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18.3.10

उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र कामयाब हुआ

उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के स्तिथि अति गंभीर है कोंट्रैक्ट किलर नीरज सिंह को जब जौनपुर पैसेंज़र से लेजाया जा रहा था तो कुछ हमलावरों ने उन दोनों सिपाहियों की हत्या कर अपराधी को छुड़ा कर लेकर चले गए बरेली में अभी तक कर्फ्यू चल रहा था आए दिन हत्याएं लूटपाट का दौर जारी है एक तरफ पुलिस थानों मेंसिपाही उपनिरीक्षकों की संख्या मानक से अत्यधिक कम है और इन पुलिस कर्मियों का अधिकांश समयसत्तारूढ़ दल के नेताओं के जलूस प्रदर्शन को कामयाब करने में लगा रहता है पुलिस के उच्च अधिकारीयों कीकार्यप्रणाली विधिक होने के कारण अफरातफरी का महल रहता है गंभीर अपराधों की विवेचना थाने में बैठकरहो जाती है। अंतर्गत धरा 161 सी.आर.पी.सी के बयान थाने पुलिस उपाधीक्षक के कार्यालयों में ही हो जाती है
उच्च अधिकारीयों को मीडिया में छाए रहने के लिए कुछ गुडवर्क चाहिए उसके लिएसुनियोजित तरीके से गुडवर्क की भूमिका तैयार की जाती है अपराध के खुलासे में असली अपराधी को पकड़ कर किसी किसी नवयुवक मार पीट कर अपराधी घोषित कर दिया जाता है। बरेली दंगो के दौरान- डॉक्टर तौकीर रजा धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों की गिरफ्तारी कर पुलिस प्रशासन ने अपनी योग्यता का परिचय दिया था और दंगे को भड़काने में मदद की, किन्तु आखिर में मजबूरन डॉक्टर तौकीर रजा को बिना शर्त रिहा करना पड़ा पूरे प्रदेश में कानून व्यवस्था को बनाए रखने केसन्दर्भ में पुलिस के उच्च अधिकारी नाकामयाब हो रहे हैं और पिछले एक माह से लखनऊ में आयोजित रैली केलिए वाहनों की व्यवस्था करने में लगे रहे हैं वाहन स्वामियों से जबदस्ती रैली के लिए वाहन लिए गए थे पूरे प्रदेश में रैली को कामयाब बनाने के लिए जबरदस्त वसूली की गयी थी तब जाकर उत्तर प्रदेश में लोकतंत्रकामयाब हुआ था ?
-सुमन

17.3.10

पोथी पढ़ पढ़ जगमुआ, पंडित भया न कोय......

यह कहावत तो आप ने सुनी होगी जब जागे तब सबेरा। यह खबर आई है। कौतूहल पूर्ण और प्रशंसनीय। इस वर्ष की बोर्ड परीक्षा दे रहे हैं भाजपा सरकार में समाज कल्याण राज्यमंत्री रहे दल बहादुर कोरी। यह पूर्व राज्यमंत्री रहे दल बहादुर कोरी। यह पूर्व राज्यमंत्री इस वर्ष प्रतापगढ़ के एक केन्द्र से हाईस्कूल की परीक्षा दे रहे हैं। देर शायद दुरूस्त आयद। यही क्या कम है कि सुबह के भूले शाम को घर पहुंचे। साक्षरता या समाज में शिक्षा के प्रसार के लिये सरकारें या समाज में शिक्षा के प्रसाद के लिये सरकारें व्यथित रहती है, बड़ी रक़में खर्च की जा रही है।मिड़ डे मीलसे बच्चे कम, दूसरे ज़्यादा फ़ायदा उठा रहे है। आज़ादी के 63 र्वष हो चुके, परन्तु साक्षरता दर हम अधिक नही बढ़ा सके। लगता यह है कि दो भारत हैं-एक अमीरों का दूसरा ग़रीबों का। शहरी अमीर बस्तियों में बच्चों को पढ़ानास्टेटस सिंबलहै। शिक्षा-माफ़िया या व्यवसायीक्रेज़पैदा करके दोनो हाथों से धन लूट रहे हैं, दूसरी ओर ग़रीब भारत की जनता पहले भोजन और रोज़गार से जूलमे-शिक्षा तो बाद की चीज़ है। साक्षर वह भी है जो पढ़ना लिखना नहीं जानता बस अगले से हस्ताक्षर तक पहुँच गया हमारे कबीर दास जी बेचारे तो साक्षर भी नहीं थे। बात कबीर का पड़ी तरे एक बात सुन लीजिये-शिक्षा और ज्ञान में क्या अन्तर है। ययह दोनो साथ साथ चलते भी है और साथ दोड़ भी देते है। अनेक डिग्रीधारी व्यक्ति जाहिलों से भी बदतर हैं, शिक्षा का दुरूपयोग करते हैं, मानवता के स्थान पर घृणा फैलाते हैं। कबीर शिक्षित नहीं थे, लेकिन ज्ञानी थें। ज्ञान सहृदपता और मानवता की ओर ले जाता है। एक दूसरे से प्रेम करना सिखाता है-
पोथी पढ़ पढ़ जगमुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
आप नें देखा यू0पी0 के पूर्वमंत्री बड़े जागरूक निकले यही क्या कम है कि इस साल की हाईस्कूल की परीक्षा में बैठे, अनेक सिटिंग मंत्री अब भी अंगूठा टेक हैं क्या यह दुखद नहीं है कि देश प्रदेश में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के लिये भी शैक्षित योग्यता निर्धारित है। फिर पंचायत निकायों के अध्यक्षों, विधान मण्डल के सदस्यों, सांसदों एवं मंत्रियों के लिये निम्नतम शैक्षिक योग्यता आखिर क्यों निर्धारित नहीं की गई है चुनाव नामांकन के समय जो फार्म भरकर पेश किये जाते हैं उनके संलग्नकों में निर्वाचन आयोग ने कुछ सूचनायें देने हेतु निर्देश दे रखे हैं। उन्हीं में शैक्षिक योग्यता की सूचना देना भी अपेक्षित है। इन सूचनाओं का उपयोग आखिर क्या है? अतः जनता को सरकार से यह आग्रह करना चाहिए कि हमारे जनप्रतिनिधि पढ़े लिखे हो ज्ञानी हो एक ड्राइवर को ड्राइविंग लाइसेंस तब ही निर्गत किया जाता है जब वह गाड़ी ठीक प्रकार से चलाना जानता हो, फिर हमारे कर्णधारों से यह अपेक्षा क्यों नही की जाती? अगर सभी जनप्रतिनिधियों का कोई शैक्षिक सर्वेक्षण प्रकाशित हो तो उनमें से बहुसंख्यक का हाल यही होगा।
मसिकागद छूओ नहीं, कलम गहेव नहिं हाथ।
डॉक्टर एस.एम हैदर

16.3.10

उक्रेन में राष्ट्रपति चुनावः अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए एक झटका

1990-91 में विश्व में एकध्रुवीय हो जाने और अमरीका का इसका अगुआ बन जाने के बाद से ही उसने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। लेकिन यूरोप और खासकर पूर्वी यूरोप पर उसका विशेष ध्यान है। इस अभियान में उसने सर्वप्रथम युगोस्वालिया को सभी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मान्यताओं की अवहेलना करते हुए कई भागों में विभक्त कर दिया। इसके साथ ही उसका दूसरा निशाना उन राष्ट्रों पर था, जो पहले समाजवादी खेमों के सदस्य थे। इस मुहिम में इन राष्ट्रों को नाटो सैनिक संगठन में सम्मिलित करना शामिल थे। इसके साथ ही मध्य एशिया के राष्ट्रों और इनके माध्यम से कैस्पियन सागर के तेल सम्पदा पर अधिकार जमाना इनकी नीति का भाग था।
शुरू में उसे कुछ सफलता भी मिली, जैसे कि बुल्गारिया, पोलैंड, रूमानिया आदि को नाटो का सदस्य बनाया गया और इनमें से कुछ में अमरीकी नाटो फौजी अड्डे भी स्थापित किये गये। लेकिन अभियान के इस क्रम में उसे बड़ा झटका ज्याॅर्जिया संकट के रूप में लगा। लम्बे समय से अमरीका उक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए प्रयत्नशील है। इस संबंध में उतार-चढ़ाव होता रहा है।
उक्रेन में अभी-अभी राष्ट्रपति का आम चुनाव संपन्न हुआ है। वहां की चुनाव प्रणाली के अनुसार राष्ट्रपति प्रत्यक्ष वोटरों द्वारा दो चरणों में चुना जाता है। पहले चरण में कई उम्मीदवार लड़ सकते हैं। यदि किसी को 50 प्रतिशत से अधिक नहीं मिला तो दो अधिक मत पाने वाले दूसरे चरण में लड़ते हैं। इस चुनाव के पहले दौर (31 जनवरी) में विक्टर यानुकोविच और वर्तमान प्रधानमंत्री युलिया तिमोशेको को क्रमशः 35 अज्ञैर 25 प्रशित मत मिले हैं जबकि उक्रेन के नाटों में शामिल करने की नीति के समर्थक वर्तमान राष्ट्रपति युश्चेको को मात्र 5 प्रतिशत ही मत मिल पाए हैं। इसका मतलब था कि अन्तिम दौर में जीतने वाला अमरीका समर्थक नहीं होता। क्योंकि यानुकोविच और तिमोशेकों दोनों ही अमरीका-विरोधी हैं। इस प्रकार उक्रेन को नाटो में शामिल करने के अमरीका मंसूबे पर पूर्ण विराम लग जाएगा। यह अमरीका के लिए बड़ा झटका है। इसके अलावा और अन्य तरह से भी उक्रेन महत्वपूर्ण है। यानुकोविच को मात्र 5 प्रतिशत मत मिलना नाटो सदस्य बनाने की उनकी अमरीका परस्त नीति को रद्द किया जाना है।
कैस्पियन सागर से तेल और गैस की आपूर्ति पश्चिम यूरोप के राष्ट्रों को कई माध्यम से होती है। इसमें रूस, तर्कमेनिस्तान समझौता अजरबैजान के तेल गैस के रूस के रास्ते पश्चिम यूरोप जाने और रूस-तुर्की के रास्ते पश्चिम यूरोप जाने और रूस-तुर्की समझौता जो गैस/तेल को दक्षिण यूरोप भेजेंगे, प्रमुख हैं। येश्चेंका इन सबके खिलाफ थे और वे चाहते थे कि रूस को इन सबसे अलग कर सारी तेल/गैस उक्रेन से ही होकर पश्चिम यूरोप को जाये। लेकिन स्पष्ट रूप से यह सब ख्याली पुलाव बन कर ही रह जायगा।
उपरोक्त तेल राजनीति का सीधा संबंध कैस्पियन सागर के तेल और गैस भंडार से है। पहले वह पूर्व सोवियत संघ की सम्पदा थी। उसके ध्वस्त होने के बाद वह सोवियत संघ से अलग हुए और कैस्पियन सागर से लगे राष्ट्रों की सम्पत्ति है। विभिन्न समझौतों के कारण इस तेल/गैस भंडार पर वर्चस्व स्थापित करना भी एक उद्देश्य रहा है। लेकिन उक्रेन के इस चुनाव से उसकी इस नीति को मुंह की खानी पड़ी है।
यूश्चेंको उक्रेन में सेवास्तोपोल में रूसी सैनिक अड्डे के भी खिलाफ थे। इस सैनिक अड्डे का काला सागर पर वर्चस्व से सम्बंध है। काला सागर से लगे बुल्गारिया और रूमानिया में पहले से ही अमरीका ने सैनिक अड्डा स्थापित कर रखा है और उसका उद्देश्य काला सागर पर अपना दबदबा जमाना है। उसका यह मंसूबा भी धराशायी होता दीख रहा है।
ज्याॅर्जिया के संबंध में भी युश्चेंको/रूस की संकट भत्र्सना के पक्षधर थे। उक्रेन की आने वाली सरकार की इस मामले में भी अलग नीति होगी। कुछ दिन पहले उक्रेन से गुजरने वाली पाइप-लाइन के संबंध में रूस के साथ उक्रेन का संकट हुआ था। ये पाइप-लाइन पश्चिम यूरोप को भी जा रही है और इस संकट का असर पश्चिम यूरोप को पहुंचने वाले तेल और गैैस की आपूर्ति पर पड़ा था। इसलिए पश्चिम यूरोप के देश भी इस संबंध में अमरीका के विरूद्ध और रूस समर्थक नीति रखते हैं। इन सब घटनाओं का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि उक्रेन में रूस पक्षी सरकार आने वाली है। लेकिन लड़ने वाले दोनों उम्मीदवारों ने साफ कर दिया है कि उनकी नीति तर्कसंगत और उक्रेनपक्षी होगी।
कुल मिलाकर आने वाले दिनों में अमरीकी नीति को इस क्षेत्र में भारी झटका लगने जा रहा है और ओबामा के लिए सांप-छछंुदर की स्थिति उत्पन्न होने वाली है। अगर ओबामा उक्रेन के संबंध में रूस के साथ टकराव की स्थिति पैदा करते हैं तो उनका रूस के साथ संबंध कोरिसेटकरने (सामान्य बनाने) का कार्यक्रम धरा रह जायगा। अगर वह उक्रेन संबंधी नीति पर पीछे हटते हैं तो इसकी विरोधी रिपब्लिकन पार्टी इसकी नींद हराम करेगी।
चुनाव के दूसरे और अंतिम दौर में जिसमें सिर्फ दो सबसे अधिक मत पाने वाले उम्मीदवार ही लड़ते हैं। 7 फरवरी को दूसरे दौर में उक्रेन के विरोधी उम्मीदवार यानुकोविच ने प्रधानमंत्री तिमोशेको को राष्ट्रपति की दौड़ में बहुत थोड़े से मतों से हरा दिया। यानुकोविच को 48.40 तथा तिमोशेको को 45.99 प्रतिशत मत मिले। पश्चिमी देशों ने अपनी निराशा स्पष्ट की है। यूरोपीय संसद की परिषद केरैपोर्टियरने चुनावी नतीजे कोत्रासदीकरार दिया है।
चुनाव नतीजे यानुकोविच के लिए नाटकीय वापसी है। वे भूतपूर्व प्रधानमंत्री हैं। 2004 के चुनावों में पश्चिम के हस्तक्षेप से चुनावी नतीजे उनके विरोध में गए जिसेनारंगी क्रांति“ (!) कहा गया।
अब वे राष्ट्रपति के रूप में वापस गए हैं। जाहिर है उक्रेन दृढ़तापूर्वक पश्चिम-विरोध पर चलेगा; कम से कम संभावना तो यही लगती हैं।
-भारत भूषण प्रसाद

नव संवत्सर क्यों नहीं मानते...!!













ग्रेगेरियन कैलेण्डर का आखिरी महिना आते ही पूरे विश्व में जहां-जहां पर अंग्रेजों का आधिपत्य रहा है, वे सारे देश नए साल की आगुवानी करने के लिए तैयारियां करने लगते हैं. हैप्पी न्यू इयर के झंडे, बैनर, पोस्टर और कार्डों के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने  लगती है. कहीं-कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाएं दुर्घटनाओं में बदल जाति हैं और आदमी आदमी से और गाड़ियां गाड़ियों से भिड़ने लगती हैं. रातभर जागकर नया साल ऐसे मनाया जाता है मानो पूरे साल की खुशियाँ एक साथ आज ही मिल जाएंगी. सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने वाले हम भारतीय पश्चिमी शराबी तहज़ीब में इस कदर सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सारी कथित मर्यादाओं की की तिलांजलि दे देते हैं. पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया. नव संवत्सर को हम भारतीय लगभग भूल ही चुके है. इसके बारे में जानने वालों को अंगुली पर गिना जा सकता है.
जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर को जानने वालों की संख्या अनगिनत है. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक ओ ऐतिहासिक परम्पराओं को भूलकर वर्तमान में ' भारत ' वास्तव में ' इंडिया ' में  तब्दील होता जा रहा है. हमें अंग्रेजी नया साल मानाने में जितना अभिमान होता है उसका रत्तीभर भी गर्व भारतीय नव संवत्सर को जानने या मानाने में नहीं होता. अपने आप से ये सवाल पूछें कि हम भारतीय नव संवत्सर क्यों नहीं मानते ?

ग्रेगेरियन कैलेण्डर की शुरूआत
१ जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को ईस्वीं सन के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है. इसे रोम के सम्राट जूलियस सीज़र द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया. भारत में ईस्वीं संवत की शुरूआत अंग्रेजी शासकों ने १७५२ में किया. अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया. १७५२ से पहले ईस्वीं सन २५ मार्च से शुरू होता था, किन्तु १८ वीं सदी से इसकी शुरूआत १ जनवरी से होने लगी. ईस्वीं कैलेण्डर के महीनों के नामों  में प्रथम छह माह यानी जनवरी से जून रोमन देवताओं ( जोनस, मार्स व  मया आदि ) के नाम पर हैं. जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीज़र तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसंबर तक रोमन संवत के मासों के आधार पर रखे गए. जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गए अन्यथा कोई भी दो मास ३१ दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं.
ईसा से ७५३ वर्ष पूर्व रोमन नगर की स्थापना के समय रोमन संवत प्रारंभ हुआ जिसके मात्र दस माह ३०४ दिन होते थे. इसके ५३ साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे ३५५ दिनों का बना दिया. ईसा के जन्म से ४६ वर्ष पहले जूलियस सीज़र ने इसे ३६५ दिन का बना दिया. सन १५८२ में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के ०४ अक्टूबर को इस वर्ष का १४ अक्टूबर समझा जाए. आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए.
ग्रेगेरियन कैलेण्डर की काल गणना मात्र दो हज़ार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है. जबकि यूनान की काल गणना ३५७९ वर्ष, रोम की २७५६ वर्ष, यहूदी की काल गणना ५७६७ वर्ष, मिस्र की २८६७० वर्ष, पारसी १८९९७४ वर्ष तथा चीन की ९६००२३०४ वर्ष पुरानी है. इन सबसे अलग यासी भारतीय काल गणना की बात करे तो हमारे ज्योतिष अनुसार पृथ्वी की आयु १ अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हज़ार १०८ वर्ष है, जिसके व्यापक प्रमाण भारत के पास मौजूद है.

विक्रम संवत की शुरूआत
' चैत्रे मासि जगद ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि, शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति.'- ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के मुताबिक चैत्र मास के प्रथम दिन प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी. इसी दिन से  विक्रम संवत की शुरूआत होती है. ग्रेगेरियन कैलेण्डर से अलग देश में कई संवत प्रचलित हैं. फिलहाल, विक्रम संवत, शक संवत, हिजरी संवत, बौद्ध और जैन संवत तेलगू संवत प्रचलित हैं. इनमें हर एक का अपना नया साल होता है. विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की ख़ुशी में ५७ ईसा पूर्व में शुरू किया था. विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है. भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत है.

विशेषता 
विक्रम संवत का संबंध विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत और ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है. इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना और राष्ट्र गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है. यही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रन्थ वेदों में भी इसका वर्णन है. नव संवत्सर यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के २७ वें और ३० वें अध्याय के मन्त्र क्रमांक क्रमशः ४५ और १५ में विस्तार से दिया गया है. विश्व में सौर मंडल के ग्रहों और नक्षत्रों की चाल और निरंतर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते.

राष्ट्रीय कैलेण्डर
देश आज़ाद होने के बाद नवम्बर १९५२ में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद् के द्वारा पंचांग सुधर समिति की स्थापना की गई. समिति ने १९५५ में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी. लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर २२ मार्च १९५७ को इसे राष्ट्रीय कैलेण्डर के रूप में स्वीकार किया गया.

ऐतिहासिक-पौराणिक महत्व 
1. आज से १ अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हज़ार १०९ वर्ष पहले इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का सृजन किया था.
2. लंका में राक्षसों का मर्दन कर अयोध्या लौटे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का राज्याभिषेक इसी दिन किया गया.
3. शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है. भगवान राम के जन्म दिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मानाने का प्रथम दिन.
4. समाज को अच्छे मार्ग पर ले जाने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज के स्थापना दिवस के रूप में चुना.
5. सिख परम्परा के  द्वितीय गुरू का जन्म दिवस.
6. सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज सुधारक रक्षक वरुनावातार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए.
7.शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों  को परस्त कर दक्षिण में श्रेष्ठतम राज्य की स्थापना करने के लिए यही दिन चुना.
8. युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन ५११२ वर्ष पूर्व युधिस्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ.
9. इसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार का जन्म दिवस है.  

प्राकृतिक महत्व
1. वसंत ऋतु का प्रारंभ वर्ष प्रतिपदा से शुरू होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चरों तरफ़ पुष्पों की सुगंध से भरी होती है.
2. फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है.
3. नक्षत्र शुभ स्थिति में राहते हैं अर्थात किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है.
क्या ग्रेगेरियन कैलेण्डर के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके ? आइए गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानी कि विक्रमी संवत ( २०६७ ) को पूरा जोशो-खरोश के साथ मनाएं और सभी लोगों को इसके बारे में बताएं.
                                     (स्रोत: पंजाब केसरी. शुक्रवार्ता, १ जनवरी, २०१० और दैनिक जागरण, १५ मार्च, २०१०)
नव संवत का नूतन स्वर, नव सूर्योदय की प्रथम किरण.
सृजित करे आप सबमें, दया, शीलता, क्षमा, प्रेम और कर्मठता.
समृद्ध शसक्त परिवार, समाज  और देश का निर्माण करें
आओ मिलकर नव संवत को नूतन स्वर प्रदान करें...!! 

जय हिंद !
प्रबल प्रताप सिंह

 

15.3.10

जन प्रतिनिधियों की शैक्षिक आर्हता व चरित्र का सत्यापन जरूरी हो

0 प्र0 पंचायत चुनावों में इस बार प्रधान बनने के लिए शैक्षिक योग्यता अनिवार्य कर दी गई है। अब हाईस्कूल फेल व्यक्ति प्रधानी की कुर्सी पर नहीं पहुंच सकेंगे। देर से सही परन्तु सही दिशा में बढ़ाया गया यह एक अच्छा कदम कहा जायेगा यही काम अगर विधान सभा, विधान परिषद, लोक सभा, राज्य सभा, में भी कर दिया जाए तो कम से कम इन पदों पर जाहिल दिमाग बैठ सकेंगे और कुछ तो गरिमा इन पदों की वापस लौटेंगी।
0प्र0 में पंचायत के चुनावों में प्रधान के पद पर अब वही व्यक्ति अपनी उम्मीदवारी का दावा कर सकेंगे जो कम से कम हाईस्कूल पास हो। इस फैसले से भले ही अंगूठा टेक प्रधानों को अघात लगा हो कि अब वह प्रधान बन सकेंगे परन्तु इसके परिणाम अच्छे आयेंगे। लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई ग्राम पंचायत होती है और पंचायती राज अधिनियम के द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ग्रामीण स्तर पर स्थित ग्राम पंचायतों को विकास के लिए केन्द्र से भेजे जाने वाले धन का उपयोग करने का जिम्मेदार बताया था। उसके बाद से प्रधानी के चुनाव की अहमियत काफी बढ़ गई है और जो चुनाव बगैर धन खर्चा किए पहले हो जाया करता था वह अब लाखों रूपये में होने लगा है। अब ग्राम प्रधानी के पद पर प्रत्याशियों की होड़ सी मच गई है कारण वही पैसा, परन्तु इस पैसे को खर्च करने के लिए प्रधान का अशिक्षित होना काफी दिक्कते पैदा करता था और इसका लाभ सरकारी प्रशासनिक मशीनरी उठाती थी और प्रधानों को भ्रष्टाचार के जाल में फंसाकर जेल तक यही सरकारी तंत्र के बाबू, पंचायत सेक्रेटरी अधिकारी पहुंचा देते थे।
इन्ही सब पर विचार करके शायद प्रधान की शिक्षित अनिवार्यता को रखा गया है। इससे जहाँ ग्राम पंचायतों की कार्यक्षमता गुणवत्ता में सुधार आयेगा वहीं शिक्षा की ओर भी रूचि में इजाफा होगा।
अब यही कदम देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर लोकसभा राज्य सभा तथा प्रदेश की विधान सभा विधान परिषद के सदस्यों के लिए भी उठाना चाहिए और कम से कम स्नातक की शैक्षिक योग्तया अवश्य इनके लिए रखी जानी चाहिए। साथ ही यदि एम0एल0सी0 एम0पी0 के पदों के लिए उम्मीदवारी का दावा करने वालों के चरित्र का सत्यापन भी पुलिस खुफिया विभाग से करा लिया जाये तो फिर काफी गुणात्मक सुधार हमारे लोकतंत्र के ढांचे में देखने को मिलेगा वरना अपराधियों देश की धार्मिक सौहार्दता अखण्डता उसकी अस्मिता के लिए खतरा उत्पन्न करने वाले सांसद विधायक देश के उच्च पदों पर बैठकर ऐसे कारनामों करते रहेंगे जिसे अक्सर मीडिया कर्मी अपने स्टिंग आप्रेशन से बेनकाब करती रहती है। जब हज यात्रा पर जाने वाले, पत्रकारिता जगत में मान्यता प्राप्त सनद हासिल करने वाले और अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्र लाइसेंस या विकास का कार्य करने वाले ठेकेदारों के चरित्र का सत्यापन देश में होता है तो देश के सबसे जिम्मेदार पदों पर बैठने वाले व्यक्तियों की शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता और उनके चरित्र के अच्छे होने का प्रमाण पत्र की आवश्यकता अनिवार्य क्यों नहीं।
-मोहम्मद तारिक खान

14.3.10


न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी...!!!

















बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण विधेयक काफी जद्दोज़हद के बाद आखिर संसद का राज्यसभा में पेश हो गया. कुछ सहयोगी विपक्षी पार्टियों के हो हल्ला और वाकआउट के बावजूद यूपीए की सरकार चौदह साल बाद संसद उच्च सदन में बिल के पक्ष में १८६ मत और विरोध में १ मत हासिल कर महिला आरक्षण विधेयक का पहला बैरियर पार कर लिया. लेकिन सहयोगी विपक्षी पार्टियों के नेताओं की जाति आधारित महिलाओं ला आरक्षण की मांग पर किए जा रहे हंगामे से पता चलता है कि यूपीए की सरकार इस बिल को लोकसभा में अभी लाने के मूड में नहीं है. महिला आरक्षण विधेयक को अपनी मंजिल तक पहुंचने में अभी काफी लम्बा सफ़र और बैरियर्स का सामना करना पड़ेगा. सरकार के ढुलमुल रवैए से साफ हो जाता है कि " न नौ मन ताल होगा न राधा नाचेगी." न महिला आरक्षण विधेयक पर राजनीतिक आम सहमती बनेगी और न यह बिल अपनी परिणति को प्राप्त होगा.
 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ( ८ मार्च ) को पूरे विश्व ने अपने तरीके से मनाया. भारत ने भी कुछ अनूठे अंदाज़ में इसे मनाया. देश की आधी आबादी ( ४९.६५ करोड़ ) के अरसे से लंबित लोकसभा व राज्यसभा में ३३ प्रतिशत आरक्षण की मांग के बिल को राज्यसभा में पेश कर मनाया. ये और बात है कि सरकार को इस बिल को अमली जामा पहनाने में पूरी कामयाबी हासिल नहीं हुई है. आम जनता महंगाई की आग में जल ही रहि थी कि उस आग को नज़रअंदाज़ कर सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक का शिगूफ़ा छोड़ दिया. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश में जब भी कोई घोटाला, आम जनता से जुड़ी कोई घटना या दुर्घटना होती है तो सरकार लोगों को भरमाने के लिए एक जांच समिति गठित कर देती है. जांच शुरू हो जाति है. उस जांच में एक पीढ़ी जवान हो जाति है और एक पीढ़ी का अवसान हो जाता है. फिर भी जांच चलती रहती है. कोई कमी रह जाने पर दूसरी जांच समिति गठित कर दी जाती है. जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई को जांच समिति की सुविधा सेवा में खर्च कर दिया जाता है. वैसे भी हम भावुक भारतीय लोग प्रवृत्ति से काफी भरमशील और भूलनशील होते हैं. इसलिए, कौन सी समिति कब बनी ? उसने क्या किया ? उस पर कितना धन खर्च हुआ ? आम लोगों को उससे कितना फायदा पहुंचा ? समय बीतने पर सब भूल जाते हैं. सरकार जांच समिति का खेल खेलती रहती है. 
आम जनता अभी इसी सवाल के जवाब ढूढ़ने में उलझी थी कि एनडीए शासनकाल में हर तीसरे दिन गैस सिलिंडर वाला कहाँ से गैस लेकर आ धमकता था. और वर्तमान सरकार समय में ऐसा क्या हो गया कि महीनों बुकिंग के बाद भी गैस नहीं मिलती. आम आदमी की जरूरत की चीज़ें उसकी पहुँच से दूर होती जा रहि है. कमरतोड़ महंगाई ने आम आदमी के चाय की चुस्कियों के स्वाद " शुगर फ्री "  कर दिया है. ऐसे समय में महंगाई की धूप से ध्यान हटाने के लिए सरकार ने ३३ प्रतिशत के जिन्न को जनता के बीच छोड़ दिया. 
३३ प्रतिशत आरक्षण को पेश करने के लिए राज्यसभा को ६ बार स्थगित करना पड़ा. आरक्षण बिल की प्रतियों को विरोधियों ने द्रौपदी के चीरहरण की मानिंद फाड़कर चिंदी-चिंदी कर दिया. बिल की पार्टियों को फाड़ने वाले पुरुषों ने अपने कृत्य से आधी आबादी को संकेत दे दिया कि- " अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी."  वे कभी आधी आबादी को पूरी आबादी में तब्दील होने देना नहीं चाहते. हालाँकि इस अमर्यादित कृत्य के लिए उन सात सांसदों को निलंबित कर दिया गया. लेकिन क्या निलंबन से आधी आबादी के आँचल पर उछाले गए कीचड़ के दाग साफ हो पायेगा ? शायद, हो भी जाए, क्योंकि भारत की आधी आबादी में भावुकता ३३ प्रतिशत से ज्यादा पायी जाति है. तभी तो कबीर ने कहा है कि- " नारी की झाईं परत, अंधा हॉट भुजंग, कबिरा तिन की कौन गति, नित नारी को संग." 

जिन्हें अपना आधार खिसक जाने का डर सता रहा है वे महिला आरक्षण विधेयक को हरसंभव पारित नहीं होने देंगे. उन्हें यह भय सताता है कि जिस दी आधी आबादी उनके समक्ष अपने बहुमत के साथ बैठेगी तो अपने बातों के बेलन से छुद्र राजनेताओं की बोलती बंद कर देगी. इसलिए, बिल के विरोधी नेताओं ने जाति आधारित आरक्षण का पासा फेंककर ३३ फीसदी के बिल को बिलबिलाने पर मजबूर कर रहे है.
जिस मुल्क में दुनिया की सर्वाधिक योग्य पेशेवर महिलाएं हैं. जहां अतिविकसित अमेरिका से ज्यादा महिलाएं डाक्टर, सर्जन्स, वैज्ञानिक और प्रोफेसर्स हैं. दुनिया की सबसे ज्यादा कामकाजी महिलाएं जिस मुल्क में हैं, वह भारत देश अपने पड़ोसी मुल्कों से बहुत पीछे है. ११५ करोड़ आबादी वाले हम भारतियों के लिए यह निहायत शर्म की बात है. हम भारत को इक्कीसवीं सदी का भारत बनने का सपना देखते हैं. जब हम ३३ प्रतिशत स्थान तक महिलाओं को नहीं दे पा रहे तो इक्कीसवीं सदी के भारत का सपना कैसे पूरा होगा ? 
इस व़क्त मुझे मुनव्वर  राना साहब द्वारा रचित कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं. आपकी पेशे-नज़र करता चलूँ...
' धूप से मिल गए हैं पेड़ हमारे घर के
मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना.'
' मुकद्दर में  लिखाकर आए हैं हम दरबदर फिरना
परिंदे, कोई मौसम हो परेशानी में राहते हैं.'
' बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
राहते-राहते लोग स्टेशन पर कुली हो जाते हैं.'
     प्रबल प्रताप सिंह 

कृषि उपनिदेशक की किसानों द्वारा भावविनी - विदाई



गत दिवस जिला के गावं निडाना में कृषि विभाग के उपनिदेशक डा.रोहताश सिंह को किसानों द्वारा भावभीनी विदाई दी गई. इस अवसर पर किसानों ने उन्हें पगड़ी पहना कर सम्मानित किया. उल्लेखनीय है कि गत दिनों डा.रोहताश का तबादला जींद से हिसार हो गया है. निडाना वासी किसानों के साथ-साथ इगराह,रूपगढ, ललित खेडा गावं के किसानों ने उन द्वारा यहा कार्यरत रहते दी गई उत्कृष्ट सेवाओं से प्रसन्न हो कर इस विदाई समारोह का आयोजन किया. . काबिले गौर है कि जिले में पहली बार किसी कृषि उपनिदेशक को उनकी सराहनीय सेवाओं के लिए किसानों द्वारा सम्मानित किया गया. निडाना गावं के भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह ने उपनिदेशक महोदय द्वारा निडाना गावं के किसानों के लिए किये कार्यो व् मार्ग दर्शन को याद करते हुए डा.रोहताश के व्यक्तित्व के अनमोल व् अनूठे आयामों के बारे में उपस्थित किसानों व् कृषि अधिकारियों को अवगत कराया तथा किसानों की तरफ से शाल उढ़ा कर सम्मानित किया. राजेन्द्र सिंह ने उपनिदेशक महोदय को डायरी व् पेन भेंट करते हुए अपने चहेते उपनिदेशक से मांग कि साहिब आपके मोबाइल कि तरह से यह पेन व् डायरी भी किसानों के हित निरंतर इस्तेमाल होनी चाहिए. राजकुमार सिंह ने कृषि उपनिदेशक महोदय को किसानों कि तरफ से स्मृति चिन्ह भेंट किया.स्मृति चिन्ह भी अपने आप में अनूठा था जिसके ऊपर मिलीबग के विरुद्ध जंग में किसानों के हीरो-अंगीरा का जीवन-चक्र अंकित था.मनबीर ने इस मौके पर उपनिदेशक से मुखातिब होते हुए बताया कि आपके कार्यकाल में तो हम किसान अपने आप को उपनिदेशक ही समझते थे. इस मौके पर डा.सुरेन्द्र दलाल ने भी विचार रखे. इस विदाई समारोह की विशेष बात यह थी की इसमें महिला-किसानों की भी उलेखनीय भागेदारी थी. कृषि विभाग की तरफ से डा.बलजीत, डा.सुभाष, डा.राजेश व् डा.कमल सैनी ने अपननी उपस्थिथि दर्ज करवाई.इस अवसर पर डा.रोहतास द्वेअ भी इस जिले के किसानों से मिले अथाह प्यार को शब्द देने की भरपूर कोशिश की. कार्यक्रम के अंत में रणबीर सिंह ने इस समारोह के सफल आयोजन के लिए डा.रोहतास सिंह व् कृषि अधिकारियों के साथ-साथ किसानों का भी धन्यवाद किया तथा यहाँ पधारे अधिकारियों व् डा.रोहतास सिंह के लिए दोहपहर के भोज का आयोजन किया.

13.3.10

सत्यमेव जयते

एक अच्छी खबर देश के सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों को ‘सत्यमेव जयते’ का प्रयोग करने के निर्देश दिये गये हैं, इसीक्रम में उ0प्र0 सरकार ने इसके अनुपालन के निर्देश जारी किये।
भौतिकता की बुराईयों से बचने के लिये हल निकालना ही चाहिये। पहले भी इस तरफ ध्यान दिया गया था, जब हर दफतर में गांधी जी की शांति स्थापना वाली मुद्रा की फोटो लगायी गई थी, उनके उठाये हुए हाथ की पांचो उंगुलियां सामने थीं। सभी जानते हैं कि पहले बाबू लोग (सभी नहीं) दो रूपया शर्माकर ले लेते थे, बाद में महंगाई आई तो मांग भी बढ़ी, शर्माते सकुचाते गांधी की तस्वीर का सहारा लेने लगे।
सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिये कुछ टोटके करती हैं। यूरोप में तो कुछ दूसरे ही उपाय किये जाते हैं, जब बुराई हद से आगे बढ़ जाती है तो कानून बनाकर उसे जायज करार दे देते हैं, यह देश, सभ्य देश है?
अगर बुराई को समाप्त करने का दृढ़ संकल्प न हो तो विधि विधान या शासनादेशों से कुछ भी होने वाला नहीं है, इसे ‘फेस-सेविंग’ ही कहा जायेगा।
आदर्श वादिता बड़ी अच्छी चीज है अगर यह अपने स्थान पर न रूक जाये, इसके आगे भी एक लम्बा सफर है। मनसा, वाधा कर्मणा तक जाते हैं विचार तथा शब्दों की सीढियां हम को व्यवहार परिवर्तन की मंजिल तक ले जाती हैं। राष्ट्रीय त्यौहारों पर भारत माता की जय बोलने की आवाजे गगन भेंदी होती हैं बन्दे मातरम बोलने में भी किसी से कम नहीं। बड़े बड़े भ्रष्ट अफसर इन मौकों पर अपने भाषणों के द्वारा मातहतों को उपदेश की खुराके पिलाते हैं परन्तु व्यवहार परिवर्तन की किसी को फिक्र नहीं है।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
जो व्यवरहिं ते नर न घनेरे।

डॉक्टर एस एम हैदर

12.3.10

वादा लपेट लो, जो लंगोटी नहीं तो क्या ?

अर्थशास्त्रियों ने हमारी जरूरतों को तीन भागों आवश्यक आवश्यकताओं, आरामदायक तथा विलासिताओं में बांटा है। आवश्यक में खाना, कपड़ा, मकान मुख्य है। मैं अक्सर शहरी एवं ग्रामीण बस्तियों से गुजरा और देखा कि झोपड़ियों से टी0वी0, रेडियों द्वारा प्रसारित प्रोग्राम की आवाजे आ रही हैं तथा युवाओं के हाथों में मोबाइल सेट हैं मेरे मन में इस प्रगति के प्रति कोई विरोध नहीं है, मानवता के आधार पर अमीर गरीब समान हैं, परन्तु आश्चर्य इस बात पर हुआ कि इन आदमियों में खेलने वाले बच्चे अधिकतर कुपोषित थे तथा कपड़े तक मयस्सर नहीं थें, शायद ये लोग ग्लैमरस जिन्दगी की चकाचौंध का शिकार हो गये, इनकी जेब कम्पनियों ने काट ली और ये प्राथमिकताएं तय करने में गलती कर बैठे।
आवश्यकताओें में खाने का पहला नम्बर है, इनमें अनाज सब से मुख्य है। गरीब को रोटी चाहियें, परन्तु हमारी खाद्य नीति ने गरीब को भूखा मरने पर मजबूर कर दिया। लगता है हमारे केन्द्रीय खाद्य मंत्री शरद पवार के भी कुछ निहित स्वार्थ थे जिसके कारण उन्होंने आयात निर्यात का मकड़जाल फैलाकर कुछ बड़ों को शायद फायदा पहुंचाने की कोशिश की। उन्होंने अक्सर ऐसे विरोधाभासी बयान दिये जिससे एक तरफ अनाजों के दाम बढ़े जिस से उपभोक्ता प्रभावित हुए परन्तु दूसरी तरफ उत्पादकों तक फायदा नहीं पहुंचने दिया गया। यह फायदा बिचौलिए ले उड़े। कभी कहा गया अनाज आयात किया जायेगा, कभी कहा गया गोदामों में अनाज इतना भरा हुआ है कि उनको आगे के लिये खाली करना जरूरी हो गया है। शक्कर के सम्बंध में भी गलती से या जानबूझकर उलटफेर वाली नीतियाँ अपनाई गईं। उपभोक्ता ऊँचे दामों पर शक्कर खरीदने पर मजबूर हुआ, दूसरी तरफ आयातिति खांडसरी बन्दरगाहों पर पड़ी सड़ती रही।
गरीब की कोई सुनता नहीं, मौका आने पर उससे सिर्फ वोट लिया जाता है तथा जो वादे किये जाते हैं उनकी तरफ से कोई मुड़कर नहीं देखता, एक शेर शमसी मीनाई का देखिये-
सब कु है अपने देश में, रोटी नहीं तो क्या ?
वादा लपेट लो, जो लंगोटी नहीं तो क्या ?
-डॉक्टर एस.एम.हैदर