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9.9.10

महिला खेत पाठशाला का तेरहवां सत्र
















हालाँकि आज के दिन एक तरफ तो राष्ट्रिय हड़ताल का आह्वान था तथा दूसरी तरफ सुबह सात बजे से ही तेज़ बारिस को रही थी. फिर भी आज दिनांक 7 /9 /10 को निडाना गावँ में चल रही महिला खेत पाठशाला के तेरहवें सत्र का आयोजन किया गया. सत्र का आरंभ रनबीर मलिक, मनबीर रेड्हू व डा.कमल सैनी के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा अपने पिछले काम की विस्तार से समीक्षा तथा दोहराई से हुआ. डा.कमल सैनी ने लैपटाप के जरिये महिलाओं को उन तमाम मांसाहारी कीटों के चमचमाते फोटो दिखाए जो अब तक निडाना के खेतों में पकड़े जा चुके हैं. इनमे लोपा, छैल, डायन, सिर्फड़ो व टिकड़ो आदि छ किस्म की तो मक्खियाँ ही थी. इनके अलावा एक दर्जन से अधिक किस्म की लेडी-बीटल, पांच किस्म के बुगड़े, दस प्रकार की मकड़ी, सात प्रजाति के हथजोड़े व अनेकों प्रकार के भीरड़-ततैये-अंजनहारी आदि परभक्षियों के फोटो भी महिलाओं को दिखाए गये. गिनती करने पर मालुम हुआ कि अभी तक कुल मिलाकर सैंतीस किस्म के मित्र कीटों की पहचान कर चुके हैं जिनमें से छ किस्म के खून चुसक कीड़े व इक्कतीस तरह के चर्वक किस्म के परभक्षी हैं. स्लाइड शौ के अंत में महिलाओं को मिलीबग को कारगर तरीके से ख़त्म करने वाली अंगीरा, फंगिरा व जंगिरा नामक सम्भीरकाओं के फोटो दिखाए गये. इस मैराथन समीक्षा के बाद महिलाएं कपास की फसल का साप्ताहिक हाल जानने के लिए पिग्गरी फार्म कार्यालय से निकल कर राजबाला के खेत में पहुंची. याद रहे डिम्पल की सास का ही नाम है-राजबाला. आज निडाना में क्यारीभर बरसात होने के कारण राजबाला के इस खेत में भी गोडै-गोडै पानी खड़ा है. इस हालत में जुते व कपड़े तो कीचड़ में अटने ही है. इनकी चिंता किये बगैर महिलाएं अपनी ग्रुप लीडरों सरोज, मिनी, गीता व अंग्रेजो के नेतृत्व में कीट अवलोकन, सर्वेक्षण, निरिक्षण व गिनती के लिए कपास के इस खेत में घुसी. महिलाओं के प्रत्येक समूह ने दस-दस पौधों के तीन-तीन पत्तों पर कीटों की गिनती की. इस गिनती के साथ अंकगणितीय खिलवाड़ कर प्रति पत्ता कीटों की औसत निकाली गई. महिलाओं के हर ग्रुप ने चार्टों क़ी सहायता से अपनी-अपनी रिपोर्ट सबके सामने प्रस्तुत की. सबकी रिपोर्ट सुनने पर मालूम हुआ कि इस सप्ताह भी राजबाला के इस खेत में कपास की फसल पर तमाम नुक्शानदायक कीट हानि पहुँचाने के आर्थिक स्तर से काफी निचे हैं तथा हर पौधे परकड़ियों की तादाद भी अच्छी खासी है. इसके अलावा लेडी-बीटल, हथजोड़े, मैदानी-बीटल, दिखोड़ी, लोपा, छैल, व डायन मक्खियाँ, भीरड़, ततैये व अंजनहारी आदि मांसाहारी कीट भी इस खेत में नजर आये हैं. थोड़ी-बहुत नानुकर के बाद सभी महिलाएं इस बात पर सहमत थी कि इस सप्ताह भी कपास के इस खेत में राजबाला को कीट नियंत्रण के लिए किसी कीटनाशक का छिड़काव करने की आवश्यकता नही है. यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि रानी, बिमला, सुंदर, नन्ही, राजवंती, संतरा व बीरमती आदि को अपने खेत में कपास की बुवाई से लेकर अब तक कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के इस्तेमाल की आवश्यकता नहीं पड़ी. इनके खेत में कीट नियंत्रण का यह काम तो किसान मित्र मांसाहारी कीटों, मकड़ियों, परजीवियों तथा रोगाणुओं ने ही कर दिखाया. ठीक इसी समय कृषि विभाग के विषय विशेषग डा.राजपाल सूरा भी महिला खेत पाठशाला में आ पहुंचे. रनबीर मलिक ने खेत पाठशाला में पधारने पर डा.राजपाल सूरा का स्वागत किया. परिचय उपरांत, डा.सूरा ने इन महिलाओं से कीट प्रबंधन पर विस्तार से बातचीत की. उन्होंने बिना जहर की कामयाब खेती करने के इन प्रयासों की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए, महिलाओं से इस काम को अन्य गावों में भी फैलाने की अपील की. इसके बाद अंग्रेजो ने महिलाओं को सेब वितरित किये. ये सेब डा.सूरा स्वयं के खर्चे से जींद से ही खरीद कर लाये थे. जिस समय महिलाएं सेब खा रही थी ठीक उसी समय मनबीर व रनबीर कहीं से गीदड़ की सूंडी समेत कांग्रेस घास की एक ठनी उठा लाये. इसे महिलाओं को दिखाते हुए, उन्होंने महिलाओं को बताया कि यह गीदड़ की सूंडी वास्तव में तो मांसाहारी कीट हथजोड़े की अंडेदानी है. इसमें अपने मित्र कीट हथजोड़े के 400 -500 अंडे पैक हैं. सत्र के अंत में डा.सुरेन्द्र दलाल ने मौसम के मिजाज को मध्यनज़र रखते हुए इस समय कपास की फसल को विभिन्न बिमारियों से बचाने के लिए किसानों को 600 ग्राम कापर-आक्सी-क्लोराइड व 6 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का 150-200 लिटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने की सलाह दी.

4.11.09

छैल गाभरू

पौ की पूनम का चाँद पराये प्रकाश से निडाना के आकाश में माघा नक्षत्र ढूँढ रहा था। सुबह शुरू होने वाले माघ महीने में इस सर्दी के मिजाज़ से अनभिज्ञ गेहूं की बालियाँ प्रजनन परीक्षा पास कर बूर के पत्तासे से बाँट रही थी। इन बालियों के पेट में पल रहे दानों के लिए भोजन पकाने का काम दिन में ही निपटा कर, पत्ताका पत्ते आराम फरमा रहे थे। इन्ही पत्तों पर टहलकदमी करते हुए एक गाभरू-गर्ब अपनी माँ बीरबहूटी तै न्यूँ बोल्या, " इब बुदापे में छैल-छींट हो कै कित चाल कै जावैगी? इब तेरी उमर के सिंगरण की रहरी सै?"
जवान बेटे कै मुंह तै या बात सुण बीरबहूटी का साँस ऊपर का ऊपर अर् तलै का तलै रहग्या। आवेश को अनुभव के आवरण में ढांप , उसने बेटे को बगल में बिठाया। फेर वा प्रेम तै पूछण लागी, "बेटा, एक तो तेरी बालक बुद्धि अर् ऊपर तै गेहूं की फसल में रहना। तनै भूल कै एक आध दाणा गेहूं का तो नहीं चाब लिया ?"
" नहीं ! माँ ! नहीं ! मैं स्प्रे लाग कै मरूं जै मनै यूँ कुकर्म करया हो तो।", गर्ब-गाभरू नै कसम खा कर बात आगै बढाई, "माँ, मनै तो छिक्मां चेपे खाए थे। तरुण सुंडियों की थोड़ी सी चटनी चाटी थी और अण्डों का जूस पीया था।"
बीरबहूटी - "बस ठीक सै बेटा। गलती तो मेरी ऐ सै। मनै सुन राख्या था अक् जिसा खावै अन्न, उसा होवै मन। तेरे मुहं तै माणसाँ जैसी बात सुनकै मनै सोचा, कदे मेरे बेटे नै भी अन्न खा लिया हो? एक दिन इस निडाना गाम के मनबीर नै भी अपनी माँ तै यही बात पूछी थी। बेटे, मनबीर की माँ बेदो बैसठ साल पहल्यां पीहर की सोलह दीवाली खा कै इस गाम में ब्याहली आई थी। सुथरी इतनी अक् दीवै कै चांदणै में भरथा काला दो घड़ी मुँह देखता रहग्या था। अगले दिन भाभी न्यूँ पूछैं थी अक् आँ हो काले! फेरयाँ आली सारी रात जागा था, के? गाम के ब्याहल्याँ कै मन में मण मण मलाल था अक् थारै इसी सुथरी बहु क्यों नही आई । कल्चर के नाम पै एग्रीकल्चर के रूप में प्रसिद्ध इस हरियाणा में बिटौडां तै बडा कैनवस अर ऊंगलियाँ तै न्यारे ब्रुश कोन्या थे। फेर भी गाम के गाभरूआँ नै भरथे की बहु के रंग-रूप के न्यारे-न्यारे नैन-नक्श मन में बिठान की कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी थी। उसके हाण का एक बुड्डा तो परसों भी न्यू कहन लाग रहा था अक् दिनाँसर तो भरथे की बहु की घिट्टी पर को पानी थल्स्या करदा। रही बेदो के हुनर की बात, उसके मांडे अर् गाजर-कचरियाँ के साग का जिक्र पीहर अर् सांसरे में समान रूप से चलै था। बसलुम्भे से बनी उसकी फाँकी नै सारा गाम पेट दर्द में रामबाण माना करदा। कवथनांक एवं गलणाँक की परिभाषा से अपरिचित बेदो टिंडी ता कै निथारन की माहिर थी। के मजाल चेह्डू रहज्या। उसके हाथ का घाल्या घी किस्से नै ख़राब होया नहीं देखा। काम बेदो तै दो लाठी आगै चाल्या करदा। उठ पहर कै तड़के वा धड़ी पक्का पीसती व दूध बिलोंदी। रोटी टूका कर कै गोबर-पानी करदी। कलेवार तक इन सरे कामा तै निपट कै खेत में ज्वारा पहुँचांदी। वापिस घर पहुँच कै एक जोटा मारदी सोण का। जाग खुलते ही पीढा घाल कै दो ढाई बजे तक आँगन में बैठ जांदी। इस टेम नै वा अपना टेम कहा करदी। इस टेम में वा गाम की बहु-छोरियां नै आचार घालना, घोटा-पेमक लाणा व क्रोसिया सिखांदी। इसी टेम कुणक अर् कांटें कढवान आले आंदे। सुई अर् नकचुन्डी तो बेदो की उँगलियाँ पर नाच्या करदी। तीन बजे सी वा खूब जी ला के नहाया करदी। मसल मसल कै मैल अर् रगड़ रगड़ कै एडी साफ़ करदी। उसनै बेरया था अक् ओल्हे में को आखां में सुरमा, नाक में नाथ अर् काना में बुजनी, किसे नै दिखनी कोन्या। फेर भी वा सिंगार करन में कोई कसर नहीं छोड्या करदी। बराबराँ में कट अर् काख में गोज आले कुर्त्ते कै निचे पहरे बनियान नै वा सलवार तले दाबना कदे नहीं भुल्या करती। आख़िर में आठूँ उँगलियों से बंधेज पर खास अलबेट्टा दे कर सलवार नै सलीके सर करदी। बन ठन कै इब वा चालदी पानी नै। उसकी हिरणी-सी चाल नै देख कै रस्ते में ताश खेलनिये पत्ते गेरने भूल जांदे अर् न्यून कहंदे या चली भरथे की बहु पानी नै।", बेटे से हुंकारे भरवाते हुए बीरबहुटी नै आगै कथा बढाई, " बस बेटा, एक या ऐ बात थी जो भरथे नै सुहाया नहीं करदी। एक दिन मौका सा देख कै बेदो नै समझावण लाग्या अक् मनबीरे की माँ इब तू दो बालकाँ की माँ हो ली। इस उम्र में सादा पहरणा अर् सादा रहणा ऐ ठीक हो सै।या सुन कै बेदो की हँसी छुट गई। अपनी इस बेलगाम हँसी को काबू कर बेदो नै मुस्कराते हुए, पहला सवाल दागा, "मनबीरे के बाबु, मनै बारह बरस हो लिए इस गाम में आई नै। आज तक कदे किसे की फी में आई?"
"ना। मनबीरे की माँ। ना।", कहन तै न्यारा कोई जवाब नहीं था भरथे के धोरै।
उसकी की इस ना से उत्साहित हो बेदो नै उल्हाना दिया, " जायरोए, को टुम-टेखरी घडाणी तो दूर कदे दो मीटर का टुकड़ा भी ल्या कै दिया सै के?"
" ना। मनबीरे की माँ। ना।",भरथे की कैसट उलझ गई थी।
" कदे? तेरै घर के दानें दुकानां पै गेरे!", -बेदो रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
" ना। मनबीरे की माँ। ना। इब क्यूँ जमा पाछै पडली। मनै तो बस न्यूँ ऐ पूछ लिया था।" - भरथे नै बेदो को टालण की सोची।
बेदो- " तेरी इस बस न्यूँ ऐ नै तरली गोज में घाल ले। मनै बेसुरापन कोण सुहावै।"
बेदो का वजूद भरथे पै घना भारी पडै था। मन-मसोस कै रहग्या। दिनां कै दिन लाग रे थे अर् दिनां सर , बेदो नै छोरे ब्याह लिए। पोते-पोतियाँ आली होगी। पर बेदो की दिनचर्या अर् रहन-सहन का सलीका वही रहा। हाँ, बहुआं नै उसका पानी भरने का काम तो छुड़वा दिया था। इब हाण्डीवार सी बेदो नहा धो कर साफ सुथरे कपड़े पहन खेतां में घुम्मन जान लगी। बेटा, बेदो का यू सलीके सर रहना ना तो कदे भरथे नै भाया अर् ना इब ख़ुद के जाया नै सुहाया। एक दिन मौका-सा देख कै मनबीर माँ कै लोवै लाग्या। हिम्मत सी करके बोल्या अक् माँ, इस उमर में .................. ।
" बस बेटा। बस। समझ गई।"- कह कै बेदो नै बेटे की बात कै विराम लगा दिया। अर् न्यूँ पूछन लागी, "बेटा, थारा किम्में फालतू खर्चा कराऊ सूं? "
" ना। माँ। ना।"-मनबीर नै भी बाबू की पैड़ा में पैड़ धरी।
बेदो- "थारी बहुआँ नै नहान धौन तै बरजू सूं?"
"ना! माँ! ना!" - मनबीर नै जवाब दिया।
"थारी बहुआँ नै साफ सुथरा पहरण तै नाटु सूं?" - बेदो का बेटे से अगला सवाल था।
मनबीर - ना! माँ ! ना!
" सोलाह की आई थी, छियासठ की हो ली। इन पच्चास सालों में आडै किसे कै उलाहने में आई हों? कदे मेरे पीहर तै कोई बात आई हो? " - बेदो इब और खोद-खोद कै पूछन लागी।
थूक गिटकते होए मनबीर बोल्या - ना ! माँ! ना!
बेटा, अब बाजी बेदो के हाथ में थी वा बोली -" फेर मेरे इस साफ सुथरा रहन पै इतना रंज क्यों?"
नीचे नै नजर कर कै मनबीर नै बस इतना ही कहा - बस ! माँ ! बस ! न्यूँ ऐ ।
बेदो - "बेटा। थारा बाप भी इस "न्यूँ ऐ" की गोज भरे हाँडै सै अर् इब थाम नै झोली कर ली। मनै तो मर्दाँ की इस "न्यूँ ऐ" अर् "रिश्तों" की थाह आज तक ना पाई।" बेदो की आपबीती अपने बेटे गर्ब तै सुणा, बीरबहूटी उसने न्यूँ समझावन लागी - "मेरे गर्ब-गाभरू, इन माणसां कै समाज के रिश्ते तो पैदावारी सै। उलझ-पुलझ इनकी पैदावार, उलझ-पुलझ इनके रिश्ते-नाते और उलझ-पुलझ इनकी मानसिकता। यें भाई नै सबतै प्यारा बतावै अर् सबतै फालतू झगड़े भी भाईयाँ गेल करै। रायचंदआला के रूहिल गाम में भाईयाँ गेल बिगाड़ कै रोहद के रूहिलां में भाईचारा ढुँढते हांडै सै। घर, कुनबे, ठौले व गाम गेल बिघाड कै सिरसा में जा समाज टोहवै सै। और के बताऊ इनका किसानी समाज तो इसा स्याणा सै अक् बही नै तो सही बताया करै अर् घट्टे बीज नै बढा। बेटा, यें ऊत तो कीडों की बीजमारी कै चक्कर में अपनी बीजमारी का जुगाड़ करदे हाँडै सै। इस लिए मेरे गाभरू आज पीछे इन माणसाँ की छौली अर् इनके कीटनाशकोँ तै बच कै रहिये। जब भी कोई मानस नजदीक आवै, ऊँची आवाज़ में गीत गाना शुरू कर दिया कर अक् .............
कीटाँ म्ह के सां कीटल
या जाणे दुनिया सारी ॥
अँगरेज़ कहें लेडी बीटल
बीरबहुटी कहें बिहारी ॥
जींद के बांगरू कहँ जोगन
खादर के म्हाँ मनियारी ॥
सोनफंखी भँवरे कहँ कवि
सां सौ के सौ मांसाहारी ॥ "






2.11.09

कपास का सेदक कीट-लाल मत्कुण

लाल मत्कुण एक रस चूसक हानिकारक कीट है। यह सर्वव्यापी कीट वैसे तो भारत वर्ष में सारे साल पाया जाता है पर हरियाणा में कपास की फसल पर इसका ज्यादा प्रकोप अगस्त से अक्तूबर तक देखा गया है। कपास के अलावा यह कीट भिन्डी, मक्का, बाजरा व गेहूं आदि की फसलों पर भी नुक्सान करते पाया जाता है। कीट सम्बंधित किताबों व रसालों में इस कीट को कपास की फसल का नामलेवा सा हानिकारक कीट बताया गया है। जबकि हरियाणा के किसान इसे बनिया कहते हैं तथा कपास की फसल में इसके आक्रमण को कपास के अच्छे भावः मिलने का संकेत मानते हैं। नामलेवा व मुख्य हानिकारक कीट के इस अंतर्विरोध को तो वैज्ञानिक और किसान आपस में मिल बैठ कर सुलझा सकते है या फ़िर समय ही सुलझाएगा। हाँ! इतना जरुर है कि इस कीट का आक्रमण देशी कपास की बजाय नरमा(अमेरिकन) में ज्यादा होता है तथा नरमा में भी बी.टी.कपास में अधिक होता है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ कपास के पत्तों, तनों, टिंडों व बीजों से रस चूस कर फ़सल में हानि पहुँचाते हैं। ज्यादा रस चूसे जाने पर प्रकोपित पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती हैं। टिंडों से रस चुसे जाने पर इनके ऊपर सफ़ेद व पीले से धब्बे बन जाते हैं तथा टिंडे पूर्ण रूपेण विकसित नहीं हो पाते। इनके मल-मूत्र से कपास के रेशे बदरंग हो जाते हैं। टिन्डें खिलने पर ये कीट बीजों से रस चूसते है जिस कारण बीज तेल निकलने एवं बिजाई लायक नही रह जाते। बीजों में इस नुक्सान से कपास की पैदावार में निश्चित तौर पर घटौतरी होती है जो प्रत्यक्ष दिखाई नही देती। इसीलिए तो कपास की फसल में इस कीट का भारी आक्रमण होने पर भी यहाँ के किसान घबराते नहीं और ना ही कोई किसान इस कीट के खात्मे के लिए कीटनाशकों का स्प्रे करता paya जाता। क्योंकि इस कीट से होने वाले नुकशान का अंदाजा किसान डोले पर खडा होकर नहीं लगा सकता। लेकिन बी.टी.बीजों के प्रचलन के साथ-साथ इस कीट का हमला भी कपास की फसल में साल दर साल तेज होता जा रहा हैं और वो दिन दूर नही जब इस कीट की गिनती बी.टी.कपास के मुख्य हानिकारक कीटों में होने लगेगी? इस बणिये/मत्कुण को अंग्रेजी पढने-लिखने वाले लोग Red cotton bug कहते हैं। कीट वैज्ञानिक जगत में इसे Dysdercus singulatus के नाम से जाना जाता हैं। इसके परिवार का नाम Pyrrhocoridae तथा कुल का नाम Hemiptera है। इस कीट के प्रौढ़ लम्बोतरे व इकहरे बदन के होते हैं जिनके शरीर का रंग किरमिजी होता है। किरमिजी गाढे लाल रंग की ही एक शेड होती है। इनके पेट पर सफ़ेद रंग की धारियां होती हैं। इनके आगे वाले पंखों, स्पर्शकों व स्कुटैलम का रंग काला होता है।इस कीट की मादा मधुर-मिलन के बाद लगभग सौ-सवासौ अंडे जमीन में देती है। ये अंडे या तो गीली मिट्टी में दिए जाते है या फ़िर तंग-तरेडों में दिए जाते हैं। अण्डों का aakaar गोल तथा रंग हल्का पीला होता है। अंड-विस्फोटन में सात-आठ दिन का समय लगता है। अंड-विस्फोटन से ही इन अण्डों से इस कीट के छोटे-छोटे बच्चे निकलते हैं जिन्हे कीट-वैज्ञानिक प्यार से निम्फ कहते हैं। शिशुओं को प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए समय और स्थान के हिसाब से तकरीबन पच्चास से नब्बे दिन का समय लगता है। इस दौर में ये शिशु पॉँच बार अपना अंत:रूप बदलते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि ये निम्फ प्रौढ़ के रूप में विकसित होने तक अपने जीवनकाल में पाँच बार कांझली उतारते हैं। इस कीट के प्रौढों का जीवन आमतौर पर 40 से 60 दिन का होता है। इस कीट को गंदजोर भी कहा जाता है क्योंकि यह बग एक विशेष प्रकार की गंद छोड़ता है। इसीलिए इस कीट का भक्षण करने वाले कीड़े भी प्रकृति में कम ही पाए जाते हैं। Pyrrhocoridae कुल का Antilochus cocqueberti नामक बग तथा Reduvidae कुल का Harpactor costaleis नामक बग इस लाल मत्कुण के निम्फ व प्रौढों का भक्षण करते पाए गये हैं। भांत-भांत की मकडियां भी इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को अपने जाल में फांसे पाई जाती हैं। इसीलिए तो कपास के खेत में किन्ही कारणों से मकडियां कम होने पर इस लाल मत्कुण का प्रकोप ज्यादा हो जाता है। इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को मौत की नींद सुलाने वाले रोगाणु भी हमारे यहाँ प्रकृति में मौजूद हैं। जिला जींद के निडाना गावँ के खेतों में एक फफुन्दीय रोगाणु इस कीट ख़तम करते हुए किसानों ने देखा है। आमतौर पर ये किटाहारी फफूंद सूक्ष्म बीजाणुओं के रूप में कीटों के शरीर की बाहरी सतह पर आक्रमण करती हैं। ताप और आब की अनुकूलता होने पर इन बीजाणुओ से फफूंद हाइफा के रूप में उगती है और देखते-देखते ही कीट की त्वचा पर अपना साम्राज्य कायम कर लेती है। यह फफूंद कीट की त्वचा फाड़ कर कीट के शरीर में घुस जाती है और इस प्रक्रिया में संक्रमित कीट की मौत हो जाती है। कुछ फफुन्दीय जीवाणु तो अपने आश्रयदाता कीट के शरीर में जहरीले प्रोटीन भी छोड़ते पाए जाते हैं। ये जहरीले प्रोटीन जिन्हें टोक्शिंज कहा जाता हैं, भी कीट की मौत का कारण बनते हैं।

26.9.09

कपास में स्लेटी भुंड

स्लेटी भुंड जिला जींद में कपास का नामलेवा सा हानिकारक कीट है। लेकिन "घनी सयानी दो बर पोया करै" अख़बारों में पढ़ कर अपनी फसल में कीडों का अंदाजा लगाने वाले किसानों की इस जिला में भी कोई कमी नहीं है। कागजी व हाटिय ज्ञान से लैस किसान इस स्लेटी भुंड को ही सफ़ेद मक्खी समझ कर धड़ाधड़ अपनी फसल में स्प्रे करते हुए आमतौर पर मिल जायेगें। इसमे खोट किसानों का भी नहीं है। एक तो घरेलु मक्खी व इस भुंड का साइज बराबर हो सै। दूसरी रही रंग की बात। स्लेटी अर् सफ़ेद रंग में फर्क करना म्हारे हरियाणा के माणसां के बस की बात कोन्या। लील देकर पहना हुआ सफ़ेद कुर्ता भी दो दिन में माट्टी अर् पसीने के मेल से स्लेटी ही बन जाता है। इसीलिए तो रंगों व कीटों की पहचान का कार्य यहाँ के किसानों को बुनियाद से ही सिखने की आवश्यकता है। यह स्लेटी भुंड कपास की फसल के अलावा बाजरा, ज्वार व अरहर की फसल में भी नुकशान करते हुए पाया जाता है। इस कीट का प्रौढ़ पौधों के जमीं से ऊपरले व गर्ब जमीं के निचले हिस्सों पर नुक्शान करता है। इस कीट की दोनों अवस्थाए पौधों की विभिन्न हिस्सों को कुतरकर व चबाकर खाती हैं। इस कीट का प्रौढ़ पत्तों या फूलों की पंखुडियों के किनारे नोच कर खाता है। यह पुंकेसर भी खा जाता है जबकि इसका गर्ब पौधों की जडें खाता है।खानदानी परिचय:स्लेटी भुंड को द्विपदी प्रणाली मुताबिक कीट विज्ञानी माइलोसेर्स प्रजाति का भुंड कहते है इसके कुल का नाम कुर्कुलिओनिडि होता है। इस कीट की मादाएं पौण महीने की अवधि में लगभग साढे तीन सौ अंडे जमीन के अंदर देती हैं। इन अण्डों का रंग क्रीमी होता है जो बाद में मटियाला हो जाता है। अंडो का आकार एक मिलीमीटर से कम ही होता है। तीन-चार दिन की अवधि में अंड-विस्फोटन हो जाता है। इस कीट के शिशु जिन्हें विज्ञानी गर्ब कहते हैं, जमीन के अंदर रहते हुए ही पौधों की जड़े खाकर गुजारा करते हैं। मौसम के मिजाज व भोजन की उपलब्धता अनुसार इनकी यह शिशु अवस्था 40 -45 दिन की होती है।पैरविहिन इन शिशुओं के शरीर का रंग सफ़ेद व सिर का रंग भूरा होता है। इनके शरीर की लम्बाई लगभग आठ मिलीमीटर होती है। स्लेटी भुंड का प्यूपल जीवन सात-आठ दिन का होता है। प्युपेसन भी जमीं के अंदर ही होती है। इसका प्रौढिय जीवन गर्मी के मौसम में दस- ग्यारह दिन का तथा सर्दी के मौसम में चार-पांच महीने का होता है। सर्दी के मौसम में यह कीट अडगें में छुपा बैठा रहता है।