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3.7.09

" धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर "


धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर


कहना तो बहुत कुछ होता है ,पर जब कहने बैठते तो समझ में नही आता था कि कहाँ से आरम्भ करें ?
पर कहीं से शुरू तो करना ही था। आईये सबसे गरमा- गरम विषय के सबसे जलते शब्द "धर्म को " उठाते हैं ।
पता नही हमारे महान देश भारतवर्ष के तथाकथित महान प्रबुद्ध लोग "धर्म" शब्द से
इतना डरते क्यों हैं ? मैं तो यही समझ पाया हूँ कि देश के अधिकांश "महान प्रबुद्ध " लोगों ने धर्म के बारे में अंगरेजी भाषा के "रिलीजन " के माध्यम से ही जाना ,है न की धर्म को धर्म के माध्यम से । यही कारण है कि वे धर्म को "सम्प्रदाय "के पर्यायवाची के रूप में ही जानते हैं ,जबकि सम्प्रदाय धर्म का एक उपपाद तो हो सकता है पर मुख्य धर्म रूप नही ।

"धर्म प्राकृतिक ,सनातन एवं शाश्वत तथा स्वप्रस्फुटित (या स्वस्फूर्त )होता है : : इसे कोई प्रतिपादित एवं संस्थापित नही करता है : जब कि सम्प्रदाय किसी द्वारा प्रतिपादित तथा संस्थापित किया जाता है "|
आखिर धर्म ही क्यों ?
संस्कृत व्याकरण के नियम "निरुक्ति " के अनुसार धर्म शब्द की व्युत्पत्ति " धृ " धातु से हुयी है ; निरुक्ति के अनुसार जिसका अर्थ है ' धारण करना" {मेरे अनुसार धारित या धारणीय है अथवा धारण करने योग्य होता है } क्यों कि पृथ्वी हमें धारण करती है और इसी कारण से इसे धरणी कहते हैं|


अतः स्पष्ट है ''धर्म का अर्थ भी धारण करना ही होगा ''
इसे इस प्रकार समझें " धृ + मम् = धर्म ''

धारण करना है तो '' हमें धर्म के रूप में क्या धारण करना है ?''


आप को धारण करना है '' अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व ''
या
'' फ़रायज़ और जिम्मेदारियां ''
या
'' ड्यूटी एंड रेसपोंसबिलटीज [[ लायेबिलटीज ]] ''


  • :: धार्मिक व्यक्ति सदैव एक अच्छा समाजिक नागरिक होता है क्यों कि वह धर्मभीरु होता है और एक धर्मभीरुव्यक्ति सदैव समाजिक व्यवस्था के प्रति भी भीरु अर्थात प्रतिबद्ध ही होगा :: परन्तु एक सम्प्रदायिक व्यक्तिरूढ़वादी होने के कारण केवल अपने सम्प्रदाय के प्रति ही प्रतिबद्ध होता है।"


    इसलिए मेरी दृष्टि में धार्मिक होना,सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा एक अच्छी बात है .
अभी तक मैं ने दो ही तथ्य कहे हैं :--

१ "धर्म प्राकृतिक होता ही ; जब कि सम्प्रदाय संस्थापित एवं प्रतिपादित होता है"।


२ " सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा धार्मिक होना ही उचित होगा "।


भारत के परिपेक्ष में संप्रदाय के आलावा एक शब्द ' पंथ ' भी प्रयोग में आता है |
"पंथ" शब्द का अर्थ पथ/ राह /रास्ता /दिशा " होता है ।''सम्प्रादाय एवं पंथ दोनों का भाव व उद्देश्य एक ही होता है,परन्तु '' पन्थ '' में मुझे सम्प्रदाय की अपेक्षा गतिशीलता अनुभव होती है | मैं शब्दों के हेरफेर से फ़िर से दोहरा रहा हूँ ,"धर्मों को कोई उत्पन्न नही करता ,वे प्राकृतिक हैं उनकी स्थापना स्वयं प्रकृति करती है ।"::" जबकि सम्प्रदाय के द्वारा हम में से ही कोई महामानव आगे आ कर , कुछ नियम निर्धारित करता है ,यहाँ तक कि पूजा पद्धति भी उस में आ जाती है | हर युग में कोई युगदृष्टा महा मानव पीर ,औलिया ,रब्बी ,मसीहा या ,पैगम्बर के रूप में सामने आता है अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति द्वारा चुना जाता है ; जो देश क्षेत्र एवं युग-काल विशेष कि परिस्थियों की आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में मानव समाज के समुदायों को उन्ही के हित में आपसमें बांधे रखने के लिए एवं सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रखते हुए चलाने के लिए ; जीवन के हर व्यवहारिक क्षेत्र के प्रत्येक सन्दर्भों में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए , समाज व एक दूसरों के प्रति कुछ उत्तर दायित्व एवं कर्तव्य निर्धारित करता है :उनके परिपालन के लिए कुछ नियम प्रतिपादित करता है और "समान रूप से एक दूसरे के प्रति 'प्रतिबद्धता 'के समान नियमों को स्वीकार करने एवं उनका परिपालन करने वाले समुदाय को ही एक '' सम्प्रदाय '' कह सकते हैं | सम्प्रदाय के निर्धारित नियम वा सिद्धान्त किसी ना किसी रूप में लिपिबद्ध या वचन-बध्द होते हैं,| देश - काल एवं समाज की , चाहे कैसी भी कितनी ही बाध्यकारी परिस्थितियाँ क्यों न हों उन नियमों में कोई भी परिवर्तन या संशोधन अमान्य होता है।
यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जो नियम देश युग-काल के सापेक्ष निर्धारित किए गए थे वे यदि परिस्थितयों युग -काल के बदलने के साथ साथ ,नई परिस्थितियों एवं युग -काल के परिपेक्ष्य में यदि संशोधित तथा परिवर्तित नही किए जाते तो वह रूढ़वादिता को जन्म देते हैं और " रूढ़वादिता के गर्भ से ही साम्प्रदायिकता जन्म लेती है "
सम्प्रदाय का उद्भव कई तरीकों से होता है ।
{यह लेख http://anyonasti-chaupaal।blogspot.com/ पर पूर्व पोस्टेड लेख की प्रतिलिपि है }
सम- सामायिक विषय हैं इसे भी पढें
" स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से "

28.6.09

बेशर्मी की इन्तहा नही तो और क्या है?

जर्मनी के ब्लैक फॉरेस्ट क्षेत्र में सिर्फ़ निर्वस्त्र लोगों के लिए पहला होटल खुलने जा रहा है। 'दि डेली टेलीग्राफ' के अनुसार होटल में आने वाले सभी अतिथियों को रिसेप्शन पर ही अपने वस्त्र छोड़ने होंगे और परिसर में नंगे रहना होगा।
ईश्वर ने मानव को शर्म के एहसास के साथ पैदा किया है, यही कारण है कि संसार में आने के बाद उसने हमेशा अपने शरीर को ढकने की कोशिश की। आरम्भिक काल में जब मनुष्य कपड़े नही बना पाया था तो उसने अपने अंगों को पत्तों और जानवरों की खाल से ढका। जर्मनी का यह वाकया बेशर्मी की इन्तहा नही तो और क्या है?

18.6.09

कैसे दूर होगा रैगिंग का कैंसर?

रैगिंग का सांप जिस तरह से हर साल कई छात्रों को निगलता जाता है, उसे देखकर लगता कि कब इससे निजातमिल पायेगी। हर साल कई बच्चे इसकी वजह से आत्महत्या करने जैसा बड़ा कदम उठा लेते हैं। रैगिंग को रोकनेके लिए देश की सबसे बड़ी ताकत सुप्रीम कोर्ट ने भी कई तरह के कड़ेकानून बनाये है, लेकिन हर बार ये कानून फ़ेल हो जाते हैं और किसीकाम नहीं आतेइसका उदाहरण दूंगा उस वक्त का जिसको मैने देखा है,झेला है.....जब मै अपने कॉलेज में पढ़ा करता था तो उस वक्त भी रैगिंगके मामले सामने आते थे। मैने जब पहली बार कालेज में कदम रखातो उस वक्त मेरी भी रैगिंग हुई थी। मै और मेरा दोस्त कॉलेज के गेटपर पहुंचे भी नहीं पाये थे कि हमें आवाज आई कि फ्रेशर इधर आओ।हम दोनों को अंदाजा तो हो गया था कि अब तो गये बेटा...हम दोनों वहां पहुंचे, पहुचते ही सबसे पहले उन्होने हमसेहमारा नाम पूछा उसके बाद कहा कि नाच कर दिखाओ बीच सड़क पर हमें नाचना पड़ाक्या करते अंजान शहरअंजान लोगइसलिए हमने नाचकर दिखाया, लेकिन बात आगे बढ़ती कि कॉलेज की ही रैगिंग टीम गई औरहमारी जान में जान आई। लेकिन सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ था... ये तो सिर्फ शुरुआत थी। अब तो जो कोईसीनियर मिलता वो कुछ कुछ करने को कहता कोई नचाता तो कोई गाने गवाता। लेकिन खतरा तो तब और बढ़जाता जब हर कॉलेज की तरह यहां भी गुंडे टाइप के लोग जाते हैं और उनसे हर कोई डरता है। चाहे टीचर हो यामैनेजमेंटक्योंकि इनमें ज्यादातर उन लोगों बच्चे होते है जो या तो मंत्री के लड़के होते है या किसी आईएएसके.... उस वक्त आप ख़ुद समझ ही गए कि....... मेरे साथ भी ऐसा हुआ। एक बात और कि इस टाइप के बदमाशलड़के सूनसान जगहों पर ही आपको जाने को कहेंगे क्योंकि वहां मानने पर मारने पीटने की आज़ादी जो होतीहै। मुझे भी सूनसान जगह देखकर ले जाया गयासबसे पहले मुझसे मेरा नाम पूछा गया और रहने कास्थान...रहने का स्थान इसलिए पूछा जाता है, क्योंकि इसी बहाने पता तो लगे कि कहां रहता है या रहती है। मैनेबता दिया कि मुज़फ्फरनगर.... शहर का नाम सुनकर एक बार तो लड़के कुछ सोच में पड़ गये, शायद इस वजह सेकि मेरे शहर का इतिहास ज़रा सा खराब है...लेकिन आगे कोई मांग बढ़ती कि तभी उनमें से एक लड़के ने आवाजलगाई कि ओए...लड़की.......देख लड़की रही है.....एक लड़की पर उनकी नज़र पड़ गयी जो बचते बचाते वहां सेनिकल रही थी। पता नहीं मेरी किस्मत अच्छी थी या उसकी किस्मत खराब कि उन बदमाश लड़कों ने मुझे तो छोड़दिया, पर उस लड़की को पकड़ने चले गये। मैं तो अपनी जान छुड़ाकर भागा, लेकिन थोड़ी दूर जाकर ख्याल आयाकि क्यों जाकर देखू कि कहीं उस लड़की को वो बदमाश ज्यादा परेशान तो नहीं कर रहे हैं। मैने तुरंत खुद जाकरकॉलेज के लोगों को सूचित किया। तब वो लोग उसे बचाने या कहें कि उसे छुड़ाने वहां गये। जब वो वापस आई तोउसके आंखों में आँसूं थे।...उसके आंसू से आप सहज ही अंदाजा ही लगा सकते हैं कि उस बेचारी के साथ क्या हुआहोगा....उस घटना के बाद कॉलेज मे बबाल हुआ, लेकिन मैनेजमेंट लाचार था। लेकिन हिम्मत की दात देता हूं उसलड़की की, कि उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन जैसा मैनेजमेंट ने किया था कुछ करके..... उसीतरह पुलिस ने भी कुछ कियाक्योंकि उनमें से सभी उच्च अधिकारियों के लड़के थे और इसी वजह से मामलादबता चला गया। उस दिन के बाद से उस लड़की को रोज देखता था। क्योंकि मुझे लगा कि आखिर कैसे ये लड़कीइतना सहने के बाद भी कॉलेज में रही है और उन बदमाशों को भी देखता थाक्योंकि वो हमेशा की तरह किसी किसी लड़की को रोककर रैगिंग के नाम अभद्रता कर रहे होते थे और कॉलेज मामले को शांत करता नजर आताथा और ऐसा चलता रहा अगले तीन साल तक जब तक मै उस कॉलेज में पढ़ा। हालाँकि आज मै उस कॉलेज में नहींहूँ पर शायद यह सिलसिला अब भी चल रहा होगाआखिर कैसे दूर होगा रेगिंग का कैंसर?

16.6.09

हां ये नस्लीय हिंसा है!...भारतीय सावधान !!!

ऑस्ट्रेलिया का नाम आते सबसे पहले हमारे दिमाग में जो तस्वीर उभर कर आती है, वो है वहां कि क्रिकेट टीम...बेहतरीन खेल से वहां के खिलाड़ियों क्रिकेट की दुनिया मेंअपना खौफ़ कायम कर रखा था। लेकिन आजकल इस देशकी चर्चा वहां के खिलाड़ियों के बेहतरीन खेल की वजह सेनहीं बल्कि वहां पर हो रही उस हिंसा की वजह से हो रही है।ये हिंसा एक आम हिंसा नहीं हैइस हिंसा का शिकार हो रहेसिर्फ भारतीय हैंकभी तो वो छात्र होते हैं तो कभी वहां परकाम करने वाले आम भारतीय....पिछले कुछ महीनो परनज़र डालें तो हम पायेंगे कि किस तरह से वहां पर हिंसा कादौर रुक नहीं रहा है औऱ जिसका शिकार भारतीय छात्र होरहे हैं। इन हमलों में वहां की सरकार तो इस आम लूट पाट के लिए होने वाला हमला बता रही है पर असल में ऐसाहै नहीं। वहां पर पिछले चालीस सालों से ज्यादा समय से भारतीय रह रहे हैं और वहां हमेशा से ही भारतीयों कोअच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। सिर्फ भारतीय बल्कि वो देश जो विकासशील थे या ये कहें कि ऑस्ट्रेलिया केमुकाबले कम अमीर थे। उस वक्त यहां के लोगों में भारतीयों या यहां के लोगों प्रति कोई गलत भावना नहीं थी क्योंजिस तरह कम पैसे वाले या बेहाल को देखकर हम उन पर दया दिखाते हैं लेकिन जब वो हमसे आगे निकलनेलगते है उस वक्त हमें जलन होती है उसी तरह ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों का वर्चस्व बढ़ने लगा या कहें कि भारतीयपैसों के मुकाबले और अमीर होने लगे तो वहां के निवासियों को ये गवांरा नहीं हो रही है। यहीं कारण है कि वहां रहरहे 7 हज़ार टैक्सी चालकों में से साढ़े पांच हज़ार सिर्फ भारतीय ड्राइवर हैं और उन पर हमले के मामले कम होते हैंलेकिन पढ़े लिखे सभ्य़ और आर्थिक रुप से मजबूत भारतीयों या छात्रों पर लगातार हमलें हो रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया केबारे आप वहां के खिलाड़ियों के बर्ताव से पता लगा सकते है कि कभी भी इंग्लैड और साउथ अफ्रीका या बड़े देशों केखिलाड़ियों से उनकी झड़पें कम होती थी लेकिन भारतीय, श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों से उनका बर्ताव मैदान परभी दिख जाता है...भारतीय खिलाड़ियों से उनकी झड़पें तो कई बार सुर्खियां भी बटोर चुकी हैं। वहीं बांग्लादेश जैसे देशों से उनकी झड़पों की ख़बर नहीं आती है..क्यों ? ...इसका जवाब है कि ये देश उनके वर्चस्व को चुनौती देता नहीं दिखता है. भारतीय खिलाड़ियों से उनके दुश्मनी का कारण यही है कि क्यों कि भारतीय उनके वर्चस्व को चुनौतीदेते थे। इसका सबसे चर्चित उदाहरण है आई पी एल में जब कोलकाता नाइट राइडर्स के खिलाड़ी अजीत अगरकरको की गई नस्लीय टिप्पणी जिसमें ऑस्ट्रेलियन कोच ने किस तरह उनसे कहा था कि ....तुम भारतीय वहीं करोजैसा कहा जाये... इस बात से सहज़ ही अंदाजा लग जाता है कि किस तरह गुलाम रखने की मानसिकता के साथ केपले ऑस्ट्रेलिया के लोग भारतीयों को अपने से नीचे समझते हैं और जब उनको इसकी चुनौती मिलती है तो इसतरह कि नस्लीय हिंसा सामने आती है। और ये हिंसा कई सालों से रही है, जब से भारत आर्थिक रुप से प्रगतिकर रहा है। एक बात औऱ यह कि ये हालात सिर्फ ऑस्ट्रेलिया में नहीं हैसभी जगह शुरु होने वाले हैंक्योंकिसभी जगह आर्थिक मंदी है और भारतीयों को इसकी फिक्र नहींक्योंकि भारत में इसका ज्यादा असर देखने मेंनहीं आया है। इसलिये इसका समाधान कुछ नहीं हैकोई भी सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती है। हां एक चीज है, जो हो सकती है और वो ये कि सभी भारतीय एकजुट होकर रहें औऱ सभी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब दें.....

ये कैसा बदनाम प्रेम ?

इतने दिनों से प्यार में पड़े पागल प्रेमियों के बीच ऐसी तकरार हुई कि एक दूसरे को फूटी आंख नहीं भाते थे। अब फ़िर एक दूसरे को मीडिया के सामने प्यार की मिसाल बता रहे हैं मै बात कर रहा हूं। चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद औऱ अनुराधा बाली उर्फ फ़िज़ा की, जो कुछ महीने पहले ही प्यार की पता नहीं कौन कौन सी कसमें खाया करते थे। उसके बाद दोनों के बीच बढ़ी दूरियों के बारे मे भी हर शख्स जानता है फिजा की बात तो बडी ही मज़ेदार है। पहले इतना रोई कि लगा कि अब तो धोखा खाकर अक्ल खुल गई होगीलेकिन पिछले दिनो जब चांद मोहम्मद वापस गये तो तो जैसे प्रेम को फिर कोई पंख लग गये हों। एक बात समझ नहीं आती कि मियां ये कि जब आप दोनो का पहले विवाह हो चुका था तो प्रेम की पींगे क्यों बढ़ाई? अपनी और साथ ही साथ प्रेम शब्द को इन दोनों ने इतना दागदार कर दिया है कि प्रेम एक पवित्र रिश्ता होकर मात्र जिस्मों के मिलन का एक बहाना मात्र हो गया है। चांद मोहम्मद जो कि मेरे ख्याल से मे 50 की उम्र को पार कर चुके होंगे ने कहा है कि वो फिजा़ से नहीं मिल रहे थे क्योंकि उन्हे भड़काया गया था।अरे रे मेरे भड़काउ शेर जब मौज लेनी हुई तो वापस गये जब जी भर गया तो फिर वापस भड़का जाओंगे क्यो चाँद साहब आपकी नजर में मौज लेना प्रेम है क्या? वैसे बात कुछ भी कहो कमाल का राजनीज्ञ है चंद्र मोहन, जिसका तथाकथित प्रेम भड़का तो दूसरी शादी तक कर ली वो भी धर्म बदल कर औऱ साथ ही पहली को छोड़ भी दिया औऱ जब जी भरने सा लगा तो चल दिये विदेश दूसरी की तलाश मे अब कौन सा धर्म बदल रहे हो विदेशी मेम के चक्कर में कहीं क्रिस्चियन तो नहीं बन रहे हो। इन जैसे प्रेमियों की करतूतों की वजह से प्रेम जैसी पवित्र बंधन दूषित होता है कम से कम इन जिस्मानी प्रेम के भूखों को तो प्रेमी जोड़ो का नाम नहीं देना चाहिएनहीं तो प्रेमबदनाम होता है। इस फिज़ा को तो कौन कहे पता नही ये बेवकूफ है या बेवकूफ होने का नाटक करती है। मीडिया मे इतने ड्रामे करने के बाद भी चंद्र मोहन के मोहनी सूरत में पड़ गयीया इसे भी राजनीति का चस्का चढ़ा था, जो अपना रास्ता साफ करने के लिए हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री को चुन लिया कि जैसे ही धोखा देने की बात होगी। ड्रामा करुंगी और जैसे ही वापस आयेगा थक हारकर इज्जत बचाकर तो अपनाने का नाटक करके फिर अपनी गोटिया फिट करुंगी चांद को जाने के बाद आपने देखा ही होगा कि किस तरह तथाकथित छली गई लड़की को अपनाने के लिए किस तरह लोग सामने आये थे अब तो उन्हें भी शर्म रही होगी कि किन चक्करों में फंसा दिया इस लड़की ने......

17.5.09

कहाँ गई वो संवेदनाएं.....?

जीवन व मृत्यु सिक्के के दो पहलु हैं. संसार में जो भी प्राणी आया है, उसका एक समय मृत्यु के लिए भी निश्चित है. चाहे वह पशु हो या इन्सान. राजा हो या रंक. लेकिन फ़र्क सिर्फ इतना है कि इन्सान कि मृत्यु के बाद उसके निष्क्रय शरीर का निपटान तो सलीके से कर दिया जाता है. चाहे उसे जलाया जाए या उसे दफनाया जाए. लेकिन पशुओं के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है. जंगली पशुओं की तो बात ही छोडिये पालतू पशुओं के मामले में भी कुछ ऐसा ही है. पशुओं की मृत्यु के बाद उन्हें या तो उनके हाल पर सड़कों पर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है या उन्हें हड्वारे के ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है.
विडम्बना तो यह है कि जब तक पशु मनुष्य के काम आता है तब तक उसकी सेवा में कोई कोर कसर नहीं छोडी जाती, लेकिन जब वह उपयोग में आना बंद हो जाता है, तो पशुपालक उसे अपने ऊप बोझ समझने लगता है. तब उसे या तो बूचड़खाने में बेच दिया जाता है या लावारिस अवस्था में छोड़ दिया जाता है. लावारिस हालत में पशु अक्सर सड़क दुर्घटनाओं में काल का ग्रास बनते हैं तथा बूचड़खाने में पशुओं को बेदर्दी से इंसान ही उन्हें अपना पेट भरने के लिए काट डालते हैं. वही देखने में यह भी आता है कि आमतौर पर लोग मृत पशुओं को हड्वारे के ठेकेदारों को सौंप देते है और ठेकेदार उन पशुओं के मृत शरीरो से जरूरी कीमती अंगो को निकाल लेते है. देखने व सोचने वाली बात यह है कि बेचारा पशु तो मरकर भी इन्सान के काम आता है स्वार्थी मानव उसके एक एक अंग से लाभ उठाता है. कही उसके चमडे से अपनी जरूरत की वस्तुएं बनाई जाती है तो कही उसके सींगो व हड्डियो से श्रंगार प्रसाधन जैसे स्त्रिओं के बालों के लिए क्लिप्स, चक्कुओं के दस्ते और खुबसूरत बटन आदि बनाये जाते है. अब तो ये भी सुनने में आया है कि कुछ पशुओं के अंग मानव शरीर में भी पर्त्यारोपित किये जाने लगे है. लेकिन उसके बावजूद भी पशुओं के अस्थिपिन्जरो को खुले मे छोड़ दिया जाता है जिससे वातावरण तो दूषित होता है, वही उन अस्थिपिन्जरों को देखकर संवेदनशील मानव मन भी विचलित हो उठता है.
खुले में पड़े इन पिंजरों से हवा रोगों के कीटाणु तो फैलने की आशंका तो रहती ही है. साथ ही उनमे से मांस खाने वाले कुत्ते व पशु आदि भी खुद भंयकर बिमारियों से ग्रस्त होकर महामारियां फैलाने में सहायक होते हैं.बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू जैसी भयानक बीमारियाँ लगभग इसी तरह से फैलती हैं. अब सवाल यह उठता है कि मानव दिन प्रतिदिन इतना खुदगर्ज क्यों होता जा रहा है. कहाँ गई वो संवेदनाएं और जीवो के प्रति प्रेम भावना जो हमारे अध्यात्म संस्कृति मे शामिल था?

14.5.09

शाकाहारी हो जाइये: रोज प्राण बचाइए !


मैं रोजाना जिंदगियां बचाता हूँ!
क्या आप डॉक्टर हैं?
जी नहीं, मैं शाकाहारी हूँ!
अमेरिका जैसे देश में जहाँ शाकाहारी भोजन करना हो तो अदद घास -फूस (समानजनक भाषा में इसे सलाद कहा जाता है) ही मिलेगी वो भी जतन करने पर- एक कार के पीछे लगा यह एक स्टिक्कर मुझे आज भी याद है.
जर्मन निर्देशक निकलस जेहाल्टर द्वारा बनायीं गयी एक फिल्म " अवर डेली ब्रेड" (Our Daily Bread) देखने लायक है. इस मूक फिल्म ( 90 मिनट की इस मूवी में एक भी संवाद नहीं है). इस में दिखाया गया है कि आधुनिक खाद्य इंडस्ट्री कैसे काम करती है: अनाज तथा मीट कैसे प्रोसेस किया जाता है! इस मूवी को देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है की हमारे खाने के लिए बलि चढाये जाने वाले पशुओं की संवेदनाओं का ख्याल किसे भी नहीं है! क्योंकि एक और बड़े 'काम' के लिए यह सब किया जा रहा है: "मानवता का पेट भरने के लिए"!! कितना विरोधाभास हैं जीवन में!
वैसे यू ट्यूब पर इस फिल्म का नाम डालेंगे तो कुछ कतरने (ट्रेलर) मिलेंगी, देखने लायक हैं.

12.5.09

पालतू कुते की सेवा !


पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी का दौर है. कहा जा रहा है की लोगोंकी नौकरियां जा रही है. अमेरिका में यह स्पष्ट अनुभव कियाजा सकता है.
वहीँ मेरा ध्यान -सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ने जा रहा था तो- रेडियो ( National Public Radio) पर इस समाचार पर गया. जुलाई 2009 से अमेरिका में एक हवाई जहाज कंपनी (Pet Airlines) सिर्फ पालतू जानवरों के लिए सेवा शुरू करने जारही है. इस कंपनी की वेबसाइट पर लिखा है की 149 डॉलर मेंआप अपने पालतू को न्यू यार्क से शिकागो भेज सकतें हैं (वैसेसाउथ वेस्ट हवाई सेवा से मैंने 59 डॉलर में इसी हवाई यात्रा कालाभ उठाया हुआ है, लेकिन लगता है आदमी की कोई कीमतही नहीं).
अब कुच्छ ज्यादा नहीं लिखूंगा, नहीं तो पशु-प्रेमी तथाजानवरों के अधिकारों को लेकर सक्रिय लोग कहीं भड़क जाएँ!
यदि आप मो भी टिकेट बुक करवानी है तो इस हवाई जहाजकंपनी की वेबसाइट को देखिये:
http://www.petairways.com/

(फोटो: गूगल के साभार से )