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27.6.09

जैन मुनिश्री १०८ तरुणसागर जी महाराज

मध्य प्रदेश के दमोह जिले के प्रतापचंदजी और शांतिदेवी जैन के यहाँ 26 जून 1967 को बालक पवन का जन्म हुआ। पवन छठी कक्षा में प़ढ़ते वक्त स्कूल से घर जाते हुए जलेबी खाने होटल में रुके मुँह में रसपूर्ण जलेबी अभी आई ही थी कि कानों में आकाशवाणी पड़ी। पास ही के मंदिर में मुनिश्री पुष्पदंतसागरजी का प्रवचन चल रहा था। पवन जीवन के रस छोड़कर अध्यात्म की राह पर निकल पड़े। गुरु के पीछे-पीछे ब्रह्मचारी/क्षुल्लक/ ऐलक... ये साधुत्व के पड़ाव पार करते 20 जुलाई 1988 में राजस्थान में बने मुनिश्री 108 तरुणसागर। जैनत्व के दो हजार वर्ष के इतिहास में आचार्य कुंद-कुंद के बाद इतनी कठोर साधना करने वाले वे प्रथम योगी हैं। भूमि शयन, दिन में सिर्फ एक बार अंजुली में अन्न-जल ग्रहण तथा संयम से मन को साधना और कठोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के साधुत्व के पड़ाव उन्होंने पार किए हैं। वर्ष 2003 में इंदौर में सरकार द्वारा मुनिश्री को 'राष्ट्रसंत' की उपाधि से विभूषित किया गया। मप्र, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र ने उन्हें राजकीय अतिथि का सम्मान दिया। टीवी के माध्यम से भारत सहित 22 देशों में अहिंसामयी 'महावीर-वाणी' का प्रसारण करने वाले वे प्रथम जैन संत हैं। दिल्ली के लालकिले से उन्होंने 1 जनवरी 2000 को नई सदी की पहली सुबह को गोहत्या और पशु मांस निर्यात के खिलाफ अहिंसात्मक राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ा और ऐतिहासिक 'अहिंसा-महाकुंभ' संपन्न हुआ। मुनिश्री भारतीय सेना को संबोधन करने वाले प्रथम जैन संत हैं। मप्र, गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र की धरा पर मुनिश्री ने गहन पदयात्रा, जनयात्रा की है। मुनिश्री ने तीन दर्जन से अधिक किताबें लिखी हैं। जिनकी 15 लाख से ज्यादा प्रतियाँ लोगों के बीच पहुँच चुकी हैं। उनकी पुस्तक 'कड़वे प्रवचन' का छः भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

26.6.09

माइकल जैक्सन नही रहे.


संगीत की दुनिया के बादशाह पॉप स्टार माइकल जैक्सन का लॉस एंजिल्स में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वे 51 वर्ष के थे। जैक्सन को दिल के दौरे के बाद अस्पताल ले जाया गया। जहाँ इलाज के दौरान उन्होंने दम तोड़ दिया। किंग ऑफ पॉप के नाम से मशहूर जैक्सन के निधन के बाद पूरी दुनिया में उनके चाहने वालों में शोक की लहर दौड़ गई है।
जीते-जी माइकल जैक्सन सदा विभिन्न विवादों से घिरे रहे। यहाँ तक कि इनसे निपटते-निपटते दिवालियेपन की नौबत आ गई। परन्तु उनके चाहने वाले हमेशा उन पर दिलो जान से फ़िदा रहे। शारीरिक रूप से बेशक वें इस दुनिया में नही रहे, परन्तु किंग ऑफ़ पॉप का लोगों के दिलों पर हमेशा राज चलता रहेगा।

22.6.09

अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे

यूं तो लगता है कहने को बहुत कुछ है पर हम कहकर भी कुछ नहीं कहते. हां ये सच है कि पूरी दुनिया में अमरीका जैसा दूसरा देश नहीं पिछले कोई ४० वर्षों में विश्व के हर कोने से आये लोगों का, ये सबसे बड़ा बसेरा है. अमरीका आये लोगों की सबसे बड़ी चाहत होती है उनके बच्चे इस देश के स्कूलों में पढाई करें, तो बहुत से युवा अपने देश में ही बैठे अमरीका के एम.आई.टी. और हारवर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में पढने के सपने संजोते रहते है, लेकिन ये तस्वीर सभी की नहीं है, यहां एक बहुत बड़ा तबका ऐसे परिवारों का भी है, जिनकी बढ़ती संख्या का दबाब अमरीका के स्कूलों पर पड़ा है.

यहां मेक्स्सिको से आये ऐसे लोगों की संख़्या लाख़ों में हैं जिनके पास कानूनी कागज़ात नहीं हैं अमरीका आकर उन्होंने अपने परिवार यहीं बसाये हैं, उनके बच्चों को आम स्कूलों में जगह न मिलने पर उनके लिये, चलते फिरते घरों में कक्षायें लगायी जा रहीं हैं. इनमें से बहुत से छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती. अमरीकी स्कूलों में भेदभाव की कोई जगह नहीं है, पढाई का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिये इन अप्रवासी छात्रों को क्लास के अन्य क्षात्रों के स्तर पर कैसे लाया जाये, अपने आप में ये एक बड़ी समस्या बन गई है.

इस पर भी बहुत से स्कूलों में अध्यापक एक साथ दो क्लास लेते हैं, एक अंग्रेजी माध्यम में और दूसरा अंग्रेजी न जानने वालों को शुरू से अंग्रेजी सिखाने के लिये. बहुत से स्कूलों ने अनेक अध्यापक फिलिपीन,मेक्सिको और भारत से बुलाऐ हैं, ताकि, उन्हें जो कुछ भी पढाया जा रहा है अंग्रेजी के साथ साथ अपनी भाषा में भी सीख कर वो जल्दी से आगे बढ़ सकें, स्कूलों में कुछ ऐसे प्रोग्राम भी हैं जो इन छात्रों को इसप्रकार शिक्षा दे रहें है ताकि वो पाठ्यक्रम के साथ चलें, ऐसे में होता ये है कि जब तक नेशनल परीक्षाओं का समय आता है उनकी अंग्रेजी
इतनी अच्छी हो जाती है कि वे परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में पास करने में सफ़ल रहते हैं.

एक समय पीस कोर से लौटे युवा और वयस्क भी, इन नये अप्रवासी परिवारों की, इस समस्या को दूर करने में वरदान साबित हो रहे हैं. हां इस बात को भी झुटलाया नहीं जा सकता कि अमरीकी स्कूलों के इन लाजवाब प्रयासों के बाद भी शुरुवात से ही अंग्रेजी माध्यम से आये और बाद में इस माध्यम को सीख कर आगे की पढाई करने वाले अप्रवासी छात्रों के प्रति उनकी अपनी मानसिकता के साथ ही समाज के तथाकथित वर्गभेद के प्रति संकुचित विशवास रखने वालों की मानसिकता में भी अंतर साफ नज़र आता है. इस सबके बावजूद अमरीकी अध्यापकों का भी, ये प्रयास जारी है कि ऐसे छात्रों को स्पोर्टस,कला और संगीत में आगे बढ़ाकर, उनकी अपनी मानसिकता वे दूर कर दें।

21.6.09

एक मुलाक़ात-प्रभु चावला के साथ

अपनी लेखनी का लोहा मनवा चुके और 'सीधी बात' से जानी-मानी हस्तियों से अहम बातें निकालने का माद्दा रखने वाले प्रभु चावला से बीबीसी के संजीव श्रीवास्तव ने अपने कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात' के लिए बातचीत की। जिसे आपके लिए हम यहाँ भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

आप लोगों की बांह मरोड़ने में माहिर हैं. ख़बर निकालने की आपकी क्षमता केभी कायल हैं. आपका क्या कहना है?

मेरे काटे हुए तो बहुत लोग हैं. कई तो मर भी गए हैं. मेरा कहना है कि पत्रकार को डरना नहीं चाहिए. मैं जब पत्रकारिता में आया था तो एक ही सिद्धांत था ‘फीयर नन, फेवर नन’. किसी से डरो नहीं और और किसी को डराओ भी नहीं. जो सच है उसे ही लिखो या दिखाओ.

हर हफ़्ते हम आपको ‘सीधी बात’ पर देखते हैं, आज खुद को माइक के सामने देखकर कैसा लग रहा है?

कुछ ख़ास नहीं. मैं तो तैयार होकर आया हूँ कि कोई मुझसे भी टेढ़ी बात पूछेगा. 25 साल प्रिंट में काम किया तो आम लोग मुझे जानते नहीं थे, सिर्फ़ आप जैसे चुनिंदा लोग ही जानते थे. टेलीविज़न पर जब से आया हूँ तो लोगों को ग़लतफहमी हो गई है कि हम भी सेलेब्रेटी हो गए हैं.
मुझे ख़बरों में दिलचस्पी है. जब तक दिन में एक दो नई ख़बरें न हों तो अच्छा नहीं लगता. मैं 63 साल का हो गया हूँ. हालाँकि मैं एडीटर हूँ, लेकिन मैं खुद को आज भी रिपोर्टर मानता हूँ. ख़बर मैं आज भी नहीं छोड़ता हूँ. कोशिश करता हूँ कि दिनभर में पाँच-छह नए लोगों से बात करूँ. अपने साथी पत्रकारों से भी कहता हूँ कि रोज़ रात को ये चिंतन ज़रूर कीजिए कि आज आपने कितने नए लोगों से बात की, अगर नहीं की तो कुछ नहीं किया.

तो ये लिस्ट कैसे तैयार करते हैं कि आज किन नए लोगों से बात करेंगे?

हर चीज़ का सीज़न होता है. आम का, लस्सी का, बाजरे की रोटी का. जैसे पी चिदंबरम की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जूता चल गया तो लोगों ने उसी को ख़बर बना लिया. लेकिन इस जूते के पीछे भी कुछ कहानी होगी, उसे कोई नहीं देख रहा. अब इस्टेंट जनर्लिज़्म हो रहा है. पाँच सेकेंड की बाइट दी और ख़बर हो गई.

खबर चुनने के लिए मेरी प्रक्रिया कुछ ऐसी है. मैं सुबह अख़बार पढ़ता हूँ. पुराने लोगों से फ़ोन पर बात करता हूँ. मसलन आजकल उम्मीदवारों की संपत्ति के ब्यौरे जारी हो रहे हैं. तो टीवी, अख़बारों में आ जाता है कि सोनिया गांधी के पास कार नहीं है. मेरी कोशिश ये जानने की रहती है कि सोनिया के पास आखिर क्या है. तो ख़बरों के पीछे की ख़बर क्या है, उसे ढूँढने की कोशिश मेरी होती है. 2004 में किसी व्यक्ति के पास क्या था और अब क्या है. राजनेताओं की दिलचस्पी किसमें है ये जानना बहुत ज़रूरी है. उन्हें क्या पसंद है और वो क्या चाहते हैं. इससे पता लगाया जा सकता है कि भविष्य में वो क्या करना चाहते हैं.

अब अमर सिंह को ही लीजिए. वो जो भी कहते हैं उसके पीछे ख़बर कुछ और ही होती है. कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना. यानी मेरी कोशिश अधूरी ख़बर को पूरा करने की होती है.

63 साल की उम्र में भी आप 16-18 घंटे काम करते हैं. तो कम समय में काम नहीं चलता क्या?

मेरा फुलटाइम पेशा पत्रकारिता है. मीडिया का स्वरूप दिन पर दिन इतना बदल रहा है कि एक से एक चुनौतियां आ रही हैं. प्रिंट से जब मैं टेलीविज़न पर आया तो ये चुनौती थी. बगैर डमी के मेरा कार्यक्रम ‘सीधी बात’ शुरू हुआ. पहली बार कैमरे का सामना करते हुए मैं कांप रहा था. इंटरनेट पर मुझे ब्लॉग लिखना होता है. प्रिंट में लेख लिखने होते हैं. तो प्रतिस्पर्धा इतनी है कि अपनी जगह को बनाए रखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है.

आठ साल से आपका शो ‘सीधी बात’ चल रहा है. इस शो की प्लानिंग कैसे करते हैं?

टेलीविज़न पर एक चीज़ का ख़्याल बहुत रखा जाता है और वो है टीआरपी। ये ठीक है कि मैं सीनियर हूँ, लेकिन ये भी सही है कि टीवी में मैं शायद सबसे बूढ़ा एंकर हूँगा. जहाँ तक ‘सीधी बात’ की बात है तो इसमें बुलाए जाने वाला मेहमान कौन होगा, ये तय करने के लिए टीम है. तो जो व्यक्ति सुर्खियों में रहता है, उसके साथ ‘सीधी बात’ की जाती है. पहले राजनेताओं को बुलाया जाता था, लेकिन फिर फ़िल्मी हस्तियों और खिलाड़ियों के साथ ‘सीधी बात’ की.

ये भी ध्यान रखा जाता है कि मैं सीनियर लोगों के साथ ‘सीधी बात’ करूँ. हालाँकि मैं कई युवाओं के साथ भी ‘सीधी बात’ कर चुका हूँ. मसलन दीपिका पादुकोण की फ़िल्म ‘ओम शांति ओम’ बहुत सफल रही थी. तब मैंने दीपिका के साथ इंटरव्यू किया, लेकिन उस शो की टीआरपी बहुत कम रही. हालाँकि मैने प्रियंका चोपड़ा, शाहरुख़ ख़ान, अमिताभ बच्चन, आमिर ख़ान, धर्मेंद्र का भी इंटरव्यू किया है और वो शो बहुत सफल रहे.

टेलीविज़न की दुनिया में ये भी तो मुश्किल है कि शो तो हर हफ्ते जाना है. ऐसे में नए मेहमान कहाँ से लाएँ?

आपकी बात सही है. लेकिन हम कुछ मेहमानों को रिपीट भी करते हैं. जैसे लालू प्रसाद यादव के साथ मैंने एक साल में तीन बार सीधी बात की. तो अमर सिंह, राजनाथ सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा, दिवंगत प्रमोद महाजन जैसी कुछ हस्तियां हैं जिनकी टीआरपी हमेशा आती है.

तैयारी क्या करते हैं, आप?

हमारी एक टीम है जो रिसर्च करती है. हालाँकि राजनेताओं के बारे में तो वो ख़ास रिसर्च नहीं करते, क्योंकि उन्हें ये गलतफहमी रहती है कि राजनेताओं के बारे में मैं ज़्यादा जानता हूँ. लालू यादव, अरुण जेटली को मैं तब से जानता हूँ जब वो यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे. तो मेरे सीनियर होने का फायदा ये है कि मैं उन्हें बहुत नज़दीक से जानता हूँ.
‘सीधी बात’ में मैं अपने सामने वाले को मेहमान नहीं मानता, बल्कि उसे मैं टारगेट मानता हूँ. तो वहाँ मैं जनता के प्रतिनिधि की हैसियत से बैठता हूँ. लोग उनसे जो पूछना चाहते हैं, मैं कोशिश करता हूँ कि उनसे वही सवाल पूछूँ.

तो ‘सीधी बात’ में आपको सबसे प्रभावशाली शो कौन सा लगा?

कहना चाहिए कि जो मेहमान हावी हुए या आक्रामक हुए, उनमें उमर अब्दुल्ला रहे. मैंने उमर अब्दुल्ला का दो बार इंटरव्यू किया. पहली बार जब वो नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष बने थे और एक बार अभी जब मुख्यमंत्री बने. पहली ‘सीधी बात’ में मुझे लगा कि उमर अब्दुल्ला मुझ पर हावी हो गए.

प्रमोद महाजन के साथ ‘सीधी बात’ में उनका चेहरा लाल हो गया था. इसी तरह शाहरुख़ ख़ान के साथ ‘सीधी बात’. उनके साथ मैंने पाँच बार ‘सीधी बात’ की है, लेकिन दूसरी बार में शाहरुख़ ख़ान ने कह दिया था कि अगर स्टूडियो के बाहर होते तो मैं आपको गोली मार देता.

ऐसा क्या कह दिया था आपने शाहरुख़ ख़ान से?

मैंने जब उनसे कहा कि आप अपने से आधी उम्र की लड़कियों के साथ डांस करते हैं तब उन्होंने कहा कि आपकी आँखों में चमक बहुत आ गई है. मैंने जवाब में कहा कि मेरी ऐसी प्रवृत्ति नहीं है. फिर मैंने उनसे पूछा कि आपने पिछली बार कहा था कि सिगरेट छोड़ देंगे, लेकिन नहीं छोड़ी. उन्होंने कहा कि मैंने आपको छोड़ दिया, अगर आप बाहर होते तो आपको गोली मार देता. तो मेरी कोशिश लोगों के भीतर की असलियत को निकालने की होती है.

कौन सी ऐसी ‘सीधी बात’ रही जिसमें ये लगा कि आप ज़्यादा कुछ नहीं निकाल पाए?

दीपिका पादुकोण के साथ ‘सीधी बात’ रही. उनकी एक ही फ़िल्म आई थी. उनके बारे में ज़्यादा पता नहीं था. इसी तरह मीरा कुमार के साथ भी शो बहुत अच्छा नहीं रहा.

अच्छा प्रभु, आपके बचपन की बात करते हैं. कैसा रहा बचपन?

मैं जब पाकिस्तान से यहाँ शरणार्थी के रूप में आया तो एक साल का था। मेरे पिता बिज़नेस करते थे. जालंधर के शरणार्थी शिविर में रहे, फिर आगरा में रहे. आगरा में कक्षा तीन तक पढ़ाई की. एक ही कमरे में हम सात भाई-बहन रहते थे. मोहल्ले में सब्ज़ी बेचते थे, मां कपड़े सिलती थी. तीनों भाइयों में मैं सबसे नटखट था.

उसके बाद मेरे पिताजी दिल्ली आ गए. दुकान खोल ली थी. फिर शिवपुरी जंगल में भी हम रहे. 1958 में तब डाकू मानसिंह वहाँ मारा गया था. तो नियमित रूप से मैं स्कूल नहीं गया. मैट्रिक भी मैंने प्राइवेट की. उसके बाद दिल्ली में यमुनापार झिलमिल में हमने एक प्लॉट लिया और वहाँ रहने लगे. फिर 12वीं मैंने गाज़ियाबाद से की. जूते नहीं थे. पहली बार जूते तब पहने जब भाई की शादी हुई. फिर देशबंधु कॉलेज से ग्रेजुएशन की, अच्छे नंबर आए तो दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़े. फिर कॉलेज में लेक्चरर बन गए.

कभी ज़माना था कि फीस देने के लिए पैसे नहीं थे. घर में सिर्फ़ मैं ही था जो पढ़ रहा था, बाकी सभी लोग काम करते थे. पिता को भी उम्मीद थी कि मेरा बेटा कुछ करेगा.

तो पिता ने आपकी कामयाबी का लुत्फ़ उठाया?

दुर्भाग्य से नहीं. मैं जब एमए फ़ाइनल में था तभी उनका निधन हो गया. हाँ, मां ने मेरी कामयाबी देखी. जब उनका निधन हुआ तब मैं इंडिया टुडे में सीनियर एडीटर था. मैंने उन्हें गाड़ी में भी बिठाया. समाज में तब हमारे जैसे झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की स्वीकार्यता नहीं थी, वो भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता में.

संघर्ष के दौर में मेरे अंदर एक ही बात थी कि मुझे कुछ बनना है और मेहनत के अलावा दूसरा तरीका नहीं था.

तो इतने संघर्ष के बाद जो कामयाबी मिली, वो तो और भी शानदार रही होगी. तो आपने इसका लुत्फ़ उठाया?

मैं तो नहीं, लेकिन मेरा परिवार अब इसका लुत्फ़ उठाता है. मैं जो भी बना उसका श्रेय इंडिया टुडे को जाता है. इंडिया टुडे का कल्चर कुछ अलग तरह का था. इंडिया टुडे इलीट संस्था थी. अरुण पुरी ने मुझे प्रशिक्षित किया. सुमन दुबे ने मुझे स्टोरी लिखनी सिखाई.

कहीं न कहीं आपको लगता है कि आपके भीतर कामयाब होने की भूख थी, और इससे फर्क़ पड़ता है?

ये सच है कि अगर आपके अंदर भूख नहीं है तो आप सफल नहीं हो सकते. बच्चों में प्रतिस्पर्धा तो है, लेकिन उनके अंदर भूख नहीं है. पत्रकारिता में भी आपके अंदर ख़बरों की भूख होनी चाहिए.

आप कॉलेज में पढ़ाते थे तो पत्रकारिता में अचानक कैसे?

11 साल मैंने इकोनॉमिक्स पढ़ाई। मैंने सात साल तो पढ़ाया, लेकिन आखिरी के चार साल सिर्फ़ तनख्वाह लेने जाता था. कॉलेज में था तो थोड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी. मणिशंकर अय्यर एसएफआई में थे, प्रकाश कराट थे. मैं भी एबीवीपी का अध्यक्ष बन गया. हमने 75 दिन तक यूनीवर्सिटी बंद कराई. फिर इमरजेंसी लगी तो गिरफ्तारी का सिलसिला शुरू हुआ.

तभी मेरी सगाई हुई थी. इसलिए ससुराल पक्ष की दौड़ भाग से मैं छूट गया. फिर शादी हुई, लेकिन पुलिस ने पकड़ लिया. बाद में ज़मानत हुई. काम कुछ था नहीं, इसलिए लिखना शुरू किया. हिंदुस्तान, स्टेट्समैन में लिखता था. लिखते-लिखते 1977 में इंडिया टुडे के संपर्क में आए.

तो बहन की शादी करनी थी, पैसा था नहीं. इसलिए कॉलेज में पढ़ाता भी था और इंडिया टुडे में भी काम करता था. कुछ समय बाद मैगज़ीन में नाम छपने लगा तो अच्छा लगा, इस तरह पत्रकारिता में आना हुआ.

अब आप फॉर्म हाउस में रहते हैं, बहुत अच्छे कपड़े पहनते हैं. कैसा लगता है?

मर्सिडीज़ मेरी गाड़ी तो है नहीं, कंपनी ने गाड़ी दे रखी है. मैं बहुत फैशनेबल किस्म का व्यक्ति तो नहीं हूँ. हाँ टाई पहनने का शौक ज़रूर है. हर शो के लिए लगभग अलग टाई पहनता हूँ. मैंने अब तक कोई 500 शो किए होंगे और मेरे पास 400 के लगभग टाई होंगी.

आपको सबसे ज़्यादा मज़ा किसका इंटरव्यू करने में आया?

राजनेताओं की बात करें तो अमर सिंह और लालू प्रसाद यादव. अमर सिंह तो कई बार बहुत गर्मी खा जाते हैं. फ़िल्मी हस्तियों में आमिर ख़ान. आमिर ख़ान ने चार साल बाद मुझे इंटरव्यू दिया.

और सबसे करिश्माई व्यक्ति जिसका आपने इंटरव्यू लिया हो?

मैंने टेलीविज़न पर अटल बिहारी वाजपेयी का इंटरव्यू करने की कई बार कोशिश की, लेकिन उन्होंने हाथ जोड़ लिए. हालाँकि पांच साल में मैंने प्रिंट के लिए उनके चार इंटरव्यू लिए. उनके पास बैठने से लगता था कि आप किसी करिश्माई व्यक्ति के पास बैठे हैं. इसी तरह डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का व्यक्तित्व भी है.

फ़िल्मी हस्तियों में अमिताभ बच्चन के पास ऐसा रुतबा है. उनके साथ बातचीत करने से लगता है कि आप किसी ऐसे व्यक्ति से बात कर रहे हैं जो अपने विषय के बारे में सब कुछ जानता है.

आपको पत्रकारिता के लिए सबसे अच्छी प्रशंसा किससे मिली?

नरसिम्हा राव सरकार में माधव सिंह सोलंकी विदेश मंत्री थे. विदेश से लौटने के बाद मैंने सोलंकी के ख़िलाफ़ स्टोरी लिखी और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. सोलंकी ने मुझे अपने घर बुलाया और खाना खिलाया. ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने मेरी पत्रकारिता की सराहना की. कांग्रेस, भाजपा में कई ऐसे नेता हैं जिनके ख़िलाफ़ स्टोरी लिखने पर उन्होंने लंबे समय तक मुझसे बात नहीं की.

और ऑन-एयर सबसे शर्मसार कर देने वाला पल?

एक इंटरव्यू में शत्रुघ्न सिन्हा ने मुझसे एक निजी सवाल पूछ लिया था. उन्होंने इशारों में मुझसे ये पूछा तो मैंने भी इशारों में जवाब दे दिया. हर किसी में कुछ कमियां होती हैं, मेरी भी कुछ कमज़ोरियां हैं.

दरअसल, 1971-72 में हम दोनों ने एक चैरिटी शो किया था. वो उस समय बहुत बड़े हीरो थे. तबकी कोई बात उन्हें याद थी.

और ऑफ़-एयर शर्मसार कर देने वाला पल?

तब जब मैं अपनी 25वीं सालगिरह पर अपनी पत्नी को विश करना भूल गया.

आपके जीवन का सबसे खुशनुमा पल?

जब मेरे बेटे की शादी हुई. मेरे दो बेटे हैं. एक वकील है और दूसरा ज़ी टीवी में है. अंकुर और अनुभव. इनके नाम के पीछे भी रोचक किस्से हैं. मेरी पत्नी गर्भवती थी और हम अंकुर फ़िल्म देखने गए थे, तब हमने तय किया कि अगर बेटा होगा तो उसका नाम अंकुर रखेंगे.

रही बात अनुभव की तो उसका जन्म प्रीमैच्योर था, हमें बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा. इसलिए हमने उसका नाम अनुभव रखा.

कोई ऐसा दिन होता है, जब आप ख़बरों से एकदम अलग हो जाते हों?

नहीं. जिस दिन मैं ख़बरों से हट गया मतलब मेरे शरीर से खून निकल गया. ख़बर मेरे जीवन का हिस्सा हैं. साल में एक बार 15-20 दिन की छुट्टी ज़रूर लेता हूँ, लेकिन इस दौरान भी ऐसी जगह जाता हूँ जहाँ सूचनाओं से मेरा नाता बना रहे.

अरुण पुरी और सुमन दुबे को छोड़ आपके पसंदीदा पत्रकार?

अरुण शौरी को भी मैं अपना रोल मॉडल मानता हूँ. कुलदीप नैयर को भी मैं बहुत मानता हूँ.

आपके पसंदीदा फ़िल्म अभिनेता?

मुझे राजेश खन्ना बहुत पसंद थे. उनके अलावा मनोज कुमार, धर्मेंद्र, वैजयंती माला, वहीदा रहमान भी मुझे पसंद थे.

आपकी नज़र में सबसे खूबसूरत अभिनेत्री?

हमारे ज़माने में नर्गिस और वहीदा रहमान बहुत खूबसूरत थीं. मौजूदा अभिनेत्रियों में मुझे प्रियंका चोपड़ा बहुत खूबसूरत लगीं.

खूबसूरती की आपकी क्या परिभाषा है?

जिससे आप बात करें तो उसे अपने विषय के बारे में तो पता ही हो, दूसरे विषयों की भी उसे जानकारी हो.

आपका फेवरिट पास टाइम क्या है?

मैं फार्म हाउस में रहता हूँ. पेड़ लगाने का शौक है. मेरे फार्म हाउस में 2,000 पेड़ हैं. मैंने अपनी कॉलोनी में एक लाख पेड़ लगवाए और 98 फीसदी से अधिक पेड़ जिंदा हैं. पेड़ों की देखरेख करने का मुझे बहुत शौक है. फूलों से अधिक मुझे पेड़ों का शौक है.

युवा पत्रकारों के लिए प्रभु चावला का क्या संदेश होगा?

पत्रकारों के लिए मेरी राय यही होगी ‘फीयर नन, फेवर नन’. कई बार पत्रकार भी अपनी बीट का हिस्सा बन जाते हैं. मसलन कांग्रेस कवर कर रहे हैं तो उसकी ही भाषा बोलने लगेंगे, बीजेपी कवर कर रहे हैं तो वैसा ही बोलने लगेंगे.

पत्रकार अपनी स्टोरी से जाना-पहचाना जाता है. आपका भीतर से ईमानदार होना ज़रूरी है. पाठक या दर्शक आपके काम को आंकेगे न कि आरोप लगाने वाले को.

पत्रकारिता की विश्वसनीयता दिन पर दिन गिर रही है. पहले हम स्टोरी लिखते थे तो बहुत गंभीरता होती थी. मुझे याद है कि तीन-चार मुख्यमंत्रियों को हमारी स्टोरी के बाद इस्तीफा देना पड़ा. मैं इंद्रकुमार गुजराल के पास गया और कहा कि मेरे पास जैन कमीशन की रिपोर्ट है, मैं छापने जा रहा हूँ, आपका क्या कहना है. उन्होंने पंजाबी में कहा, " तू लिख ले यार. मैंने लिख दिया और सरकार गिर गई."

तो पत्रकारों को अपने पेशे की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए वही लिखना चाहिए जो वो देखते या सुनते हैं.

प्रभु चावला खुद को दो वाक्यों में कैसे बताएँगे?

प्रभु चावला पत्रकार के अलावा कठोर दिल का इंसान है. कठोर दिल मतलब ये कि मेरी कोशिश रहती है कि मैं खुद कष्ट में रहूँ, लेकिन दूसरों को कष्ट न होने दूँ. कोशिश करता हूँ कि मेरी वजह से दूसरे को व्यक्तिगत नुक़सान न हो.

आपकी पसंद के कुछ गाने?

पुराने गानों में मुग़ले आज़म का गाना ‘मोहब्बत की झूठी कहानी पर रोए’, जोधा-अकबर का गाना ‘ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा’ मुझे पसंद है. इसके अलावा ‘जब वी मेट’ का गाना ‘मौजां ही मौजां’. बागबां और फ़ना के गाने भी मुझे पसंद हैं. लगान का गाना ‘राधा कैसे न जले’ भी मुझे पसंद है.

Govt should stop opening more hospitals!

Health care reforms in India too need reforms as we need reforms in many other sectors: electoral. police, judicial and administrative.
6 decades of free health care policies in independent India have not brought succor to the larger percentage of population. Those at the base of pyramid do not have access to the basic health care. The central and state governments have spent massive amounts on opening and maintaining large hospitals to small dispensaries: the services are more or less free. Yet we have dismal performances being seen: they are best characterized by inefficiency, maladministration and waste of resources and poor work-ethics.

What is the solution: open more efficient hospitals? No, stop spending further money on this wasteful exercize. In my opinion, the following steps should be taken:

1. Govt hospitals be replaced with health insurance: Open no more govt hospitals, rather gradually abolish this system. Government must provide health insurance cards to each and every family. The concept of sliding scale in deciding premiums can be applied: to the families below poverty line, these insurance cards can be free , while those with high incomes, the premiums can be higher. Families can be given the option to opt out.
Any person with health insurance can get health care from the eligible health facilities (generally, private sector).
2. Regulate private health sector: Let the private health care sector prosper, but the govt must bring in strict regulations how the clinics, nursing homes and large hospitals operate. The current private health care sector in India is highly un-regulated, hence malpractice is prevalent. They often exist to reap maximum monetary benefits, while quality of health care and ethical practices are generally given low priority. A highly regulated system will help curb malpractice.
3. Govt to provide public health: The government must continue to provide preventive health services: vaccinations/immunizatiions, ante-natal care,etc.

20.6.09

कोई भारतीय नहीं..सब प्रादेशिक हैं ?


फिर उठ रहा है गर्मा गरम मुद्दा उत्तर भारतीय और मराठीका...शिवसेना का शिव बड़ापाव हो या कांग्रेस का पोहा..सबकिसी किसी को कुछ कुछ खिलाने की कोशिश कर रहेहैं। राजनीति का गंदे खेल को छोड़ दें तो मुद्दा कुछ खिलानेका नहीं हैं ..यहां मुद्दा मराठी मानुष को काम देने का है।लेकिन इस पर भी राजनीति शुरु हो गई हैं। मराठी औरउत्तर भारतीयों के मुद्दे पर बहस तो बहुत हुई लेकिन सारकभी कुछ नहीं निकला। मै आज फिर इस मुद्दे पर एक नईबहस को जन्म दे रहा हूं कि आखिर मराठी मानुष को उत्तरभारतीयों से इतनी चिढ़ क्यों है। और वो कौन से मुद्दे हैंजिन पर बहुत सी नई पार्टियां शुरु हुई हैं। चाहे वो सालों सेमराठी मानुष को आगे लाने के लिए बनी शिवसेना हो या महाराष्ट्र नव निर्माण सेना। क्यों मराठी लोगों को ऐसालगता है कि उत्तर भारतीय उनके काम को छीनते हैं। यहां पर एक बात तो माननी होगी कि यूं तो मेरे साथ कईमराठी लोग काम करते हैं मेरे आस पास रहते हैं उनको इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि महाराष्ट्र में उत्तरभारतीय काम करें या करें। ये बात तो निर्भर करती है कि काम पर रखने वाले किन लोगों को रखते हैं औरकिसको नहीं। मै एक साफ सुथरी बहस चाहता हूं इस मुद्दे पर कि मराठी लोगों को अपनी असुरक्षा का भाव कहांऔऱ क्यों आता है। सिर्फ महाराष्ट्र में भी बहुत से उत्तर भारतीय काम करते हैं औऱ कई लोग तो ऐसे हो जिनके पूर्वजशायद उत्तर भारतीय थे लेकिन वो नहीं है क्यों उनका जन्म वहीं के किसी अस्पताल में हुआ है। मेरे घर के ऊपरवाले मकान में एक महाराष्ट्रियन परिवार रहता था जब तक वो रहे हमारे उनके अच्छे संबध रहे पर जब मनसे केकार्यकर्ताओं का कहर उत्तर भारतीयों पर शुरु हुआ तो मैने उनसे इस मुद्दे पर व्यापक बातचीत की असल में मै वहांके आम आदमी की सोच को जानना चाहता था। उन्होंने जो मुझे बताया उसके मुताबिक महाराष्ट्र में लोगों को येफर्क नहीं पड़ता कि कौन उत्तर भारतीय है कौन नहीं ...पर दिक्कत तब आती है जब वहां पर काम देने वाली फर्मउत्तर भारतीयों को सस्ते लेबर की वजह काम देना ज्यादा पसंद करता हैं क्योंकि इसमें उन्हे मुनाफ़ा ज्यादा मिलताहै... और लागत कम लगती है। इसी वजह से वहां के मराठी लोगों में इस बात से आक्रोश बढ़ गया। उन्हें लगा किबाहर से लोग रहे हैं उन्हें काम मिल रहा है पर उन्हें नहीं। यहां समझने वाली बात ये है कि इस तरह कीरणनीति हर फर्म करती है चाहे वो महाराष्ट्र हो या दिल्ली..यहां भी अगर कोई फर्म अपना कारखाना लगाती है तोकोशिश करती है कि लोकल लोगों को कम से कम काम पर रखा जाये इसका कारण होता कि लोकल होने की वजहसे उनकी धाक जमी रहती है और इस वजह से अपर हैंड का काम करता लोकल होना। यहीं कारण है कि वो बाहरसे आये हुए कर्मचारियों को ज्यादा अग्रणी रखती है। इसमें उनका सस्ता लेबर भी एक प्लस प्वाइंट की तरह कामकरता है। एक मानसिकता इस पूरे बबाल के पीछे है वो ये कि अगर हमारे प्रदेश में कोई फैक्ट्री लगती है तो ज्यादासे ज्यादा लोग ये सोचते हैं कि अब यहां के लोगों को काम मिलेगा ...उस वक्त इस ख्याल पर बात नहीं होती किबहुत से लोगों को काम मिलेगा। इसी वजह से जो लोग बाहर से आते उन लोगों को वहां के स्थानीय लोगों केआक्रोश से रुबरु होना पड़ता है। यही बात महाराष्ट्र पर लागू होती है इसी वजह से वहां के लोगों को उत्तर भारतीयों सेचिढ़ होती है। या ये कहें कि उन्हें हर उस व्यक्ति से परेशानी होती है जो महाराष्ट्र से बाहर के होते हैं। अपने पड़ोस मेंरहने वालों से मैने ये भी पूछा कि तो फिर सिर्फ उत्तर भारतीयों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है। तो उन्होंने कहाकि उत्तर भारतीयों को नहीं ग़ैर मराठी को निशान बनाया जा रहा है। क्योंकि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की संख्याज्यादा है इसलिए ज्यादा से ज्यादा निशाना उत्तर भारतीय बन रहे हैं। जबकि सच ये है कि वहां पर रह रहे सभी ग़ैरमराठी लोग निशाना बन रहे हैं आक्रोशित लोगों का शिकार बन रहे हैं।

18.6.09

कैसे दूर होगा रैगिंग का कैंसर?

रैगिंग का सांप जिस तरह से हर साल कई छात्रों को निगलता जाता है, उसे देखकर लगता कि कब इससे निजातमिल पायेगी। हर साल कई बच्चे इसकी वजह से आत्महत्या करने जैसा बड़ा कदम उठा लेते हैं। रैगिंग को रोकनेके लिए देश की सबसे बड़ी ताकत सुप्रीम कोर्ट ने भी कई तरह के कड़ेकानून बनाये है, लेकिन हर बार ये कानून फ़ेल हो जाते हैं और किसीकाम नहीं आतेइसका उदाहरण दूंगा उस वक्त का जिसको मैने देखा है,झेला है.....जब मै अपने कॉलेज में पढ़ा करता था तो उस वक्त भी रैगिंगके मामले सामने आते थे। मैने जब पहली बार कालेज में कदम रखातो उस वक्त मेरी भी रैगिंग हुई थी। मै और मेरा दोस्त कॉलेज के गेटपर पहुंचे भी नहीं पाये थे कि हमें आवाज आई कि फ्रेशर इधर आओ।हम दोनों को अंदाजा तो हो गया था कि अब तो गये बेटा...हम दोनों वहां पहुंचे, पहुचते ही सबसे पहले उन्होने हमसेहमारा नाम पूछा उसके बाद कहा कि नाच कर दिखाओ बीच सड़क पर हमें नाचना पड़ाक्या करते अंजान शहरअंजान लोगइसलिए हमने नाचकर दिखाया, लेकिन बात आगे बढ़ती कि कॉलेज की ही रैगिंग टीम गई औरहमारी जान में जान आई। लेकिन सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ था... ये तो सिर्फ शुरुआत थी। अब तो जो कोईसीनियर मिलता वो कुछ कुछ करने को कहता कोई नचाता तो कोई गाने गवाता। लेकिन खतरा तो तब और बढ़जाता जब हर कॉलेज की तरह यहां भी गुंडे टाइप के लोग जाते हैं और उनसे हर कोई डरता है। चाहे टीचर हो यामैनेजमेंटक्योंकि इनमें ज्यादातर उन लोगों बच्चे होते है जो या तो मंत्री के लड़के होते है या किसी आईएएसके.... उस वक्त आप ख़ुद समझ ही गए कि....... मेरे साथ भी ऐसा हुआ। एक बात और कि इस टाइप के बदमाशलड़के सूनसान जगहों पर ही आपको जाने को कहेंगे क्योंकि वहां मानने पर मारने पीटने की आज़ादी जो होतीहै। मुझे भी सूनसान जगह देखकर ले जाया गयासबसे पहले मुझसे मेरा नाम पूछा गया और रहने कास्थान...रहने का स्थान इसलिए पूछा जाता है, क्योंकि इसी बहाने पता तो लगे कि कहां रहता है या रहती है। मैनेबता दिया कि मुज़फ्फरनगर.... शहर का नाम सुनकर एक बार तो लड़के कुछ सोच में पड़ गये, शायद इस वजह सेकि मेरे शहर का इतिहास ज़रा सा खराब है...लेकिन आगे कोई मांग बढ़ती कि तभी उनमें से एक लड़के ने आवाजलगाई कि ओए...लड़की.......देख लड़की रही है.....एक लड़की पर उनकी नज़र पड़ गयी जो बचते बचाते वहां सेनिकल रही थी। पता नहीं मेरी किस्मत अच्छी थी या उसकी किस्मत खराब कि उन बदमाश लड़कों ने मुझे तो छोड़दिया, पर उस लड़की को पकड़ने चले गये। मैं तो अपनी जान छुड़ाकर भागा, लेकिन थोड़ी दूर जाकर ख्याल आयाकि क्यों जाकर देखू कि कहीं उस लड़की को वो बदमाश ज्यादा परेशान तो नहीं कर रहे हैं। मैने तुरंत खुद जाकरकॉलेज के लोगों को सूचित किया। तब वो लोग उसे बचाने या कहें कि उसे छुड़ाने वहां गये। जब वो वापस आई तोउसके आंखों में आँसूं थे।...उसके आंसू से आप सहज ही अंदाजा ही लगा सकते हैं कि उस बेचारी के साथ क्या हुआहोगा....उस घटना के बाद कॉलेज मे बबाल हुआ, लेकिन मैनेजमेंट लाचार था। लेकिन हिम्मत की दात देता हूं उसलड़की की, कि उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन जैसा मैनेजमेंट ने किया था कुछ करके..... उसीतरह पुलिस ने भी कुछ कियाक्योंकि उनमें से सभी उच्च अधिकारियों के लड़के थे और इसी वजह से मामलादबता चला गया। उस दिन के बाद से उस लड़की को रोज देखता था। क्योंकि मुझे लगा कि आखिर कैसे ये लड़कीइतना सहने के बाद भी कॉलेज में रही है और उन बदमाशों को भी देखता थाक्योंकि वो हमेशा की तरह किसी किसी लड़की को रोककर रैगिंग के नाम अभद्रता कर रहे होते थे और कॉलेज मामले को शांत करता नजर आताथा और ऐसा चलता रहा अगले तीन साल तक जब तक मै उस कॉलेज में पढ़ा। हालाँकि आज मै उस कॉलेज में नहींहूँ पर शायद यह सिलसिला अब भी चल रहा होगाआखिर कैसे दूर होगा रेगिंग का कैंसर?