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19.6.10

अमेरिकी साम्राज्यवाद का रूप व एशिया - (अंतिम भाग)

वास्तव में इन सबके पीछे अमेरिका की वह रणनीति है जिसके अन्तर्गत वह ईरान जैसे कई देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता है ताकि वह विश्व में स्वयं को सिरमौर बना सके। ‘‘जिस तरह यह तथ्य सभी जानते हैं कि सारी दुनिया के ज्ञात प्राकृतिक तेल भण्डारों का 60 प्रतिशत पश्चिम एशिया में मौजूद हैं, अकेले सऊदी अरब में 20 प्रतिशत, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात में मिलाकर 20 प्रतिशत और इराक ईरान में 10-10 प्रतिशत तेल भण्डार हैं। ईरान के पास दुनिया की प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भण्डार है, उसी तरह लगभग सारी दुनिया में अमेरिका के कारनामों से परिचित लोग इसे एक तथ्य की तरह स्वीकारते हैं कि अमेरिका की दिलचस्पी लोकतंत्र में है, आतंकवाद खत्म करने में, दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाने में, बल्कि उसकी दिलचस्पी तेल पर कब्जा करने और इसके जरिये बाकी दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में है। अमेरिका की फौजी मौजूदगी ने उसे दुनिया के करीब 50 फीसदी प्राकृतिक तेल के स्रोतों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कब्जा दिला दिया है और अब उसकी निगाह ईरान के 10 प्रतिशत पर काबिज होने की है। दरअसल मामला सिर्फ यह नहीं है कि अगर अमेरिका को 50 फीसदी तेल हासिल हो गया है तो वह ईरान को बख्श क्यों नहीं देता। सवाल यह है कि अगर 10 फीसदी तेल के साथ ईरान अमेरिका के विरोधी खेमे के साथ खड़ा होता है तो दुनिया में फिर अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत कोई कोई करेगा।’’
इसी तरह क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति
फिदेल कास्त्रों का भी मानना है कि अमेरिका अपनी इन खतरनाक नीतियों के छद्म द्वारा विश्व के कई देशों की सार्थक शक्तियों सुविधाओं का प्रयोग अपने हित हेतु कर रहा है। चाहे वह प्राकृतिक संसाधन हो अथवा मानव शक्ति। ‘‘उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को लूटकर, उसका शोषण करके, बहुत सारा धन इकट्ठा किया है, जिससे वह पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों को, कारखानों को, पूरी की पूरी संचार व्यवस्थाओं सेवाओं आदि को खरीद लेते हैं। .........अपने शानदार आर्थिक नियमों के चलते वह तीसरी दुनिया के देश के लोगों के साथ क्या कर रहे हैं? वह बहुत सारे लोगों को उनके अपने ही देशों में विदेशी बना रहे हैं। अपने देश में एक वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर अथवा शिक्षक तैयार करने पर उनको बहुत भारी खर्च करना पड़ता है। इसलिए वह तीसरी दुनिया के देशों की जनता की खून पसीने की कमाई से तैयार किए गए वैज्ञानिकों, डाॅक्टरों, इंजीनियरों आदि को अपने यहाँ बुला लेते हैं। बात अपना खर्च बचा लेने दूसरे देशों के संसाधन लूट लेने की ही नहीं है, बात यह है कि निरंतर नई तकनीक से निर्मित व्यापार को चलाने के लिए स्वयं उनमें योग्यता नहीं है।’’
अमेरिका की इस पूँजीवादी व्यवस्था ने वातावरण में ज़हर भर दिया है और वह उन प्राकृतिक संसाधनों को
धीरे-धीरे नष्ट कर रहा है, जो कि एक बार प्रयोग कर लेने के पश्चात पुनः पैदा नहीं किए जा सकते, जबकि भविष्य में उनकी आवश्यकता ज्यादा होगी। इन संसाधनों के प्रयोग से अमेरिका को कोई रोके इसलिए वह भिन्न-भिन्न नीतियों का सहारा लेकर विश्व पटल पर ऐसा वातावरण सृजित कर रहा है कि सभी का ध्यान उसी ओर रहे और वह अपने उद्देश्य की पूर्ति बिना किसी अंकुश के कर सके।
भारत द्वारा अमेरिका के साथ किए गए समझौतों से हमारी संप्रभुता पर एक खतरा मण्डरा रहा है, जिससे बचाव के लिए हमें कोई कोई ठोस कदम उठाना होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि एशिया के प्राकृतिक संसाधनों मानव शक्ति के उत्पादन पर अमेरिका नजर गड़ाए हुए है परन्तु जिस मनमानी से वह यह सब हासिल करना चाहता है वह इन देशों के लिए अत्यन्त हानिकारक साबित हो सकता है। अमेरिका की इन सभी साम्राज्यवादी नीतियों से दो-दो हाथ करने उसका हल ढूँढने का सार्थक प्रयास यही हो सकता है कि उसके विरुद्ध खड़ी तमाम शक्तियों को एकत्र किया जाए। जैसा कि पिछले समय में बेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यगो चावेज के साथ मिलकर अहमदीनेजाद ने एक वैकल्पिक कोष का निर्माण कर लिया है इससे छोटे देशों को सार्थक सहयोग मिलेगा और वह भी अमेरिकी शक्तियों का विरोध करते हुए इनसे जुड़े रहेंगे। विश्व स्तर पर अमेरिका के डाॅलर को चुनौती देने के प्रयास भी इसी ओर संकेत करते हैं। इसी तरह एशिया के सभी देश आपसी खींच तान भुलाकर यदि एक मंच पर एकत्र हों तो वे सब अपनी संप्रभुता को कायम रखते हुए अमेरिका का विरोध बड़े तीव्र रूप में कर सकते हैं। कुछ अमेरिका परस्त देशों को यदि इस एकत्रता से निकाल भी दिया जाए तो भी एक सार्थक प्रयास किया जा सकता है। मैं तो कहूँगा कि भारत जैसे देश केवल इसका विरोध करें बल्कि इस नये एकता सूत्र को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँ, वहीं चीन भी इसमें महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है। जिस प्रकार आज भूमण्डलीय साम्राज्यवाद की बात की जा रही है उसी तरह भूमण्डलीय विरोध को भी पैदा किया जा सकता है बस जरूरत इन देशों की आपसी एकता की है।

-डा0 विकास कुमार
मोबाइल: 09888565040

18.6.10

अमेरिकी साम्राज्यवाद का रूप व एशिया - 1

आज इस भूमण्डलीयकरण के युग में जहाँ विश्व को एक ग्राम के रूप में देखने की बात स्वीकारी जा रही है वहीं इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि विभिन्न देशों में सामाजिक स्थिरता, समरसता और अखण्डता को तोड़ने हेतु साम्राज्यवादी शक्तियाँ भिन्न-भिन्न हथकण्डों का प्रयोग कर रही हैं। जहाँ वे एक ओर जन कल्याण की नई-नई सुविधाओं और स्कीमों का प्रचार प्रसार कर रही हैं वहीं दूसरी ओर अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु इसी जन के शोषण को घिनौना रूप देती द्रष्टव्य होती हैं। हम इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि अमेरिका ही इन सब रणनीतियों षडयंत्रों का सूत्रधार है। वस्तुतः आज विश्व धरातल पर अमेरिका की जो छवि बनी हुई है उसे सुधारने हेतु अपने घिनौने कार्यों पर पर्दा डालने हेतु ही इन जन कल्याण की सुविधाओं का छद्म रचा जा रहा है। वास्तविकता यह है कि अमेरिका अपनी इन्हीं रणनीतियों की आड़ में अपने वर्चस्व को कायम रखने का जो षडयंत्र रच रहा है, वह आतंकवाद का असल जनक है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उसके निशाने पर एशिया अफ्रीका के देश ही प्रमुख रूप से हैं, जिसका प्रमुख कारण इन देशों के प्राकृतिक संसाधन माल बेचने हेतु उपलब्ध बाजार का होना मान लिया जाए तो कदाचित् यह गलत होगा।
बीसवीं सदी में बहुत ही नाटकीय ढंग से एशिया के कई देशों में घटनाएँ घटित हुईं हैं, जिसने केवल एशिया बल्कि सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया है। जिसके अन्तर्गत विश्व सभ्यताओं के टकराव की बात को तूल देकर मुस्लिम समाज को आतंकी घोषित करने का प्रयास भी प्रमुख रूप से सम्मिलित है। वास्तव में अमेरिका अपनी निश्चित रणनीति के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न देशों में वहाँ की सरकारों को अस्थिर करने के प्रयास करता है और इस प्रयास को सफल बनाने हेतु वह धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय नस्ल आदि का सहारा लेकर कई प्रकार के दुष्प्रचारों को फैलाता है ताकि मनोवैज्ञानिक ढंग से उस देश के वातावरण में खण्डित होने की भावना को बढ़ावा दिया जा सके और उसकी अस्थिरता का लाभ उठाया जा सके। अमेरिका के साम्राज्यवादी नीतिकार पहले पहल इन देशों में आर्थिक, सामाजिक पिछड़ेपन पर विशेष रूप से फोकस करते हैं, फिर उसमें छिपी संभावनाओं को एक हथियार की तरह प्रयोग करते हैं और इन्हीं देशों को धन, हथियार आदि देकर अपना काम निकलवाते हैं तथा फिर अपने ही प्रचार तंत्र द्वारा इन्हें बदनाम कर सुधारने का ठेका अपने जिम्मे ले लेते हैं। नोम चोमस्की के आलेख इस संबन्ध में विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाते हैं। यह मात्र एक रणनीति है परन्तु ऐसी ही कई अन्य रणनीतियाँ भी हैं जो अमेरिका अपना हित साधने हेतु प्रयोग में लाता है।
आज यदि एशिया पटल पर दृष्टिपात किया जाए तो ज्ञात होता है कि अमेरिका के निशाने पर जो देश हैं उनमें मुस्लिम देशों की संख्या अधिक है। यह सत्य है कि इराक को तबाह करने के पश्चात् भी अमेरिका अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है परन्तु हाँ इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता कि इराक से युद्ध के बहाने अमेरिका ने एशिया के कई हिस्सों में अपनी सेना की संख्या कई गुना बढ़ा ली है। वहीं पश्चिम एशिया पर दृष्टिपात किया जाए तो ज्ञात होता है कि यहाँ के कुछ देशों में अमेरिका परस्त सरकारें ही कार्यरत हैं और ये देश अमेरिका की हर बुरी हरकत में बराबर के साझीदार हंै। ‘‘इज्राइल, कुवैत, जाॅर्डन और सऊदी अरब में पहले से ही अमेरिका परस्त सरकारें मौजूद थीं, लेबनान के प्रतिरोध को अमेरिकी शह पर इज्राइल ने बारूद के गुबारों से ढाँप दिया है और सीरिया, ओमान, जाॅर्जिया, यमन जैसे छोटे देशों की कोई परवाह अमेरिका को है नहीं, भले ही तुर्क जनता में अमेरिका द्वारा इराक पर छेड़ी गई जंग का विरोध बढ़ा है लेकिन अपनी राजनैतिक, व्यापारिक, व भौगोलिक स्थितियों की वजह से तुर्की की सरकार यूरोप और अमेरिका के खिलाफ ईरान के साथ खड़ी होगी, इसमें संदेह ही है। कुवैत में अमेरिकी पैट्रियट मिसाइलें तनी हुई हैं, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के पानी में अमेरिका नौसेना का पाँचवा बेड़ा डाले हुए है। कतर ने इराक और अफगानिस्तान पर हमलों के दौर में अमेरिकी वायुसेना के लिए अपनी जमीन और आसमान मुहैय्या कराये ही थे।’’
यदि एशिया की विगत कुछ दशकों की स्थितियों का मूल्यांकन किया जाए और भविष्य सम्बंधी अमेरिका की रणनीति की बात को उससे मिलाकर देखा जाए तो ज्ञात होता है कि इराक और फिलिस्तीन की साम्राज्यवाद विरोधी नीतियों को कुचलने के पश्चात अब अमेरिका के निशाने पर ईरान ही है। छद्म रूप में विश्व से आतंकवाद मिटाने का संकल्प लेने वाला अमेरिका अपनी सूची में ईरान और उत्तर कोरिया को प्रमुख रूप से शामिल किये हुए हैं। 9/11 के पश्चात अमेरिकी पश्चिमी मीडियाइस्लामी आतंकवादका मिथ खड़ा कर, इन मुस्लिम देशों में नरसंहार को अपने मनमाने ढंग से क्रियान्वित करना चाहता है परन्तु ईराक को उसकी बेगुनाही के पश्चात भी लाशों के आवरण में ढकने का जो कार्य अमेरिका ने किया है वह विश्व पटल पर अमेरिका के झूठ, छद्म उसकी खतरनाक नीतियों की कलई खोलकर रख देता है। उत्तरी कोरिया ने अमेरिकी रणनीतियों को पहचान लिया था, जिससे बचने हेतु उसने स्वयं को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया परन्तु ईरान ऐसा नहीं कर सका। अब अमेरिका का विशेष ध्यान ईरान पर है। इसी कारण पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब और इराक आदि में अमेरिकी सेना की उपस्थिति को बनाये रखा गया है।

-डा0 विकास कुमार
मोबाइल: 09888565040

हिंसा और उपभोक्तावाद के दौर में सूफियों की प्रासंगिकता (अंतिम भाग)

आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि में आमतौर पर रहस्यवादी दर्शन को सृजनात्मक नहीं माना जाता। उसे जीवन के यथार्थ को अनदेखा कर एक वायवी संसार में पलायन करने का रास्ता माना जाता है। लेकिन मनुष्य के मन को उदारता, प्रेम और समता की भावभूमि की ओर उन्मुख और प्रेरित करने के लिए रहस्यवादी प्रवृत्ति आधुनिक मनुष्य के काम की हो सकती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूफियों के बारे में लिखा है: ‘‘हमारे देश के भक्तों और संतों की भाँति सूफी साधकों ने भी इसी अंतरतम के प्रेम पर आश्रित भाव-जगत की साधना को अपनाया है। यह साधना जितनी ही मनोरम है उतनी ही गंभीर भी। हमारे देश के अनेक सूफी कवियों ने इस प्रेम साधना को अपने काव्यों का प्रधान स्वर बनाया है। मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पदमावत’ इस प्रेम साधना का एक अनुपम काव्य है। साधक के हृदय में जब प्रेम का उदय होता है तब सांसारिक वस्तुएँ उसके लिए तुच्छ हो जाती हैं, लेकिन संसार के जीवों के लिए उसका हृदय दया और प्रेम से परिपूर्ण रहता है। दूसरों के कष्ट का निवारण करने के लिए वह सब प्रकार से प्रयत्नशील रहता है और उसके लिए सभी प्रकार के कष्टों का स्वागत करता है। छोटे से छोटे से प्राणी लेकर बड़े से बड़े प्राणी तक उसकी दृष्टि में अपना महत्व रखते हैं। चूँकि सर्वत्र सभी प्राणियों में वे परमात्मा के दर्शन करते हैं अतः उन्हें सुख पहुँचा कर वे परम सुखी होते हैं। उनके लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए वे प्रस्तुत रहते हैं। बायजीद ने कहा है कि परमात्मा जिससे प्रेम करता है उसे तीन गुणों से विभूषित करता है - ‘‘उसमें समुद्र जैसी उदारता, सूर्य की तरह पर दुख का तरता और पृथ्वी की तरह विनम्रता पाई जाती है।’’
सूफी दार्शनिकों और साधकों के अलावा सूफी साहित्यकारों की भी कट्टरता के बरक्स उदारता के विस्तार में अहम भूमिका रही है। यूँ तो दुनिया का ज्यादातर श्रेष्ठ साहित्य मनुष्य के हृदय में निहित प्रेम, उदारता और परदुखकातरता की अनंत संभावनाओं के प्रकाशन का ही उद्यम है, लेकिन सूफियों का प्रेम काव्य इस मायने में अपनी अलग महत्ता और सार्थकता रखता है। अपनी लोकसंवेदना के चलते वह आम जीवन के ज्यादा नजदीक आता है। सूफी प्रेम काव्यों में लोक भाषा में लोक कथाओं को आधार बना कर लोकरंजन किया गया है। सांप्रदायिक और बाजारवादी कट्टरता दोनों मिल कर प्रेम और उदारता से संवलित सूफी साहित्य की संवेदना का अवमूल्यन करती हैं। आधुनिकतावादी और उसी की एक अभिव्यक्ति (मेनीफेस्टेशन) प्रगतिवादी बुद्धि की अपनी कट्टरताएँ जगजाहिर हैं। वह समस्त मध्ययुगीनता को अंधकार और बर्बरता का पर्याय मान कर चलती है। उसके मुताबिक आधुनिक युग से पूर्व मानव सभ्यता में कुछ भी ऐसा सारगर्भित नहीं हुआ है जिसे आज की विचारणा में केंद्रीय स्थान दिया जा सके। यह दरअसल बाजार की धुरी पर चढ़ी हुई बुद्धि है जो स्वतंत्रता के छद्म दावे में जीती है। मलिक मुहम्मद जायसी केपदमावतमें एक प्रसंग काबिलेगौर है, जिसे हमने अन्यत्र भी उद्धृत किया है। चित्तौड़गढ़ के व्यापारियों का एक काफिला व्यापार करने के लिए सिंहलद्वीप की यात्रा पर निकलता है। उनके साथ थोड़ा-बहुत कर्ज लेकर एक गरीब ब्राह्मण भी व्यापार की लालसा में चल देता है। जायसी ने व्यापार स्थल पर लगे बाजार की विशालता और भव्यता का चित्रण किया है जहाँ लाखों-करोड़ों में वस्तुएँ बिकती हैं। व्यापारी अपना-अपना व्यापार करते हैं लेकिन थोड़ी-सी पूँजी लेकर आया ब्राह्मण उस बाजार में कुछ भी खरीद नहीं पाता। व्यापारी लौटने लगते हैं। ब्राह्मण निराशा से भर जाता है। तभी बाजार के एक कोने में उसकी नजर पिंजड़े में बंद एक तोते पर पड़ती है जिसे व्याध वहाँ बेचने के लिए ले आया है। ब्राह्मण तोते से वार्तालाप करता है। उससे पूछता है कि वह गुणी पंडित है या केवल छूँछा है। अगर पंडित है तो ज्ञान की बात बता। तोता पीड़ा से भर कर कहता है कि हे ब्राह्मण मैं तभी तक गुणी और ज्ञानी था जब तक इस पिंजड़े में कैद नहीं हुआ था। अब तो मैं पिंजड़े में कैद हूँ और बाजार में बिकने के लिए चढ़ा दिया गया हूँ। ऐसी स्थिति में अपना सारा ज्ञान भूल गया हूँ। जायसी तोते की मर्मांतक वेदना को इस तरह व्यक्त करते हैं: ‘‘पंडित होई सो हाट चढ़ा। चहउँ बिकाई भूलि गा पढ़ा।।’’ अर्थात जो ज्ञानी होता है वह बाजार में नहीं चढ़ता। मैं तो बिक रहा हूँ लिहाजा सब पढ़ाई भूल गया हूँ।
बाजार और विचार का द्वंद्व हमेशा से चला रहा है। इस प्रसंग में जायसी ने मध्यकालीन बुद्धिजीवी की बाजार के हाथों बिकने की वेदना को अभिव्यक्ति दी है। यानी वे बताते हैं कि पंडित, ज्ञानी या बुद्धिजीवी वही है जो बाजार की ताकत से स्वतंत्र है। आज हम देखते हैं कि दुनिया का ज्यादातर बौद्धिक कर्म बाजारवाद की सेवा में लगा हुआ है और बुद्धिजीवियों को इसकी कोई पीड़ा नहीं है। बल्कि वे अपनी बुद्धि को बाजार की सेवा में लगाने को आतुर नजर आते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा बाजार लूटा जा सके। अध्यापक से लेकर आध्यात्मिक गुरु तक बाजारवाद की ताल पर नाचते नजर आते हैं। सिद्धांतकारों और साहित्यकारों-कलाकारों का भी वही हाल है। बुद्धिजीवियों के मार्फत दुनिया पर अपना वर्चस्व जमाने वाले बाजारवाद के प्रतिरोध की चेतना सूफी वाड्।मय में मिलती है। साहित्य के नित नए पाठ के आग्रहियों को इस तरफ भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए।

-डॉक्टर प्रेम सिंह
(समाप्त)
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून २०१० अंक में प्रकाशित

14.6.10

हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-6

आईये शुरुआत करते हैं व्यंग्य से , क्योंकि व्यंग्य ही वह माध्यम है जिससे सामने वाला आहत नहीं होता और कहने वाला अपना काम कर जाता है ऐसा ही एक ब्लॉग पोस्ट है जिसपर सबसे पहले मेरी नज़र जाकर ठहरती है ....१५ अप्रैल को सुदर्शन पर प्रकाशित इस ब्लॉग पोस्ट का शीर्षक है - आम चुनाव का पितृपक्ष ......व्यंग्यकार का कहना है कि -"साधो, इस साल दो पितृ पक्ष पड़ रहे हैं दूसरा पितृ पक्ष पण्डितों के पत्रा में नहीं है लेकिन वह चुनाव आयोग के कलेण्डर में दर्ज है इस आम चुनाव में तुम्हारे स्वर्गवासी माता पिता धरती पर आयेंगे, वे मतदान केन्द्रों पर अपना वोट देंग और स्वर्ग लौट जायेंगे "


इस व्यंग्य में नरेश मिश्र ने चुटकी लेते हुए कहा है कि -" अब मृत कलेक्ट्रेट कर्मी श्रीमती किशोरी त्रिपाठी को अगर मतदाता पहचान पत्र हासिल हो जाता है और उसमें महिला की जगह पुरूष की फोटो चस्पा है तो इस पर भी आला हाकिमों और चुनाव आयोग को अचरज नहीं होना चाहिए अपनी धरती पर लिंग परिवर्तन हो रहा है तो स्वर्ग में भी क्यों नहीं हो सकता स्वर्ग का वैज्ञानिक विकास धरती के मुकाबले बेहतर ही होना चाहिए "

गद्य व्यंग्य के बाद आईये एक ऐसी व्यंग्य कविता पर दृष्टि डालते हैं जिसमें उस अस्त्र का उल्लेख किया गया है जिसे गाहे-बगाहे जनता द्बारा विबसता में इस्तेमाल किया जाता हैजी हाँ शायद आप समझ गए होंगे कि मैं किस अस्त्र कि बात कर रहा हूँ ?जूता ही वह अस्त्र है जिसे जॉर्ज बुश और पी चिदंबरम के ऊपर भी इस्तेमाल किया जा चुका हैमनोरमा के ०९ अप्रैल के पोस्ट जूता-पुराण में श्यामल सुमन का कहना है कि -"जूता की महिमा बढ़ी जूता का गुणगान।चूक निशाने की भले चर्चित हैं श्रीमान।।निकला जूता पाँव से बना वही हथियार।बहरी सत्ता जग सके ऐसा हो व्यवहार।।भला चीखते लोग क्यों क्यों करते हड़ताल।बना शस्त्र जूता जहाँ करता बहुत कमाल।।"

इस चुनावी बयार में कविता की बात हो और ग़ज़ल की बात हो तो शायद बेमानी होगी वह भी उस ब्लॉग पर जिसके ब्लोगर ख़ुद गज़लकार हो०९ अप्रैल को अनायास हीं मेरी नज़र एक ऐसी ग़ज़ल पर पड़ी जिसे देखकर -पढ़कर मेरे होठों से फ़ुट पड़े ये शब्द - क्या बात है...! चुनावी बयार पर ग़ज़ल के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को धर देने की यह विनम्र कोशिश कही जा सकती हैपाल ले इक रोग नादां... पर पढिये आप भी गौतम राजरिशी की इस ग़ज़ल कोग़ज़ल के चंद अशआर देखिये-न मंदिर की ही घंटी से, न मस्जिद की अज़ानों सेकरे जो इश्क, वो समझे जगत का सार चुटकी में.......बहुत मग़रूर कर देता है शोहरत का नशा अक्सरफिसलते देखे हैं हमने कई किरदार चुटकी मेंखयालो-सोच की ज़द में तेरा इक नाम क्या आयामुकम्मिल हो गये मेरे कई अश`आर चुटकी में......!


मैत्री में २४ मई के अपने पोस्ट आम चुनाव से मिले संकेत के मध्यम से अतुल कहते हैं कि "लोकसभा चुनाव के परिणाम में कांग्रेस को 205 सीटें मिलने के बाद पार्टी की चापलूसी परंपरा का निर्वाह करते हुए राहुल गांधी और सोनिया गांधी की जो जयकार हो रही है, वह तो संभावित ही थी, लेकिन इस बार आश्चर्यचकित कर देनेवाली बात यह है कि देश का पूरा मीडिया भी इस झूठी जय-जयकार में शामिल हो गया है। इस मामले में मीडिया ने अपने वाम-दक्षिण होने के सारे भेद को खत्म कर लिया है।"



दरवार के १६ मार्च के पोस्ट जल्लाद नेता बनकर आ गए में धीरू सिंह ने नेताओं के फितरत पर चार पंक्तियाँ कुछ इसप्रकार कही है -" नफरत फैलाने गए, आग लगाने गए, चुनाव क्या होने को हुए-जल्लाद चहेरे बदल नेता बनकर गए "


प्राइमरी का मास्टर के १३ मार्च के पोस्ट में श्री प्रवीण त्रिवेदी कहते हैं पालीथिन के उपयोग करने पर प्रत्याशी मुसीबत में फंस सकते हैं जी हाँ अपने आलेख में यह रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा है की "पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बिगड़ते पर्यावरण के इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए निर्वाचन आयोग ने चुनावी समर में पालीथिन को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया है।इसके तहत पालीथिन, पेंट और प्लास्टिक के प्रयोग को भी वर्जित कर दिया गया है।मालूम हो कि चुनाव प्रचार के दौरान पालीथिन का इस्तेमाल बैनर, पंपलेट तथा स्लोगन लिखने के रूप में किया जाता है। बाद में एकत्र हजारों टन कचरे का निपटारा बहुत बड़ी चुनौती होती है। लेकिन इस बार यह सब नहीं चल पाएगा।"

कस्‍बा के ०९ अप्रैल के पोस्ट लालू इज़ लॉस्ट के माध्यम से श्री रविश कुमार ने बिहार के तीन प्रमुख राजनीतिक स्तंभ लालू-पासवान और नीतिश के बाहाने पूरे चुनावी माहौल का रेखांकन किया हैश्री रविश कुमार कहते है कि -"बिहार में जिससे भी बात करता हूं,यही जवाब मिलता है कि इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई है। जो लोग बिहार के लोगों की जातीय पराकाष्ठा में यकीन रखते हैं उनका कहना है कि लालू पासवान कंबाइन टरबाइन की तरह काम करेगा। लेकिन बिहार के अक्तूबर २००५ के नतीजों को देखें तो जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर बड़ी संख्या में वोट इधर से उधर हुए थे। यादवों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। मुसलमानों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। पासवान को कई जगहों पर इसलिए वोट मिला था क्योंकि वहां के लोग लालू के उम्मीदवार को हराने के लिए पासवान के उम्मीदवार को वोट दे दिया। अब उस वोट को भी लालू और पासवान अपना अपना मान रहे हैं। "

अनसुनी आवाज के २८ मार्च के एक पोस्ट चुनावों में हुई भूखों की चिंता में अन्नू आनंद ने कहा है की- "कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में सबके लिए अनाज का कानून देने का वादा किया है। घोषणा पत्र में सभी लोगों को खासकर समाज के कमजोर तबके को पर्याप्त भोजन देने देने का वादा किया गया है। पार्टी ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हर परिवार को कानूनन हर महीने 25 किलो गेंहू या चावल तीन रुपए में मुहैया कराने का वादा किया है। पार्टी की घोषणा लुभावनी लगने के साथ हैरत भी पैदा करती है कि अचानक कांग्रेस को देश के भूखों की चिंता कैसे हो गई।" वहीं अपने २९ मई के पोस्ट में बर्बरता के विरुद्ध बोलते हुए चिट्ठाकार का कहना है -चुनावों में कांग्रेस की जीत से फासीवाद का खतरा कम नहीं होगा।

चुनाव के बाद के परिदृश्य पर अपनी सार्थक सोच को प्रस्थापित करते हुए रमेश उपाध्याय का कहना है की -"भारतीय जनतंत्र में--एक आदर्श जनतंत्र की दृष्टि से--चाहे जितने दोष हों, चुनावों में जनता के विवेक और राजनीतिक समझदारी का परिचय हर बार मिलता है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी उसकी यह समझदारी प्रकट हुई।" यह ब्लॉग पोस्ट ०२ जून को लोकसभा चुनावों में जनता की राजनीतिक समझदारी शीर्षक से प्रकाशित है


१९ मई को भारत का लोकतंत्र पर प्रकाशित ब्लॉग पोस्ट पर अचानक नज़र ठहर जाती है जिसमें १५वि लोकसभा चुनावों की पहली और बाद की दलगतस्थिति पर व्यापक चर्चा हुयी हैवहीं ३० अप्रैल को अबयज़ ख़ान के द्वारा अर्ज है - उन चुनावों का मज़ा अब कहां ? जबकि २७ अप्रैल को कुलदीप अंजुम अपने ब्लॉग पोस्ट के मध्यम से अपपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए कहते हैं-" सुबह को कहते हैं कुछ शाम को कुछ और होता ,क्या अजब बहरूपिये हैं, हाय ! भारत तेरे नेता !! २५ अप्रैल को हिन्दी युग्म पर सजीव सारथी का कहना है की - "आम चुनावों में आम आदमी विकल्पहीन है ....!"कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिये- "चुनाव आयोग में सभी प्रतिभागी उम्मीदवार जमा हैं,आयु सीमा निर्धारित है तभी तो कुछ सठियाये धुरंधरदांत पीस रहे हैं बाहर खड़े, प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही,भेजे है अपने नाती रिश्तेदार अन्दर,जो आयुक्त को समझा रहे हैं या धमका रहे हैं,"जानता है मेरा....कौन है" की तर्ज पर...बाप, चाचा, ताया, मामा, जीजा आप खुद जोड़ लें...!"

राजनीति और नेता ऐसी चीज है जिसपर जितना लिखो कम है , इसलिए आज की इस चर्चा को विराम देने के लिए मैंने एक अति महत्वपूर्ण आलेख को चुना हैयह आलेख श्री रवि रतलामी जी के द्बारा दिनांक 14-4-2009 को Global Voices हिन्दी पर प्रस्तुत किया गया है जो मूल लेखिका रिजवान के आलेख का अनुवाद हैआलेख का शीर्षक है- इस प्रविष्टि की स्थाई कड़ी" href="http://hi.globalvoicesonline.org/india-the-advent-of-citizen-driven-election-monitoring/" rel=bookmark>आम चुनावों में लगी जनता की पैनी नज़रइन पंक्तियों से इस आलेख की शुरुआत हुयी है -"हम जिस युग में रह रहे हैं वहाँ जानकारियों का अतिभार है। ज्यों ज्यों नवीन मीडिया औजार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बना रहे हैं, साधारण लोग भी अपना रुख और अपने इलाके की मौलिक खबरें मीडिया तक पहुंचा रहे हैं। ट्विटर और अन्य सिटिज़न मीडिया औजारों की बदौलत ढेरों जानकारी आजकल तुरत फुरत साझा कर दी जाती है। मुम्बई आतंकी हमलों के दौरान ट्विटर के द्वारा जिस तरह की रियल टाईम यानी ताज़ातरीन जानकारियाँ तुरत-फुरत मिलीं उनका भले ही कोई लेखागार न हो पर यह जानकारियाँ घटनाक्रम के समय सबके काम आईं।"

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

12.6.10

हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-1

आज जिस प्रकार हिंदी ब्लागर साधन और सूचना की न्यूनता के बावजूद समाज और देश के हित में एक व्यापक जन चेतना को विकसित करने में सफल हो रहे हैं वह कम संतोष की बात नही है। हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देने में हर उस ब्लाॅगर की महत्वपूर्ण भूमिका है जो बेहतर प्रस्तुतीकरण, गंभीर चिंतन, सम सामयिक विषयों पर सूक्ष्मदृष्टि, सृजनात्मकता, समाज की कुसंगतियों पर प्रहार और साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से अपनी बात रखने में सफल हो रहे हैं। ब्लॉग लेखन और वाचन के लिए सबसे सुखद पहलू तो यह है कि हिन्दी में बेहतर ब्लॉग लेखन की शुरुआत हो चुकी है जो हम सभी के लिए शुभ संकेत का द्योतक है। वैसे वर्ष-2009 हिंदी ब्लाॅगिंग के लिए व्यापक विस्तार और वृहद प्रभामंडल विकसित करने का महत्वपूर्ण वर्ष रहा है। आइए वर्ष -2009 के महत्वपूर्ण ब्लॉग और ब्लॉगर पर एक नजर डालते हैं
हिंदी ब्लॉग विश्लेषण -2009 की शुरुआत एक ऐसे ब्लॉग से करते हैं जो हिंदी साहित्य का संवाहक है और हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में दृढ़ता के साथ सक्रिय है। वैसे तो इसका हर पोस्ट अपने आप में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है , किन्तु शुरुआत करनी है इसलिए 20 जून-2009 के एक पोस्ट से करते हैं। हिंदी युग्म के साज -वो-आवाज के सुनो कहानी श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हिंदी के मूर्धन्य कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानीइस्तीफासे मुंशी प्रेमचंद की कहानी इस्तीफा को स्वर दिया है पिट्सवर्ग अमेरिका के प्रवासी भारतीय अनुराग शर्मा ने।
शपथ-इस्तीफा के बाद राजनीति का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू पुतला दहन, पुतला दहन का सीधा-सीधा मतलब है जिन्दा व्यक्तियों की अन्त्येष्टि। पहले इस प्रकार का कृत्य सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों तक सीमित था। बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में रावण-दहन की परम्परा थी, कालांतर में राजनैतिक और प्रशासनिक व्यक्तियों के द्वारा किए गए गलत कार्यों के परिप्रेक्ष्य में जनता द्वारा किए जाने वाले विरोध के रूप में हुआ। पुतला-दहन धीरे-धीरे अपनी सीमाओं को लाँघता चला गया। आज नेताओं के अलावा महेंद्र सिंह धौनी से लेकर सलमान खान तक के पुतले जलते हैं। मगर छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक बाप ने अपनी जिंदा बेटी का पुतला जलाकर पुतला-दहन की परम्परा को राजनैतिक से पारिवारिक कर दिया और इसका बहुत ही मार्मिक विश्लेषण किया है शरद कोकास ने अपने ब्लॉग पास-पड़ोस पर दिनांक 24.07.2009 को प्रेम के दुश्मन शीर्षक से। शपथ, इस्तीफा, पुतला दहन के बाद आइए रुख करते हैं राजनीति के चैथे महत्वपूर्ण पहलू मुद्दे की ओर, जी हाँ ! कहा जाता है कि मुद्दों के बिना राजनीति तवायफ का वह गजरा है, जिसे शाम को पहनो और सुबह में उतार दो अगर भारत का इतिहास देखें तो कई मौकों और मुद्दों पर हमने खुद को विश्व में दृढ़ता से पेश किया है लेकिन अब हम भूख, महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों से लड़ रहे हैं। आजकल मुद्दे भी महत्वाकांक्षी हो गए हैं। अब देखिये ! पानी के दो मुद्दे होते हैं, एक पानी की कमी और दूसरा पानी की अधिकता। पहले वाले मुद्दे का पानी हैंडपंप में नहीं आता, कुओं से गायब हो जाता है, नदियों में सिमट जाता है और यदि टैंकर में लदकर किसी मुहल्ले में पहुँच भी जाए तो एक-एक बाल्टी के लिए तलवारें खिंच जाती हैं। दूसरे वाले मुद्दे इससे ज्यादा भयावह हैं यह संपूर्ण रूप से एक बड़ी समस्या है। जब भी ऐसी समस्या उत्पन्न होती है, समाज जार-जार होकर रोता है, क्योंकि उनकी अरबों रुपये की मेहनत की कमाई पानी बहा ले जाता है। सैकड़ों लोग, हजारों मवेशी अकाल मौत के मुँह में चले जाते हैं और शो का पटाक्षेप इस संदेश के साथ होता है - अगले साल फिर मिलेंगे !
ऐसे तमाम मुद्दों से रूबरू होने के लिए आपको मेरे साथ चलना होगा बिहार, जहाँ के श्री सत्येन्द्र प्रताप ने अपने ब्लॉग जिंदगी के रंग पर दिनांक 07.08.2009 को अपने आलेख कोसी की अजब कहानी में ऐसी तमाम समस्यायों का जिक्र किया है जिसको पढ़ने के बाद बरबस आपके मुँह से ये शब्द निकल पड़ेंगे कि क्या सचमुच हमारे देश में ऐसी भी जगह है जहाँ के लोग पानी की अधिकता से भी मरते हैं और पानी होने के कारण भी। ऐसा नहीं कि श्री सत्येन्द्र अपने ब्लॉग पर केवल स्थानीय मुद्दे ही उठाते हैं, अपितु राष्ट्रीय मुद्दों को भी बड़ी विनम्रता से रखने में उन्हें महारत हासिल है। दिनांक 04.06.2009 के अपने एक और महत्वपूर्ण पोस्ट-यह कैसा दलित सम्मान?, में श्री सत्येन्द्र ने दलित होने और दलित होने से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने रखा है दलित महिला नेत्री मीरा कुमार के बहाने। जिंदगी के रंग में रँगने हेतु एक बार अवश्य जाइए ब्लॉग जिंदगी के रंग पर-मुद्दों पर आधारित ब्लॉग की चर्चा के क्रम में जिस चिट्ठे की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है वह है-आदिवासी जगत और ब्लॉगर हैं-श्री हरि राम मीणा। यह ब्लॉग आदिवासी समाज को लेकर फैली भ्रांतियों के निराकरण और उनके कठोर यथार्थ को तलाशने का विनम्र प्रयास है। दिनांक 22.05.2009 को प्रकाशित अपने आलेख आदिवासी संस्कृति-वर्तमान चुनौतियों का उपलब्ध मोर्चा में श्री मीणा आदिवासी समाज के ज्ञान भंडार को डिजिटल शब्दों के साथ साइबर संसार में फैलाना चाहते हैं। अब आइए उस ब्लॉग की ओर रुख करते हैं जो एक ऐसे ब्लाॅगर की यादों को अपने आगौश में समेटे हुए है जिसकी कानपुर से कुबैत तक की यात्रा में कहीं भी माटी की गंध महसूस की जा सकती है। अपने ब्लॉग मेरा पन्ना में कानपुर के जीतू भाई कुवैत जाकर भी कानपुर को ही जीते हैं। वतन से दूर, वतन की बातें, एक हिन्दुस्तानी की जुबाँ से अपनी बोली में! दिनांक 09.09.2009 को इस ब्लॉग के पाँच साल पूरे हो गए। इंटरनेट के चालीस साल होने के इस महीने में हिंदी के एक ब्लॉग का पाँच साल हो जाना कम बड़ी बात नहीं है।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

23.5.10

ईमानदारी

कहा जाता है कि हर सिद्धान्त का एक अपवाद हुआ करता है। सिद्धान्त है - इस युग का हर वह व्यक्ति ईमानदार है जिसको बेईमानी का मौका नहीं मिलता, लेकिन एक नाम अपवाद है जो है अकील ज़फर। कहते हैं -

काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाए।
एक लीक काजल की लगि है सो लागि है॥

कहा जाता है कि अपने देश के हर सरकारी विभाग में भ्रष्टाचार ही फल-फूल रहा है लेकिन स्टाम्प और पंजीयन विभाग नीचे से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ विभाग है। विक्रय विलेख का पंजीयन हो या फिर मामूली से वसीयत नामे का, बिना चढ़ावा के कोई भी पंजीयन सम्भव नहीं हैं, यह एक आम राय बन चुकी है।
माननीय इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के समक्ष महानिरीक्षक पंजीयन हिमांशु कुमार ने उपस्थित होकर बताया कि अकील ज़फर उनके विभाग का अकेला अधिकारी (अतिरिक्त महानिरीक्षक, स्टाम्प) ही ईमानदार व्यक्ति है, जिसका समर्थन के दूसरे अधिकारी श्री 0के0 द्विवेदी ने भी किया, फिर इस बयान पर हंगामा क्यों? अधिकारियों की समिति ने और विशेष करके समिति के अध्यक्ष श्री 0पी0 सिंह ने यह हंगामा क्यों खड़ा किया? जबकि श्री हिमांशु कुमार का बयान स्वयं उनके खिलाफ भी जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि चोर अपनी दाढ़ी में तिनका ढूंढ रहा हो। इस औदे पर रहकर अगर एक अधिकारी सिर्फ अपने बच्चों को पढ़ा सकता है और वह अपने घर में अपनी पत्नी की इच्छा पूर्ति के लिए सोफा नहीं ला सकता और अपने से दफ्तर पैदल जाता-आता है, तो इस तरह की ईमानदारी को ईमानदारी नहीं तो फिर क्या कहें।
श्री 0पी0 सिंह जी मान जाइए आप भी ईमानदार को ईमानदार कहिए, वार्षिक प्रवृष्टि तो हर एक की अच्छी होती है बल्कि जहां सब बेईमान हों यहां तक कि वार्षिक इन्ट्री देने वाला भी तो वार्षिक इन्ट्री कैसे खराब हो सकती है। यह दुनिया, बेईमान चाहे जितने बढ़ जाएं चलती है और चलती रहेगी, लेकिन ईमानदारी और ईमानदार की तारीफ भी हमेशा होती आई है और होती रहेगी। ईमानदारी बस ईमानदारी है इसकी महत्ता को कम कीजिए।

--मोहम्मद शुऐब