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5.5.10

मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी

राजनैतिक एँव समसामयिक विषयों पर बातें कहाँ तक हों, आइये कुछ गंभीर विषयों पर सैधांतिक चर्चा भी करें। आध्यात्मिकता नैतिकता एवं धार्मिकता पर आज कल के नौजवान, जो ‘‘ईट, ड्रिंक एण्ड बी मेरी‘‘ पर विश्वास रखते हैं, नाक भौं सिकोड़ते हैं, सोचने की बात है कि मौज-मस्ती शराब, जुआ, मारफिया का सेवन, नाचगाना एवं धूम्रपान आदि चाहे ऐसा आता है जब इन में लिप्त व्यक्ति अपने को संतुष्ट महसूस कर सके ?
शायर ग़ालिब चाहे जितने बड़े दार्शनिक हों, उन्हों नें अपने कृत्यों के शायद बचाव के लिये ही ये शेर कहा होगा।
अगले वक़तो के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो जो मय व नग़मा को अन्दोह रूबा कहते हैं उन्होंनें शराब व संगीत को बर्बाद करने वाली चीजें नहीं माना, उल्टे पुराने लोगों की हंसी उड़ाई। नौजवान वर्ग नें इस ‘लाजिक‘ को ‘बक-अप‘ भी खूब किया, लेकिन मज़हब नें इन चीजों पर जो पाबंदी लगाई आप उसका चाहे जितना मजा़क उड़ाये, ज़माना बदलने से बहुत सी बुनियादी वास्तविकतायें कभी नहीं बदलती। कोई भी समझदार व्यक्ति नशे में कही गई ग़ालिब की इस भड़काऊ बात से सहमत नहीं हो सकता, हाँ शेर के अन्दाज़ को पसंद कर सकता है।
अब रही बात धर्म की, उसका जा़हिरी रूप इतना विकृत है, और उसमें आडम्बरों को इतना सम्मान दे दिया कि इसकी आत्मा पूरी तरह ओझल हो गई। जो व्यक्ति इसका वर्तमान चेहरा देखता है, वह या तो इससे नफ़रत करता है या इसी रंग में रंग जाता है। कुछ दशिनिकों ने इसे ‘अफ़ीन‘ हैं, जिनके नशे में नौजवान वर्ग खूब मस्त है।
समाज में दिखाने के धर्म और मूल धर्म जिसमें आहयामिकता एँव नैतिकता समाहित है, इन दोनों में अन्तर न कर पाने के कारण धर्म आधारित जो भी बात होती है उसको पढ़ालिखा कह कर नकार देता है, इस प्रतिक्रिया में उसके आधुनिकता के नशे का भी प्रभाव होता है जो पश्चिम से उस तक पहुँचा है।
धूम्रपान की मिसाल ही लीजिये, धर्म जब इसे निषिघ्द करते हैं तो इस पर कोई तवज्जो नहीं देता लेकिन जब इससे डाक्टर स्वास्थ के अधार पर रोकते हैं, या पंजाब में सिख लड़केे इस कि खिलाफ़ आन्दोलन चलाते हैं, या सिगरेट एँव पाउच पर सावधानी लिख दी जाती है ता वैज्ञानिक सलाह की कोई आलोचना नहीं करता भले उसके आधार पर आचारण में परिवर्तन हो या न हो।
शराब अगर बुरी न समझी जाती तो मद्य निषेध विभाग की कोई आवश्यकता ही न रहती। अब ‘खुमार‘ का ये शेर कहाँ तक प्रासंगिक है, आप खुद सोचिये, बहैसियत साहित्यक खूबी के मुझे भी पसंद है। शेख़, सुनी सुनाई पर आप यकी़न न लाइये मय है हराम या हलाल, पी कर ज़रा बताइये।
अब जुए और सट्टेबाजी़ पर नज़र डालिये, जिसमें गारिब अपनी सम्पति खोते हैं, और धनी इनका शोषण करके और मोटे होते जाते है, ग़रीब की ज़मीन, छप्पर, गहने यहाँ तक कि बीबी तक बिक जाती है। सट्टे में आई0पी0एल0 तथा बी0सी0आई0 की कहानी अभी ताजी़ है, सुनन्दा नें मुफ़त में 70 करोड़ मारे, ललित मोदी, थुरूर या अन्य बड़ों ने क्या किया, यह भी सभी को आभास है। बेचारे क्रिकेट प्रेमी अपनी पेब कटवाते हैं।
अब शराब व नाच गाने पर मुर्शरफ़ की खबर अभी अभी अखबारों में छपी है। सभी धर्मो, मुख्य रूप से इस्लाम में यह बातें पूर्णतयः वर्जित हैं। एक इस्लाम का दम्म मरने वाला तथा इस्लामिक देश का पूर्ण रहनुमा यह हरकतें करेगा, कम से कम इस्लामी दुनिया का सर इन बातों से ज़रूर झुकेगा। पूरी बात आप नें देखी सन्दर्भ हेतु मैं यहाँ इसका उल्लेख करूँगा-शीर्षक यह छपा है- ‘‘खूब नाचे परवेज‘‘ वह अमेरिका के एक रेस्तराँ में ज़ोरदार ठुमके लगाते देखे गये, उनके सिर पर जाम था, लेकिन मजाल थी कि मुशर्रफ़ के ठुमकों से कोई बूंद छलक जाती।
वाशिंगटन में अमेरिका नें जो परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन अप्रेल 10 के दूसरे सप्ताह में आयोजित किया, उसमें शरीक होकर स्वदेश वापसी से पूर्व हमारे प्रधानमंत्री ब्राजील की राजधानी ब्राजीलिया, ब्रिक (ब्रिक) सम्मेलन मुर्शरफ नें सेना हयक्ष या पाकिस्तानी प्रशासक के तौर पर चाहे जितने तमगे़ बटोरे हों ़-उन्होंने अपने स्र्वाथ में पाकिस्तान को नीचा दिखाने में कोई ओर कसर नहीं छोड़ी, मुल्क को अमरिका के हाथों गिरवा रक्खा, कैरगिंल काण्ड द्वारा भारत को धोकर दिया, नवाज़ शरीफ़, बेनज़ीर और इफ़़तरवार चैधरी को खूब नाच नचाया, अब खुद भी नाचे नाचे फिर रहे हैं।
इस नाचने को अगर ग़लत न समभल जाता तो मेडिया में तिरस्कार के नहीं बल्कि गर्व के अन्दाज़ में यह ख़बर छापी जाती।
समाज-सुधारक या धर्म या इस्लाम धर्म विलासिता, नाच गाने या शराब के विरूद्ध जब अपनी आवाज़ उठाते हैं तो बहुत से लोग आधुनिकता के दबाव में इन बातों या उपदेशों की आलोचना यह कह कर करते हैं कि ये बातें हमारी आज़ादी पर अकुश लगाती हैं। परन्तु जब समाज के विद्धान यह कहते है कि अत्यधिक विलासिता, नृत्य एवं संगीत या स्वतंत्र यौन-क्रियामें आप को गहरी खाइयें में ढकेल देंगी या जब डाक्टर यह कहता है कि शराब पीना छोड़ दीजिये इससे आप का स्वास्थ्य या फेफडे़ ख़राब हुए जा रहे हैं तब इन बातों को हम हयान से सुनते हैं, और यदि इन पर अमल नहीं करते है तो बहुत जल्द ख़मियाज़ा भी भुगतते हैं। अतः धर्म यदि कुछ कहे-शर्त यह हैं कि वह पाखण्ड के तहत न हो, और वह बातें नैतिकता या आहयानिकता को बढ़ावा देने वाली हों तो उन से भडकना नहीं चाहिये। नशे के बारे में ग़ालिब का शेर आप ने सुना, अब इक़बाल का भी सुन लीजिये-
नशा पिला के गिराना तो सब को आता है। मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।
-डा0 एस0 एम0 हैदर

4.5.10

खोने के लिए बेड़ियां और जीतने के लिए सारा जहान


1 मई हमारे लिए उन मजदूर साथियों और उनकी शहादत को याद करने का दिन है जो समूचे मजदूर-मेहनतकश तबके के हितों और हकों के लिए लडे, ज़ो साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के रास्ते में चट्टान बनकर खडे हुए और समाजवाद के सपने को करोड़ों दिलों में बसा गए। 1 मई उस संकल्प को याद करने का भी दिन है कि ये समाज व्यवस्था, जो लालच, स्वार्थ, मुनाफे, भेदभाव और गैर-बराबरी पर टिकी है, ये हमें मंजूर नहीं। इसे हम बदल डालेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जहां इंसान का और श्रम का सम्मान हो, न कि पूंजी और मुनाफे का।
पिछले वक्त में जो महंगाई बढ़ी और जरूरी चीजों के दाम आसमान छूने लगे तो क्या कारखानों, खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने मेहनत करनी कम कर दी थी? या कोई भयानक अकाल, बाढ या कौन सी तबाही सारी दुनिया में आ गई थी जिसकी वजह से सब कुछ तहस-नहस हो गया था? लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। सारी दुनिया के मजदूर पहले की ही तरह, बल्कि पहले से भी ज्यादा मेहनत कर रहे हैं, लेकिन फिर भी एक तरफ उनका गला बढ़ती हुई महंगाई दबोचती है तो दूसरी तरफ से नौकरी छिन जाने की तलवार सिर पर लटकती रहती है। सब कहते हैं कि इन हालातों की वजह आर्थिक मंदी है, जो सारी दुनिया में संकट बनकर छाई है, लेकिन इस बात पर सभी पर्दा डालते हैं कि इस मंदी या आर्थिक संकट की वजह पूंजीवाद है, जिसका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है। आज अमरीका, यूरोप और दुबई से लेकर मुंबई, कोलकाता और गाजियाबाद, नोएडा, कोयंबतूर, इन्दौर, पीथमपुर, मालनपुर तक के मजदूर, छोटे कारखानेदार और छोटे व्यवसायी इस आर्थिक मंदी के शिकार होकर अपनी रोजी-रोटी खो बैठे हैं। वे जानते भी नहीं कि भरपूर मेहनत करने के बावजूद ऐसा उनके साथ क्यों हुआ। मुनाफे की होड़ में दनादन कर्ज बांटते गए अमरीकी बैंकों की गलतियों से अमरीकी अर्थव्यवस्था का जो दिवाला पिटा, उसका सबसे खराब नतीजा दुनिया भर के गरीब मजदूरों-किसानों को भुगतना पड रहा है।
उदारीकरण के नाम पर कंपनियों को ज्यादा मुनाफा कमाने की ढील और मजदूरों के जायज हकों में कटौती का जो दौर 20 बरस पहले शुरू हुआ था, वो अब और भी बेशर्म होकर गरीब जनता का शोषण कर रहा है। संगठित उद्योगों के भीतर कपड़ा मिलों के मजदूरों ने लगातार संघर्ष करते हुए जो जीत और मजदूरों के फायदे की जो उपलब्धियां हासिल की थीं, आज वे मजदूर सरकारी नीतियों और पूंजीपतियों की साझा साजिशों का शिकार होकर बेहद खराब जीवन स्थितियों से गुजर रहे हैं। कभी कपडा मिल में नौकरी मिलने को बैंक और शिक्षक की नौकरी से अच्छा माना जाता था। एक वजह तो यही थी कि कपडा मिलों में संगठित मजदूर आंदोलनों से नौकरी की सुरक्षा अधिक थी, कार्य स्थितियां बेहतर थीं, सामूहिकता का आनंद था और कारखाने में काम करना देश के लिए कुछ करने जैसा समझा जाता था। आज उन्हीं कपडा मिल मजदूरों के हाल ये हैं कि वे अपनी उम्र की अधेड़ अवस्था में कहीं प्राइवेट सुरक्षा गार्ड बनकर खडे हैं, कहीं सब्जी का ठेला लगा रहे हैं, कहीं पंचर जोड रहे हैं या कहीं किराए पर ऑटो रिक्शा चला रहे हैं। मिलें बंद हुए बरसों बीत गए लेकिन मिल मजदूरों को उनके हक की लडाई अभी तक लडनी पड रही है। जो इस सारी व्यवस्था से आजिज आ गए हैं, उनमें से अनेक हैं जिन्होंने अपने आपको निराशा में गर्क कर लिया है। उन्हीं की नई बेरोजगार पीढ़ी आसान शिकार बनती है साम्प्रदायिक, धार्मिक अंधविश्वास के कारोबारियों और अपराधी ताकतों का। इसके बावजूद ठीकरा मजदूर के सिर पर ही फोड़ा जाता है। इल्जाम लगाया जाता है कि मजदूरों की आरामतलबी और ट्रेड यूनियन राजनीति की वजह से कपड़ा मिलें घाटे में गईं। पूछा जाना चाहिए कि क्या अचानक देश की उन 112 कपड़ा मिलों में काम करने वाले मजदूर एकसाथ आरामतलब हो गए थे जिन्हें 1970 के दशक में बीमार घोषित कर नेशनल टेक्सटाइल कॉर्पोरेशन के अधीन लिया गया? दरअसल मालिकों ने करीब पांच दशकों तक इन मिलों से सैकड़ों गुना मुनाफा बनाया और जब मशीनें बदलने, नई तकनीक लाने और मजदूरों की जीवन स्थितियों पर खर्च करने की स्थिति आई तो उन्होंने कपड़ा मिलों को बीमार घोषित कर मजदूरों को सरकार के माथे पर थोपा, अपनी पूंजी मुनाफे के नए रोजगार में लगा दी। उद्योगों के अलावा सेवा क्षेत्र में भी कर्मचारी संगठनों ने कर्मचारियों के लिए बेहतर सेवा स्थितियों व उनकी नौकरी की सुरक्षा के सवाल को लेकर लगातार संघर्ष किया और कामयाबियां हासिल कीं। लेकिन पिछले दिनों जो रवैया सरकार और प्रबंधन ने स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर के मामले में अपनाया, वो कर्मचारी संघर्षों के मामले में अभूतपूर्व है और ठोस सबूत है इस बात का कि मुनाफे की मंजिल हासिल करने के लिए पूंजीवादी राज्य व उसके पुर्जे किसी भी हद तक गिर सकते हैं। नब्बे वर्षों से लगातार लाभ में चल रहे स्टेट बैक ऑफ इन्दौर का विलय स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कराने के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने न केवल पूरे देश में ख्यातिप्राप्त बैंक यूनियन को तोडा, बल्कि नियमों को ताक पर रखकर यूनियन के पदाधिकारियों के स्थानांतरण किए गए, अचानक विलय का प्रस्ताव लाया गया और उसे लागू कराने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया गया। आनन-फानन में प्रबंधन की बनाई एक दूसरी यूनियन को मान्यता दे दी गई। प्रबंधन के इस कार्य को निश्चित ही राज्य का समर्थन प्राप्त होगा। आज हमारा 'कल्याणकारी राज्य' सेठों और जमींदारों से ज्यादा दमनकारी हो गया है, बल्कि अब तो कंपनियां भी दमन करने के लिए अपनी प्राइवेट पल्टन रखने के बजाय राज्य को ही ठेका दे देती हैं। मध्य प्रदेश से लेकर असम, उडीसा, छत्तीसगढ, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, सभी जगह यही हाल हैं।
बैंक, बीमा का क्षेत्र हो या बडे उद्योगों का, सभी जगह मुनाफा बढ़ाने के लिए आरी कर्मचारियों और मजदूरों के हितों पर ही चलाई जा रही है। अनेक मजदूर-कर्मचारी यह सोचते हैं कि उनकी नौकरी बची हुई है तो वे क्यों किसी संगठन की राजनीति का हिस्सा बनें। वे इस इतिहास से नावाकिफ हैं कि उन्हें हासिल होने वाली छुट्टियों, तनख्वाह वृद्धि, भविष्यनिधि, पेंशन व अन्य लाभ संगठित मजदूरों के अथक और लंबे संघर्षों का नतीजा हैं। और जैसे ही संगठित मजदूरों की ताकत कम होती है, पूंजीवाद दिए हुए सारे हक मजदूरों-कर्मचारियों से छीन लेता है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की चाकरी करने के लिए संगठित मजदूर संघर्ष को तोड़ने में खुद सरकार भी कल्याणकारी होने के सारे नकाब उतार कर मजदूर विरोधी भूमिका में आ गई है। रोजगार बचाने की, संघर्षों से हासिल हुए हकों को बचाने की ये लडाई आज हर क्षेत्र के मजदूरों-कर्मचारियों के लिए बडी चुनौती बन गई है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के प्रति तो मुनाफाखोर बाजार का रवैया और भी भयानक होता है। बीडी बनाने वाले, लघु उद्यागों में काम करने वाले, घरेलू कामकाज करने वाले, ठेला चलाने वाले, हम्माली करने वाले या इसी तरह के तमाम छोटे-बड़े कामों में दिन-रात पसीना बहाकर किसी तरह पेट पालने का जतन करते मजदूरों को रोजगार सुरक्षा और स्वास्थ्य-शिक्षा की सुविधाएं देना तो दूर, उल्टे उनके मुंह का निवाला भी छीना जा रहा है। खेती की हालत तो इससे भी ज्यादा खराब है। भूमिहीन मजदूरों और छोटे किसानों को जिन्दा रहने के लिए अधिकतर घर-परिवार छोड़कर पलायन करना पडता है और औनी-पौनी मजदूरी पर काम करके जीवन चलाना होता है। छोटे और मझोले किसानों के लिए भी खेती लगातार महंगी और मुश्किल होती जा रही है। खेती की बुरी हालत का इससे बडा क्या सबूत होगा कि सरकार खुद मान चुकी है कि पिछले 20 बरसों में 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इसके बावजूद देश में अरबपति बढ रहे हैं, कई कंपनियों का मुनाफा भी बढ़ रहा है, खिलाडियों की नीलामी वाला अरबों का आईपीएल क्रिकेट बढ रहा है, लेकिन रोजगार नहीं बढ़ रहा। ये सट्टेबाजी का ऐसा दौर है जिसमें उत्पादन कुछ नहीं हो रहा लेकिन पैसा बढ रहा है।
दो साल पहले अमरीका के राष्ट्रपति ने कहा था कि दुनिया में अनाज की कमी इसलिए आ रही है क्योंकि भारत और चीन के लोग ज्यादा खाने लगे हैं। इसी तर्ज पर कुछ और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कहा है कि भारत के लोग जरूरत से ज्यादा खाते हैं। इस पर हमारी सरकार ये विचार कर रही है कि अभी गरीबों को जो थोड़ा-बहुत अनाज राशन की दुकानों से मिल जाता है, उसमें और कमी कर दी जाए। ऐसा सोचते हुए ये शर्म भी सरकार को नहीं आती कि खुद सरकार के ही अर्जुन सेनगुप्ता आयोग ने कहा है कि देश की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी की हैसियत 20 रुपए रोज का खर्च करने की भी नहीं है।
एक तरफ सरकार बडी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को पूरे देश में कहीं भी आने और प्राकृतिक संपदा से लेकर मजदूरों के शोषण के लिए न्यौता दे रही है और दूसरी तरफ गरीबों से उनकी नमक रोटी भी छीन रही है। अपना हक मांगने वाले किसानों, मजदूरों, कथित विकास परियोजनाओं के विस्थापितों-पीडितों, आदिवासियों और दलितों-शोषितों के बजाय सरकार की चिन्ता ये है कि विदेशी कंपनी के बीटी बैंगन व अमरीका के फायदे के परमाणु समझौते की रुकावटें किसी तरह दूर हो जाएं।
इन बातों की चर्चा 1 मई के मौके पर इसलिए करना जरूरी है क्यों कि इतिहास गवाह है कि जब सत्ता इतनी अमानवीय और क्रूर हो जाती है तो लोगों के सब्र का पैमाना भी छलकने लगता है। ये असंतोष हम देश में हर जगह उफनता हुआ देख रहे हैं। पूंजीवाद लोगों के गुस्से से पहले तो दमन करके निबटता है। लेकिन जब गुस्सा इतना व्यापक और गहरा हो जाए कि जेलें और गोलियां भी कम पड ज़ाएं तो वो बेचैन शोषित लोगों को साम्प्रदायिक, जातीय, नस्लीय, भाषायी, क्षेत्रीय और तमाम तरह के झगडाें में उलझााने, बांटने और आपस में ही लडाने की कोशिशें करता है। दुनिया का सबकुछ हडप लेने की हवस में साम्राज्यवाद-पूंजीवाद न केवल मजदूरों के हक-अधिकारों को खत्म करना चाहता है बल्कि हमने देखा कि कैसे तेल की खातिर उसने अफगाानिस्तान, इराक, लेबनान, फिलिस्तीन और अन्य देशों के लाखों लोगों और बच्चों का कत्लेआम किया। 1 मई का दिन हमें ये याद दिलाता है कि पूंजीवाद को मेहनतकश जनता की सामूहिक ताकत के सामने आखिरकार झुकना पडता है। सन् 1886 की 1 मई को अमरीका के शिकागो शहर के हे मार्केट में जुलूस निकालते निहत्थे मजदूरों पर गोलियां चलाई गयीं और अनेक मजदूर मारे गए। बाद में चार मजदूर नेताओं को फांसी की सजा दी गई। उनका कसूर सिर्फ ये था कि वे काम के घंटे आठ किए जाने की मांग कर रहे थे। उस वक्त औद्योगिक क्रांति हुई ही थी और नए-नए उद्योग लग रहे थे। मजदूरों से गुलामों की तरह 12-14 घंटे बेहिसाब काम लेना आम बात थी। 1 मई को शहीद हुए उन मजदूर साथियों के खून से रंगा वो लाल झण्डा सारी दुनिया के मजदूर आंदोलन को सुर्ख रंग दे गया। उसके बाद से मजदूर आंदोलन तेज होता गया और तमाम संघर्षों के साथ कामयाबी की सीढ़ियां चढता गया। आज पूंजीवाद फिर अपने मुनाफे की खातिर मजदूरों से वो सारी उपलब्धियां छीन लेना चाहता है जो उन्होंने पीढियों के संघर्ष और अपना खून बहाकर हासिल की हैं। 1 मई हमारे लिए उन मजदूर साथियों और उनकी शहादत को याद करने का दिन है जो समूचे मजदूर-मेहनतकश तबके के हितों और हकों के लिए लडे, ज़ो साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के रास्ते में चट्टान बनकर खडे हुए और समाजवाद के सपने को करोड़ों दिलों में बसा गए। 1 मई उस संकल्प को याद करने का भी दिन है कि ये समाज व्यवस्था, जो लालच, स्वार्थ, मुनाफे, भेदभाव और गैर-बराबरी पर टिकी है, ये हमें मंजूर नहीं। इसे हम बदल डालेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जहां इंसान का और श्रम का सम्मान हो, न कि पूंजी और मुनाफे का। 1 मई यह याद करने का भी दिन है कि शोषण के खिलाफ लडी ज़ा रहीं तमाम लंडाइयां शोषणविहीन समाज की स्थापना के व्यापक संघर्ष का ही हिस्सा हैं और हम सब मिलकर पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने में जरूर कामयाब होंगे। इसी सपने की खातिर लडी ज़ाने वाली लड़ाइयों के लिए इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज ने लिखा था -

यूं ही हमेशा जुल्म से उलझती रही है खल्क (जनता) उनकी रस्म नई है अपनी रीत नई यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल उनकी हार नई है अपनी जीत नई।


विनीत तिवारी

देशबन्धु से साभार

3.5.10

गायब व्यक्ति का शव रजबाहे में मिला

दोस्तों पर डुबोकर हत्या करने का आरोप
सफीदों, (हरियाणा): सफीदों से संदिग्ध परिस्थितियों में गायब हुए एक व्यक्ति का शव रजवाहा नंबर तीन से मिलने से क्षेत्र में सनसनी फैल गई। जानकारी के अनुसार सफीदों के वार्ड नंबर दो का नरेश कुमार शाम को दोस्तों के साथ घूमने की बात कहकर घर से निकला था लेकिन उसके बाद वह घर नहीं लौटा। देर रात तक नरेश के घर वापिस नहीं लौटने पर जब उसके दोस्तों से पूछताछ की गई तो उन्होंने बताया कि रजवाहे में नहाते समय नरेश गायब हो गया। परिजन पूरी रात नरेश को रजवाहे में तलाशते रहे लेकिन अगली सुबह रेलवे लाइन के पास माइनर में नरेश का शव पाया गया। मामले की सूचना पुलिस को दी गई। सूचना मिलने पर पुलिस मौके पर पहुंची तथा शव को अपने कब्जे में लिया। मृतक के भाई सुरेश ने आरोप लगाया कि रजवाहे पर पहुंचने के बाद किसी बात को लेकर नरेश का झगड़ा उसके दोस्तों से हो गया। जिसके चलते उसके दोस्तों ने नरेश की रजवाहे के पानी में डूबोकर हत्या कर दी। पुलिस ने मृतक के भाई सुरेश की शिकायत पर अश्र्वनी, विक्रम तथा मेहर सिंह के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर छानबीन शुरू कर दी है। पुलिस ने शव का सफीदों के सामान्य अस्पताल में पोस्टमार्टम करवाकर परिजनों को सौंप दिया। घटना के बाद से आरोपी फरार हैं।

पुलिस सही है या फौजी ?

अबोहर में 21 राजपुताना राईफल्स में तैनात अलीगढ निवासी कुलदीप को बुलंदशहर पुलिस ने एनकाउन्टर में मार गिराने का दावा किया है पुलिस के अनुसार इंडिका कार को दो लोगों ने मथुरा जंक्शन से दाउजी के लिए बुक करायी थी सादाबाग पहुँचने पर कार के ड्राईवर भगवान सिंह को खुर्जा में उतार कर कार लूट ली थी कुलदीप फौजी का अपराधिक इतिहास नहीं है घटना से सम्बंधित तथ्यों को देखने से पता चलता है कि कुलदीप फौजी को उत्तर प्रदेश पुलिस ने अन्य एन्काउंटरों की तरह पकड़ कर हत्या कर दी है कुलदीप के परिवार वालों को अखबार से कुलदीप के एनकाउन्टर में मारे जाने की सूचना मिली कभी भी वारदात के समय अगर पुलिस दल पहले से मौजूद नहीं है तो एनकाउन्टर संभव नहीं होता है एनकाउन्टर एक ऐसा ड्रामा है कि जिसमें सम्बंधित व्यक्ति को पकड़ कर गोली मार दी जाती है गोली मारने से पूर्व सम्बंधित उच्च अधिकारियो को विश्वास में ले लिया जाता है और मीडिया मैनेजमेंट के तहत पुलिस अपनी बहादुरी का गुणगान करने के लिए उनको अपने पक्ष में रखती है और जब सेना के सिपाहियों का एन्काउन्टर होने लगेगा तो प्रदेश के नागरिको के बच्चों का भविष्य कैसे सुरक्षित रहेगा व्यवस्था के तहत उसी व्यवस्था का दुरपयोग हो रहा है जिसके परिणाम स्वरूप इस तरह की वारदातें प्रकाश में रही है इस एन्काउन्टर के व्यापक जांच की आवश्यकता है जिससे यह मालूम हो सके कि वह फौजी सही था या उत्तर प्रदेश की पुलिस ?

2.5.10

राजकुमार गोयल बने सातवीं बार हरियाणा पत्रकार संघ के जिलाध्यक्ष

जीन्द, (हरियाणा) : जींद के लोक निर्माण विश्रामगृह में हरियाणा पत्रकार संघ बैठक संपन्न हुई। बैठक में मुख्यातिथि हरियाणा पत्रकार संघ के प्रदेशाध्यक्ष केबी पंडित रहे। बैठक में संघ के जिलाध्यक्ष का चुनाव सर्वसमति किया गया। वैसे तो इस पद के लिए कई नाम सामने आए लेकिन सदस्यों की सहमति पिछले छः साल से इस पद को बखूबी संभालते आए राजकुमार गोयल पर ही बनी। सदस्यों की तालियों की गड़गडाहट के बीच राजकुमार गोयल को लगातार सातवीं बार जिलाध्यक्ष चुन लिया गया। अपनी नियुक्ति पर राजकुमार गोयल ने कहा कि संघ के सदस्यों ने उन्हें जो सातवीं बार प्रधान चुना है उसके लिए वे सभी सदस्यों के शुक्रगुजार है तथा वे वायदा करते हैं कि वे पहले की तरह से ही पत्रकारों के हकों की लड़ाई लड़ते रहेंगे। इस मौके पर पत्रकारों को संबोधित करते हुए हरियाणा पत्रकार संघ के प्रदेशाध्यक्ष के.बी.पंडित ने कहा कि आज प्रदेश सहित पूरे भारत में पत्रकारों पर हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। हरियाणा के कैथल व करनाल जिलों में पत्रकारों पर हुए हमले इसके ताजा उदाहरण हैं। प्रैस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इस स्तंभ पर हमला सीधा लोकतंत्र पर हमला है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों को संगठित रहना चाहिए। संगठन में बहुत बड़ी ताकत होती है। अगर पत्रकार संगठित है तो कोई भी उसकी तरफ आंख उठाकर नहीं देख सकता है। उन्होंने कहा कि हरियाणा पत्रकार संघ प्रदेश का अग्रणी संघ है, जिसने पत्रकारों के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। जब भी कभी पत्रकारों पर कोई किसी भी तरह का संकट आता है, संघ मजबूती के साथ पत्रकारों के साथ खड़ा मिलता है। संघ के संरक्षण में पत्रकार महफूज हैं। कैथल व करनाल के पत्रकारों पर हमला करने वालों को संघ द्वारा करारा जवाब दिया गया तथा स्थिति यह है कि संघ के दखल से उन पर कानूनी कार्रवाई हुई तथा हमलावर माफी मांगते हुए फिर रहे हैं। हरियाणा पत्रकार संघ सामूहिक बीमा योजना के तहत अब तक प्रदेश के ग्यारह दिवंगत पत्रकारों के परिवारों को उनतालीस लाख रुपए की सहायता दिलवा चुका है। इसके अलावा कई पत्रकारों के परिवारों को सरकार की तरफ से सहायता प्राप्त करवा चुका है। संघ के प्रयासों के कारण ही पत्रकार मान्यता नियमों में संसोधन हुआ तथा मुख्यमंत्री ने पानीपत में संघ के एक समेलन में यह घोष्णा की कि खंड स्तर पर भी पत्रकारों, लघु समाचार पत्रों के संपादको व इलैट्रोनिक मीडिया के प्रतिनिधियों को भी मान्यता मिलेगी। वही सरकार ने पत्रकारों की सहायता के लिए पचास लाख रुपए का पत्रकार कल्याण कोष् की स्थापना की। लघु समाचार पत्रों की विज्ञापन दरों में तीन गुणा बढ़ौतरी की है। इस मौके पर जिलेभर से काफी तादाद में पत्रकार मौजूद थे।

मजदूर दिवस


~~ मजदूर दिवस~~
सपने
किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोयी आग को
सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुईं
हथेली के पसीने को
सपने नहीं आते
सेल्फों में पड़े
इतिहास ग्रन्थों को
सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाजिमी है
झेलने वाले दिलों का होना
सपनों के लिए
नींद की न$जर होनी लाजमी है
सपने इसलिए
हर किसी को नहीं आते।
----पाश
Sunil Dutta

1.5.10

शानो शौकत के लिए वतन बेच देंगे, धरा बेच देंगे, न कुछ भी मिला तो कफ़न बेंच देंगे

दंतेवाडा की घटना के समय देश में एक तबका बहुत जोर शोर से अपना सीना पीट रहा था उस समय उसे आदिवासियों की जमीन, हवा, पानी याद नहीं था कि उनका सब कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, राष्ट्रीय पूँजीपतियों ने छीन लिया है। सरकार भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, पूँजीपतियों के एजेंट कि भूमिका में अगर काम करने लगती है तो अशांति पैदा ही होगी। आज देश में स्थापित सरकार कि स्तिथि जनता के पक्ष में नहीं है। सीना पीटने वालों की बात को अगर शत प्रतिशत मान भी लिया जाए तो अब सी.आर.पी.एफ के रामपुर कैंप के दो अर्मोरार सहित सात पुलिस विभाग की गिरफ्तारी से यह साफ़ हो गया है कि अपराधियों को आर्म्स और कारतूस की सप्लाई नियमित रूप से इन्ही विभागों द्वारा की जा रही है जिन अधिकारियो और कर्मचारियों के पास अतिरिक्त आय के साधन (घूश का मद होना) नहीं होते हैं, वह लोग कारतूस आर्म्स बेंच कर काम चलते हैं पुलिस पी.एस.सी के लोग जो ऐसी जगहों पर तैनात हैं जहाँ जनता से रिश्वत नहीं ली जा सकती है वह लोग कारतूस, कागज, जूते-मोज़े, वायरलेस, की बैटरी, वायेरलेस का सामान अपराधियों को बेचने का काम करते रहते हैं राजस्व विभाग चकबंदी विभाग के लोग जमीनों की लिखा पढ़ी में हेरा फेरी कर किसानो का खून चूसते रहते हैं जहाँ तक उत्तर प्रदेश में किसी भी थाने, पुलिस लाइन आयुध भण्डार की जांच की जाए तो कारतूस पूरे नहीं मिलेंगे उनको अपराधियों को बेच कर अतिरिक्त आय की जाती है सरकार कहती है कि पुलिस विभाग हम चलाते हैं अपराधी कहते हैं कि हम पुलिस विभाग चलाते हैं हमारी घूश की आय से पुलिस पेट्रोलिंग करती है अपराधियों की भी बात सही है कि अगर वह मासिक रूप से नियमित रुपया थानों को दे तो सरकारी मिलने वाले पैसे से थाने नहीं चल सकते हैं एक-एक सिपाही, दो-दो तीन-तीन मकान ट्रक बसें चलवाता है, जो अपराधियों द्वारा ली गयी रकम से अर्जित की जाती हैं इनके उच्च अधिकारियो की माली स्तिथि किसी उद्योगपति से कम नहीं होती है इनके खर्चे पुराने राजाओं से कम नहीं होते हैं सी.आर.पी.एफ रामपुर कैंप पहले से भी बदनाम है कुछ वर्षों पूर्व 31 दिसम्बर की रात को नए वर्ष के आगमन के अवसर पर सिपाहियों ने एक दूसरे के ऊपर फायरिंग कर दी थी जिसमें कुछ जवान मर भी गए थे इसको बाद में आतंकी घटना दिखया गया जवानो को शहीद घोषित किया गया और उस फर्जी घटना में कुछ फर्जी आतंकी गिरफ्तार भी हुए हमारे कुछ साथी ब्लॉगर अत्यधिक राष्ट्रवादी हैं उनका भी यह इतिहास रहा है कि पहले जर्मन नाजीवाद के मेली मददगार थे, फिर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट रहे हैं और अब अमेरिकन साम्राज्यवाद की नीति के अनुरूप हिन्दू मुसलमान का हल्ला मचाने में आगे रहते हैं अजमेर बम ब्लास्ट में उन्ही के साथियों की गिरफ्तारी भी हो चुकी है गिरफ्तार किये गए लोगों की शानो शौकत देख कर यह लिखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि - शानो शौकत के लिए वतन बेच देंगे, धरा बेच देंगे, कुछ भी मिला तो कफ़न बेंच देंगे