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17.11.09

लो क सं घ र्ष !: समय की सबसे बड़ी गाली-2

समय की सबसे बड़ी गाली का पहला भाग पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

ट्रेन में सफर करते हुए अगर कुछ सैनिक मिल जाएँ तो सम्मान से अपनी रिजर्व सीट छोड़ दें, अन्यथा आपको जबरदस्ती उठा दिया जाएगा, गुस्सा आने पर चलती ट्रेन से धक्का भी दिया जा सकता है। आज-कल सेना के जवानों द्वारा सिवीलियन्स की पिटाई, हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएँ अक्सर सुनने में मिलती हैं। पता नहीं उन्होंने यह सब करना अपना अधिकार समझ लिया है या यह कुण्ठा है जो कहती है ‘‘इन्हीं लोगों की सुरक्षा के नाम पर हमें अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ता है।‘‘
सच है-वे बहुत काम करते हैं, वे इतने व्यस्त हैं कि सी.आर.पी.एफ. भी अब रिजर्व नहीं रहा। इसके 87 फीसदी जवान किसी न किसी मुहिम से जुड़े हैं। जम्मू-कश्मीर में 39 प्रतिशत पूर्वोत्तर राज्य में 29 प्रतिशत और 19 फीसदी जवान देश के अन्दरूनी इलाकों में नक्सलियों से लड़ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में कठिन और लम्बे संघर्ष तथा पाकिस्तान की नकारात्मक भूमिका के बावजूद क्या भारत कश्मीर की समस्याओं में अपना हाथ होने से खुद को पूरी तरह निर्दोष करार दे सकता है। पूर्वोत्तर राज्यों की हम बात भी कैसे कर सकते हैं जहाँ की जनता इन जवानों की तैनाती से इतनी व्यथित हो चुकी है कि इसके विरोध में आए दिन प्रदर्शन होते रहते हैं। अन्दरूनी इलाकों में नक्सलियों से लड़ने के नाम पर, आदिवासियों और किसानों को गोलियों से भूना जा रहा है। इससे बढ़ कर ‘सलवा जूडूम‘ जैसी गालियाँ विकसित की जा रही हैं। दिल्ली में ‘सिटीजन फाॅर पीस एण्ड जस्टिस इन छत्तीसगढ़’ की बैठक में एक आदिवासी का यह बयान अगर आपका दिल नहीं दहला सकता तो कुछ भी ऐसा नहीं जो आपको विचलित कर सके-‘‘एक दिन अप्रैल महीने में मैं महुआ बीनने गया हुआ था कि अचानक सलवा जुडूम के लोग वहाँ आ पहुँचे। मैं पेड़ के पीछे छुप गया पर उन्होंने महुआ बीनती चार महिलाओं को पकड़ लिया। उन्होंने मेरे सामने सन्नू ओयामी की 16 साल की बेटी कुमारी और बन्डे की 27 साल की पत्नी कमली का बलात्कार किया। 2 बुर्जुग महिलाओं को उन्होंने छोड़ दिया और जवान लड़कियों को नक्सलियों के रूप में ढ़ालकर अपने साथ ले गए। ये दोनों लड़कियाँ आज भी जगदलपुर की जेल में नक्सली होने के आरोप में बन्द हैं। वकील को अब तक हम लोग 12 हजार रुपये दंे चुके हैं पर वह कहता है कि 20 हजार देंगे तभी वह लड़कियों को छुड़वा सकेगा।’’ 13 मार्च 2007 को नागा बटालियन और सलवा जुडुम के लोगों ने गगनपल्ली पंचायत के नेन्दरा गाँव में कुछ नक्सलियों को मार गिराया था। उनके नाम उनकी उम्र के साथ इस प्रकार है - सोयम राजू (2साल), माडवी गंगा (5 साल), मिडियम नगैया (5साल), पोडियम अडमा (7 साल), वेट्टी राजू (9साल) वंजम रामा (11 साल), सोयम राजू (12 साल), सोडी अडमा (12 साल), मडकम आइत (13 साल) मडकम बुदरैया (14 साल), सोयम रामा (16 साल) सोयम नरवां (20 साल)।
आखिर इन निहत्थे किसानों और आदिवासियों से हमें क्या खतरा है, क्या यही नहीं कि देश की ज्यादातर खनिज सम्पदा इन्हीं इलाकों में है और अब पूँजीपतियों के विस्तार के लिए इन इलाकों पर कब्जा जरूरी है। गृह मन्त्री परेशान हैं क्योंकि पहले वे वित्त मन्त्री भी थे विकास! विकास! विकास! किसानों, आदिवासियों और सेना के अत्याचार झेल रहे दूसरे राज्यों के लोगों तुम मूर्ख हो। हम विकास की बात कर रहे हैं जो तुम समझ ही नहीं सकते और जरूरत भी क्या है कि तुम समझो, हम कौन सा तुम्हें उस विकास में हिस्सेदारी देने वाले हैं। लेकिन इसके बावजूद इतना तो तुमको समझना ही चाहिए कि देश एक है और कानून जरूरी, तुम्हें इसमें यकीन करना चाहिए। पिछले 65 सालों में हमने एक वर्ग की तिजोरियों को इतना भर दिया कि दुनिया के सौ अमीरों में उनके नाम हैं, और तुम मूर्ख! कपटी! देशद्रोही! देश की तरक्की में तुम्हारा यकीन ही नहीं। हाँ सच है इन 65 सालों में हम तुम्हारा भरोसा अब तक नहीं जीत पाये और इसकी तुम्हें सजा मिलेगी।
सेना को कौन बताता है कि ये लोग दुश्मन हैं। यही क्यों, लगे हाथ पाकिस्तान और दूसरे देशों पर भी विचार कर लिया जाए। या फिर पाकिस्तान की सेना को कैसे पता चलता है कि उन्हें भारतीय सैनिकों पर हमला बोलना है। जाहिर सी बात है यह तय करती हैं मुखौटा बदलती और नए साँचे में ढ़लती वे सरकारें, जो शोषण पर टिकी व्यवस्था को कायम रखती हैं। आत्महत्या करने या गोली खाने पर मजबूर किसान को देश शब्द से क्या फर्क पड़ता है, फिर वह चाहे आदिवासी क्षेत्र का हो, विदर्भ का या फिर पाकिस्तान के किसी पिछड़े इलाके का।
असल में हमारे जवान रोबोट भर हैं जिनकी उँगलियाँ ट्रिगर पर हैं और उनके पीछे उनके संचालक (इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अंग्रेज नहीं।) दुश्मनों को चिन्हित करने में व्यस्त हैं। मन दहल जाता है कि अन्दरूनी समस्याओं से निपटने के नाम पर शस्त्रों से लैस हमारी सेना के कसरती जवान, दिन रात अभ्यास करते हैं - निहत्थे किसान, मजदूर और आदिवासियों को कुचलने के लिए। ऐसा नहीं वे चैन से बैठे हैं इस हेतु वे दिन-रात मेहनत करते हैं। बिना छुट्टी लिए अपने परिवार से दूर अकल्पनीय अमानवीय हालात (हालाँकि देश की बड़ी आबादी भी उसी हालत में रहती है। ) का सामना करते हुए, वे हत्याएँ एवं बलात्कार कर रहे हैं और घर जला रहे हैं, क्योंकि उन्हें आदेश मिला है ये शोषित लोग दुश्मन हैं। इस तरह वे वाकई नए दुश्मन पैदा करते हुए लड़ रहे हैं, मर रहे हैं।
पिछले 37 सालों में हमने बेशक कोई यु़द्ध न लड़ा हो पर हमारी सीमाओं के अन्दर यह रोज जारी है। इन परिस्थितियों में लड़ते हुए हमारे जवान वहाँ की जनता से देश भक्तों सा गौरव भी नहीं प्राप्त कर पाते जो वेतन के अतिरिक्त एक आवश्यक ऊर्जा स्रोत है। अतः सेना के जवान तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या की राह पर चल पड़े हैं। दो साल पहले सेना के जनरल जे.जे. सिंह ने खुद स्वीकार किया था कि पिछले चार-पाँंच सालों से हर साल कम से कम 100 जवान आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं। इसका अर्थ यह है हर हफ्ते कम से कम दो जवान आत्महत्या करते हैं। इसमें सबसे बड़ी संख्या सी.आर.पी.एफ. की है जिसे अन्दरूनी हिस्सों में लगाया जाता है। 2004-06 में 283 जवान मिलिटेन्ट हमलों में मारे गए। जबकि इसी दौरान खुद अपनी या अपने साथियों की जान लेने वाले सैनिकों की संख्या 408 थी जिसमें से 333 जवान आत्महत्या के शिकार हुए थे।
लेकिन इस सब से क्या फर्क पड़ता है, व्यवस्था में सब कलपुर्जे हैं, फिर वे किसान हों या जवान। इन सबका संचालन वास्तव में वे लोग करते हैं जिन्हें अपनी पूँजी बढ़ानी है। टेक्नोलाॅजी और दूसरे हितों के लिए बाहरी कम्पनियों से हाथ मिलाना है। बेचना है-खरीदना है। किसानों, आदिवासियों से उनकी जमीन छीननी है। इसके लिए उनके पास मुखौटा बदलती सरकार है, जो हमें समझा सके-‘राष्ट्रीय हित‘ में यह सब होना कितना जरूरी है। विरोध को कुचलने के लिए सेना है ओर उसमें भरती होने के लिए बेरोजगारों की फौज, जो भरती हो कर यदि दुश्मन (जिसे चिन्हित किया गया है। ) का सामना करते हुए मरे तो शहीद, किन्तु भर्ती के दौरान यदि भगदड़ मचने से मरे या सेप्टिक टैंक टूटने से उसमें डूब कर मरें तो कुत्ते की मौत मरेंगे यकीन मानिए आक़ाओं को देश शब्द से कोई फर्क नहीं पड़ता।
अन्तिम सत्य यह है कि सम्मानजनक जीवन की माँग शान्तिपूर्ण ढ़ंग से करना आत्महत्या है और हताशा में हथियार उठा लेना देशद्रोह। सबसे सच्चा वह ‘मैं’ है जो ‘धारक’ को एक के नोट पर एक रू. अदा करने का वचन देता है यह बात और है उसकी कीमत कभी भी एक रू. नहीं थी।

-पवन मेराज
मो0 09179371433

लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर अंक में प्रकाशित

16.11.09

लो क सं घ र्ष !: समय की सबसे बड़ी गाली-1

मैं एक भारतीय हूँ और हर भारतीय की तरह मुझे कुछ मूल्य घुट्टी में मिले हैं। मसलन परम्परा, देश और देश की सेना पर गर्व करना। हालाँकि ये समझना मुश्किल है कि हमारी परम्परा क्या है और देश का मतलब टाटा, अम्बानी और मित्तल है या फिर जनता; जिसमें किसान भी हैं और दूर दराज के आदिवासी भी; इसमें क्या वाकई बेरोजगार भी शामिल होते हैं? पर छोड़िए ना मैं देश पर गर्व करता हूँ और मानता हूँ कि सीमाओं की रक्षा करने वाले हमारे जवान कठिन परिस्थितियों में मौत का सामना करते हैं। अब जबकि उन पर गर्व करना कर्तव्य ही नहीं धर्म भी है तो हर भारतीय की तरह मैं भी उन पर गर्व करना चाहता हूँ। पर क्यों मनोरमा की लाश आँखांे के सामने आ जाती है। क्यों वस्त्रहीन दौड़ती हुई महिलाओं की दर्द भरे गुस्से की चीख दिल को चीर देती है ‘‘आओ! गाड़ दो अपना तिरंगा हमारी छाती पर।‘’
मनोरमा, याद है ना आपको, जुलाई 2004 में उनकी लाश झाड़ियों में पड़ी मिली। सात दिनों पहले सेना के जवानों ने उन्हें आतंकियों का सहयोगी होने के संदेह में, बिना किसी लिखा-पढ़ी या वारन्ट के घर से अगवा कर लिया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार उनके शरीर पर भयंकर शारीरिक यातनाओं और सामूहिक बलात्कार के चिन्ह थे वैसे जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में मनोरमाओं की संख्या गिनता ही कौन है। यहाँ सेना द्वारा किसी को अगवा करने के लिए शक का बहाना भी नहीं चाहिए। इसी साल सोपिया (जम्मू कश्मीर) में दो लड़कियाँ (आसिया जान और उनकी रिश्तेदार निलोफर जान) सेना कैम्प के पास से गायब हो गईं, एक लड़की की उम्र महज 17 साल थी। लोग जब सड़कों पर उतर आए और जाँच का घेरा तंग होने लगा तो उनकी लाशें अचानक एक नाले में प्रकट हो गईं, हैरानी की बात थी इस जगह की छानबीन पहले भी की जा चुकी थी। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार दोनों के साथ अमानवीय तरीके से बलात्कार किया गया था। जाँच की हर दिशा सेना कैम्प की ओर इशारा करती रही। सूत्र बताते हैं कि जिस दिन दोनों गायब हुई थीं सेना कैम्प में किसी पार्टी का आयोजन था। कहने की जरूरत नहीं दोनों वाक़िअ़ात मंे किसी को सजा नहीं हुई। यह तथ्य दिल दहला देता है कि ये घटनाएँ अपवाद नहीं। छेड़छाड़ और बलात्कार सेना की आदत में शामिल होता जा रहा है। अधिकतर मामले प्रकाश में ही नहीं आ पाते क्योंकि अधिकांश पीड़ित जिस वर्ग के होते हैं, उनके लिए सेना जैसे संगठित गिरोह के सामने खड़े होने का साहस जुटा पाना ही असम्भव है। उपर्युक्त वाक़िअ़ात भी तब प्रकाश में आ सके जब स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ जबरदस्त विरोध प्रकट किया। मणिपुर में ऐसे अनेक वाक़िअ़ात को झेलती आ रहीं महिलाओं का धैर्य मनोरमा प्रकरण में चुक गया। उन्होंने मणिपुर सेना मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र हो कर प्रदर्शन किया और नारे लगाए ‘‘हम सब मनोरमा की माएँ हैं हमारा बलात्कार करो।’’ शायद यह पहला वाक़िआ था जब प्रचलित मीडिया ने मणिपुर की हालत का जायजा लेने की कोशिश की। खैर दोषियों को तो सजा नहीं मिली लेकिन प्रदर्शनकारी महिलाओं को अश्लील व्यवहार करने के जुर्म में तीन माह की सजा हुई। क्या हमने वाकई कभी उस दर्द तक पहुँचने की कोशिश की है जो उन्हें कहने पर मजबूर करता है ‘‘वी आर इन्डियन बाई कर्स‘‘।
3 जून 2008 को श्रीनगर में शेख नाम का एक दिहाड़ी मजदूर अचानक हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो गया। इसके कुछ दिनों बाद ही सेना के एक जवान की बेटी के अपहरणकर्ता का पीछा करते-करते बड़गम पुलिस ने चीची नामक एक व्यक्ति को वहाँ की एस.डी. कालोनी से गिरफ्तार किया। चीची के पास जो दस्तावेज प्राप्त हुए, वे उसे बन्दीपुर में सेना का सूत्र बताते थे। थोड़ी ही छान-बीन के बाद बड़गम पुलिस सक़्ते में आ गई क्यांेकि सूत्र बता रहे थे कि चीची को कुछ दिनों पहले मार गिराए गए एक आतंकवादी के साथ भी देखा गया था। चीची ने टूटने के बाद जो कहानी बताई वह एक दुःस्वप्न है। मार गिराया गया आतंकवादी ‘शेख’, वास्तव में श्रीनगर का दिहाड़ी मजदूर था जिसे चीची 200 रू प्रतिदिन की दिहाड़ी पर बन्दीपुर लाया था। बाद की कहानी साफ थी एक एनकाउण्टर और लाश के पास बन्दूक वगैरह-वगैरह। यह सब इसलिए क्योंकि एक मेजर ने चीची को आतंकवादी मुहैया करवाने के बदले एक लाख रूपये देने का वादा किया था। इस पर रक्षा प्रवक्ता एन.सी.विज का बयान था ‘‘वी विल इन्वेस्टिगेट व्हाट लेड टू दीज ऐलीगेशन अगेन्स्ट आर्मी यूनिट’’। स्थान- मेण्डेवाल, साल-2006, एक ऐसा ही एनकाउण्टर हुआ बाद में झूठा पाया गया। पाँच सैनिक गिरफ्तार किए गए जिसमें कमाण्ंिडग आफिसर भी शामिल था। मारे गए शौकत अहमद, जदिवाल जिले की मस्जिद के मौलवी थे। यह मामला भी तब प्रकाश में आया जब एक अन्य झूठे एनकाउण्टर की जाँच चल रही थी जिसमें अब्दुल रहमान नामक एक बेगुनाह व्यक्ति को विदेशी आतंकवादी बता कर मार गिराया गया था।
सितम्बर 11, कुपवाड़ा जिले में तो खुद सेना में भर्ती होने गए चार लोगों को मेडल की लालच में आतंकवादी बता कर मार ड़ाला गया। 22 सितम्बर 2003 को कोराझार जिले के चार बोडो युवकांे की सेना द्वारा हत्या। ये फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि शायद कभी खत्म ही न हो। अभी पिछले महीने-अक्टूबर की 28 तारीख को जम्मू-कश्मीर की निवासी मुगनली अपने बेटे की राह तकते-तकते मर गईं। वह जम्मू कश्मीर के उन 10000 लोगों के परिजनों में से एक थी जो 1990 के बाद से गायब होते रहे। यही वह समय है जब जम्मू कश्मीर में सेना ने अपनी कवायदें तेज कीं थीं।
आखिर सेना के जवान ऐसा कैसे कर पाते हैं। साफ है इन जगहों पर उन्हें विशेषाधिकार दिए गए हैं। मणिपुर की बात करें तो वहाँ सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम 1958 लागू है, इसके अनुसार सैनिक मात्र शक होने पर न कि सिर्फ किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं बल्कि गोली भी मार सकते हैं। मारे जाने वाले निर्दोष लोगों की संख्या भयावह है लेकिन उससे भी भयावह -हमारे देश में कुछ जगहें ऐसी भी हैं जहाँ के लोगों की जिन्दगी किसी सैनिक के संदेह की मोहताज है। यही नहीं पीड़ित व्यक्ति न्याय के लिए अदालत का दरवाजा भी तब तक नहीं खटखटा सकता जब तक सेना इसकी इजाजत न दे दे।
सन् 2000 में पैरामिलिट्री असम राइफल ने मालोम बस स्टैण्ड पर 10 निर्दाेष नागरिकों को मार गिराया। इरोम शर्मिला (जो बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता ऐसे मामलों को पिछले कई सालों से देखती आ रहीं थीं ) 2 नवम्बर 2000 को आमरण अनशन पर बैठीं। माँग स्पष्ट थी। सैन्यबलों की तैनाती को मणिपुर से हटाया जाए और सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम 1958 निरस्त किया जाए। उनका यह संघर्ष आज एक मिसाल बन चुका है और वे मानवाधिकारों की सुरक्षा चाहने वालों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। अपने इतिहास की किताबों में हम बेशक ‘रोलट एक्ट’ का विरोध करने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों पर गर्व करते आ रहे हों पर आमरण अनशन के 9 साल पूरे कर चुकीं इरोम शर्मिला आज भी हिरासत में हैं। उन पर आत्महत्या के प्रयास का दोष लगाया गया है। ऐसे मामले में किसी व्यक्ति को 2 साल से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता इसलिए हर 2 साल बाद उन्हें रिहा कर फिर से हिरासत में ले लिया जाता है, जहाँ उन्हें नाक के सहारे भोजन दे कर ज़िन्दा रखा जाता है।
लेकिन भूल जाइए सब। बस याद रखिए देश और देश की सेना पर गर्व करना, सुकून देता है खास तौर पर तब, जब पल्ले कुछ भी न हो और हमारी सरकार हमसे वह भी छीन लेना चाहती हो। कितना अच्छा होता है खाली जेबों और विपन्न लोगों द्वारा, पड़ोसी देशों के आक्रमण का खतरा बुन लेना और उसका सामना करती हमारी फौजों पर गर्व करना। जबकी हमारी फौजों का संचालन करने वाली सरकारें और भरी जेबें, जनता के अधिकारों पर अपना शिकंजा रोज-ब-रोज तंग करती जा रही हों। आइए वास्तविक खतरों को भुला दें और दूसरे डर पाल लें। मसलन - पाकिस्तान, चीन ही नहीं श्रीलंका से लेकर नेपाल यहाँ तक कि बंगला जैसे देश हम पर आक्रमण करके हमें अपना गुलाम बना लेंगे। इस तरह हमें अपने अधिकारों को खोने की प्रक्रिया में कम कष्ट का सामना करना पड़ेगा।

-पवन मेराज
मो0 09179371433

लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर अंक में प्रकाशित

14.11.09

लो क सं घ र्ष !: जेलों में सड़ने को अभिषप्त हैं मुस्लिम युवा-2

आतंकी घटनाओं के संबंध में विभिन्न जगहों से गिरफ्तार आरोपियों पर दर्ज मुकदमे

नाम

अहमदाबाद

ै सूरत

दिल्ली

मुबंई

जयपुर

अन्य

योग

सदिक षेख

20

15

5

1


हैदराबाद कोलकाता

54

आरिफ बदर

20

15

5

1



41

मंसूर असगर

20

15

5

1



41

मो सैफ

20

15

5


5


45

मुफ्ती अबुल बषर

21

15




बेलगाम, हैदराबाद

40

ैं सैफुर रहमान

20

15



6


40

कयामुद्दीन कपाड़िया

21

15

5



इंदौर

40

जावेद अहमद सागीर अहमद

21

15





36

गयासुद्दीन

21

15





36

र्


र् जाकिर षेख

20

15


1



36

ैुंसाकिब निसार

20

15

5




40

र्


र् जीषान

20

15

5




40

पुलिस ने उनकी चार्जषीट को भी तोड़मरोड़ कर पेष किया। अहमदाबाद व सूरत के 35 मामलों में पुलिस ने 60 हजार पेजों की आरोप पत्र पेष किया। मुबंई अपराध ब्यूरो ने 18 हजार पेजों का आरोप पत्र पेष किया। इसी प्रकार जयपुर विस्फोट के मामले में 12 हजार पेजों का आरोप पत्र पेष किया गया। सभी आरोप पत्र हिंदी, मराठी व गुजराती में हैं यदि यह मामले सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं तो आरोप पत्रों को अंग्रेजी में अनुवाद करने में और ज्यादा परिश्रम व समय की जरूरत होगी।

विभिन्न मामलों में दर्ज मुकदमे व आरोप पत्र

षहर

केसों की संख्या

आरोपी

गिरफ्तार

आरोप पत्र के पेज

अहमदाबाद व सूरत

36

102

52

60ए000

मुंबई

1

26

21

18009

जयपुर

8

11

4

12ए000

दिल्ली

7

28

16

10ए000

अभियोजन पक्ष इन सभी मामलों में चष्मदीदों की भीड़ भी जुटा चुका है। हर केस में 50-250 चष्मदीद गवाह हैं। अहमदाबाद व सूरत केस में तो कई दोशी विस्फोट के पहले से ही जेलों में हैं। उदाहरण के लिए सफदर नागौरी, षिब्ली, हाफिज, आमील परवेज सहित 13 अन्य को 27 मार्च 2008 को ही मध्य प्रदेष से गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उन्हें अहमदाबाद व सूरत मामले का मुख्य आरोपी बताया गया। इसी तरह राजुद्दीन नासिर, अल्ला बक्ष और मिर्जा अहमद जून 2008 से कर्नाटक पुलिस की हिरासत में थे, लेकिन उन्हें भी अहमदाबाद व सूरत मामलों का दोशी बताया गया।

एडवोकेट षाहिद आजमी कहते हैं कि साजिष रचने का आरोप एक हथियार की तरह है जिसे पुलिस कभी भी किसी भी मामले में प्रयोग कर सकती है। आफकार-ए-मिल्ली से बातचीत में वह कहते हैं कि अफजल मुतालिब उस्मानी जिसे 24 सितम्बर को मुंबई से गिरफ्तार दिखाया गया, उसे वास्तव में 27 अगस्त को लोकमान्य टर्मिनल से पकड़ा गया था। वह अपने घर वह अपने घर से गोदान एक्सप्रेस पकड़ मुंबई पहुंचा था। हमने संबंधित अधिकारियों को तुरंत टेलीग्राम से इसकी सूचना दी लेकिन उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। 28 अगस्त को उसे मेट्ोपोलिटीन मजिस्टे्ट के सामने पेष किया गया। लेकिन मुंबई अपराध ब्यूरो के अनुरोध पर मजिस्टे्ट ने उसकी गिरफ्तारी और रिमांड को रजिस्ट्र में दर्ज नहीं किया। इसी तरह सादिक षेख को 17 अगस्त को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उसे 24 अगस्त को विस्फोटक, हथियारों व पांच अन्य के साथ गिरफ्तार दिखाया गया। विषेशों के अनुसार पकड़े गए आरोपियों के किसी भी मुकदमें का निस्तारण दो साल से कम समय में नहीं होगा। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग जगहों से पकड़े गए आरोपियों के केस और लंबे खिचेंगे।

सवाल उठता है कि एक बूढ़ा पिता अपने बेटे को छुड़ाने के लिए कब तक लड़ेगा। गिरफ्तारी के एक साल बाद भी न तो आरोपियों पर आरोप तय हो सके हैं न ही मुकदमे षुरू हो सके हैं। उन्हें खुद को निर्दोश्ज्ञ साबित करने में और कितना समय लगेगा? न्याय की धीमी गति को देखकर लगता है कि वह केस का अंत देख सकेंगे? यह सादिक षेख, अबुल बषर, मंसूर असगर, आरिफ बद्र या सैफुर रहमान के ही सवाल नहीं बल्कि उन 200 युवकों के सवाल भी हैं जो पिछले एक साल से जेलों में सड़ रहे हैं।

अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप


लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

कितना जिम्मेदार विपक्ष है हमारे पास !


हमेशा से सत्ता आरूढ़ पार्टी अथवा जन प्रतिनिधि को ही देश मैं चल रही विभिन्न गतिविधियों हेतु जिम्मेदार माना जाता है एवं उसे ही जनता के आक्रोश और आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है । क्या सत्ता से बाहर बैठे विपक्षी जन प्रतिनिधि और पार्टियाँ की भी जिम्मेदारी तय करने भी जहमत उठायी जाती है । क्या हमारे देश की सरकार के गुणदोष बत्ताने और विफलताओं की और ध्यान दिलाने और जनहित के मुद्दों शसक्त और जिम्मेदार तरीके से उठाने वाला विपक्ष मोजूद है ।इस बात की अनदेखी की जाती है की जितनी जिम्मेदारी और विश्वाश के साथ जनता राजनीतिक पार्टी और जन प्रतिनिधियों को बहुमत से चुनकर सरकार चलाने हेतु भेजती है उतनी जिम्मेदारी और सक्रिय भूमिका की अपेक्षा विपक्ष मैं बैठने वाली पार्टी अथवा जनप्रतिनिधियों से भी की जाती है ।
आमतौर पर विपक्ष हमेशा सत्तापक्ष की किसी भी गतिविधियाँ अथवा नीतियों की आलोचनाओ अवं विरोध कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझता है । फ़िर वह चाहे वह सही हो या ग़लत । संसद मैं हंगामा खड़ा कर संसद की कार्यवाहियों की को बाधित करते हैं और संसद के संचालन मैं होने वाले करोडो रूपये की व्यय को जाया होने देते हैं । देश के राजनीतिक गलियारे मैं मची हलचले और गतिविधियों से तो ऐसा ही जाहिर होता है की सत्ता हासिल किए बिना अथवा मलाईदार और रुतबेदार पदों के अभाव मैं जन सेवा और देश सेवा हो ही नही सकती है । और ऐसी लालसा मैं जनप्रतिनिधि और पार्टियाँ जोड़तोड़ की राजनीति कर जनादेश की उपेक्षा करती नजर आती है ।
वैसे भी सत्ता से दूर और विपक्ष मैं बैठी पार्टी अथवा जनप्रतिनिधि जनसेवा और देश सेवा के नाम पर कार्य करते तो शिफर ही नजर आते है सिवाये खोखले भाषण और आलोचनाओं के । अपने किसी बड़े नेता आगमन पर स्वागत सत्कार हेतु बेनरो , पोस्टरों और प्रचार प्रसारों की सामग्रियों मैं करोड़ों रूपये करते जरूर नजर आयेंगे बजाय यही पैसा जनहित मैं खर्च करने के । कितनी राजनीतिक पार्टी प्राकृतिक आपदाओं अथवा किसी दुर्घट नाओं मैं हताहतों लोगों की आर्थिक सहायता करते नजर आती हैं ।
जन्हा सरकार और सत्तापक्ष के जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक पार्टियों की प्राथ मिक्ताओं मैं भूख , भ्रष्टाचार और बेरोजगारी , बढती मंहगाई , जमाखोरी , कालाबाजारी अवं जनसुरक्षा और सुशासन जैसे मुद्दे ओझल नजर आते हैं वन्ही भी चुप्पी साधकर इन मुद्दों से जी चुराकर किनारा करते नजर आते हैं । और यह परिद्रश्य यह संसय पैदा करता है की कंही न कंही पक्ष अवं विपक्ष मैं मौन सहमती और स्वीकृति तो नही है ।
क्या हम एक जनहित और देशहित के प्रति रचनात्मक और सकारात्मक जिम्मेदार विपक्ष की उम्मीद कर सकते हैं । क्या इनके कार्यों के आकलन और निगरानी हेतु कोई युक्ति और व्यवस्था बनायी जा सकती है । क्योंकि इनके चुनाव और सुख सुबिधाओं पर भी तो जनता की खून पसीने की कमाई का पैसा खर्चा किया जाता है ।

बस एक एहसास की ज़रूरत है.

आदरणीया माता स्वरूपणी निर्मला जी से मुलाक़ात और उनके लेख पर ...
क्या नाम दूँ उस पाकीजा रिश्ते को, जो हमारे बीच कायम हुआ है? मै और मेरी पत्नी जब आपसे मिले, उस दौरान का एक-एक क्षण हमारी स्मृतियों में हमेशा बसा रहेगा।
मुझे उस पल का एहसास नही भूल सकता, जब आप दरवाज़े पर खड़ी होकर हमारे आने इंतज़ार कर रहीं थी बचपन में जब मै स्कूल से पढ़कर आता था तो मेरी बड़ी बहन ऐसे ही मेरी राह देखा करती थी।

आपकी हर बात में मातृत्व का मुलायम स्पर्श था। मै सोच रहा हूँ कि आखिर वह रब यें रिश्ते कैसे बना देता है....किसी से हर रोज़ की मुलाक़ात भी औपचारिक रहती है और किसी से पल भर का मिलना सदा के लिए दिल में जगह घेर लेता है।

आपसे विदा लेते हुए जो आर्शीवाद आपने दिया, उस समय मानो ये लगा कि सभी सांसारिक तथा अध्यात्मिक माताएं हमें दुआएं दे रही हैं।

नेटप्रेस पर छपा आपका लेख "एक कतरा बचपन चाहिये" पढ़कर आपका यह बेटा आपको एक सलाह देने की गुस्ताखी कर रहा है कि बराहे मेहरबानी उन बेशकीमती नेमतों से वंचित न रहिये, जो खुदा ने आपको बख्शी हैं। माताश्री ! मैंने उस दिन "आपकी" जी हाँ, इस शब्द पर फिर से गौर कीजिये कि "आपकी" तीन पुश्ते देखी. आपकी नाती के रूप में आपका बचपन आपके पास है.

आपको तो "एक कतरा बचपन चाहिये" था. जबकि आपके पास जीने के लिए पूरा बचपन है.....बस एक एहसास की ज़रूरत है.

एक कतरा बचपन चाहिये

एक कतरा बचपन चाहिये
मेरा बचपन बहुत सुखमय रहा किसी राज कुमारी कि तरह घर मे किसी चीज़ की कमी नहीं थी ।सब की लाडली थी। मगर बचपन कितनी जल्दी बीत जाता है ।जवानी मे तो इन्सन के पास फुर्सत ही नहीं होती कि अपने बारे मे कुछ सोच सके। ये सफर तो हर इन्सान के लिये कठिनाईयों से भरा रहता और जब होश आता है तो बारबार बचपन याद आता है बचपन से जुडी यादें फिर से अपनी ओर खींचने लगती हैं--- लगता है बहुत थक गयी हूँ । क्यों ना कुछ बचपना कर लिया जाये---- क्यों ना कुछ पल फिर से जी लिया जाये ----- जब इस तरह सोचती हूं तो----- उदास हो जाती हूँ------- बात बात पर परेशान होना ---- जीवन से निराश होना ----- उससे तो अच्छा है बच्ची ही बन जाऊँ------- मगर ----- सब ने मिल कर मुझे इतनी बडी बना दिया है कि अब कभी बच्ची नहीं बन पाऊँगी----- नहीं जी पाऊँगी उन गलियों मे जहाँ कोई चिन्ता दुख नहीं था ---- नहीं मिल पाऊँगी उन सखियों सहेलियों से जो मेरी जान हुया करती थी------ नहीं बना पाऊँगी रेत के घर] नहीं खेल पाऊँगी लुकन मीटी----- नहीं तोड पाऊँगे जामुन अमरूद बेर और शह्तूत ----कैसे हो गयी बडी ----- मैने तो कभी नहीं चाहा था---- मुझे तो बच्ची सी बने रहना अच्छा लगता था---- जहाँ ना कोई रोक ना टोक------ ना बन्धन------ बस एक निश्छल प्यार---- प्रेम---- खेल--- हंसी----- मुक्त आकाश की उडान ।----- मै कभी बडी होना नहीं चाहती थी ------
अब समझ आता है कि अपने आप नहीं हुई मुझे बडा बनाया गया है। पहले मेरे पिता जी ने फिर पति ने फिर मेरे बच्चों ने ------उन लोगों ने मै जिन के दिल के बहुत करीब थी------ खुद बडा कहलाने के लिये मुझे मोहरा बनाया गया शायद----- जिसके नाम के साथ मेरा नाम जुडा था । पल पल मुझे ये एहसास करवाया गया कि अब मैं बच्ची नहीं हूँ।-- मगर शायद अंदर से वो मेरे दिल को बदल नहीं पाये अब तक भी बच्ची बनी रहने की एक छोटी सी अभिलाशा कहीं जिन्दा है।
जीवन मे हर आदमी के सामने चुनौतियाँ तो आती ही रहती हैं मगर हर कोई उनका सामना अपने ही बलबूते पर करे ये हर किसी के लिये शायद सँभव नहीं होता।कुछ जीवन के किरदार दिल के इतने करीब होते हैं कि चाहे वो दुनिया मे ना भी हों तो भी हर पल दिल मे रहते हैं। मगर उनका नाम लेते इस लिये डरती हूँ कि कहीं नाम लेते ही वो जुबान के रास्ते बाहर ना निकल जायें।
बचपन से एक आदत सी पड गयी थी कि कोई ना कोई मेरे सवाल के जवाब के लिये मौज़ूद रहता। और मै बडी होने तक भी बच्ची ही बनी रही। उसके बाद जीवन शुरू हुया तो अचानक मुसीबतों ने घेर लिया। मगर तब भी मेरी हर मुसीबत मे जो मेरे प्रेरणा स्त्रोत और मुझे चुनौतियों से जूझना सिखाया वो मेरे पिता जी थे।जब तक जिन्दा रहे मैं कभी जीवन से घबराई नहीं। बाकी सब रिश्ते तो आपेक्षाओं से ही जुडे होते हैं।और फिर उन रिश्तों से मिली परेशानियों का समाधान तो कोई और ही कर सकता है।
मैं जब भी परेशान होती या किसी मुसीबत मे होती तो झट से उनके पास चली जाती। और जाते ही उनके कन्धे पर अपना सिर रख देती । उन्हों ने कभी मुझ से ये नहीं पूछा था कि मेरी लाडाली बेटी किस बात से परेशान है। शायद मेरा आँसू जब उनके कन्धे पर गिरता तो वो उसकी जलन से मेरे दुख का अंदाज़ लगा लेते---- हकीम थे ---मर्ज ढूँढना उन्हें अच्छी तरह आता था। बस वो मेरे सिर पर हाथ फेरते अगर उन्हें लगता कि समस्या बडी है तो मेरे सिर को उठा कर ध्यान से मेरा चेहरा देखते और मुस्करा देते तो ~--- तो आज मेरी मेरी बेटी फिर से छोटी सी बच्ची बन गयी है\------- अच्छा तो चलो अब बडी बन जाओ------ ।और फिर कोई ना कोई बोध कथा या जीवन दर्शन से कुछ बातें बताने लगते । और इतना ही कहते कि मैं तुम्हें कमज़ोर नहीं देखना चाहता । तुम्हें पता है कि तुम्हारे दोनो भाईयों की मौत के बाद तुम ही मेरा बेटा हो और तुम्हें देख कर ही मै जी रहा हूँ । क्या मेरा सहारा नहीं बनोगी\-- और मै झट से बडी हो जाती \ मुझे लगता कि क्या इस इन्सान के दुख से भी बडा है मेरा दुख \ जीवन मे दुख सुख तो आते ही रहते हैं फिर वो मुझे याद दिलाते कि अपना सब से बडा दुख याद करो जब वो नहीं रहा तो ये भी नहीं रहेगा ! और उनकी बात गाँठ बान्ध लेती । सच मे जब कोई परेशानी आती है तो हमे वही बडी लगती है जैसे जीवन इसके बाद रुक जायेगा । आज लगता है कि उन्होंने ही मुझे बडा बना दिया। मै तो बचपन मे ही रहना चाहती थी।
उनकी मौत के बाद भी उन्हीं के सूत्र गाँठ बान्ध कर चलती रही हूँ । वो बडी बना गये थे सो बडी बनी रही मगर अब भी कहीं एक इच्छा जरूर थी कि कभी एक बार बच्ची जरूर बनुंम्गी जिमेदारियों से मुक्त हो कर अपना बचपन एक बार वापिस लाऊँगी शरीर से क्या होता है-----बूढा है तो--- रहे दिल मे तो बचपन बचा के रखा है ना------ इस उम्र मे श्रीर से यूँ भी मोह नहीं रहता बस आत्मा से दिल से जीने की तमन्ना रहती है।
पिता के बाद पति --- फिर तो दिल जिस्म दिमाग कुछ भी मेरा नहीं रहा------ सब पर उनका ही हक था ---- क्यों कि वो भी मेरे दिल के करीब थे इस लिये उन्हों ने भी सदा यही एहसास करवाया कि तुम अब बच्ची नहीं हो उनकी मर्यादा अनुसार----- उनकी जरूरत मुताबिक बडी बनो---और तब तो पिता की तरह कोई सिर पर हाथ फेरने वाला भी नहीं होता। उनके बाद बच्चे बच्चों के लिये तो तब तक बडे बने रहना पडता है जब तक वो जवान नहीं हो जाते----- उनके जवान होते ही वो अपने अपने जीवन मे व्यस्त हो गये ----- अब जब भी अकेली होती तो बचपन फिर याद आता मन होता बचपन मे लौट जाऊँ------ बिलकुल अब बच्चों की तरह व्यव्हार करने लग जाती------- फिर कभी परेशान होती तो पिता की जगह बेटे का कन्धा तलाश करने लगती------।कुछ दिन से पता नहीं क्यों मन परेशान सा रहता था । अपने किसी बच्चे से कहा तो उसने जवाब दिया कि----- माँ तुम्हें क्या हो गया है क्यों बच्चों जैसी बातें करने लगी हो\ वो भी सही था अब बच्चे तो माँ को सदा महान या बडी ही देखना चाहते हैं न। वो कैसे समझ सकते हैं कि इस उम्र मे अक्सर बूढे बच्चे बन जाते हैं। शायद बच्चों मे रह कर---- और उस दिन मुझे लगा कि आज सच मुच मेरे पिता जी चले गये हैं।सदा के लिये बडी बना कर् । क्या बच्चे अपने माँ बाप को थोडा सा बचपन भी उधार नहीं दे सकते\ आज मन फिर से बचपन मे लौट जाने को है ---- मगर जा नहीं सकती पहले पिता जी ने नहीं जाने दिया अब बच्चे भी मेरे पिता का किरदार निभा रहे हैं । काश कि जीवन के कुछ क्षण उस बचपन के लिये मिल जायें ------ तो शायद जीवन संध्या शाँति से निकल जाये। बस कुछ दिन बचपन के उधार चाहिये------ मैं बडी नहीं बनी रहना चाहती अब --- शायद इसका जवाब भी पिता जी के पास था मगर अब वो लौट कर नहीं आयेंगे ------- तब उनके पास जाने की जल्दी लग जाती है । क्यों कि अब मुझे फिर से बचपन चाहिये--------

13.11.09

लो क सं घ र्ष !: जेलों में सड़ने को अभिषप्त हैं मुस्लिम युवा-1

जेलों में सड़ने को अभिषप्त हैं मुस्लिम युवा

आतंक के नाम पर व्यवस्था एक समुदाय विषेश्ज्ञ को प्रताड़ित करने के लिए कौन-कौन से तौर-तरीके अपना सकती है, वह हाल की कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। आतंकी घटनाओं के नाम पर पुलिस ने थोक के भाव मुस्लिम युवको की गिरफ्तारी की। पुलिस सत्ता का यह उत्पीड़न यहीं नहीं रूका बल्कि एक सोची-समझी साजिष के तहत उन पर इतने केस लाद दिए गए ताकि वह जीवन भर जेल में सड़ने पर मजबूर हों। अगस्त 2009 में उर्दू मासिक पत्रिका अफकार--मिल्ली में अबु जफर आदिल आजमी का एक महत्वपूर्ण लेख प्रकाषित हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद मुमताज आलम फलाही ने किया। प्रस्तुत है उसका हिंदी रूपान्तरण-

यह सच है कि अन्याय दुहारे मापदंडों के साथ कोई भी समाज बहुत दिन तक नहीं चल सकता। दुर्भाग्य से भारत तेजी से इन्हीं मापदंडों की ओर बढ़ रहा है। आंतकवाद के मामले में मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी न्याय में पुलिस, प्रषासन न्यायापालिका का दुहरा मापदंड साफ नजर आता है।
2008 में देष में कई विध्वंसकारी धमाकों में सैकड़ों लोग मारे गए और घायल हुए। फलस्वरू, सैकड़ों मुस्लिम युवाओं को आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी का आंकड़ा हर साल बढ़ रहा है। 2007 में उत्तर प्रदेष की अदालतों में हुए धमाके के बाद गिरफ्तारी की प्रक्रिया में तेजी आई है। मुस्लिम युवकों के खिलाफ चल रहे मामलों को देखे तो ऐसा लगता है कि पुलिस प्रषासन जानबूझ कर इन केस पर केस थोप रही हैं। इन मामलों के सुनवाई की जो गति है उससे यह तय है कि ये सभी कभी भी बाहर नहीं सकेगें।
आतंकवाद के मामले में पुलिस की जांच प्रक्रिया पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं, लेकिन हाल में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद उन पर जैसे 40-40, 50-50 केस थोपे गए हैं यह एक बड़े शडयंत्र का हिस्सा लगता है। आतंक के मामले में बहुत से मुस्लिम युवकों पर पुलिस आरोप साबित नहीं कर सकी और अदालतों ने उन्हें मुक्त भी कर दिया। लेकिन शडयंत्र के तहत उन्हें हाल के विस्फोटों में फिर से फंसाया गया।
जुलाई 2008 में अहमदाबाद श्रृंखलाबध्द विस्फोट सूरत से दर्जनों जिंदा बमों की बरामदगी के मामले में सूरत पुलिस ने 35 मामलों में 102 लोगों को दोशी माना। इसमें से 52 को गिरफ्तार किया गया और लगभग सभी मामलों में दोशी बताया गया। मई 2008 में जयपुर धमाकों के बाद 8 मामलों में 11 लोगों को दोशी बताया गया। चार की गिरफ्तारी र्हुई। सितम्बर 2008 में दिल्ली श्रृंखलाबध्द विस्फेट के बाद 8 मामले में 28 लोगों को दोशी बताया गया। इसमें 16 लोगों को गिरफ्तार किया गया। मुबंई पुलिस ने इंडियन मुजाहिद्दीन के सदस्य के नाम पर 21 लोगों को गिरफ्तार किया।
मुंबई पुलिस की अपराध षाखा ने सादिक षेख को देष के हालिया सभी विस्फोटों का मुख्य शडयंत्रकारी बताया। पुलिस ने मैकेनिकल इंजीयर 38र् वश्ज्ञीय सादिक षेख इंडियन मुजाहिदीन का संस्थापक सदस्य बताया। उसने अपने पाकिस्तानी मित्र आमीर रजा की मदद से देष में विस्फेटों का शडयंत्र रचा। पुलिस के अनुसार षेख 2005 के बाद देष में हुए सभी धमाकों में संलिप्त था। उसने 2001 में पाकिस्तान जाकर हथियार चलाने का प्रषिक्षण लिया तथा मुबंई आजमगढ़ के कई युवाओं को इस प्रषिक्षण के लिए पाकिस्तान भेजा। उस पर अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता मुबंई धमाकों के मामले में 52 मुकदमें कायम किए गए। उसे 11 अन्य के साथ 11 जुलाई को मुबंई की लोकल ट्नों में हुए धमाकों के मामले में भी दोशी माना गया। उसे मकोका में गिरफ्तार किया गया। उसने टीवी चैनलों के सामने इन सभी मामलों में अपनी संलिप्तता कबूल की। जिसके बाद मुंबई अपराध षाखा ने इस केस को एटीएस के हवाले कर दिया। एटीएस ने मामले को हाथ में लेते ही कोर्ट से टीवी चैनलों पर दिखाए जा रहे उसके कबूलनामे पर तुरंत रोक लगाने की मांग की। अदालत ने एटीएस की अपील कबूल कर ली। अपनी जांच में एटीएस ने सादिक षेख को क्लीनचिट दे दी और मकोका कोर्ट में उसके 11 जुलाई को मुबंई की लोकल टे्न धमकों के मामले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इंकार किया। एटीएस के अनुसार षेख ने इस मामले में षेख ने बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए अतीफ अमीन के दबाव में आकर इस ब्लास्ट में खुद को षामिल होना बताया था। हालांकि एटीएस इस बात का जवाब नहीं दे सकी कि अतीफ ने कब और क्यों उस पर दबाव दिया जबकि इंडियन मुजाहिदी में वह षेख से जूनियर था।
इस धमाकों में मुहम्मद सैफ को भी मुख्य दोशी बताया गया। आजमगढ़ के संजरपुर गांव के सैफ ने दिल्ली से इतिहास में एमए किया था। वह अंग्रेजी कम्प्यूटर साफ्टवेयर का भी कोर्स कर रहा था। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद पुलिस ने सैफ को उसके फ्लैट से गिरफ्तार किया था। 23 वर्शीय सैफ पर दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद और सूरत विस्फोट के मामलें में 45 केस लगाए। उस पर आरोप था कि उसने इन षहरों में बम रखे। उधर, उत्तर प्रदेष पुलिस ने उसे अदालतों में विस्फोट मामले में भी संलिप्त बताया। पुलिस ने उसे संकट मोचन मंदिर बनारस रेलवे स्टेषन पर हुए विस्फोट मामलों में पूछताछ के लिए कई दिनों तक पुलिस अभिरक्षा में रखा लेकिन अभी तक इस मामले में कोई चार्जषीट नहीं दे सकी।
मंसूर असगर को इंडियन मुजाहिद्दीन के नाम से मेल भेजने के आरोप में पुणे से गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी से केवल एक माह पहले मंसूर ने 19 लाख रूपए सलाना पैकेज पर याहू में मुख्य इंजीनियर के पद पर ज्वाइन किया था। उस पर मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली हैदराबाद विस्फोटों के शडयंत्र रचने साइबर अपराध के मामले में 40 से ज्यादा केस दर्ज किए गए।
मुफ्ती अबुल बषर को गुजरात पुलिस यूपी एटीएस ने संयुक्त रूप से उसके गांव बीनापारा से 14 अगस्त, 2008 को गिरफ्तार किया। लेकिन उसकी गिरफ्तारी चारबाग रेलवे स्टेषन से दिखाई गई। उसे इंडियन मुजाहिद्दीन के मुखिया और अहमदाबाद विस्फोटों का मास्टरमाइंड बताया गया। आज उस पर अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद और बलगाम विस्फोट के मामले में 40 से अधिक केस चल रहे हैं।
कयामुद्दीन कपाड़िया को जनवरी 2009 में मध्यप्रदेष से गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसके परिजनों का कहना है कि वह गिरफ्तारी के पांच माह पहले से ही लापता था। उस पर सिमी का वरिश्ठ सदस्य होने, गुजरात और केरल के जंगलों में प्रषिक्षण षिविर लगाने और अहमदाबाद, सूरत, और दिल्ली विस्फोटों में षामिल होने का आरोप लगाया गया। उस पर भी अलग-अलग राज्यों में 40 से अधिक केस चल रहे हैं।
आजमगढ. के असरोली गांव निवासी 38 वर्शीय आरिफ बदरूद्दीन षेख को मुबंई पुलिस ने बम बनाने का विषेशज्ञ बताया। उसे 2005 के बाद देष में हुए सभी धमाकों से जोड़ा गया। आरिफ के पिता मानसिक रूप से कमजोर थे। उसकी गिरफ्तारी के दो माह बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। आरिफ की अंधी मां अपनी बेटी की ससुराल में टूटी-फूटी झोपड़ी में दिन गुजार रही है। आरिफ पर भी मुबंई, दिल्ली, अहमदाबाद सूरत धमाके के मामले में 41 केस चल रहे हैं।
सैफुर रहमान को मध्य प्रदेष एटीएस ने जबलपुर से अप्रैल 2009 में तब गिरफ्तार किया गया जब वह अपनी बहन को आजमगढ़ से उसकी ससुराल मुबंई लेकर जा रहा था। दोनों गोदान एक्सप्रेस में सफर कर रहे थे। एटीएस ने उसकी बहन को भी 12 घंटे हिरासत में अवैध तरीके से बिठाए रखा। सैफुर रहमान को अहमदाबाद और जयपुर विस्फोटों का दोशी बताया गया। उसने भोपाल में अदालत के सामने इन विस्फोटों में षामिल होना स्वीकार भी कर लिया, लेकिन जयपुर में मजिस्ट्ेट के सामने उसने इन विस्फोटों में षामिल होने से इंकार कर दिया। मजिस्टे्ट के सामने उसने कहा कि प्र एटीएस ने उसे प्रताड़ित किया और उसकी बहन से बलात्कार करने की धमकी दी। एटीएस के दबाव में उसने अदालत में विस्फोटो में अपनी संलिप्तता की बात कही थी। जयपुर एटीएस ने अदालत से उसके नार्को टेस्ट की अनुमति भी मांगी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया।
इसके विपरित एक नाटकीय घटनाक्रम में जयपुर विस्फोटों के कथित आरोपी षाहबाज हुसैन ने अदालत में खुद को निर्दोश साबित करने के लिए नार्को अन्य टेस्ट कराने की गुजारिष की। यह देष में अपनी तरह का पहला ऐसा मामला था जब एक कथित दोश्ज्ञी ने खुद ही नार्को टेस्ट की मांग की। अभियोजन पक्ष ने उसकी मांग का विरोध किया, जिसके आधार पर मजिस्ट्ेट ने उसकी मांग अस्वीकार कर दी।
ये हाल के बम विस्फोटों में गिरफ्तार 200 लोगों में से कुछ प्रमुख नाम हैं। इन केसों में अभी गिरफ्तार लोगों से कहीं ज्यादा फरार है। पुलिस और सरकार इन मामलों में जगह-जगह मानवाधिकार का हनन किया। मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद उन पर केस लाए गए। यह देष के इतिहास में अपनी तरह का दुर्लभ उदाहरण है। सादिक षेख पर 54 केस चल रहे हैं। इसमें अभी कई मामलों में उसे पुलिस ने रिमांड पर नहीं लिया है। अगर पुलिस उसे हर केस के लिए 14 दिन की रिमांड पर भी ले तो 2 वर्श उसे पुलिस रिमांड में ही गुजारने होंगे। दोशियों को एक से दूसरे राज्य ले जाने में जो समय लगेगा वो अलग है। अब कल्पना की जा सकती है, कि सुनवाई से पहले आरोप पत्र भरने में कितना समय लगेगा जो कि भारतीय कानून के मुताबिक किसी भी अपराधी की सुनवाई से पहले भरना जरूरी होता है।
कई ऐसी भी खबरें हैं जिसमें इन कथित दोशियों को पुलिस हिरासत के अलावा जेल में भी प्रताड़ित किया गया और उन पर केस लादे गए। गुजरात में साबरमती जेल में बंद आरोपियों पर चल रहे केसों में एक केस जेल में रहते हुए दर्ज किया गया। एक के बाद एक केस लगाए जा रहे हैं मुकदमों के संबंध में जामिया सॉलिडेरिटी गु्रप की नेता मनीशा सेठी कहती हैं कि सरकार केसों को जटिल बनाकर अपना पीछा छुड़ना चाहती है। आतंक के खिलाफ युध्द जैसी आयातित अवधारणा को कांग्रेस बढ़ावा दे रही है और मुस्लिमों के खिलाफ उसे हथियार की तरह प्रयोग कर रही है। संजरपुर संघर्श समिति के अध्यक्ष मसीहुद्दीन कहते हैं कि अब इन लोगों को खुद को बेकसूर साबित करने के लिए यह जीवन भी कम पड़ेगा।
जमाते-उलेमा--हिंद की तरफ से सादिक षेख का मुकदमा लड़ रहे वकील षाहीद आजमी के अनुसार यह षिक्षित मुस्लिम युवकों की जिंदगी जेलों में सड़ाने की साजिष है। यही तरीका नक्सलवादियों के खिलाफ भी अख्तियार किया जा चुका है। नक्सलवादियों में कई आज भी 30 सालों से जेलों में है और उन पर 70-80 से केस हैं। पीयूसीएल के उत्तर प्रदेष के संयुक्त सचिव राजीव यादव कहते हैं कि पुलिस सरकार का यह तरीका अमरिका से आयातित है। वहां यही तरीका काले नीग्रो लोगों के खिलाफ अपनाया गया। वे या तो इतना केस लाद देना चाहते हैं जिसमें छुटना मष्किल हो या 200-250 सालों के जेल में डाल देना चाहते हैं।
गिरफ्तार युवकों के परिजन और संबंधी गूंगे बहरे की तरह केस की संख्या और जटिलता देखने पर मजबूर हैं।

अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप

12.11.09

लो क सं घ र्ष !: पत्नी पीड़ित चिट्ठाकार क्षमा करें

घरेलू हिंसा का मुख्य कारण पुरूषवादी सोच होना है और स्त्री को भोग की विषय वस्तु बनाना हैसामंती युग में राजा-महाराजाओं के हरण या रानीवाश होते थे जिसमें हजारो-हजारो स्त्रियाँ रखी जाती थीपुरूषवादी मानसिकता में स्त्री को पैर की जूती समझा जाता है इसीलिए मौके बे मौके उनकी पिटाई और बात-बात पर प्रताड़ना होती रहती है . समाज में बातचीत में स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की संज्ञा दी जाती है किंतु व्यव्हार में दोयम दर्जे का व्यव्हार किया जाता है कुछ देशों की राष्ट्रीय आय का श्रोत्र देह व्यापार ही हैमानसिकता बदलने की जरूरत है भारतीय कानून में 498 आई पी सी में दंड की व्यवस्था की गई है किंतु सरकार ने पुरुषवादी मानसिकता के तहत एक नया कानून घरेलु हिंसा अधिनियम बनाया है जिसका सीधा-सीधा मतलब है पुरुषों द्वारा की गई घरेलू हिंसा से बचाव करना है इस कानून के प्राविधान पुरुषों को ही संरक्षण देते हैं समाज व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर रहना पड़ता है जिसके कारण घरेलू हिंसा का विरोध भी नही हो पाता है आज के समाज में बहुसंख्यक स्त्रियों की हत्या घरों में कर दी जाती है और अधिकांश मामलों में सक्षम कानून पुरुषवादी मानसिकता के कारण कोई कार्यवाही नही हो पाती हैस्त्रियों को संरक्षण के लिए जितने भी कानून बने हैं वह कहीं कहीं स्त्रियों को ही प्रताडित करते हैं , जब तक 50% आबादी वाली स्त्री जाति को आर्थिक स्तर पर सुदृण नही किया जाता है तबतक लचर कानूनों से उनका भला नही होने वाला है
किसी भी देश का तभी भला हो सकता है जब उस देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ भी आर्थिक रूप से सुदृण होहमारे देश को बहुत सारे प्रान्तों में स्त्रियाँ 18-18 घंटे तक कार्य करती हैं और पुरूष कच्ची या पक्की दारू पिए हुए पड़े रहते हैं उसके बाद भी वो कामचोर पुरूष पुरुषवादी मानसिकता के तहत उन मेहनतकश स्त्रियों की पिटाई करता रहता हैघरेलु हिंसा से तभी निपटा जा सकता है जब सामाजिक रूप से स्त्रियाँ मजबूत हों

यह पोस्ट उल्टा तीर पर चल रही बहस घरेलू हिंसा के लिए लिखी गई है और इसका शीर्षक यह इसलिए रखा गया है की मुझे इन्टरनेट पर पत्नी पीड़ित ब्लागरों की यूनियन बनाने की बात की पोस्ट दिखाई दी थी इसलिए पत्नी पीड़ित चिट्ठाकारों से क्षमा मांग ली गई है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com