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31.3.10

'गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष' की खोज : ग्रहों के बुरे प्रभाव को दूर करने के उपाय

हजारो वर्षों से विद्वानों द्वारा अध्ययन-मनन और चिंतन के फलस्वरुप मानव-मन-मस्तिष्‍क एवं अन्य जड़-चेतनों पर ग्रहों के पड़नेवाले प्रभाव के रहस्यों का खुलासा होता जा रहा है , किन्तु ग्रहों के बुरे प्रभाव को दूर करने हेतु किए गए लगभग हर आयामों के उपाय में पूरी सफलता न मिल पाने से अक्सरहा मन में एक प्रश्न उपस्थित होता है,क्या भविष्‍य को बदला नहीं जा सकता ? किसी व्‍यक्ति का भाग्यफल या आनेवाला समय अच्छा हो तो ज्योतिषियों के समक्ष उनका संतुष्‍ट होना स्वाभाविक है, परंतु आनेवाले समय में कुछ बुरा होने का संकेत हो तो उसे सुनते ही वे उसके निदान के लिए इच्छुक हो जाते हैं। हम ज्योतिषी अक्सर इसके लिए कुछ न कुछ उपाय सुझा ही देते हैं लेकिन हर वक्त बुरे समय को सुधारने में हमें सफलता नहीं मिल पाती है। उस समय हमारी स्थिति कैंसर या एड्स से पीड़ित किसी रोगी का इलाज कर रहे डॉक्टर की तरह होती है ,जिसने बीमारी के लक्षणों एवं कारणों का पता लगाना तो जान गया है परंतु बीमारी को ठीक करने का कोई उपाय न होने से विवश होकर आखिर प्रकृति की इच्छा के आगे नतमस्तक हो जाता है ।

ऐसी ही परिस्थितियों में हम यह मानने को मजबूर हो जाते हैं कि वास्तव में प्रकृति के नियम ही सर्वोपरि हैं। हमलोग पाषाण-युग, चक्र-युग, लौह-युग, कांस्य-युग ................ से बढ़ते हुए आज आई टी युग में प्रवेश कर चुकें हैं, पर अभी भी हम कई दृष्टि से लाचार हैं। नई-नई असाध्य बीमारियॉ ,जनसंख्या-वृद्धि का संकट, कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा ,कहीं भूकम्प तो कहीं ज्वालामुखी-विस्फोट--प्रकृति की कई गंभीर चुनौतियों से जूझ पाने में विश्व के अव्वल दर्जे के वैज्ञानिक भी असमर्थ होकर हार मान बैठे हैं। यह सच है कि प्रकृति के इन रहस्यों को खुलासा कर हमारे सम्मुख लाने में इन वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे हमें अपना बचाव कर पाने में सुविधा होती है। प्रकृति के ही नियमो का सहारा लेकर कई उपयोगी औजारों को बनाकर भी हमने अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों का झंडा गाडा है , किन्तु वैज्ञानिकों ने किसी भी प्रकार प्रकृति के नियमों को बदलने में सफलता नहीं पायी है।

पृथ्वी पर मानव-जाति का अवतरण भी अन्य जीव-जंतुओं की तरह ही हुआ। प्रकृति ने जहॉ अन्य जीव-जंतुओं को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ शारिरिक विशेषताएं प्रदान की वहीं मनुष्‍य को मिली बौद्धिक विशेषताएं , जिसने इसे अन्य जीवों से बिल्कुल अलग कर दिया। बुद्धिमान मानव ने सभी जीव जंतुओं का निरिक्षण किया, उनकी कमजोरियों से फायदा उठाकर उन्हें वश में करना तथा खूबियों से लाभ लेना सीखा। जीव-जंतुओं के अध्ययन के क्रम में जीव-विज्ञान का विकास हुआ। प्राचीनकाल से अब तक के अनुभवों और प्रयोगों के आधार पर विभिन्न प्रकार के जीवों ,उनके कार्यकाल ,उनकी शरिरीक बनावट आदि का अध्ययन होता आ रहा है। आज जब हमें सभी जीव-जंतुओं की विशेषताओं का ज्ञान हो चुका है , हम उनकी बनावट को बिल्कुल सहज ढंग से लेते हैं । कौए या चिड़ियां को उड़ते हुए देखकर हम बकरी या गाय को उड़ाने की भूल नहीं करतें। बकरी या गाय को दूध देते देखकर अन्य जीवों से यही आशा नहीं करते। बकरे से कुत्ते जैसी स्वामिभक्ति की उम्मीद नहीं करतें। घोड़े की तेज गति को देखकर बैल को तेज नहीं दौड़ाते। जलीय जीवों को तैरते देखकर अन्य जीवों को पानी में नहीं डालते। हाथी ,गधे और उंट की तरह अन्य जीवों का उपयोग बोझ ढोने के लिए नहीं करते।

इस वैज्ञानिक युग में पदार्पण के बावजूद अभी तक हमने प्रकृति के नियमों को नहीं बदला । न तो बाघ-शेर-चीता-तेदुआ-हाथी-भालू जैसे जंगली जानवरों का बल कम कर सकें , न भयंकर सर्पों के विष को खत्म करने में सफलता मिली , और न ही बीमारी पैदा करनेवाले किटाणुओं को जड़ से समाप्त किया। पर अब जीन के अध्‍ययन में मिलती जा रही सफलता के बाद यह भी संभव हो सकता है कि किसी एक ही प्राणी को विकसित कर उससे हर प्रकार के काम लिया जा सके। पर इस प्रकार की सफलता के लिए हमें काफी समय तक विकास का नियमित क्रम तो रखना ही होगा।

जीव-जंतुओं के अतिरिक्त हमारे पूर्वजों ने पेड-पौधों का बारीकी से निरिक्षण किया। पेड़-पौधे की बनावट , उनके जीवनकाल और उसके विभिन्न अंगों की विशेषताओं का जैसे ही उसे अहसास हुआ, उन्होने जंगलो का उपयोग आरंभ किया। हर युग में वनस्पति-शास्त्र वनस्पति से जुड़े तथ्यो का खुलासा करता रहा ,जिसके अनुसार ही हमारे पूर्वजों ने उनका उपयोग करना सीखा। फल देनेवाले बड़े वृक्षों के लिए बगीचे लगाए जाने लगे। सब्जी देनेवाले पौधों को मौसम के अनुसार बारी-बारी से खाली जमीन पर लगाया जाने लगा। इमली जैसे खट्टे फलों का स्वाद बढ़ानेवाले व्यंजनों में इस्तेमाल होने लगा। मजबूत तने वाली लकड़ी फर्नीचर बनाने में उपयोगी रही। पुष्‍पों का प्रयोग इत्र बनाने में किया जाने लगा। कॉटेदार पौधें का उपयोग बाड़ लगाने में होने लगा। ईख के मीठे तनों से मीठास पायी जाने लगी। कडवे फलों का उपयोग बीमारी के इलाज में किया जाने लगा, आगे पढें ।

सत्ता की डोली का कहार, बुखारी साहब आप जैसे लोग हैं

दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद उल्ला बुखारी ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाली सियासी पार्टियों ने आजादी के बाद से मुसलमानों को अपनी सत्ता की डोली का कहार बना दिया है।
बुखारी जी आपका बयान बिल्कुल ठीक है परन्तु क्या आप इस बात से इत्तेफाक़ करेंगे कि सियासी पार्टियों को यह मौका फराहम कौन करता है? आप और आपके बुज़रगवार वालिद मोहतरम जो हर चुनाव के पूर्व अपने फतवे जारी करके इन्हीं राजनीतिक पार्टियों, जिनका आप जिक्र कर रहे हैं, को लाभ पहुँचाते थे। लगभग हर चुनाव से पूर्व जामा मस्जिद में आपकी डयोढ़ी पर राजनेता माथा टेक कर आप लोगों से फतवा जारी करने की भीख मांगा करते थें। वह तो कहिए मुस्लिम जनता ने आपके फतवों को नजरअंदाज करके इस सिलसिले का अन्त कर दिया।
सही मायनों में राजनीतिक पार्टियों की डोली के कहार की भूमिका तो मुस्लिम लीडरों व धर्मगुरूओं ने ही सदैव निभाई जो कभी भाजपा के नेतृत्व वाली जनता पार्टी या एन0डी0ए0 के लिए जुटते दिखायी दिये तो कभी गुजरात में नरेन्द्र मोदी का प्रचार करने वाली मायावती की डोली के कहार।
मुसलमानो की बदहाल जिन्दगी पर अफसोस करने के बजाए उसकी बदहाली की विरासत पर आप जैसे लोग आजादी के बाद से ही अपनी रोटियाँ सेकते आए हैं। शायद यही कारण है कि हर राजनीतिक पार्टी अब अपने पास एक मुस्लिम मुखौटे के तौर पर मुसलमान दिखने वाली एक दाढ़ी दार सूरत सजा कर स्टेज पर रखता है और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का शोषण राजनीतिक दल इन्हीं लोगों के माध्यम से कराते आए हैं। लगभग हर चुनाव के अवसर पर आप जैसे मुस्लिम लीडरों की बयानबाजी ही मुसलमानों की धर्मनिरपेक्ष व देश प्रेम की छवि को सशंकित कर डालती है और अपने विवेक से वोट डालने के बावजूद उसके वोटों की गिनती जीतने वाला उम्मीदवार अपने पाले में नहीं करता।

-मोहम्मद तारिक खान

इनकी नम्बरदारी.......(-डॉ० डंडा लखनवी )


इनकी नम्बरदारी.......
                  -डॉ० डंडा लखनवी


भाँति-भाँति के माउस  जगमें सबकी जयजयकारी।
दुनिया  के  कोने - कोने  मे  इनकी   नम्बरदारी।।
                              साधो इनकी नम्बरदारी।।


माउस  मेलों  -  ठेलों  में  हैं,
गुरुओं  में  हैं,   चेलों   में  हैं,
मिलते   माउस  रेलों   में  हैं,
कुछ  बाहर, कुछ  जेलों में हैं,
कुछ माउस घोषित आवारा, कुछ माउस सरकारी।
दुनिया  के  कोने - कोने  में   इनकी  नम्बरदारी।।


कम्प्यूटर  का माउस  - नाटा,
इधर से   उधर  करता  डाटा,
फ्री    कराता  सैर  -  सपाटा,  
नए समय का  बिरला   टाटा,
नाचे इनके  आगे दुनिया  ये  हैं  महा - मदारी। 
दुनिया  के  कोने - कोने मे  इसकी नम्बरदारी।।


माउस  सभी मकानों  में  हैं,
खेतों  में  खलिहानों  में  हैं,
गोदामों  -  दूकानों   में  हैं,
कोर्ट - कचहरी  थानों में हैं,
सदनों के  भीतर  बैठे  कुछ  माउस  खद्दरधारी।
दुनिया  के  कोने - कोने मे  इनकी नम्बरदारी।।


जनता  को  ये  डाट  रहे   है,
मालपुआ   खुद  काट  रहे  है,
माउस  जो  खुर्राट  रहे     हैं,
भ्रष्ट   प्रशासन   बाट  रहे  हैं,
कुछ डंडा अधिकारी माउस कुछ  माउस  पटवारी।  
दुनिया  के   कोने - कोने मे  इनकी  नम्बरदारी।।


माउस  थल में, माउस  जल में,
माउस  बसते हैं दल - दल   में,
माउस सबके  अगल - बगल  में,
माउस युग  की  हर हलचल में,
वैसे  नहीं  चुना गण-पति ने अपनी इन्हें  सवारी। 
दुनिया  के  कोने - कोने मे  इनकी  नम्बरदारी।।

30.3.10

लोकसंघर्ष परिवार ने अपना शुभचिंतक खो दिया

लोकसंघर्ष पत्रिका के कार्यक्रम को संबोधित करती मोना. .हार्वे


लोकसंघर्ष परिवार की शुभचिंतक तथा पत्रिका के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान अदा करने वाली अदाकारा मोना. .हार्वे की हत्या उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बदमाशों ने उनके सर को मेज के पाये से कूंच कर कर डाली। मोना फिल्म उमराव जान में रेखा की सहेली का रोल किया था। वह हमारे देश की सांस्कृतिक धरोहर थी। लालबाग के कंधारी लेन के मकान नंबर 26 में 62 वर्षीय मोना अकेले रहती थी। इससे पूर्व लखनऊ में ही अंतर्राष्ट्रीय महिला संगठन की पूर्व अंतर्राष्ट्रीय महासचिव सुरजीत कौर की हत्या रात को उनके मकान में कैंची से गला काट कर कर दी गयी थी। उत्तर प्रदेश में सरकारें चाहे जो भी दावा करें, कानून व्यवस्था की स्तिथि ठीक नहीं है। अकेले रहने वाली महिलाओं का जीवन सुरक्षित नहीं रह गया है। राह चलते महिलाओं के साथ बदतमीजी, चेन स्नेचिंग आम बात है। प्रदेश के पुलिस मुखिया चाहे जो राग अलापे एक मामूली चोरी का खुलासा करने में असमर्थ हैं लोकसंघर्ष परिवार मोना जी हत्या से अत्यंत दुखी है और हमारे परिवार ने अपना एक शुभचिंतक खो दिया है।


नवाब वाजिद अली शाह की वाल पेंटिंग के साथ मोना.ए.हार्वे

29.3.10

तूने जो मूँद ली आँखें

पलक झपकते ही तूने जो मूँद ली आँखें,
किसे खबर थी कभी अब ये खुल पाएंगी
मेरी सदाएँ, मेरी आहें, मेरी फरियादें,
फ़लक को छूके भी नाकाम लौट आएँगी

जवान बेटे की बेवक्त मौत ने तुझको,
दिए वो जख्म जो ता़ज़ीश्त मुंदमिल हुए
मैं जानता हूँ यही जाँ गुदाज़़ घाव तुझे,
मा-आलेकार बहुत दूर ले गया मुझसे

वह हम नवायी वाह राज़ो नियाज़़ की बातें,
भली सी लगती थी फहमाइशें भी मुझको तेरी
एक-एक बात तेरी थी अजीज तर मुझको,
हज़ार हैफ् ! वो सव छीन गयी मता--मेरी

हमारी जिंदगी थी यूँ तो खुशग़वार मगर,
जरूर मैंने तुझे रंज भी दिए होंगे
तरसती रह गयी होंगी बहुत तम्मानाएँ,
बहुत से वलवले पामाल भी हुए होंगे

ये सूना-सूना सा घर रात का ये सन्नाटा,
तुझी को ढूँढती है बार-बार मेरी नज़र
राहे-हयात का भटका हुआ मुसाफिर हूँ,
तेरे बगैर हर एक राह बंद है मुझपर

मगर यकीं है मुझे तुझको जब भी पा लूँगा,
खतायें जितनी भी हैं सारी बक्श्वा लूँगा

ता़ज़ीश्त-आजीवन, मुंदमिल- धुन्धलाना, वलवले- भावनाएँ, हैफ् - अफ़सोस, मता-- सम्पत्ति

महेंद्र प्रताप 'चाँद'
अम्बाला
भारत

पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

28.3.10

अल्लाह के घर महफ़ूज़ नहीं हैं

महफ़ूज़ नहीं घर बन्दों के, अल्लाह के घर महफूज़ नहीं।
इस आग और खून की होली में, अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
शोलों की तपिश बढ़ते-बढ़ते, हर आँगन तक आ पहुंची है।
अब फूल झुलसते जाते हैं, पेड़ों के शजर महफ़ूज़ नहीं॥
कल तक थी सुकूँ जिन शहरों में, वह मौत की दस्तक सुनते हैं ।
हर रोज धमाके होते हैं, अब कोई नगर महफ़ूज़ नहीं॥
दिन-रात भड़कती दोजख में, जिस्मों का ईधन पड़ता है॥
क्या जिक्र हो, आम इंसानों का, खुद फितना गर महफ़ूज़ नहीं॥
आबाद मकां इक लमहे में, वीरान खंडर बन जाते हैं।
दीवारों-दर महफ़ूज़ नहीं, और जैद-ओ-बकर महफ़ूज़ नहीं॥
शमशान बने कूचे गलियां, हर सिम्त मची है आहो फुगाँ ।
फ़रियाद है माओं बहनों की, अब लख्ते-जिगर महफ़ूज़ नहीं ॥
इंसान को डर इंसानों से, इंसान नुमा हैवानों से।
महफूज़ नहीं सर पर शिमले, शिमलों में सर महफूज़ नहीं॥
महंगा हो अगर आटा अर्शी, और खुदकश जैकेट सस्ती हो,
फिर मौत का भंगड़ा होता है, फिर कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥

-इरशाद 'अर्शी' मलिक
पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
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27.3.10

गिरगिट हैं या भारतीय संघ के अधिकारी


बाबरी मस्जिद को तोड़ने के अपराधिक मामले में आई.पी.एस अधिकारी अंजू गुप्ता ने लाल कृष्ण अडवानी आदि अभियुक्तों के खिलाफ न्यायलय के समक्ष जोरदार तरीके से अभियोजन पक्ष की तरफ से गवाही दी। श्रीमती अंजू गुप्ता ने अपने बयानों में लाल कृष्ण अडवानी के जोशीले भाषण को बाबरी मस्जिद ध्वंश का भी एक कारण बताया है। इसके पूर्व 7 वर्ष पहले श्रीमती अंजू गुप्ता के बयान का आधार पर अभियुक्त तथा पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवानी को विशेष न्यायलय ने आरोपों से उन्मोचित कर दिया था । इस तरह से अदालत गवाह अधिकारियों के गिरगिट की तरह रंग बदलने के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं करती है । उस समय के कमिश्नर फैजाबाद जो घटना के लिए जिम्मेदार थे, एस.पी गौड़ वह आज भी भारतीय संघ में प्रतिनियुक्त पर तैनात हैं। इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख अधिकारी जो बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय थे वे रिटायर हो चुके हैं या मर चुके है। सवाल इस बात का है कि क्या उस समय भारतीय संघ इतना कमजोर हो चुका था कि वह एक मस्जिद कि सुरक्षा नहीं कर पाया ? दूसरी तरफ नौकरशाही कि कोई जिम्मेदारी तय न होने के कारण वह गिरगिट कि तरह रंग बदलती रहती है । कोई भी मामला हो नौकरशाही बड़े से बड़े अपराध कर रही है और भारतीय संघ उनको दण्डित करने में अक्षम साबित हो रहा है । हद तो यहाँ तक हो जाती है कि बड़े से बड़ा अपराधी नौकरशाह समयबद्ध प्रौन्नति के तहत कैबिनेट सचिव तक हो जाता है और उसके द्वारा किये गए अपराधों के लिए दण्डित नहीं किया जाता है, यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है । श्रीमती अंजू गुप्ता को न्यायलय के समक्ष शपथ पूर्वक बयान बार-बार बदलने पर बर्खास्त करके अपराधिक विधि के अनुरूप वाद चलाना चाहिए तभी लोकतंत्र बचेगा

सुमन
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