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28.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-4

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य

आश्चर्यजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट का एक कार्यरत जज इस बात पर जोर दे रहा था कि व्यक्तिगत अधिकार तथाकथित राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के कारण दबा दिए जाएँगे। 9/11 की आतंकवादी घटना से सम्बंधित बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब अभी प्राप्त नहीं हुआ है तथा उनमें ऐसे प्रश्न भी हैं जिनको तकनीकी एवं इन्जीनियरिंग विशेषज्ञों ने उठाया है। वास्तविकता यह है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का तात्पर्य मुख्य आर्थिक संस्थाओं एवं घरानों के द्वारा युद्ध है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में इस गूढ़ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट के समय में राजनैतिक विरोध को दबाने के लिए किया जा रहा हैं
कुछ महत्वपूर्ण मुकदमों के अध्ययन से जो कि 1990 या उसके आसपास हुए हैं, यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट एवं भारत के सुप्रीम कोर्ट दोनों मंे कौन ज्यादा स्वतंत्र है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति डिक चेनी बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका, जिला न्यायालय (कोलम्बिया) संख्या 4-475 दिनांक 18 मार्च 2004 के मुकदमें में न्यायाधीश जस्टिस अन्टोनिन स्कालिया ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान अपने आपको डिक चेनी से व्यक्तिगत सम्बंध रखने से इनकार कर दिया। अमेरिका बार एसोसिएशन की आदर्श आचार संहिता के अनुसार ‘‘जजों को सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार से अपने आप को बचाना है।’’ जस्टिस स्कालिया का उपराष्ट्रपति चेनी के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध, मुकदमे के चलते रहने के दौरान पूरी तरह अनुचित था। डिक चेनी उस समय बुश नेशनल एनर्जी पालिसी डेवलेपमेन्ट ग्रुप के चेयरमैन थे। जिस पर फेडरल एडवाइजरी के कानून तोड़ने का आरेाप था। इस कानून के अनुसार नेशनल एनर्जी पालिसी डेवलेपमेन्ट ग्रुप को अपनी कार्यवाही को जनता के समक्ष पेश करना था क्योंकि यह ग्रुप पूरी तरह से सरकारी अधिकारियों से बना था। इस ग्रुप में इनरान कम्पनी के सी000, स्व0 केनेथ ले भी शामिल थे। जस्टिस स्कालिया के द्वारा अपने आप को कार्यवाही के दौरान डिक चेनी से सम्बंध रखने से इन्कार करना न्यायिक स्तर के पतन की ओर इशारा करता है।
प्रजातंत्र के आवरण के पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका में पुलिस राज्य है। यह इस बात से स्पष्ट है जिसमें ‘‘शत्रु लड़ाकू’’ के नाम पर हजारों बेगुनाह नागरिकों को ग्वान्टानामों बे एवं दूसरी जेलों में पिछले छः वर्षों से बिना मुकदमा चलाए कैद रखा जा रहा है। हमदी बनाम रम्ज़फील्ड नं0 542, यू0एस0 507, सन 2004 के मुकदमें के फैसले में यह बात स्वीकार की गई कि व्यक्ति को बन्दी प्रत्यक्षीकरण का अधिकार है। यह भी निर्णय दिया गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति को ‘‘आतंकवाद के खिलाफ’’ युद्ध में असीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं जिसके तहत लोगों को बन्दी बनाया जा सकता है, बिना मुकदमा चलाए केवल शक के आधार पर जेलों में डाला जा सकता है। जस्टिस साॅण्ड्रा कोनर ने सैद्धांतिक रूप से यह स्वीकार किया कि न्यायालय को गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के सम्बन्ध में न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार हैं इस निर्णय का प्रभाव यह पड़ा कि निर्दोषता की अवधारणा के सिद्धांत का परित्याग कर दिया गया एवंसबूत का बोझअभियोग लगाए गए व्यक्ति पर हस्तांतरित कर दिया गया कि वह साबित करे कि वहशत्रु लड़ाकूनहीं है। सरकार का यह अधिकार कि वहफर्जी सबूत पेश करेबना रहा एवं मिलिट्री कोर्ट के समक्ष सुनवाई को पर्याप्त माना गया।
रसूल बनाम जार्ज बुश नं0 542 यू0एस0 466 सन् 2004 के मुकदमें में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि ग्वान्टानामों कैदी, कान्ग्रेसनल हैबीस कारपस एक्ट 1863 के तहत, बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका को दायर कर सकते हैं। इसको रोकने के लिए संसद ने डिटेनी ट्रीटमेन्ट एक्ट 2005 पारित किया एवं कम्बैट स्टेट रिब्यू ट्रिब्यूनल स्थापित किए गए, वास्तव मेंरिब्यू ट्रिव्यूनलकंगारु अदालतंे यानी फर्जी अदालतें थीं जिसमेंवकील एवं सबूतको कोई स्थान नही दिया गया।
सन् 2006 में हमदान बनाम रम्ज़ फील्ड नं0 548 यू0एस0 मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया किडिटेनी ट्रीटमेन्ट एक्टउन लोगों पर लागू नहीं होगा जिन्होंने बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएँ पहले से दायर कर रखी हैं। इस सुविधा को समाप्त करने के लिए मिलिट्री कमीशन एक्ट 2006 पारित किया गया ताकि ग्वान्टानामो के कैदियों की सभी बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को खारिज किया जा सके।
अन्ततोगत्वा सन् 2008 में लखदर बूमीडीन बनाम जार्ज बुश नं0 553 यू0एस0 2008 मुकदमे में संयुक्त राज्य अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अन्तर्राष्ट्रीय विरोध के फलस्वरूप, ग्वान्टानामो एवं दूसरे स्थान की जेलों में कैदियों पर जो अत्याचार हो रहा था, एवं जिन्हें अकारण बिना मुकदमा चलाये छः साल जेलों में बन्द किया जा रहा था, यह निर्णय दिया किशत्रु लड़ाकूव्यक्तियों को बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को दाखिल करने का अधिकार प्राप्त है। तथापि कार्यपालिका के उस अधिकार को चुनौती नहीं दी गई, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को शत्रु लड़ाकू घोषित कर दिया जाता था। अन्य अधिग्रहीत देशों की जेलों के कैदियों को जिन्हें अवैध रूप से बन्द किया गया था, इस आदेश से कोई राहत नहीं मिली। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि लाखों लोग जो मारे गए एवं अधिग्रहीत देशों में ‘‘आतंकवाद के खिलाफ युद्धके नाम पर जिन लोगों को शरणार्थी बनाया गया, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत लोग आम नागरिक थे। संयुक्त राज्य अमेरिका एवं यू0के0 की सरकारों नेजेनेवा कन्वेन्शन की धज्जियाँ उड़ा दी हैं।
प्रथम दृष्टया, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक एवं कारपोरेट फ्राड (धोखाधड़ी) के फलस्वरूप अपने आप को पूरी तरह से अकर्मण्य साबित कर दिया है। फाइनेन्सियल डिस्क्लोजर रिपोर्ट 2001 के अनुसार अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर जज 9 में से 5 जज करोड़पति हैं। यदि उनके व्यक्तिगत निवास स्थानों की भी कीमत लगा दी जाए तो सभी 9 के 9 जज करोड़पति हैं। उनकी विचार धारा वही है जो वाॅल स्ट्रीट की है। इन्हीं जजों ने उस याचिका को खारिज कर दिया था जो वाॅल स्ट्रीट बैंकर्स के खिलाफ पेंशन एवं निवेश से सम्बंधित थी। इन बैंकों में मेरिल लिंच, क्रेडिट सुइस ग्रुप, एवं बार्क ले बैंक शामिल थे। इन बैंकों ने इनरान कम्पनी के अधिकारियों के ऋण को रेब्न्यू (आमदनी) के रूप में पेश करके दिखाया।
रीजेन्टस आॅफ यूनीवर्सिटी आॅफ केलीफोर्निया बनाम मेरिल लिन्च 2008 डब्लू0एल0 169504 (यू0 एस 2008) के मुकदमे में यह निर्णय दिया गया। इसका सम्बन्ध उस वृहत वित्तीय फ्राड से था जो होस्टन ऊर्जा जायन्ट, इनरान कम्पनी ने किया। यह निर्णय उस निर्णय के बाद आया जो स्टोनरिज इनवेस्टमेन्ट पार्टनर्स एल0एल0सी0 बनाम साइंटिफिक अटलांटा इंक 552 यू0सं0 2008 के मुकदमे में दिया गया था। जिसमें जस्ट्सि एण्टोनी केनेडी ने बहुमत से यह-निर्णय दिया था कि ‘‘ऐसी कम्पनियों को इन्वेस्टमेंट फ्राड के लिए उत्तरदायी ठहराना वाॅल स्ट्रीट के लिए बुरा सिद्ध हो सकता है एवं हमारे कानून के अन्तर्गत एक सार्वजनिक व्यापारिक कम्पनी होने की महंगी कीमत चुकानी पड़ सकती है।’’ उपयुकर््त निर्णय अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के उन तमाम निर्णयों में से एक था जिसको व्यापारिक संस्थानों के पक्ष में दिया गया।


लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

loksangharsha.blogspot.com

27.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-3

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य

ब्रिटिश एवं फ़्रांसिसी क्रांति के फलस्वरूप, यूरोप में पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र का जन्म हुआ, परन्तु इस व्यवस्था में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों का दबदबा बना रहा, जिसके कारण कार्य करने वाले वर्ग अर्थात् मजदूरों एवं किसानों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय नहीं मिला। संयोगवश कम्पनियों एवं कारपोरेशनों को वैधानिक अधिकार दिया गया ताकि वे व्यापार आसानी से कर सकें। इसके साथ ही साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा ने भी जन्म लिया। फैक्टरियों में 16 से 18 घण्टे तक काम लिया जाता था, बाल श्रम जोरांे पर था, अनाथालयों की दशा बड़ी दयनीय थी एवं जहाँ की स्थिति गुलामी से थोड़ी बेहतर थी, जिनका सजीव चित्रण मशहूर अंग्रेजी उपन्यासकार चाल्र्स डिकन्स ने अपनी किताबों में किया है। गुलामों एवं मजदूरों का व्यापारिक प्रतिष्ठानों के द्वारा अनियंत्रित शोषण किया जाता था। शासक वर्ग द्वारा समाजवाद के उदय के भय से एवं 19वीं शताब्दी में मजदूर संगठनों के यूरोप में उदय के कारण, फैक्टरी अधिनियम का निर्माण किया गया। कार्य के घण्टों एवं मजदूरी की दरों का निर्धारण किया गया। फैक्टरी जाँच इन्सपेक्टरों एवं मजदूर अदालतों का जन्म हुआ।
आर्थिक एवं राजनैतिक हित, जो इस युग में विजयी होकर सामने आए, उनकी पूर्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता की संवैधानिक अवधारणा के द्वारा की गई। उस समय न्यायपालिका सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक वातावरण से पूरी तरह पृथक थी। उस समय के प्रभावशाली वर्ग के द्वारा निरन्तर एवं संगठित धार्मिक प्रचार का परिणाम यह हुआ कि लोग एक उच्च दैवीय सत्ता की लालसा करने लगे जो उन्हें समाज के अन्याय से मुक्ति दिला सके एवं समाज का पुनर्गठन कर सके। इसके फलस्वरूप बहुत सी संस्थाओं में लोगों का अंधविश्वास उत्पन्न हो गया।
सितम्बर 1988 में कैलिफोर्निया के एटार्नी जनरल के पास एक शिकायत दर्ज की गई कि कैलीफोर्निया की यूनियन आयल कम्पनी का चार्टर रद्द घोषित कर दिया जाए। यह चार्टर अफगानिस्तान में अवैध कब्जे के सम्बन्ध में है। इस शिकायत को अमेरिका के 25 संगठनों के द्वारा दर्ज किया गया जिसमें नेशनल लायर्स गिल्ड आफ अमेरिका प्रमुख है। इस शिकायत में अमेरिका की राजनैतिक एवं न्यायिक संस्थानों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया, ‘‘जायत कारर्पोरेशन उस राज्य (अफगानिस्तान) की सरकार चलाने वाली क्रिया कलापों में लिप्त है वे एक स्वतंत्र, सम्प्रभु राष्ट्र की चुनाव प्रक्रिया, कानून निर्माण प्रक्रिया एवं न्याय प्रक्रिया को दूषित करना चाहते हैं वे धन का प्रयोग करके राजनैतिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं, फिर भी हमारे एटार्नी जनरल एवं गवर्नर, कारपोरेट अपराधों के प्रति बहुत मृदुल रहते हैं वे इस भ्रम को बनाये रखना चाहते हैं कि जुर्माना एवं यदा कदा दण्ड से काम चल जाएगा। साथ ही साथ वे कारपोरेट ब्लैकमेल का भी शिकार हो रहे हैं जब यह कहा जाता है कि ‘‘अमित्रवत व्यापारिक वातावरण कम्पनी को राज्य (अफगानिस्तान) से बाहर निष्कासित कर देगा।’’
उपर्युक्त शिकायत अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों पर आधारित है जिनमें से दो हमारी परिचर्चा के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे उन कारणों पर रौशनी डालते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक संस्थाओं के वर्तमान पतन से सम्बंधित है। साथ ही साथ ये भी स्पष्ट करते हैं कि न्यायिक एवं राजनैतिक संस्थाएँ, उस आर्थिक धोखा धड़ी का जवाब नहीं दे पा रही हैं जिसके द्वारा आर्थिक संसाधनों को मजदूर एवं मध्यम वर्ग से छीनकर बैंकों एवं आर्थिक संस्थाओं को हस्तांतरित किया जा रहा है ताकि धनी वर्ग का देश की राजनीति में दबदबा बना रहे।
स्टैण्डर्ड आॅयल आफ न्यू जेरेसी बनाम यूनाइटेड स्टेट्स नं0 221 यू0एस01 (1911) के मुकदमें में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कारपोरेट गतिविधियों की तुलना गुलामी प्रथा से की थी। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार ‘‘सौभाग्यवश देश को मानवीय गुलामी से आजादी हासिल हो गई है जैसा कि आज सभी महसूस करते हैं परन्तु देश एक अन्य प्रकार की गुलामी की गिरफ्त में है अर्थात वह गुलामी जो धन एवं पूँजी के कुछ हाथों एवं कारपोरेशनों के हाथों में केन्द्रीय करण से उत्पन्न होती है एवं ये लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश के सम्पूर्ण व्यापार पर कब्जा कर रहे हैं जिसमें जीवन की आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन एवं उनकी बिक्री भी शामिल है।’’
जस्टिस बै्रन्डिस ने लिगेट कम्पनी बनाम ली (नं 288 यू0एस0 517, 580) के मुकदमे में सन् 1933 में कारपोरेशनों से संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रजातंत्र एवं उसकी संस्थाओं को जो गंभीर खतरा उत्पन्न था, उस पर चिन्ता व्यक्त की। जस्टिस ब्रैण्डिस ने कहा परिवर्तन जो मजदूरों एवं सामान्य जनता के जीवन में लाए गए हैं वे इतने आधारभूत एवं सुदूरवर्ती हैं कि विद्वानों ने विवश होकर विकसित हो रही कारपोरेट संस्कृति की तुलना, सामन्तवादी प्रथा से की हैं। इन परिवर्तनों के कारण बुद्धिजीवी एवं अनुभवी व्यक्ति यह कहने पर मजबूर हो गए हैं कि न्याय पालिका धनी वर्ग के शासन के प्रति कटिबद्ध है।’’
आज संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे जजों की अधिकता है जिन्होंने कार्पोरेशनों एवं उनके हितों को सर्वोपरि रखा है। कारपोरेट निर्णय प्रक्रिया एवं कारपोरेट अपराधों ने अप्रत्याशित कानूनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। परिणाम स्वरूप व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं नागरिक स्वतंत्रता की बलि दी जा रही है, चर्च एवं राज्य के पृथक्कीकरण के सिद्धांत को ताक पर रख दिया गया है, गैर कानूनी ढंग से लोगों की तलाशी ली जा रही है और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है।
एक अक्टूबर सन् 2001-2002 में सुप्रीम कोर्ट खुलने की पूर्व संध्या पर सहायक न्यायाधीश जस्टिस साॅन्ड्रा डे कोनर ने न्यूयार्क स्कूल आफँ लाॅ के ग्रीनविच विलेज कैम्पस में बोलते हुए ऐसे शब्द कहे थे जो किसी भी देश के सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत जज के लिए अप्रत्याशित थे। उन्होंने कहा कि 11 सितम्बर के आतंकवादी हमले के बाद लोगों के प्रजातंात्रिक अधिकारों पर अप्रत्याशित ढंग से प्रतिबंध लगा दिये गए। उन्होंने आगे कहा कि यह बहुत संभव है कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित आपराधिक मुकदमों के मामलों में अपने राष्ट्रीय संविधान की अपेक्षा युद्ध से सम्बंधित अन्तर्राष्ट्रीय कानून पर निर्भर करेंगे। हमारे ऊपर जो हमले हो रहे हैं उनसे विवश होकर हमें अपने आपराधिक जाँच, फोन टैपिंग एवं प्रवास से सम्बंधित कानूनों का पुनरावलोकन करना पड़ेगा।


लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

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26.11.09

भारत में चाय की आखिरी दुकान

कड़कड़ाती सर्दी हो और एक गर्म चाय की प्याली हो तो कहने ही क्या... लेकिन चाय की चुस्कियां रोमांच भरी हों, तो गर्म चाय का मज़ा भी दोगुना हो जाता है... अक्सर आपने भी रज़ाई में दुबककर मूंगफली खाते हुए चाय की चुस्कियां ज़रूर ली होंगी... गुलाबी सर्दी में चाय की ये चुस्कियां सर्दियों की रातों को रूमानी बना देती हैं... ख़ासकर तब जब आप पुरानी यादों में खोये हुए हों.. और कानो में पुराने गाने गूंज रहे हों तो कहने ही क्या... सूरज की पहली किरन के साथ चाय की प्याली से उठती हुई भांप हो और साथ में गर्मागर्म बटर टोस्ट हो, तो उसका लुत्फ़ ही अलग है... लेकिन जिस चाय का जिक्र यहां होने वाला है, वो चाय औरों से ज़रा हटकर है...

वादियों के बीच इस चाय का ज़ायका आपके मुंह को ऐसा लगेगा, कि बस पूछिए मत... दिल से बस यही निकलेगा... वाह चाय..! घर के बाहर आपने होटल या किसी खोमचे पर चाय की चुस्कियां ज़रूर ली होंगी.. लेकिन आप मेरे साथ चलिए समंदर से 3018 मीटर की ऊंचाई पर... हिमालय से सटे बद्रीनाथ... भारत के आखिरी गांव माणा में... जहां चार से पांच डिग्री के टेम्परेचर में चाय पीने का अपना अलग ही मज़ा है... बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर आगे एक चाय की दुकान... जहां से बिना इजाज़त आगे जाना गैरकानूनी है... जहां पहुंचने के लिए आपको कठिन चढ़ाई का सामना करना पड़ेगा.. बर्फ़ की हसीन वादियों से घिरे इस इलाके में कई मंदिर भी हैं...

भारत-चीन सीमा पर बर्फीली सड़क के बीचों-बीच बसे इस गांव में है चाय की एक ख़ास दुकान... जहां अगर आपने एक बार चाय पी ली, तो वो ताउम्र याद रखेगी... न सिर्फ ज़ायके के लिए बल्कि अपनी एक और ख़ासियत के लिए... भारत के आखिरी छोर पर मौजूद इस दुकान का नाम ही पड़ गया, "भारत में चाय की आखिरी दुकान" कड़ाके की ठंड और सफ़र की थकान इस दुकान की एक गर्मागर्म चाय की प्याली से पलभर में छूमंतर हो जाएगी...

दरअसल माणा गांव में ही रहने वाले दिलबर सिंह और उसके भाई की माली हालत जब ख़स्ता होने लगी, तो उन्होंने 1981 में इस इलाके में एक चाय की दुकान खोलने का फैसला किया... और दुकान खोलने के लिए उन्होंने चुनाव किया माणा गांव के सबसे ऊपर व्यास गुफा के पास... जिसके आगे है चीन जाने के लिए बर्फीली सड़क... शुरुआत में कामकाज हल्का ही रहा, लेकिन फिर इस दुकान ने ऐसी रफ्तार पकड़ी, कि जिसने भी माणा पहुंचकर इस चाय की चुस्कियां लीं, उसने इसकी तारीफ़ों के कसीदे पड़ना शुरु कर दिये...और फिर दिलबर सिंह का धंधा चोखा हो गया...

खास बात ये है कि यहां दार्जिलिंग और असम की कड़क चाय मिलती है, तो साथ ही खास हर्बल, तुलसी और घी वाली चाय भी मौजूद है... एडवेंचर के शौकीन लोग जब इस इलाके से गुज़रते हैं, तो भारत में चाय की इस आखिरी दुकान पर आना नहीं भूलते...लेकिन इस दुकान के साथ एक और खास बात जुड़ी है, वो ये कि जब बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं, तभी इस दुकान की रौनक होती है, और जब बद्रीनाथ के कपाट बंद होते हैं, तभी इस दुकान के दरवाज़े भी छह महीने के लिए बंद हो जाते हैं... मतलब साफ़ है कि अगर आप इतनी रोमांचक चाय पीना चाहते हैं, तो आपको बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान के दौरान ही यहां का रुख करना होगा... ज़िंदगी में जब कभी मौका मिले... और अगर अगली बार आप बद्रीनाथ के दर्शनों का प्रोग्राम बना रहे हैं, तो एक बार इस दुकान के दर्शन भी ज़रूर कीजिए... वरना आपको ताउम्र इसका मलाल रहेगा, कि आपने "भारत में चाय की आखिरी दुकान" पर चाय की चुस्कियां नहीं लीं...

अबयज़ ख़ान
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लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-2

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य

अनादिकाल से ही आदर एवं सत्य, न्याय एवं न्याय करने वाले व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहा है जिसके कारण न्याय प्रक्रिया की पर्याप्त जाँच नहीं की जा सकी है। मानव समाज के विकास में प्राचीन काल से वर्तमान प्रजातांत्रिक युग तक यह धारणा बनी रही है कि न्यायिक शक्ति की उत्पत्ति दैवीय है। जैसे-जैसे आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था नवीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सत्य को ध्यान में रखते हुए अपनायी गई, न्याय पालिका राज्य के एक पृथक अंग के रूप में उभरकर सामने आई। यूरोप में शक्ति पृथक्कीकरण के सिद्धांत को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक वर्गों ने राजा की निरंकुशता को चुनौती दी। गृह युद्ध के फलस्वरूप राजा को फाँसी दी गई ताकि इंग्लैण्ड में संसद की स्वच्छता को स्थापित किया जा सके। मध्यम वर्ग ने संसद के अन्दर तथा बाहर अपनी उपस्थिति एक प्रभावी वर्ग के रूप में दर्ज की।
1789 की फ्रांसीसी क्रांति के पश्चात फ्रांस में भी सत्ता का हस्तान्तरण राजतंत्र से व्यापारिक वर्ग को किया गया। फ्रांसीसी क्रांति का नेतृत्व मध्यम वर्ग ने किया। इसमें मजदूरों एवं किसानों ने अहम भूमिका अदा की। क्रांतिकारी हिंसा एवं अन्य बहुत सी ज्यादतियाँ जो इस क्रांति के फलस्वरूप लोगों पर हुईं, वे उन सारी हिंसा, अन्याय, कष्ट एवं पीड़ा से कहीं कम थीं जो निरंकुश राजतंत्र एवं कुलीन वर्ग के द्वारा इसके पूर्व की गईं। यही कुछ लोग सम्पूर्ण कृषि एवं व्यावसायिक सुविधाओं का भोग करते रहते थे। यही कुलीन वर्ग के लोग आम लोगों पर अत्याचार करते, उनको जेल में डालते एवं उनकी हत्या कर देते। जवाहर लाल नेहरू ने फ्रांसीसी क्रांति पर टिप्पणी करते हुए जेल में लिखा था:-
‘‘फ्रांसीसी आतंक एक बहुत भयानक चीज थी। यह फ्रांस की क्रांति से पहले की गरीबी एवं बेरोजगारी की बुराइयों की तुलना में एक पिस्सू की दंश की भाँति थी। सामाजिक क्रांति का मूल्य चाहे कितना बड़ा ही क्यों न हो, वह उन बुराइयों एवं युद्ध की कीमत से कम है जिनका सामना हमें वर्तमान सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में समय-समय पर करना पड़ता है। फ्रांस की क्रांति का भय अभी बना हुआ था क्योंकि कुलीन वर्ग के बहुत से लोग इस क्रांति में भुक्तभोगी थे एवं हमारी परम्परा इस विशिष्ट वर्ग के प्रति सम्मान की रही है। इस वर्ग से हमदर्दी करना गलत नहीं है। एवं हमारी शुभकामनायें उनके साथ है, परन्तु जो लोग अधिक महत्वपूर्ण हैं, वे आम लोग हैं। हम कुछ लोगों के लिए बहुसंख्यक वर्ग (आम लोगों) की बलि नहीं दे सकते है।’’
इन्ही राजनैतिक विकासों के फलस्वरूप, अमेरिकी स्वतंत्रता के 1776 के युद्ध के पश्चात, शक्ति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए, शक्ति पृथक्वीकरण के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया एवं एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था अमेरिकी संविधान में की गई। यह व्यवस्था फ्रांसीसी राजनैतिक दार्शनिक, मान्टेस्क्यू एवं यूरोप में हुए घटनाक्रम के फलस्वरूप हुई।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं राजनैतिक सत्य में कहाँ तक समानता है, इस बात का फैसला करने के लिए अमेरिका (यू0एस0ए0) एवं भारत के सर्वोच्च न्यायालयों की कार्यप्रणाली का गूढ़ अध्ययन करना होगा। यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय का इतिहास वास्तव में अमेरिका का इतिहास है। इसके कथनों एवं निर्णयों में अमेरिकी समाज का गूढ संघर्ष एवं तनाव दृष्टिगोचर होता है। यही बात भारतीय सर्वोच्च न्यायालय पर भी लागू होती है, हालाँकि उस सीमा तक नहीं, क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच, न्यायिक सहायता के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए संभव नही है। अमेरिकी एवं भारतीय दोनों सर्वोच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की असीम शक्तियाँ प्राप्त है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय सैद्धांतिक रूप से अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली है।
परन्तु वास्तविकता कहीं इससे परे है। इन देशों की न्यायिक संस्थाएँ, आर्थिक एवं राजनैतिक नीतियों से काफी सीमा तक प्रभावित होती हंै। पिछली दो सदियों में न्यायपालिका यद्यपि एक पृथक संस्था के रूप में उभरकर आई है, तथापि यह आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक अन्याय के प्रति, राजनैतिक संघर्ष का बदल नही हो सकती है। यह संघर्ष ही किसी समाज में शक्तियों के सन्तुलन को परिवर्तित करता है। न्यायपालिका अपने नेक इरादों के बावजूद भी, सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक क्रांति को जन्म नहीं दे सकती है क्योंकि इसका कार्य वर्तमान कानूनों की व्याख्या करना एवं उसको लागू करना है। वर्तमान कानून केवल वर्तमान स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हंै। यदि विधायिका एवं कार्यपालिका स्थिरता की ओर झुकी हुई हंै या अवनति या प्रतिक्रिया के मार्ग पर हंै, तो न्यायपालिका की परेशानियाँ और भी बढ़ जाती हंै। इन सीमाओं के बावजूद भी, यह न्यायपालिका का संवैधानिक उत्तरदायित्व है कि वह मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे तथा जीवन के अधिकार एवं राजनैतिक स्वतंत्रता के कानून के समक्ष, समानता के अधिकार की रक्षा करे, सामाजिक आर्थिक अन्यायों एवं भेदभावों के उन मामलों को समाप्त करे जो न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत किए जाएँ।
अमेरिकी समाज में एक पृथक एवं भिन्न न्याय व्यवस्था की स्थापना मात्र से न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हुई। डेªड स्काट बनाम जाॅन एफ0 ए0सैनफोर्ड मुकदमा, 60 यू एस0 393 जिसका फैसला 1857 में हुआ, इसका जीता जागता सबूत है। मुख्य न्यायाधीश ने फैसला दिया कि ‘‘एक गुलाम की हैसियत, सम्पत्ति से अधिक नहीं है। वह व्यापार एवं क्रय की एक वस्तु है। अमेरिकी स्वतंत्रता की उद्घोषणा की तरफ इंगित करते हुए मुख्य न्यायाधीश रोजर बी0 टैने ने इस मामले में टिप्पणी भी की थी कि ‘‘ इस विवाद से पूरी तरह स्पष्ट है कि गुलाम अफ्रीकन प्रजाति को वे लोग अपने में शामिल करना नहीं चाहते थे जो कानून बना रहे थे या उसको लागू कर रहे थे।’’ यह निर्णय उस समय के कपास एवं अन्य बाग़वानी करने वाले मालिकों के हितों की रक्षा करने से प्रेरित था। यही वर्ग उस समय अमेरिका के प्रभावकारी आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करता था। उस समय के दुराग्रह अब भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि अमेरिकी प्रशासन संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा पारित डरबन नस्लवाद (प्रथम) एवं डरबन नस्लवाद (द्वितीय) के विरुद्ध एवं इजराइल के नस्लीय भेदभाव (जहाँ कि चुनी हुई प्रजाति की नीति सरकारी नीति है) के विरुद्ध प्रस्तावों के सम्बन्ध में प्रभावकारिता से सहयोग करने या उनको लागू करने में पूरी तरह अक्षम साबित हुआ है।
यद्यपि अमेरिका में गुलामी प्रथा का अन्त कर दिया गया है फिर भी वर्ग एवं जाति पर आधारित नस्लवाद अमेरिकी न्यायिक व्यवस्था में अब भी मौजूद है। अफ्रीकी नस्ल के काले अमेरिकी, मजदूर एवं खेतिहर मजदूर का एक बड़ा हिस्सा हैं। कुछ दशक पूर्व उन्हें वोट देने का अधिकार न था। इसलिए उनका राजनैतिक प्रभाव नहीं है। आज लगभग तेईस लाख उन्नीस हजार दो सौ अट्ठावन नागरिक व्यक्तिगत (प्राइवेट) अमेरिकी जेलों में बंद हैं।
यह विश्व की सबसे बड़ी जेल संस्था है। अमेरिका के जेल, जो एक प्रकार का उद्योग हैं, प्राइवेट हाथों में हंै। यह एक बढ़ता हुआ उद्योग है। अमेरिका में उच्च शिक्षा की अपेक्षा जेलों पर अधिक पैसा व्यय किया जाता है। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि अफ्रीकी नस्ल के काले अमेरिकी, अमेरिकी जेलों में सर्वाधिक हैं। लगभग 9 लाख काले अमेरिकी जेलों में सड़ रहे हैं। 20 से 35 आयु वर्ग के पुरूषों में 9 में से एक अफ्रीकी अमेरिकन जेल में है एवं 35 से 39 आयु वर्ग की महिलाओं में 100 में से एक अफ्रीकी- अमेरिकन महिला नागरिक जेलों में बन्द है। उनमें से अधिकतर लोग ऐसे हैं जो कि ड्रग सम्बंधी एवं अन्य छोटे-मोटे अभियोगों में जेलों में बन्द हैं। एक काले अमेरिकी व्यक्ति ओबामा का राष्ट्रपति के रूप में चुनाव अतीत से एक भिन्न वस्तु अवश्य है, परन्तु इसने अमेरिकी समाज की, जो कि एक बड़े आर्थिक संकट से त्रस्त है एवं कर्जे में डूबा हुआ है, सामाजिक तथा राजनैतिक सच्चाई को नही बदला है एवं अमेरिकी समाज का मूल ढाँचा वैसे ही मौजूद है। यद्यपि पचास के दशक के अफ्रीकी-अमेरिकनों पर हत्या के नजरिये से आक्रमण अब अतीत का हिस्सा बन गया है फिर भी अमेरिकी पुलिस समय-समय पर अपने कुकृत्यों से श्वेत वर्ग की ओर अपने नस्लीय झुकाव को पूरी तरह से जाहिर करती रहती है। अबू जमाल जो कि एक सम्मानित अफ्रीकी नस्लीय, अमेरिकन पत्रकार एवं प्रसिद्ध राजनैतिक कार्यकर्ता है पिछले 25 वर्षों से अमेरिकी जेल में सड़ रहा है। वह अब मृत्यु की कगार पर है। उसकी पुनः मुकदमा करने की अपील को अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया है। यह मामला सम्पूर्ण अमेरिकी न्याय व्यवस्था एवं अमेरिकी जजों की निष्पक्षता पर एक सवालिया निशान खड़ा करता है।

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

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25.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-1

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य


पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र एवं पश्चिम तुल्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले विधिवेत्ता, न्यायाधीश एवं अधिवक्ता न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बखान करने से नहीं थकते। परन्तु शायद ही ऐसा कोई हो जो इस संस्था की वाह्य मान्यता एवं आडम्बर के उस पार भी देखने का प्रयास करता हो। शायद ही कोई ऐसा हो जो इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि संवैधानिक व्यवस्था की कार्य प्रणाली की वास्तविकता एवं सिद्धान्त में कितना मेल है? जजों की व्यक्तिगत क्षमता, ईमानदारी एवं उनके द्वारा उच्चतम् कोटि की न्यायिक दक्षता को यदि अलग रख दिया जाये, तो राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि निर्मित कानूनों की प्रकृति, नौकरशाही एवं पुलिस की कार्यप्रणाली, खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली एवं प्रकृति, योग्य वकीलों तक पहुँच, राज्य द्वारा प्रदत्त कानूनी सहायता, मुकदमों का निष्पक्ष एवं त्वरित फैसला ये सभी ऐसे कारक है जो कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को प्रभावित करते हैं। निस्संदेह रूप से जजों की चयन प्रक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की प्राप्ति में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
यदि न्याय बिना भय एवं पक्षपात के प्राप्त करना है तो उसके लिए आवश्यक है कि उन परिस्थितियों पर नियंत्रण रखा जाये, जो समाज को चरम सीमा तक आर्थिक एवं सामाजिक धु्रवों में विभाजित करती हैं। समाज को ऐसे आर्थिक एवं सामाजिक शोषण से मुक्त रखें जो मानव को धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल एवं लिंग के आधार पर विकसित करता हो तथा जो राजनैतिक प्रभाव एवं सामाजिक आलोचना से मुक्त हो।
राजनैतिक यथार्थ को सामने रखकर ही हम इस परिचर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं। विशेष रूप से हमारे लिए यह प्रश्न करना महत्वपूर्ण है कि क्या न्यायपालिका वर्तमान समय में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकती है! जबकि हमारी राजनैतिक एवं संवैधानिक व्यवस्था का सिर्फ ढाँचा ही शेष रह गया तथा कि कारपोरेट घरानों के द्वारा मुख्य क्षेत्रों को पंगु बना दिया गया है। धन का संचय कुछ ही हाथों में सिमट कर रह गया है, जबकि महत्वपूर्ण आर्थिक एवं वित्तीय नीतियाँ धनी वर्ग के पक्ष में हैं। समाज का अपराधीकरण हो चुका है, जबकि नेटवर्किंग कारपोरेटों के द्वारा मीडिया के माध्यम से कई देशों में युद्ध़़ किया जा रहा है एवं राजनैतिक माध्यमों के द्वारा लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से गुलाम बनाया जा रहा है, ताकि वे समाज पर आर्थिक एवं अन्य तरीकों से नियंत्रण बनाये रखने में सफल हो सकें।
इस युग की वास्तविकताओं में अमेरिका, ब्रिटेन नियंत्रित अधिग्रहीत देशों में बागराम, अबू गरीब एवं ग्वान्टानामों बे की जेले हैं, गुप्त रूप से आर्थिक सहायता देकर विभाजित करने के लिए (दूसरे देशों में) बम विस्फोट करवाया जाता है, जिसमें हजारों बेगुनाह लोग मारे जाते हैं एवं हजारो लोग हमेशा के लिए अपाहिज हो जाते हैं। गुप्तचर एजेन्सियाँ इस बात से पूरी तरह भिज्ञ होती हैं। एक अन्य वास्तविकता-अमेरिका का पैट्रियट एवं होमलैण्ड कानून हैं जो वहाँ के नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करता है।
कुछ देशों में मुकदमे जेल की दीवारों के अन्दर चलाए जाते हैं ताकि लोगों की निगाहों से सत्य को छुपाया जा सके। एक राष्ट्र की कानून व्यवस्था के अन्तर्गत सैनिक न्यायालयों का गठन किया जाता है। अनेक गणतन्त्रात्मक क्रांतियों की ऐतिहासिक स्मृतियों के बावजूद, यूरोप में अवैध रूप से लोगों को गिरफ्तार किया जाता है एवं गुप्त जेलों में रखा जाता है। अफ्रीका एवं एशिया के देशों में विशेष रूप से भारत तथा पाकिस्तान के लोगों को गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया जाता है। सरकार अधिग्रहीत सेनाओं से मिलकर अपने देश के लोगों पर बमबारी करवाती है जिसके कारण हजारों बेगुनाह लोग लापता हो गए हैं। वकीलों पर भारत में फासीवादी शक्तियों के द्वारा किराये के गुण्डों के द्वारा आक्रमण कराया जाता है। पुलिस मूक दर्शक बनी देखती रहती है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फासीवादी शक्तियों पर चलाए गए मुकदमों को रोका जा सके तथा धमाकों एवं सामूहिक हत्याओं के पीछे छिपे सत्य को प्रकट होने से रोका जा सके। मुख्य जाँचकर्ता अधिकारियों की हत्या करवा दी जाती है। फिलीपाइन्स में जन आन्दोलनों के प्रतिनिधियों, जिनमें वकील भी शामिल हैं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस्राइल के द्वारा, जहाँ कि कानून व्यवस्था नस्ल एवं अन्याय पर आधारित है, पैलिस्टाइन भूमि पर अवैध रुपसे कब्जा कर लिया गया है एवं घरों को तबाह व बरबाद कर दिया गया है। हद तो यह कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रजातांत्रिक कहा जा रहा है। इराक में हजारों बेगुनाह जेलों में सड़ रहे हैं। लाखों लोग शरणार्थी बन चुके हैं। उन लोगों के जीवन का कोई महत्व नहीं रह गया है। इराक पर अमेरिका का अनधिकृत कब्जा है एवं सार्वजनिक पदों पर सम्प्रदाय के आधार पर नियुक्तियाँ की जा रहीं है। अफ्रीका महाद्वीप में कांगो में संसाधनों पर कब्जा करने के लिए युद्व चल रहा है। छापा मार सेनाएँ विदेशी कम्पनियों एवं सरकार के साथ साठ गाँठ करके गृह-युद्धभड़का रही हैं । साथ ही साथ व्यक्तिगत सेनाएँ भी सक्रिय हैं । चीन में हजारों फैक्टरियाँ बन्द हो चुकी हैं एवं फैक्ट्रिरियों के मालिक हजारों मजदूरों का बकाया धन लेकर फरार हो चुके हैं। जापान मे बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जिससे वहाँ आत्महत्या की दर में जो पहले ही बहुत ज्यादा थी अब और बढोत्तरी हो रही है। ये कुछ ऐसे सत्य हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में हमारे न्यायिक संस्थान कार्य कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का पुनरावलोकन करना आवश्यक है ताकि हम सत्य की तह तक पहुँच सकें।

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

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24.11.09

लो क सं घ र्ष !: बाबरी मस्जिद और लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट


बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद सरकार ने लिब्रहान आयोग की स्थापना की थी। जिसकी रिपोर्ट संसद में पेश नही हुई कि उससे पूर्व मीडिया ने उसको प्रसारित कर दिया जिसको लेकर संसद में जबरदस्त हो हल्ला हंगामा हुआ। सरकार जब महंगाई के मोर्चे पर जबरदस्त तरीके से असफल है तो लोगो का ध्यान हटाने के लिए लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट की लीकेज़ का ड्रामा शुरू कर दिया है । जिससे जनता का ध्यान मूल समस्याओं का ध्यान हटा रहे। लिब्रहान आयोग की आयोग भी स्पष्ट तरीके यह कहती है की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनके अनुशांगिक संगठनों ने योजनाबद्ध तरीके से बाबरी मस्जिद को तोडा था । केन्द्र सरकार में यदि जरा सा भी नैतिक साहस है तो ऐसे संगठनों के ऊपर प्रतिबन्ध लगा दे जो देश की एकता और अखंडता को क्षति पहुंचाते है ।
कांग्रेस की धर्म निरपेक्ष सोच बदल चुकी है जिसके चलते फांसीवादी संगठन बढ़ते हैं और देश के अन्दर दंगे फसाद शुरू होते हैं । महाराष्ट्र के अन्दर भी शिव सेना की गतिविधियाँ जारी रखने में समय-समय पर कांग्रेस सरकार का भी संरक्षण रहता है अन्यथा राज ठाकरे बाल ठाकरे जैसे लोग पनप ही नही सकते हैं । लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव की भूमिका को स्पष्ट नही किया है। श्री नरसिम्हा राव साहब ने अगर चाहा होता तो बाबरी मस्जिद को आराजक व फांसीवादी तत्व गिरा नही सकते थे । आज भी इन तत्वों का प्रचार अभियान जारी है समय रहते हुए यदि उचित कार्यवाही नही की गई तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा होंगे व एक नया आयोग बनेगा और उसकी भी रिपोर्ट लीक होगी ।

सुमन
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23.11.09

लो क सं घ र्ष !: पुलिस ठगी गयी अपने जाल साजों से

उत्तर प्रदेश पुलिस आये दिन आतंकवाद से लेकर भ्रष्टाचार से लड़ने तक का दावा करती रहती हैविभाग में कार्यरत जालसाजों ने 1986 में एक शासनादेश में परिवर्तन कर उसको पूरे विभाग के ऊपर लागू करा दियापुलिस विभाग में नियम यह है कोई पुलिस कर्मचारी पुलिस अफसर अपने गृह जनपद या गृह के नजदीक तैनात नही रह सकता है , किंतु जालसाजों ने 11 जुलाई 1986 में एक फर्जी शासनादेश जारी कर उस नियम में परिवर्तन कर लिया और उनके अपने गृह जनपद में भी तैनाती होने लगी । अपराधियों से साँठ-गाँठ करना तथा अपराधों में भी लिप्त होना लगा रहेगा । उत्तर प्रदेश गृह विभाग के भोले-भाले अधिकारी पुलिस के उच्च अधिकारी फर्जी शासनादेश को लागू करते रहे है । अब जाकर इस खुलासा हुआ है कि उक्त शासनादेश फर्जी हैइससे पहले पुलिस विभाग की भर्तियाँ फर्जीवाड़ा का एक उत्कृष्ट नमूना हैऐसे भोले भाले अधिकारियों से कानून व्यवस्था बचाए और बनाये रखने की उम्मीद रखना बेईमानी है
आज जरूरत इस बात की है कि पूरे पुलिस विभाग की ईमानदारी से समीक्षा की जाए और अपराधी और भ्रष्टाचारी तत्वों से उसको साफ़ किया जाएवर्तमान में पुलिस के क्रियाकलापों को देखकर माननीय न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला की टिपण्णी याद जाती है कि पुलिस अपराधियों का एक संगठित गिरोह है, इसके अतिरिक्त कुछ नही हैआये दिन पुलिस अपने जालसाजों से ठगी जायेगी और जनता तबाह होती रहेगी और सबसे बड़े आश्चर्य कि बात यह है कि जिस तरीके से अपराधियों का अपराधिक इतिहास होता है उसी तरीके से थाने से लेकर पुलिस प्रमुख तक का भी अपराधिक इतिहास होता है , सिर्फ़ उसको प्रकाशित करने कि जरूरत है ।

सुमन
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