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19.6.10

अपसंस्कृति


दुनिया की आप़ा धापी में शामिल लोग
भूल चुके है अलाव की संस्कृति
नहीं रहा अब बुजुर्गों की मर्यादा का ख्याल
उलझे धागे की तरह नहीं सुलझाई जाती समस्याएं
संस्कृति , संस्कार ,परम्पराओं की मिठास को
मुंह चिढाने लगी हैं अपसंस्कृति की आधुनिक बालाएं
अब वसंत कहाँ ?
कहां ग़ुम हो गयीं खुशबू भरी जीवन की मादकता
उजड़ते गावं -दरकते शहर के बीच
उग आई हैं चौपालों की जगह चट्टियां
जहाँ की जाती ही व्यूह रचना
थिरकती हैं षड्यंत्रों की बारूद
फेकें जाते हैं सियासत के पासे
भभक उठती हैं दारू की गंध -और हवाओं में तैरने लगती हैं युवा पीढ़ी
गूँज उठती हैं पिस्टल और बम की डरावनी आवाज़
सहमी-सहमी उदासी पसर जाती हैं
गावं की गलियों ,खलिहानों और खेतों की छाती पर
यह अपसंस्कृति का समय हैं

-सुनील दत्ता
मोबाइल- 09415370672

कलह के चलते पति ने की पत्नी की गला रेतकर हत्या


पत्नी को मौत की नींद सुलाकर पति ने खुद भी किया आत्महत्या का प्रयास
सफीदों, (हरियाणा) : आज व्यक्ति मानसिकरूप से इतना परे शान हो चुका है कि उसमेंधैर्य नाम की कोई चीज नहीं रह गई है।परेशानी के कारण चाहे जो भी हो लेकिनपरे शानी धैर्य की कमी के चलते वह कुछभी कर बैठता है। ठीक इसी तरह का उदाहरणहरियाणा के सफीदों क्षेत्र में घटित हुई एकदर्दनाक घटना के रूप में सामने आया है।सफीदों की आदर्श कालोनी में घरेलू कलह केचलते पति ने अपनी ही पत्नी का चाकू से गलारेतकर मौत की नींद सुला दिया। पत्नी कीहत्या करने के बाद पति ने भी खुद को चाकूमारकर अपनी जीवनलीला समाप्त करने कीकोशिश की लेकिन वह इस कोशिश मेंनाकामयाब रहा। इस घटना ने पूरे क्षेत्र कोहिलाकर रख दिया है। मिली जानकारी केअनुसार कस्बे की आदर्श कालोनी निवासीबलबीर तथा उसकी पत्नी धनपति के बीचपिछले कई दिनों से घरेलू कलह चला रहाथा। सुबह बलबीर घर आया और कमरे में सोयी अपनी पत्नी धनपति का चाकूसे गला रेत दिया। जिससे धनपतिकी मौके पर ही मौत हो गई।बाद में बलबीर ने स्वयं को भी चाकूमारकर आत्महत्या करने का प्रयास किया। कमरेमें चिल्लाने की आवाज सुनकर बलबीर का बेटा ऋषिपाल मौके पर पहुंच गया और उसने देखा कि उसके मांबापखून से लथपथ कमरें में पड़े हैं। बेटे ऋषिपाल ने घायल अपने पिता बलबीर को अस्पताल पहुंचाया और घटना कीसूचना पुलिस को दी। सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंच गई और मृतका के शव को कजे में ले सामान्यअस्पताल ले आई। ऋषिपाल ने पुलिस को दी शिकायत में बताया कि उसका पिता बलबीर दर्जी का कार्य करता है।सुबह उसका पिता घर आया और कमरे में सोयी उसकी मां के गले पर चाकूसे वार कर दिया। जब तक वह मौके परपहुंचता तब उसकी मां धनपति की मौके पर ही मौत हो चुकी थी। इस दौरान उसके पिता ने स्वयं को भी चाकूमारकर आत्महत्या करने का प्रयास किया। पुलिस ने ऋषिपाल की शिकायत पर बलबीर के खिलाफ हत्या कामामला दर्ज कर छानबीन शुरू कर दी है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद का रूप व एशिया - (अंतिम भाग)

वास्तव में इन सबके पीछे अमेरिका की वह रणनीति है जिसके अन्तर्गत वह ईरान जैसे कई देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता है ताकि वह विश्व में स्वयं को सिरमौर बना सके। ‘‘जिस तरह यह तथ्य सभी जानते हैं कि सारी दुनिया के ज्ञात प्राकृतिक तेल भण्डारों का 60 प्रतिशत पश्चिम एशिया में मौजूद हैं, अकेले सऊदी अरब में 20 प्रतिशत, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात में मिलाकर 20 प्रतिशत और इराक ईरान में 10-10 प्रतिशत तेल भण्डार हैं। ईरान के पास दुनिया की प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भण्डार है, उसी तरह लगभग सारी दुनिया में अमेरिका के कारनामों से परिचित लोग इसे एक तथ्य की तरह स्वीकारते हैं कि अमेरिका की दिलचस्पी लोकतंत्र में है, आतंकवाद खत्म करने में, दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाने में, बल्कि उसकी दिलचस्पी तेल पर कब्जा करने और इसके जरिये बाकी दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में है। अमेरिका की फौजी मौजूदगी ने उसे दुनिया के करीब 50 फीसदी प्राकृतिक तेल के स्रोतों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कब्जा दिला दिया है और अब उसकी निगाह ईरान के 10 प्रतिशत पर काबिज होने की है। दरअसल मामला सिर्फ यह नहीं है कि अगर अमेरिका को 50 फीसदी तेल हासिल हो गया है तो वह ईरान को बख्श क्यों नहीं देता। सवाल यह है कि अगर 10 फीसदी तेल के साथ ईरान अमेरिका के विरोधी खेमे के साथ खड़ा होता है तो दुनिया में फिर अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत कोई कोई करेगा।’’
इसी तरह क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति
फिदेल कास्त्रों का भी मानना है कि अमेरिका अपनी इन खतरनाक नीतियों के छद्म द्वारा विश्व के कई देशों की सार्थक शक्तियों सुविधाओं का प्रयोग अपने हित हेतु कर रहा है। चाहे वह प्राकृतिक संसाधन हो अथवा मानव शक्ति। ‘‘उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को लूटकर, उसका शोषण करके, बहुत सारा धन इकट्ठा किया है, जिससे वह पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों को, कारखानों को, पूरी की पूरी संचार व्यवस्थाओं सेवाओं आदि को खरीद लेते हैं। .........अपने शानदार आर्थिक नियमों के चलते वह तीसरी दुनिया के देश के लोगों के साथ क्या कर रहे हैं? वह बहुत सारे लोगों को उनके अपने ही देशों में विदेशी बना रहे हैं। अपने देश में एक वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर अथवा शिक्षक तैयार करने पर उनको बहुत भारी खर्च करना पड़ता है। इसलिए वह तीसरी दुनिया के देशों की जनता की खून पसीने की कमाई से तैयार किए गए वैज्ञानिकों, डाॅक्टरों, इंजीनियरों आदि को अपने यहाँ बुला लेते हैं। बात अपना खर्च बचा लेने दूसरे देशों के संसाधन लूट लेने की ही नहीं है, बात यह है कि निरंतर नई तकनीक से निर्मित व्यापार को चलाने के लिए स्वयं उनमें योग्यता नहीं है।’’
अमेरिका की इस पूँजीवादी व्यवस्था ने वातावरण में ज़हर भर दिया है और वह उन प्राकृतिक संसाधनों को
धीरे-धीरे नष्ट कर रहा है, जो कि एक बार प्रयोग कर लेने के पश्चात पुनः पैदा नहीं किए जा सकते, जबकि भविष्य में उनकी आवश्यकता ज्यादा होगी। इन संसाधनों के प्रयोग से अमेरिका को कोई रोके इसलिए वह भिन्न-भिन्न नीतियों का सहारा लेकर विश्व पटल पर ऐसा वातावरण सृजित कर रहा है कि सभी का ध्यान उसी ओर रहे और वह अपने उद्देश्य की पूर्ति बिना किसी अंकुश के कर सके।
भारत द्वारा अमेरिका के साथ किए गए समझौतों से हमारी संप्रभुता पर एक खतरा मण्डरा रहा है, जिससे बचाव के लिए हमें कोई कोई ठोस कदम उठाना होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि एशिया के प्राकृतिक संसाधनों मानव शक्ति के उत्पादन पर अमेरिका नजर गड़ाए हुए है परन्तु जिस मनमानी से वह यह सब हासिल करना चाहता है वह इन देशों के लिए अत्यन्त हानिकारक साबित हो सकता है। अमेरिका की इन सभी साम्राज्यवादी नीतियों से दो-दो हाथ करने उसका हल ढूँढने का सार्थक प्रयास यही हो सकता है कि उसके विरुद्ध खड़ी तमाम शक्तियों को एकत्र किया जाए। जैसा कि पिछले समय में बेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यगो चावेज के साथ मिलकर अहमदीनेजाद ने एक वैकल्पिक कोष का निर्माण कर लिया है इससे छोटे देशों को सार्थक सहयोग मिलेगा और वह भी अमेरिकी शक्तियों का विरोध करते हुए इनसे जुड़े रहेंगे। विश्व स्तर पर अमेरिका के डाॅलर को चुनौती देने के प्रयास भी इसी ओर संकेत करते हैं। इसी तरह एशिया के सभी देश आपसी खींच तान भुलाकर यदि एक मंच पर एकत्र हों तो वे सब अपनी संप्रभुता को कायम रखते हुए अमेरिका का विरोध बड़े तीव्र रूप में कर सकते हैं। कुछ अमेरिका परस्त देशों को यदि इस एकत्रता से निकाल भी दिया जाए तो भी एक सार्थक प्रयास किया जा सकता है। मैं तो कहूँगा कि भारत जैसे देश केवल इसका विरोध करें बल्कि इस नये एकता सूत्र को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँ, वहीं चीन भी इसमें महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है। जिस प्रकार आज भूमण्डलीय साम्राज्यवाद की बात की जा रही है उसी तरह भूमण्डलीय विरोध को भी पैदा किया जा सकता है बस जरूरत इन देशों की आपसी एकता की है।

-डा0 विकास कुमार
मोबाइल: 09888565040

18.6.10

अमेरिकी साम्राज्यवाद का रूप व एशिया - 1

आज इस भूमण्डलीयकरण के युग में जहाँ विश्व को एक ग्राम के रूप में देखने की बात स्वीकारी जा रही है वहीं इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि विभिन्न देशों में सामाजिक स्थिरता, समरसता और अखण्डता को तोड़ने हेतु साम्राज्यवादी शक्तियाँ भिन्न-भिन्न हथकण्डों का प्रयोग कर रही हैं। जहाँ वे एक ओर जन कल्याण की नई-नई सुविधाओं और स्कीमों का प्रचार प्रसार कर रही हैं वहीं दूसरी ओर अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु इसी जन के शोषण को घिनौना रूप देती द्रष्टव्य होती हैं। हम इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि अमेरिका ही इन सब रणनीतियों षडयंत्रों का सूत्रधार है। वस्तुतः आज विश्व धरातल पर अमेरिका की जो छवि बनी हुई है उसे सुधारने हेतु अपने घिनौने कार्यों पर पर्दा डालने हेतु ही इन जन कल्याण की सुविधाओं का छद्म रचा जा रहा है। वास्तविकता यह है कि अमेरिका अपनी इन्हीं रणनीतियों की आड़ में अपने वर्चस्व को कायम रखने का जो षडयंत्र रच रहा है, वह आतंकवाद का असल जनक है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उसके निशाने पर एशिया अफ्रीका के देश ही प्रमुख रूप से हैं, जिसका प्रमुख कारण इन देशों के प्राकृतिक संसाधन माल बेचने हेतु उपलब्ध बाजार का होना मान लिया जाए तो कदाचित् यह गलत होगा।
बीसवीं सदी में बहुत ही नाटकीय ढंग से एशिया के कई देशों में घटनाएँ घटित हुईं हैं, जिसने केवल एशिया बल्कि सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया है। जिसके अन्तर्गत विश्व सभ्यताओं के टकराव की बात को तूल देकर मुस्लिम समाज को आतंकी घोषित करने का प्रयास भी प्रमुख रूप से सम्मिलित है। वास्तव में अमेरिका अपनी निश्चित रणनीति के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न देशों में वहाँ की सरकारों को अस्थिर करने के प्रयास करता है और इस प्रयास को सफल बनाने हेतु वह धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय नस्ल आदि का सहारा लेकर कई प्रकार के दुष्प्रचारों को फैलाता है ताकि मनोवैज्ञानिक ढंग से उस देश के वातावरण में खण्डित होने की भावना को बढ़ावा दिया जा सके और उसकी अस्थिरता का लाभ उठाया जा सके। अमेरिका के साम्राज्यवादी नीतिकार पहले पहल इन देशों में आर्थिक, सामाजिक पिछड़ेपन पर विशेष रूप से फोकस करते हैं, फिर उसमें छिपी संभावनाओं को एक हथियार की तरह प्रयोग करते हैं और इन्हीं देशों को धन, हथियार आदि देकर अपना काम निकलवाते हैं तथा फिर अपने ही प्रचार तंत्र द्वारा इन्हें बदनाम कर सुधारने का ठेका अपने जिम्मे ले लेते हैं। नोम चोमस्की के आलेख इस संबन्ध में विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाते हैं। यह मात्र एक रणनीति है परन्तु ऐसी ही कई अन्य रणनीतियाँ भी हैं जो अमेरिका अपना हित साधने हेतु प्रयोग में लाता है।
आज यदि एशिया पटल पर दृष्टिपात किया जाए तो ज्ञात होता है कि अमेरिका के निशाने पर जो देश हैं उनमें मुस्लिम देशों की संख्या अधिक है। यह सत्य है कि इराक को तबाह करने के पश्चात् भी अमेरिका अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है परन्तु हाँ इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता कि इराक से युद्ध के बहाने अमेरिका ने एशिया के कई हिस्सों में अपनी सेना की संख्या कई गुना बढ़ा ली है। वहीं पश्चिम एशिया पर दृष्टिपात किया जाए तो ज्ञात होता है कि यहाँ के कुछ देशों में अमेरिका परस्त सरकारें ही कार्यरत हैं और ये देश अमेरिका की हर बुरी हरकत में बराबर के साझीदार हंै। ‘‘इज्राइल, कुवैत, जाॅर्डन और सऊदी अरब में पहले से ही अमेरिका परस्त सरकारें मौजूद थीं, लेबनान के प्रतिरोध को अमेरिकी शह पर इज्राइल ने बारूद के गुबारों से ढाँप दिया है और सीरिया, ओमान, जाॅर्जिया, यमन जैसे छोटे देशों की कोई परवाह अमेरिका को है नहीं, भले ही तुर्क जनता में अमेरिका द्वारा इराक पर छेड़ी गई जंग का विरोध बढ़ा है लेकिन अपनी राजनैतिक, व्यापारिक, व भौगोलिक स्थितियों की वजह से तुर्की की सरकार यूरोप और अमेरिका के खिलाफ ईरान के साथ खड़ी होगी, इसमें संदेह ही है। कुवैत में अमेरिकी पैट्रियट मिसाइलें तनी हुई हैं, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के पानी में अमेरिका नौसेना का पाँचवा बेड़ा डाले हुए है। कतर ने इराक और अफगानिस्तान पर हमलों के दौर में अमेरिकी वायुसेना के लिए अपनी जमीन और आसमान मुहैय्या कराये ही थे।’’
यदि एशिया की विगत कुछ दशकों की स्थितियों का मूल्यांकन किया जाए और भविष्य सम्बंधी अमेरिका की रणनीति की बात को उससे मिलाकर देखा जाए तो ज्ञात होता है कि इराक और फिलिस्तीन की साम्राज्यवाद विरोधी नीतियों को कुचलने के पश्चात अब अमेरिका के निशाने पर ईरान ही है। छद्म रूप में विश्व से आतंकवाद मिटाने का संकल्प लेने वाला अमेरिका अपनी सूची में ईरान और उत्तर कोरिया को प्रमुख रूप से शामिल किये हुए हैं। 9/11 के पश्चात अमेरिकी पश्चिमी मीडियाइस्लामी आतंकवादका मिथ खड़ा कर, इन मुस्लिम देशों में नरसंहार को अपने मनमाने ढंग से क्रियान्वित करना चाहता है परन्तु ईराक को उसकी बेगुनाही के पश्चात भी लाशों के आवरण में ढकने का जो कार्य अमेरिका ने किया है वह विश्व पटल पर अमेरिका के झूठ, छद्म उसकी खतरनाक नीतियों की कलई खोलकर रख देता है। उत्तरी कोरिया ने अमेरिकी रणनीतियों को पहचान लिया था, जिससे बचने हेतु उसने स्वयं को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया परन्तु ईरान ऐसा नहीं कर सका। अब अमेरिका का विशेष ध्यान ईरान पर है। इसी कारण पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब और इराक आदि में अमेरिकी सेना की उपस्थिति को बनाये रखा गया है।

-डा0 विकास कुमार
मोबाइल: 09888565040

हिंसा और उपभोक्तावाद के दौर में सूफियों की प्रासंगिकता (अंतिम भाग)

आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि में आमतौर पर रहस्यवादी दर्शन को सृजनात्मक नहीं माना जाता। उसे जीवन के यथार्थ को अनदेखा कर एक वायवी संसार में पलायन करने का रास्ता माना जाता है। लेकिन मनुष्य के मन को उदारता, प्रेम और समता की भावभूमि की ओर उन्मुख और प्रेरित करने के लिए रहस्यवादी प्रवृत्ति आधुनिक मनुष्य के काम की हो सकती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूफियों के बारे में लिखा है: ‘‘हमारे देश के भक्तों और संतों की भाँति सूफी साधकों ने भी इसी अंतरतम के प्रेम पर आश्रित भाव-जगत की साधना को अपनाया है। यह साधना जितनी ही मनोरम है उतनी ही गंभीर भी। हमारे देश के अनेक सूफी कवियों ने इस प्रेम साधना को अपने काव्यों का प्रधान स्वर बनाया है। मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पदमावत’ इस प्रेम साधना का एक अनुपम काव्य है। साधक के हृदय में जब प्रेम का उदय होता है तब सांसारिक वस्तुएँ उसके लिए तुच्छ हो जाती हैं, लेकिन संसार के जीवों के लिए उसका हृदय दया और प्रेम से परिपूर्ण रहता है। दूसरों के कष्ट का निवारण करने के लिए वह सब प्रकार से प्रयत्नशील रहता है और उसके लिए सभी प्रकार के कष्टों का स्वागत करता है। छोटे से छोटे से प्राणी लेकर बड़े से बड़े प्राणी तक उसकी दृष्टि में अपना महत्व रखते हैं। चूँकि सर्वत्र सभी प्राणियों में वे परमात्मा के दर्शन करते हैं अतः उन्हें सुख पहुँचा कर वे परम सुखी होते हैं। उनके लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए वे प्रस्तुत रहते हैं। बायजीद ने कहा है कि परमात्मा जिससे प्रेम करता है उसे तीन गुणों से विभूषित करता है - ‘‘उसमें समुद्र जैसी उदारता, सूर्य की तरह पर दुख का तरता और पृथ्वी की तरह विनम्रता पाई जाती है।’’
सूफी दार्शनिकों और साधकों के अलावा सूफी साहित्यकारों की भी कट्टरता के बरक्स उदारता के विस्तार में अहम भूमिका रही है। यूँ तो दुनिया का ज्यादातर श्रेष्ठ साहित्य मनुष्य के हृदय में निहित प्रेम, उदारता और परदुखकातरता की अनंत संभावनाओं के प्रकाशन का ही उद्यम है, लेकिन सूफियों का प्रेम काव्य इस मायने में अपनी अलग महत्ता और सार्थकता रखता है। अपनी लोकसंवेदना के चलते वह आम जीवन के ज्यादा नजदीक आता है। सूफी प्रेम काव्यों में लोक भाषा में लोक कथाओं को आधार बना कर लोकरंजन किया गया है। सांप्रदायिक और बाजारवादी कट्टरता दोनों मिल कर प्रेम और उदारता से संवलित सूफी साहित्य की संवेदना का अवमूल्यन करती हैं। आधुनिकतावादी और उसी की एक अभिव्यक्ति (मेनीफेस्टेशन) प्रगतिवादी बुद्धि की अपनी कट्टरताएँ जगजाहिर हैं। वह समस्त मध्ययुगीनता को अंधकार और बर्बरता का पर्याय मान कर चलती है। उसके मुताबिक आधुनिक युग से पूर्व मानव सभ्यता में कुछ भी ऐसा सारगर्भित नहीं हुआ है जिसे आज की विचारणा में केंद्रीय स्थान दिया जा सके। यह दरअसल बाजार की धुरी पर चढ़ी हुई बुद्धि है जो स्वतंत्रता के छद्म दावे में जीती है। मलिक मुहम्मद जायसी केपदमावतमें एक प्रसंग काबिलेगौर है, जिसे हमने अन्यत्र भी उद्धृत किया है। चित्तौड़गढ़ के व्यापारियों का एक काफिला व्यापार करने के लिए सिंहलद्वीप की यात्रा पर निकलता है। उनके साथ थोड़ा-बहुत कर्ज लेकर एक गरीब ब्राह्मण भी व्यापार की लालसा में चल देता है। जायसी ने व्यापार स्थल पर लगे बाजार की विशालता और भव्यता का चित्रण किया है जहाँ लाखों-करोड़ों में वस्तुएँ बिकती हैं। व्यापारी अपना-अपना व्यापार करते हैं लेकिन थोड़ी-सी पूँजी लेकर आया ब्राह्मण उस बाजार में कुछ भी खरीद नहीं पाता। व्यापारी लौटने लगते हैं। ब्राह्मण निराशा से भर जाता है। तभी बाजार के एक कोने में उसकी नजर पिंजड़े में बंद एक तोते पर पड़ती है जिसे व्याध वहाँ बेचने के लिए ले आया है। ब्राह्मण तोते से वार्तालाप करता है। उससे पूछता है कि वह गुणी पंडित है या केवल छूँछा है। अगर पंडित है तो ज्ञान की बात बता। तोता पीड़ा से भर कर कहता है कि हे ब्राह्मण मैं तभी तक गुणी और ज्ञानी था जब तक इस पिंजड़े में कैद नहीं हुआ था। अब तो मैं पिंजड़े में कैद हूँ और बाजार में बिकने के लिए चढ़ा दिया गया हूँ। ऐसी स्थिति में अपना सारा ज्ञान भूल गया हूँ। जायसी तोते की मर्मांतक वेदना को इस तरह व्यक्त करते हैं: ‘‘पंडित होई सो हाट चढ़ा। चहउँ बिकाई भूलि गा पढ़ा।।’’ अर्थात जो ज्ञानी होता है वह बाजार में नहीं चढ़ता। मैं तो बिक रहा हूँ लिहाजा सब पढ़ाई भूल गया हूँ।
बाजार और विचार का द्वंद्व हमेशा से चला रहा है। इस प्रसंग में जायसी ने मध्यकालीन बुद्धिजीवी की बाजार के हाथों बिकने की वेदना को अभिव्यक्ति दी है। यानी वे बताते हैं कि पंडित, ज्ञानी या बुद्धिजीवी वही है जो बाजार की ताकत से स्वतंत्र है। आज हम देखते हैं कि दुनिया का ज्यादातर बौद्धिक कर्म बाजारवाद की सेवा में लगा हुआ है और बुद्धिजीवियों को इसकी कोई पीड़ा नहीं है। बल्कि वे अपनी बुद्धि को बाजार की सेवा में लगाने को आतुर नजर आते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा बाजार लूटा जा सके। अध्यापक से लेकर आध्यात्मिक गुरु तक बाजारवाद की ताल पर नाचते नजर आते हैं। सिद्धांतकारों और साहित्यकारों-कलाकारों का भी वही हाल है। बुद्धिजीवियों के मार्फत दुनिया पर अपना वर्चस्व जमाने वाले बाजारवाद के प्रतिरोध की चेतना सूफी वाड्।मय में मिलती है। साहित्य के नित नए पाठ के आग्रहियों को इस तरफ भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए।

-डॉक्टर प्रेम सिंह
(समाप्त)
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून २०१० अंक में प्रकाशित

17.6.10

लो क सं घ र्ष !: हिंसा और उपभोक्तावाद के दौर में सूफियों की प्रासंगिकता

मौजूदा दौर में सहिष्णुता, उदारता और आपसी सौहार्द के ऊपर असहिष्णुता, कट्टरता और बदले की भावना का ज्यादा बोलबाला है। केवल कट्टरतावादी शक्तियों का ही वैसा बर्ताव नहीं है, उनके मुकाबले में उभरी प्रतिरोध की शक्तियाँ भी अक्सर असहिष्णुता, कट्टरता और वैमनस्य से परिचालित होती हैं। दुनिया और भारत दोनों के स्तर पर यह परिघटना देखी जा सकती है। आधुनिक सभ्यता के इस दौर में हृदय के प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा गया है। यह मानते हुए कि वे सब सामंती युग की भाववादी धारणाएँ हैं। जबकि हृदय के प्रेम को भक्तिकालीन कवियों ने जीवन के केंद्र में स्थापित करने का अनूठा और अभूतपूर्व उद्यम किया था। या तो हम यह कहें कि भक्तिकालीन कवियों का वह उद्यम निरर्थक था या आज के युग की समस्याओं और चुनौतियों के लिए उसकी सार्थकता स्वीकार करें। हमें लगता है कि भक्तिकाल की एक धारा के वाहक सूफी कवियों और दार्शनिकों के प्रेम, त्याग, अपरिग्रह और भाईचारे के जीवन दर्शन का स्मरण करना प्रासंगिक है। समता, स्वतंत्रता और बंधुता के आधुनिक विचारों को मध्यकालीन सूफी साधकों, संतों और साहित्यकारों के दर्शन से काफी सहायता मिल सकती है। दरअसल अब हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि मानव मुक्ति के मध्यकालीन रचनात्मक, साधनागत और दार्शनिक उद्यम से कट कर मानव मुक्ति की आधुनिक अवधारणाएँ और प्रयास सफल नहीं हो सकते। अब उस बुद्धि से निजात पाने का समय आ गया है जो मध्यकालीनता और आधुनिकता के बीच ‘वाटर टाइट’ विभेद करती है। उस बुद्धि पर भी पुनर्विचार की जरूरत है जिसके तहत माना जाता है कि विभिन्न धर्मों में पाई जाने वाली उदारता की धारा आधुनिक मनुष्य के लिए किसी काम की नहीं है। आखिर उसी उदारता की धारा के बूते आधुनिकता-पूर्व की मानव सभ्यता ने अपने को कट्टरता के आक्रमणों से बचाया है। बल्कि वह पैदा और विकसित ही कट्टरता के बरक्स हुई है और उसने मानव मुक्ति के नए क्षितिज उद्घाटित किए हैं। आधुनिक सेकुलरवादी विमर्श में धर्म की उदारतावादी धाराओं को समुचित जगह देने से न केवल संप्रदायवादी ताकतों के प्रभाव को काटा जा सकता है, उपभोक्तावादी-बाजारवादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए भी वहाँ से पर्याप्त सामग्री पायी जा सकती है। ऐसा न करने पर धर्म और बाजार के नाम पर चलाया जा रहा कट्टरतावादी अभियान मानव सभ्यता के इतिहास में उपलब्ध उदारता की अंतर्वस्तु को या तो विनष्ट कर देगा या उसे कट्टरता की झोली में समेट लेगा।
दुनिया के सभी धर्मों में कमोबेश रहस्यवाद की प्रवृत्ति पाई जाती है। रहस्यवादी प्रवृत्ति धर्म से जुड़ी होकर भी धर्म के संस्थानीकृत रूप के विरोध में पैदा होती है। वह प्रत्येक व्यक्ति की आध्यात्मिक-दार्शनिक जिज्ञासा के स्वाभाविक एवं लोकतांत्रिक अधिकार को बनाए रखने की दृष्टि से जुड़ी होती है। वह धर्म और जीवन में पाखंड और भोगवाद की विरोधी प्रवृत्ति है। रहस्यवादी साधक अनुभव करता है कि संपूर्ण जागतिक व्यापार परम सत्ता से पैदा होकर उसी में विलीन होता रहता है। अव्यक्त परम सत्ता जो, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त और व्यक्त है, रहस्यवादी उसे जानने की उत्कट जिज्ञासा और व्यग्रता से निरंतर भरा रहता है। वह मानता है कि परम सत्ता को जागतिक बुद्धि से नहीं, आंतरिक साधना से जाना जा सकता है। आंतरिक साधना में वह सबसे ज्यादा प्रेम की अनुभूति पर बल देता है। इस तरह प्रेम की साधना ही रहस्यवादी साधक की सच्ची साधना है। रहस्यवादी मानते हैं कि प्रेम की साधना का मार्ग आसान नहीं होता। उसमें अपने अहम् का पूर्ण विसर्जन करना होता है। इस तरह परमात्मा से जो अंतरंगता स्थापित होती है उसका प्रसार समस्त प्राणियों तक होता है। उसमें कोई भी अलग या पराया नहीं रह जाता। प्रेम की भावावस्था में स्थित हो, संपूर्ण सृष्टि से एकत्व ही रहस्यवादी साधक का चरम लक्ष्य होता है।
रहस्यवादी प्रवृत्ति के संदर्भ में इस्लाम धर्म भी अपवाद नहीं है। माना जाता है कि पैगंबर हजरत मोहम्मद के समय से ही इस्लाम में रहस्यवादी स्वर मुखरित होने लगे थे। इस्लाम धर्म के रहस्यवादी सूफी कहलाए। वे पैगंबर, कुरआन और हदीस के वचनों को मानते हैं लेकिन अपनी साधना में इस विश्वास से परिचालित होते हैं कि धर्म बाह्याचार का नहीं, आंतरिक अनुभूति का विषय होता है। आमतौर पर अपने सिद्धांतों को वे कुरआन और हदीस के हवाले से पुष्ट करते हैं लेकिन जहाँ तालमेल नहीं बैठ पाता वहाँ अपनी अलग व्याख्या भी देते हैं। अपने उदार दृष्टिकोण के चलते वे मानते हैं कि कुरआन की विभिन्न तरह से व्याख्या की जा सकती है। उन्होंने अपनी अंतःप्रेरणा से कई बार हदीसों की सृष्टि भी की है। उदार दृष्टिकोण के चलते कई बार सूफियों को कट्टरपंथियों के कोप का भाजन बनना पड़ा है और जान से भी हाथ धोना पड़ा है। परमात्मा को प्रेम स्वरूप मानते हुए हृदय से परमात्मा के प्रति प्रेम को ही वे धार्मिक आचरण की कसौटी मानते हैं। उनके मुताबिक हज करने का महत्व तभी है जब साधक पग-पग पर हृदय की उदात्तता और पवित्रता अर्जित करता चले; उसके हृदय में परमात्मा और उसकी सृष्टि के प्रति प्रेम का उद्रेक होता चले। सूफी साधक अल शिवली इस विषय में कहते हैं: ‘‘प्रेम प्रज्वलित अग्नि के समान है जो परम प्रियतम की इच्छा के सिवा हृदय की समस्त वस्तुओं को जला कर खाक कर डालता है।’’ अधिकांशतः सूफी, पैगंबर और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों के प्रति आस्था प्रकट करते हैं और धार्मिक नियम-कायदों का पालन करते हैं। लेकिन अंतिम कसौटी अपने अंतर की प्रेरणा को ही स्वीकार करते हैं। धर्म में व्याप्त पाखंड और कट्टरता से आजिज आकर कभी-कभार कर्मकांड पर तीखा प्रहार भी करते हैं। सूफी साधकों की विद्रोही उक्तियों का आगे चल कर फारसी और उर्दू के शायरों पर खासा प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन सूफी साधकों की यह विशेषता है कि वे खंडन-मंडन में न लग कर अपने धार्मिक आचरण में प्रेम और उदारता की प्रतिष्ठा में ही संलग्न रहते हैं। यह अलग विषय है कि सूफी खुद कई संप्रदायों में विभक्त रहे हैं और सूफीवाद का पाखंड भी पर्याप्त प्रचलन में रहा है जो आज भी जारी है।

-प्रेम सिंह
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून २०१० अंक में प्रकाशित

16.6.10

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009- अंतिम भाग

भाग

इसी प्रकार वर्ष-2009 में मेरी दृष्टि कई अजीबो-गरीब पोस्ट पर गई मसलन -एक हिंदुस्तानी की डायरी में 10 फरवरी को प्रकाशित पोस्ट -हिंदी में साहित्यकार बनते नहीं, बनाए जाते हैं। प्रत्यक्षा पर 26 मार्च को प्रकाशित पोस्ट -तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है? विनय पत्रिका में 27 मार्च को प्रकाशित बहुत कठिन है अकेले रहना। निर्मल आनंद पर 05 फरवरी को प्रकाशित आदमी के पास आँत नहीं है क्या? छुट-पुट पर 02 जुलाई को प्रकाशित पोस्ट -इंटरनेट (अन्तरजाल) का प्रयोग मौलिक अधिकार है। सामयिकी पर 09 जनवरी को प्रकाशित आलेख, जमाना स्ट्राइसैंड प्रभाव का आदि।
ये सभी पोस्ट शीर्षक की दृष्टि से ही केवल अचंभित नहीं करते बल्कि विचारों की गहराई में डूबने को विवश भी करते हैं। कई आलेख तो ऐसे हैं जो गंभीर विमर्श को जन्म देने की गुंजाइश रखते हैं।
इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि वर्ष -2007 में हिन्दी ब्लॉग की संख्या लगभग पौने चार हजार के आस-पास थी जबकि महज दो वर्षों के भीतर चिट्ठाजगत के आँकड़ों के अनुसार सक्रिय हिन्दी चिट्ठों की संख्या ग्यारह हजार के पार हो चुकी है। वर्ष- 2009 में कानपुर से टोरंटो तक इलाहाबाद से न्यू जर्सी तक मुम्बई से लन्दन तक और भोपाल से दुबई तक हिन्दी चिट्ठाकारी का धमाल छाया रहा। कहीं हिन्दी की अस्मिता का सवाल तो कहीं आता रहा हिन्दी के नाम पर भूचाल, इसमें शामिल रहे कहीं कवि, कहीं कवयित्री, कहीं गीतकार, कहीं कथाकार, कहीं पत्रकार तो कहीं शायर और शायरा और उनके माध्यम से होता रहा हिन्दी का व्यापक और विस्तृत दायरा।
कहीं चिटठा चर्चा करते दिखे अनूप शुक्ल तो कहीं उड़न तश्तरी पर सवार होकर ब्लॉग भ्रमण करते दिखे समीर लाल जैसे पुराने और चर्चित ब्लाॅगर। कहीं सादगी के साथ अलख जगाते दिखे ज्ञान दत्त पांडे तो कहीं शब्दों के माया जाल में उलझाते रहे अजित वाडनेकर तो कहीं हिन्दी के उत्थान के लिए सारथी का शंखनाद तो कहीं और मुहल्ला भड़ास का जिंदाबाद कारवाँ चलता रहा, लोग शामिल होते रहे और बढ़ता रहा दायरा हिन्दी का कदम-दर कदम।
इस कारवाँ में शामिल रहे उदय प्रकाश, विष्णु नागर, विरेन डंगवाल, लाल्टू, बोधिसत्व और सूरज प्रकाश जैसे वरिष्ठ साहित्यकार तो दूसरी तरफ पुण्य प्रसून बाजपेयी और रबिश कुमार जैसे वरिष्ठ पत्रकार। कहीं मजबूत स्तंभ की मानिंद खड़े दिखे मनोज बाजपेयी जैसे फिल्मकार तो कहीं आलोक पुराणिक जैसे अगड़म-बगड़म शैली के रचनाकार कहीं दीपक भारतदीप का प्रखर चिंतन दिखा तो कहीं सुरेश चिपलूनकर का महाजाल, कहीं रेडियो वाणी का गाना तो कहीं कबाड़खाना
तमाम समानताओं के बावजूद उड़न तश्तरी का पलड़ा भारी दिखा वह था मानसिक हलचल के मुकाबले उड़न तश्तरी पर ज्यादा टिप्पणी आना और मानसिक हलचल के मुकाबले उड़न तश्तरी के द्वारा सर्वाधिक चिट्ठों पर टिप्पणी देना । इस प्रकार सक्रियता में अग्रणी रहे श्री समीर लाल जी और सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी चिट्ठाकारी में अपनी उद्देश्यपूर्ण भागीदारी में अग्रणी दिखे श्री ज्ञान दत्त पांडे जी। रचनात्मक आन्दोलन के पुरोधा रहे श्री रवि रतलामी जी, जबकि सकारात्मक लेखन के साथ-साथ हिन्दी के प्रसार-प्रचार में अग्रणी दिखे श्री शास्त्री जे0सी0 फिलिप जी। विधि सलाह में अग्रणी रहे श्री दिनेश राय द्विवेदी जी और तकनीकी सलाह में अग्रणी रहे श्री उन्मुक्त जी। वहीं श्रद्धेय अनूप शुक्ल समकालीन चर्चा में अग्रणी दिखे और श्री दीपक भारतदीप गंभीर चिंतन में। इसीप्रकार श्री राकेश खंडेलवाल जी कविता-गीत-गज़ल में अग्रणी दिखे।
महिला चिट्ठाकारों के विश्लेषण के आधार पर हम जिन नतीजों पर पहुँचे हैं उसके अनुसार कविता में अग्रणी रहीं रंजना उर्फ रंजू भाटिया, वहीं कथा-कहानी में अग्रणी रहीं निर्मला कपिला, ज्योतिषीय परामर्श में अग्रणी रहीं संगीता पुरी, वहीं व्यावहारिक वार्तालाप में अग्रणी रहीं ममता। समकालीन सोच में घुघूती बासूती और गंभीर काव्य चिंतन में अग्रणी दिखी आशा जोगलेकर। सांस्कृतिक जागरूकता में अग्रणी दिखी अल्पना वर्मा, वहीं समकालीन सृजन में अग्रणी रहीं प्रत्यक्षा। इसी प्रकार कविता वाचकनवी, सांस्कृतिक दर्शन में अग्रणी रहीं।
हिन्दी ब्लाॅगिंग के सात आश्चर्य यानी वर्ष के सात अद्भुत चिट्ठे । इसमें कोई संदेह नहीं कि संगणित भूमंडल की अद्भुत सृष्टि हैं चिट्ठे। यदि हिन्दी चिट्ठों की बात की जाय तो आज का हिन्दी चिटठा अति संवेदनात्मक दौर में है, जहाँ नित नए प्रयोग भी जारी हैं। मसलन समूह ब्लाग का चलन ज्यादा हो गया है। ब्लाॅगिंग कमाई का जरिया भी बन गया है। लिखने की मर्यादा पर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं। ब्लाॅग लेखन को एक समानान्तर मीडिया का दर्जा भी हासिल हो गया है। हिंदी साहित्य के अलावा विविध विषयों पर विशेषज्ञ की हैसियत से भी ब्लाॅग रचे जा रहे हैं। विज्ञान, सूचना तकनीक, स्वास्थ्य और राजनीति वगैरह कुछ भी अछूता नहीं है। समस्त प्रकार के विश्लेषणों के उपरांत वर्ष के सात अद्भुत चिट्ठों के चयन में केवल दो व्यक्तिगत चिट्ठे ही शामिल हो पा रहे थे जबकि पाँच कम्युनिटी ब्लॉग थे, ऐसे में उन पाँच कम्युनिटी ब्लॉग को अलग रखने के बाद वर्ष-2009 के सात अद्भुत हिन्दी चिट्ठों की स्थिति बनी हंै वे इस प्रकार हैं-ताऊ-डौंट-इन (रामपुरिया का हरयाणवी ताऊनामा), हिन्दी ब्लॉग टिप्स, रेडियो वाणी, शब्दों का सफर, सच्चा शरणम्, महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर और कल्पतरु
अब आइए उन चिट्ठाकारों की बात करते हैं, जिनका अवदान हिन्दी चिट्ठाकारी में अहम् है और वर्ष -2009 में अपनी खास विशेषताओं के कारण लगातार चर्चा में रहे हैं। साहित्यिक-सांस्कृतिक -सामाजिक-विज्ञान-कला-अध्यात्म और सद्भावनात्मक लेखन में अपनी खास शैली के लिए प्रसिद्ध चिट्ठाकारों में लोकप्रिय एक-एक चिट्ठाकार का चयन किया गया है । इस विश्लेषण के अंतर्गत जिन सात चिट्ठाकारों का चयन किया गया है ,उसमें भाषा-कथ्य और शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट लेखन के लिए श्री प्रमोद सिंह (चिट्ठा-अजदक), व्यंग्य लेखन के लिए श्री अविनाश वाचस्पति (चिट्ठा-की बोर्ड का खटरागी), लोक-कला संस्कृति के लिए श्री विमल वर्मा ( चिटठा- ठुमरी), सामाजिक जागरूकता से संबंधित लेखन के लिए श्री प्रवीण त्रिवेदी (चिटठा- प्राइमरी का मास्टर), विज्ञान के लिए श्री अरविन्द मिश्र (चिटठा-साईं ब्लॉग), अभिकल्पना और वेब-अनुप्रयोगों के हिन्दीकरण के लिए श्री संजय बेगाणी (चिटठा-जोग लिखी) और सदभावनात्मक लेखन के लिए श्री महेंद्र मिश्रा ( चिट्ठा - समयचक्र) का उल्लेख किया जाना प्रासंगिक प्रतीत हो रहा है। उल्लेखनीय है कि ये सातों चिट्ठाकार केवल चिट्ठा से ही नहीं अपने-अपने क्षेत्र में सार्थक गतिविधियों के लिए भी जाने जाते हैं और कई मायनों में अनेक चिट्ठाकारों के लिए प्रेरक की भूमिका निभाते हैं । विदेशों में रहने वाले हिंदी चिट्ठाकार इस दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हिन्दी ब्लागिंग के उन्नयन की दिशा में सार्थक रहा वर्ष 2009.

-रवीन्द्र प्रभात
(समाप्त)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित