगुजारियों को रोका जा सके। ऐसे में इन विशेष पुलिसिया दस्तों को भंग किया जाना मानवाधिकारों के संरक्षण में पहला कदम साबित होगा।

(समाप्त)

-ऋषि कुमार सिंह
मोबाइल: 09313129941