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23.6.10

महिला खेत पाठशाला का दूसरा सत्र








मंगलवार का दिन हिन्दुओं में हनुमान के नाम होता है| मंगलवार के दिन बरती रहना व प्रसाद बाँटना आम बात है| इस दिन ज्यादातर नाई भी अपनी दुकान बंद रखते हैं| परन्तु इनसे हटकर निडाना गावं में यह मंगलवार का दिन महिला खेत पाठशाला के नाम मुकर्र है| आज सुबह सवेरे ही महिलायें घर के काम निपटा कर आठ बजे ही डिम्पल पत्नी विनोद के खेत में पहुँच चुकी थी| उन्होंने कृषि विभाग के अधिकारियों का इंतजार किये बगैर ही पौधों के अवलोकन व् निरिक्षण का काम शुरू कर दिया था| भूमि संरक्षण अधिकारी, डा.मीना सुहाग जब डा.सुरेन्द्र दलाल व् मनबीर के साथ इस पाठशाला में पहुंची तो महिलाएं खेत में कीटों का निरक्षण कर रही थी| महिला अधिकारी को अपने बीच पाकर अर वो भी इतने सवेरे, महिलाओं की ख़ुशी का ठिकाना नही रहा| महिलाओं ने लस्सी पिलाकर अपनी इस अधिकारी, डा.मीना सुहाग का स्वागत किया | इसके बाद इन महिलाओं ने पांच-पांच के समूह बनाए| अपने साथ एक-एक उत्प्रेरक लिया| एक टोली के साथ जिले के कीट विशेषग किसान मनबीर रेड्हू, दुसरे ग्रुप के साथ डा.कमल सैनी, तीसरे समूह के साथ, डा.सुरेन्द्र दलाल, चौथे समूह के साथ रणबीर मालिक व् पांचवे समूह के साथ मीना मालिक थी| सभी समूहों ने दस-दस पौधों का बारीकी से निरिक्षण किया व् इन पौधों पर कीटों की गिनती की| इसके बाद हर समूह ने अपनी-अपनी प्रस्तुति दी| आज कपास के इस खेत में हानिकारक कीटों के रूप में सफ़ेद मक्खी, ह्ऱा-तेला, चुरडा व् मिलीबग की उपस्तिथि तो सभी समूहों ने दर्ज कराई पर इनमेसे कोई भी कीट आर्थिक- दहलीज़ को पार करते हुए नही पाया गया| महिला-समूहों की इस प्रस्तुति का निचोड़ पेश करते हुए डा.कमल सैनी ने बताया की आज के दिन इस फसल पर किसी भी कीटनाशक का छिडकाव करने की कोई आवश्यकता नही है| लाभदायक कीटों के रूप में अभी तक इस खेत में सिवाय मकड़ियों के कोई कीट नही देखा गया| पर इस बात मीणा मलिक ने सैनी सर को याद दिलाया की आज हमने मिलीबग को परजीव्याभीत करने वाला अंगीरा भी तो देखा है| डा.दलाल ने भी इस छात्रा की हाँ में हाँ मिलाई और मौके पर सभी को अंगीरा से परजीव्याभित मिलीबग दिखाए जिनके शरीर से आटानूमा पाउडर उड़ चुका था तथा इनका शरीर लाली लिए भूरा पड़ चुका था|इस ख़ुशी की सुचना पर सभी महिलाओं ने तालियाँ बजाई| मनबीर रेड्हू ने मिलीबग की जानकारी महिलाओं को देते हुए इसकी दो खास कमजोरियों को उजागर किया| एक तो मिलीबग की मादा पंखविहीन होती है तथा दुसरे यह अपने अंडे थैली में देती है. इन दो कमजोरियों के चलते मिलीबग नाम का यह भस्मासुर आसानी से परभक्षियों का शिकार हो जाता है| राजवंती मलिक ने अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए बताया कि हमारे ग्रुप ने तो आज पौधों की ऊँचाई भी नापी है| इस खेत में औसतन पौधों की उचाई आठ-नौ इंच पाई गई है| कार्यक्रम के अंत में डा.मीना सुहाग ने भूमि संरक्षण विभाग द्वारा चलाई जा रही विभिन्न स्किम्मों बारे विस्तार से जानकारी दी व महिलाओं से वादा किया कि जब भी निडाना गावँ की महिलाएं उनके कार्यालय किसी भी कार्य से आएँगी वे हमेशा उनकी सेवा में तैयार पाएंगी| इस खेत पाठशाला के कार्य को नजदीक से समझने के लिए भू.पु.सरपंच बसाऊ राम के साथ रागनी गायक व लेखक राजबीर सिंह ने भी इस खेत में तीन घंटे बिताये|
पाठशाला के कार्य से निपट कर अनीता मलिक ने प्रशिक्षकों क़ी इस पूरी टीम को अपने घर पर जल-पान करवाया|

14.3.10

कृषि उपनिदेशक की किसानों द्वारा भावविनी - विदाई



गत दिवस जिला के गावं निडाना में कृषि विभाग के उपनिदेशक डा.रोहताश सिंह को किसानों द्वारा भावभीनी विदाई दी गई. इस अवसर पर किसानों ने उन्हें पगड़ी पहना कर सम्मानित किया. उल्लेखनीय है कि गत दिनों डा.रोहताश का तबादला जींद से हिसार हो गया है. निडाना वासी किसानों के साथ-साथ इगराह,रूपगढ, ललित खेडा गावं के किसानों ने उन द्वारा यहा कार्यरत रहते दी गई उत्कृष्ट सेवाओं से प्रसन्न हो कर इस विदाई समारोह का आयोजन किया. . काबिले गौर है कि जिले में पहली बार किसी कृषि उपनिदेशक को उनकी सराहनीय सेवाओं के लिए किसानों द्वारा सम्मानित किया गया. निडाना गावं के भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह ने उपनिदेशक महोदय द्वारा निडाना गावं के किसानों के लिए किये कार्यो व् मार्ग दर्शन को याद करते हुए डा.रोहताश के व्यक्तित्व के अनमोल व् अनूठे आयामों के बारे में उपस्थित किसानों व् कृषि अधिकारियों को अवगत कराया तथा किसानों की तरफ से शाल उढ़ा कर सम्मानित किया. राजेन्द्र सिंह ने उपनिदेशक महोदय को डायरी व् पेन भेंट करते हुए अपने चहेते उपनिदेशक से मांग कि साहिब आपके मोबाइल कि तरह से यह पेन व् डायरी भी किसानों के हित निरंतर इस्तेमाल होनी चाहिए. राजकुमार सिंह ने कृषि उपनिदेशक महोदय को किसानों कि तरफ से स्मृति चिन्ह भेंट किया.स्मृति चिन्ह भी अपने आप में अनूठा था जिसके ऊपर मिलीबग के विरुद्ध जंग में किसानों के हीरो-अंगीरा का जीवन-चक्र अंकित था.मनबीर ने इस मौके पर उपनिदेशक से मुखातिब होते हुए बताया कि आपके कार्यकाल में तो हम किसान अपने आप को उपनिदेशक ही समझते थे. इस मौके पर डा.सुरेन्द्र दलाल ने भी विचार रखे. इस विदाई समारोह की विशेष बात यह थी की इसमें महिला-किसानों की भी उलेखनीय भागेदारी थी. कृषि विभाग की तरफ से डा.बलजीत, डा.सुभाष, डा.राजेश व् डा.कमल सैनी ने अपननी उपस्थिथि दर्ज करवाई.इस अवसर पर डा.रोहतास द्वेअ भी इस जिले के किसानों से मिले अथाह प्यार को शब्द देने की भरपूर कोशिश की. कार्यक्रम के अंत में रणबीर सिंह ने इस समारोह के सफल आयोजन के लिए डा.रोहतास सिंह व् कृषि अधिकारियों के साथ-साथ किसानों का भी धन्यवाद किया तथा यहाँ पधारे अधिकारियों व् डा.रोहतास सिंह के लिए दोहपहर के भोज का आयोजन किया.

24.12.09

कपास सेदक कीट - तेलन

यह कीट ना तो तेली की बहु अर् ना इस कीट का तेली से कोई वास्ता फ़िर भी हरियाणा में पच्चास तै ऊपर की उम्र के किसान, अंग्रेजों द्वारा ब्लिस्टर बीटल कहे जाने वाले इस कीट को तेलन कहते हैं। हरियाणा के इन किसानों को यह मालुम हैं कि इस तेलन का तेल जैसा गाढा मूत अगर हमारी खाल पर लग जाए तो फफोले पड़ जाते हैं। इन किसानों को यह भी पता हैं कि पशु-चारे के साथ इन कीटों को भी खा लेने से, हमारे पशु बीमार पड़ जाते हैं। घोडों में तो यह समस्या और भी ज्यादा थी। एक आध किसान को तो थोड़ा-बहुत यह भी याद हैं कि पुराने समय में देशी वैध इन कीटों को मारकार व सुखा कर, इनका पौडर बना लिया करते। इस पाउडर नै वे गांठ, गठिया व संधिवात जैसी बिमारियों को ठीक करने मै इस्तेमाल किया करते। इस बात में कितनी साच सै अर् कितनी झूठ - या बताने वाले किसान जानै या इस्तेमाल करने वाले वैध जी। कम से कम हमनै तो कोई जानकारी नही।
हमनै तो न्यूँ पता सै अक् या तेलन चर्वक किस्म की कीट सै। कीट वैज्ञानिक इस नै Mylabris प्रजाति की बीटल कहते हैं जिसका Meloidae नामक परिवार Coleaoptera नामक कुनबे मै का होता है। इसके शरीर में कैन्थारिडिन नामक जहरीला रसायन होता है जो इन फफोलों के लिए जिम्मेवार होता है। इस बीटल के प्रौढ़ कपास की फसल में फूलों की पंखुडियों , पुंकेसर व स्त्रीकेसर को खा कर गुजारा करते हैं। कपास के अलावा यह बीटल सोयाबीन, टमाटर, आलू, बैंगन व घिया-तोरी आदि पर भी हमला करती है जबकि इस बीटल के गर्ब मांसाहारी होते हैं। जमीन के अंदर रहते हुए इनको खाने के लिए टिड्डों, भुन्डों, मैदानी-बीटलों व् बगों के अंडे एवं बच्चे मिल जाते हैं।
जीवन चक्र:
इस बीटल का जीवन चक्र थोड़ा सा असामान्य होता है। अपने यहाँ तेलन के प्रौढ़ जून के महीने में जमीन से निकलना शुरू करते है तथा जुलाई के महीने में थोक के भावः निकलते हैं। मादा तेलन सहवास के 15-20 दिन बाद अंडे देने शुरू कराती है। मादा अपने अंडे जमीन के अंदर 5-6 जगहों पर गुच्छों में रखती है। हर गुच्छे में 50 से 300 अंडे देती है। अण्डों की संख्या मादा के भोजन, होने वाले बच्चों के लिए भोजन की उपलब्धता व मौसम की अनुकूलता पर निर्भर करती है। भूमि के अंदर ही इन अण्डों से 15-20 दिन में तेलन के बच्चे निकलते है जिन्हें गर्ब कहा जाता है। पैदा होते ही ये गर्ब अपने पसंदीदा भोजन "टिड्डों के अंडे" ढुंढने के लिए इधर-उधर निकलते हैं। इस तरह से भूमि में पाए जाने वाले विभिन्न कीटों के अंडे व बच्चों को खाकर, ये तेलन के गर्ब पलते व बढते रहते है। अपने जीवन में चार कांजली उतारने के बाद, ये लार्वा भूमि के अंदर ही रहने के लिए प्रकोष्ठ बनते हैं। पाँचवीं कांजली उतारने के बाद, लार्वा इसी प्रकोष्ठ में रहता है। इस तरह से यह कीट सर्दियाँ जमीन के अंदर अपने पाँच कांजली उतार चुके लार्वा के रूप में बिताता है। यह लार्वा जमीन के अंदर तीन-चार सेंटीमीटर की गहराई पर रहता है। बसंत ऋतु में इस प्रकोष्ठ में ही इस कीट की प्युपेसन होती है। और जून में इस के प्रौढ़ निकलने शुरू हो जाते हैं।

21.12.09

कांग्रेस घास पर मिलीबग और क्रिप्टोलेम्स

चितंग नहर की गोद में बसा है, जिला जींद का राजपुरा गाँव। जी हाँ। वही चितंग जिसे कभी फिरोज़ साह तुगलक ने बनवाया था। नहरी पानी की उपलब्धता का किसानों की सम्पनता से रिश्ता चोली दामन वाला होता है। इसीलिए तो पुराने समय से ही इस इलाका के किसानों को चितंग के चादरे वाले लोग कहा जाता है। यह चादरा, यहाँ के किसानों की समृद्धि का प्रतीक था। अब इस गाँव में किसानों के कन्धों पर यह चादरा तो कहीं नजर नहीं आता। पर किसानां का ब्यौंत अर् स्याणपत आज भी दूर से ही नजर आती है। प्रकृति के खेल देखो, इस गाँव के जाये नै तो हरियाणा में राज कर राख्या सै जबकि इस गाँव से निकलने वाली सभी सड़कों के किनारों पर एक अमेरिका के जाये का साम्राज्य है। मिर्चपुर को जाने वाली सड़क पर भी हम इस महानुभाव के दर्शन किए बगैर काले के खेत में नहीं पहुँच सकते। यहाँ सड़क के किनारे ही बिजली के ट्यूबवैल का कोठडा है, जामुन व जमोवै के पेड़ हैं। इन्ही पेड़ों में से एक की गहरी छाया में खेत पाठशाला की शुरुवात हो रही है। दिन है 5 जून, 2008 का, बार है वीरवार व समय है क़लेवार का। पाठशाला के छात्रों के रूप में जहाँ एक तरफ़ किसान यूनियन की झलां में को लिकडे हुए महेंद्र, प्रकाश, धर्मपाल व भू0 पु0 सरपंच बलवान जिसे साकटे किसान थे वहीं बाबु के भारी वजूद तले दबे शरीफ व शरमाऊ अजमेर जिसे युवा किसान भी थे। भैंसों के पुन्ज़ड ठा-ठा कै दूध का अंदाजा लाने वाले भीरे बरगे किसान भी थे। विभाग कि तरफ़ से कृषि विकास अधिकारी व खंड अधिकारी, दोनों कोहलै म्हं के सांगवान थे। दिन के ग्यारह बजे सी, एक छैल-छींट युवा किसान ने अपनी हीरो-होंडा वहाँ आकर रोकी। मिलीबग से लथपथ कांग्रेस घास के दो पौधें सबके बीच फेंकते हुए बोला,"थाम आडै कैम्प लाए जावो। उडे इस बीमारी नै मेरी बाडी का नाश कर दिया। "

कई जनें एक स्वर में विशेषज्ञों की तरह टूट कर पड़े, "कांग्रेस घास नै उखाड़ कर मिलीबग सम्मेत मिट्टी में दबा दे। बांस रहेगा, ना बाँसुरी।"
या सुन कै खूंटा ठोक पै भी चुप नहीं रहा गया, "दोनों को मिट्टी में क्यों दबा दे?"
इस खींचतान में एंडी विशेषज्ञों की एक नई सलाह सामने आई, "कांग्रेस घास नै उखाड़ कर मिलीबग सम्मेत जलाओ और फेर इसने मिट्टी में दाबो।"
इब भी खूंटा ठोक की सवालिया कड़छी(?) यूँ ही उपर देख, इन विशेषज्ञों से रहा नहीं गया, "तू तो सदा ऐ उल्टे बीन्डे की तरफ़ तै पकड़ा करै!"
"कांग्रेस घास अर इस मिलीबग के साथ कुछ भी करने से पहले, हमें इस घास व कीड़े की परिस्थितियों का पूर्वावलोकन व बारीकी से निरिक्षण करना चाहिए।" - खूंटा ठोक नै भी बात घुमाई।

घाम भी लहू चलान आला था अर टेम भी भला ना था। सिकर दोपहरी। फेर भी आज सभी नै सामूहिक रूप से लिख पाडण का कड़ा फैसला ले लिया। तीन समूहों में बंट कर तीन जगह पर कांग्रेस घास पर मिलीबग का अध्यन शुरू किया। सवा घंटा किसी भी ग्रुप में किसी को भी मिलीबग व चिट्टियों के सिवाय कुछ नज़र नहीं आया। फ़िर अचानक धर्मपाल चिल्लाया, "देखियो, यू तो मिलीबग कोन्या दीखता। इसके ये सफ़ेद मोम्मिया तंतु तो मिलीबग के मुकाबले बहुत लंबे सै। इसकी चाल देखो। मिलीबग तो सात जन्म में भी इतना तेज़ कोन्या चलै। यु के? यु तो थोड़ा सा करेलदें ही गंजा होगा।"
मुहँ आगे तै ढाट्ठा हटा कर, महेंद्र थोड़ा सा शर्माते हुए कहने लगा, "मरेब्ट्टे का एक आध पै तो यु उल्टा बींडा भी कसुत फिट बैठ जा सै। "
भीरे नै टेक में टेक मिलाई, "खूंटा ठोकू पौधानाथ जी, इब क्यूँ जमा मोनी बाबा बनगे। कुछ तो बताओ।"
" के बोलू भीरे, उतेजना अर् आश्चर्य राहु केतु बन मेरे दिमाग पै बैठे सै।", खूंटा ठोक नै धीरे धीरे बात सरकाना शुरू किया। "थाम नै बेरया सै यु के ढुँढ दिया। यु छोटा सा कीड़ा तो Cryptolaemus बीटल सै। थोक के भाव मिलीबग को खाने वाला। इसे आस्ट्रेलियन बीटल भी कहते है। पैदा होने से लेकर मरने तक यह कीड़ा, 2300 से 5000 तक मिलीबग खा जाता है। यु देखो इसका प्रौढ रहा।
सन्तरी से सिर आला काला मिराड। बस तीन-चारमिलीमीटर लंबा। इसकी मादा आगै की होण लाग रही सै।या चार सौ के आस-पास अंडे देगी। या अपने अंडे मिलीबगके अण्डों में रखेगी ताकि इसके नवजात शिशुवों को पैदाहोते ही भर पेट खाना मिलीबग के बच्चों के रूप में मिलजाए। प्रकृति के खेल देखो - कांग्रेस घास मानव के लिए प्रलयकारी तथा मिलीबग के लिए पालनहार। मिलीबग कपास के लिए प्रलयकारी तथा क्रिप्टोलैमस बीटल के लिए पालनहार। " और इस तरहसे राजपुरा,रूपगढ निडाना के किसानो ने यहाँ की परिस्थितियों में कांग्रेस घास पर सात किस्म की मांसाहारीबीटल्स ढूंड ली जो मिलीबग का सफाया करती है। उनकी जानकारी अगले अंकों में।

20.12.09

आसुज का एक दिन निडाना में !!!

आसुज लागदै की ग्यास नै चाँद निडाना के आसमान में सारी रात खेस तान कर सुता पड़ा था। सुबह-सवेरे कृषि विकास अधिकारीयों के स्वागत वास्ते इसने ठान की किसमे हिम्मत! इसीलिए पाठशाला के चौदहवें सत्र की प्रभात वेला में निडाना--चाबरी के अड्डे पर पाठशाला के केवल छ: किसान ही अपने हथजोडे(praying-mentis) का स्वागती बैनर उठाए इस उधेड़--बुन में खड़े थे कि HAMETI जींद से चौदहवीं के चाँद आयेंगे या आफताफ? खोटा इंतज़ार क्षणिक ही हुआ। ठीक आठ बज कर आठ मिनट पर हमेटी की मिनी--बस अड्डे पर आकर रुकती है। आठ मिनट लेट इसलिए होगे अक सारे रास्ते ड्राइवर कै माथे सूरज लागै था। इस बस में से ना तो कोई चाँद उतरा अर् ना कोई आफताफ। इसमे से उतरे गिन कर उन्नतीस कृषि विकास अधिकारी जो हरियाणा कै दस जिलों की नुमाईंदगी कर रहे थे तथा अब हमेटी, जींद में चल रही TOF के शिक्षार्थी। डा.हरभगवान लेट होग्या। उसने ल्याण कै चक्कर में डा.लाठर लेट होग्या। डा.नेहरा कै ताप चढ़ग्या। डा.जैन के बोझ तै मिनी--बस दबै थी। ख़ैर डा.मांगे, डा.सुभाष व् डा.राजेश की अगुवाई में इन कृषि अधिकारियों का स्वागत करते हुए भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह व् उसके साथी किसानों की टीम इन्हें गावं की तरफ़ लेकर चली। अभी आधा फर्लांग भी नही चले थे कि रणबीर व् साथी किसान अपने बुगडों वाले स्वागती बैनर के साथ शिक्षार्थियों के स्वागत में पलकें बिछाएं खड़े थे। इसके बाद मनबीर की टीम फेर राममेहर की, फेर संदीप की टीम मकडियों, लेडी बिटलों व् मक्खियों के स्वागती बैनरों सम्मेत खड़ी थी तथा अंत में राजेन्द्र की टीम कपास सेदक कीटों वाला बायकाटी बैनर उठाए खड़ी थी।
यहीं कृषि विकास अधिकारी का कार्यालय है। चौदाह बाई चौदह का कमरा। अंदर पधारने पर "चक्चुन्दर कै आए मेहमान--आ भै! लटक " वाली स्थिति थी। दफ्तर में खड़े--खड़े ही हालवे अर् बाक्लियाँ का ब्रेकफास्ट। हलवा गजब का स्वाद अर् बाकलियाँ का भी तोड़ होरया था। खड़े--खड़े ही गावं के सरपंच रामभगत सेठ नै मेहमानों का स्वागत किया अर् पैन व् पैड सप्रेम भेंट किए। खड़े--खड़े ही कृषि अधिकारियों व् किसानों की छ: टिम्में बनी। हर टीम में छ: किसान अर् छ: अधिकारी थे। ये टीम गावं के खेतों में अलग--अलग लोकेशंज पर गई। ये सभी टिम्मे अपना अवलोकन,निरिक्षण व् संवाद कायमी का काम निपटा व् खाना खाकर ठीक बारह से साढ़े बारह के बीच ब्राहमणों वाली चौपाल में पहुँची और यहीं शुरू हुआ किसानों व् कृषि अधिकारियों के मध्य संवाद कायमी का सिलसिला। सूत्रधार बने डा.सुभाष। सत्र की शुरुआत में ही डा.साहिब ने किसानों की दिल खोल कर तारीफ करते हुए गावं में पधारने पर अधिकारीयों की आभगत व् किसानों के कीट ज्ञान के लिए भूरी--भूरी प्रशंसा के बड़े--बड़े भरोट्टे बाँध दिए। सराहना की अभावग्रसता से सत्या हारे किसानों पर इस पीठ थप--थपाई का गजब का असर हुआ। ठीक इसी समय हमेटी, जींद के प्राचार्य डा.बी.एस.नैन इस चौपाल में पधारे। कृषि उपनिदेशक, डा.रोहताश सिंह, कृषि विज्ञानं केन्द्र, पिंडारा के मुख्य विज्ञानी डा.आर.डी.कौशिक भी इस पंचायत के मार्गदर्शन हेतु निडाना पहुंचे। वर्तमान सरपंच रामभगत व् भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह ने गावं व् विभाग की तरफ़ से मुख्य मेहमानों का पगड़ी पहना कर आदरमान किया। किसानों ने उनका फुलमालाओं से स्वागत किया। अधिकारीयों एवं किसानों की इस कृषि --पंचायत में रणबीर ने बेहीचक एवं निसंकोच निडाना की धरती पर कपास की फसल में पाए गए 24 हानिकारक व् 32 हितकारी कीटों के बारे में पंचायत को अवगत कराया। सूत्रधारी डा.सुभाष ने अपना तफसरा रखा कि हे! पाठशाला के किसानों आपके इस कीट--ज्ञान के तो हम कायल हैं। अब तो आप निडाना क्षेत्र में सिरसा--फतेहाबाद के मुकाबले कपास की कम पैदावार के कारणों पर बहस करो। मनबीर ने कृषि--पंचायत को बताया कि हमारे यहाँ घाट पैदावार के मुख्य कारणों में से एक है--प्रति एकड़ पौधों कि संख्या कम होना. हमने इस सीजन में साठ से ज्यादा किलों में कपास के पौधों कि गिनती की है। 504 से लेकर 3227 पौधे प्रति एकड़ पाए गये। अब आप बताइये! पौधों की इतनी कम संख्या से अच्छी--खासी पैदावार कहाँ से आएगी?
दूसरा कारण-- खरपतवारों का ठीक से नियंत्रण ना होना। बेहतर अंकुरण के लिए डा.कमल ने अपने अनुभव विस्तार से किसानों के साथ साझे किए तथा डा.राजपाल सुरा ने पंचायत को नलाई--गुडा के नये यंत्र व् इस पर उपलब्ध सब्सिडी बारे अवगत कराया। बहस के दायरे को विस्तार देते हुए, कृषि विज्ञानं केन्द्र के मुख्य वैज्ञानिक डा.आर.डी.कौशिक ने बेहतर पोषण प्रबंधन वास्ते किसानों से अपने खेत की मिटटी जाँच करवाने की अपील कर डाली। अचानक मिटटी जांच की प्रमाणिकता को लेकर इस पंचायत में अनावश्यक तीखी बहस चल निकली। गैरप्रमाणिकता से मिटटी जांच की आवश्यकता को नकारा नही जा सकता--डा.रोहताश सिंह ने हस्तक्षेप करते हुए किसानों से निराशा से बचने की अपील की और भविष्य में मिटटी नमूनों की सही जाँच का भरोसा दिलाया। अब भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह ने पादक-पोषण व् कीट--नियंत्रण के लिए 5.5% जिंक--यूरिया--डी.ऐ.पी.घोल (0.5%जिंक: 2.5%यूरिया:व् 2.5%डी.ऐ.पी.) के स्प्रे परिणाम पंचायत में बहस के लिए रखे। उन्होंने बताया कि इस घोल का छिडकाव करने से कपास की फसल में छोटे--छोटे कीट (तेला, मक्खी, चुरडा, माईट व् चेपा आदि) मरते हुए पाए गए तथा स्लेटी भुंड जैसे कीट सुस्त अवस्था में पाए गये. इस तथ्य को 15-20 किसानों ने तीन--चार बार अजमा कर देखा है। डा.हरभगवान ने इस प्रस्तुति की दार्शनिक अंदाज में व्याख्या देने की भरपूर कौशिक की। उन्होंने किसानों को बताया कि सभी अण्डों से बच्चे नहीं निकलते। सभी बच्चे प्रौढ़ नही बन पाते और सभी प्रौढ़ अंडे देने तक जिन्दा नही रह पाते। नवजात कीट तो फौके पानी से भी मर जाते हैंलेकिन पंचायत को यह उत्तर हजम नही हुआ। किसानों ने दो टूक उत्तर माँगा कि हमें यह बताओ अक पौषक तत्वों का 5% का यह घोल कीटों के लिए टाक्षिक होगा या नहीं? इस पर डा.कौशिक ने आगे बात बढाई कि कृषि विश्वविद्यालय तो इस घोल की शिफारिस नही करता। इस घोल से तो पौधों पर घातक परिणाम आने चाहियें।
अब चंद्रपाल ने उसके खेत में देसी माल का छत्ता होने के बावजूद शहद की मक्खियों का बी.टी.कपास के फूलों पर न आने का मुद्दा उठाया। इस बात की पुष्टि आज इस खेत पर गए कृषि विकास अधिकारीयों की टीम ने भी की। इस मुद्दे का भी आज की इस पंचायत में कोई सर्वमान्य व् संतोषजनक जवाब नही मिल पाया।
डा.नविन यादव ने कपास के बी.टी.बीजों में पौधों की जड़ों की कम लम्बाई के तथ्य को रेखांकित करना चाहा। उन्होंने आशंका प्रकट की कि कही ये बी.टी.बीजों की विशेषता ही ना हो। इस पर डा.दलाल ने हस्तक्षेप करते हुए फ़रमाया की यह सिंचाई सुविधावों व् भारी मशीनरी के निरंतर इस्तेमाल से पथराई भूमि भी एक कारण हो सकता है।
बी.टी.की खाम्मियों का जिक्र चलते ही गावं के भू.पु.सरपंच बसाऊ का जोश बुढ़ापे में जोर मारने लगा। कहने लगे कि यु नया कीड़ा मिलीबग भी इन बी.टी.बीजों के साथ भारत में आया सै।
पाण्डु-पिंडारा के कृषि विज्ञानं केन्द्र से आए डा.जगत सिंह ने बसाऊ कि इस जानकारी को दुरस्त करने की नियत से फ़रमाया कि यह मिलीबग तो हिन्दुस्तान में 1995 यानि की बाढ़ वाली साल से पहले भी देखा गया है और इसकी रिपोर्ट विभिन्न रसालों की हुई है।
खुली पंचायत और खुल कर बात कहने की सब को छुट। इसी मौके का फायदा उठाते हुए डा.दलाल ने भी फिन्नोकोक्स सोलेनोपसिस नामक मिलीबग की रिपोर्टिंग की मांग डा.जगत सिंह से कर डाली। डा.दलाल तो यहाँ तक भी कह गये कि 1995 की छोडो अगर भारत में किसी ने यह फिनोकोक्स सोलेनोप्सिस नाम का मिलीबग किसी ने 2002 से पहले हमारे देश में देखा हो तो वह कुँए में पड़ने को तैयार?
आज के इस प्रोग्राम में मज़ा आ गया। समय का किसी को भी ध्यान नही रहा। ठीक साढ़े तीन बजे डा.सुनील दलाल ने रसगुल्लों से सभी प्रतिभागियों का मुहं मिट्ठा करवाना शुरू किया। इसी समय कृषि उपनिदेशक डा.रोहताश सिंह ने जिले में चल रही कृषि विभाग की विभिन्न स्किम्मों की जानकारी दी। उन्होंने आज के इस प्रोग्राम में उभरे बहस के मुख्य बिन्दुओं को वर्कशाप में उठाने की भी बात कही। प्रोग्राम की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए हमेटी के प्राचार्य डा.बी.एस.नैन ने निडाना के इन किसानों को एक दिन हमेटी में आने का निमंत्रण दिया। आज के इस कार्यकर्म के अंत में सभी प्रतिभागियों का धन्यवाद करते हुए डा.सुरेन्द्र दलाल ने डा.नार्मन बोरलाग की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव रखा जिस पर सभी ने दो मिनट का मौन धारण कर इस महान कृषि वैज्ञानिक को श्रधांजलि भेंट की।

18.11.09

कांग्रेस घास पर हितेषी कीट हाफलो


हाफलो, जी हाँ ! जिला जींद में निडाना, रूपगढ व राजपुरा के किसान इस छोटी सी बीटल को इसी नाम से पुकारते हैं क्योंकि इसके प्रौढ तथा गर्ब दोनों ही हाफले मार-मार कर मिलीबग के शिशुओं को खाते हैं। जबकि सांईसदान इसे कोक्सिनेलिड कुल की ब्रुमस कहते है। इस बीटल के प्रौढ व गर्ब निरामिषि होते हैं। अपना पेट भरने के लिए, इन्हें सारा दिन दुसरे कीट या उनके अंडे ढुन्ढने में ही गुजारना पड़ता है। बहुत सारे कीट या अंडे एक ही जगह खाने को मिल जाए तो, इनके ठाठ हो जाते हैं। ऐसा अवसर, इन्हें मिलीबग के कारण ही मिल पाता है क्योंकि मिलीबग की प्रौढ मादा हर ब्यांत में सैंकडों अंडे एक थैली में देती है। सुरक्षा उपायों के कारण, मिलीबग की मादा इस थैली को अपनी छाती के नीचे रखती है। मिलीबग का पालन-पोषण व प्रजनन कांग्रेस घास व अन्य गैरफसली पौधों पर होना किसानों के लिए अगले जन्म का सचा सौदा बेशक ना हो पर वर्त्तमान में फायदे का सौदा तो जरुर होता है। कांग्रेस घास मिलीबग के लिए कुदरती तौर पर सुरक्षित ठिकाना भी होगा तथा भोजन का स्रोत भी। इसका मतलब मिलीबग के लिए लधने-बढ़ने के भरपूर अवसर। परन्तु जिस तरह से घी मक्खी का बैरी होता है ठीक उसी तरह से जी का जी बैरी होता है। अतः कांग्रेस घास पर मिलीबग का फलना-फुलना मांसाहारी कीटों के लिए सुनहरी मौका होगा और उन्हें भी जीवनयापन व वंशवृद्धि का सुलभ स्रोत मिल जाता है।इस तरह से स्थापित हो जाती है प्रकृति में एक भोजन श्रंख्ला। बस आवश्यकता है तो किसानों द्वारा इस प्रक्रिया को समझने की तथा कीट साक्षरता के नवसाक्षर होने की अन्यथा इस कलयुग में किसी दिन हमारा कृषि-प्रजापति ऑस्ट्रेलिया या जापान से इन बीटलों की अटैची भर कर दिल्ली के हवाई अड्डे पर आसमान से उतरेगा। देश भर के कीट-शंकरों को दिल्ली में फालन करेगा। बी.टी.कपास के भस्मासुर इस मिलीबग से किसानी को मुक्ति दिलवाने के लिए इन बीटलों को अचूक अस्त्र के रूप में उन्हें सौपेगा। जैविक कीट नियंतरण की प्रयोगशालाएं स्थापित होंगीं और शुरू हो जायेंगे इस बीटल को प्रयोगशालाओं में पालने के अनुसंधान। इनके सहारे शुरू हो जायेगी एक नई श्रंखला इन कीट-शंकरों के लिए वेतन-वृद्धियों की, व्यक्तिक-पदोन्नतियों की तथा प्रतीष्ठ पदों को प्राप्त करने की। इन प्रयोगशालाओं में इस बीटल को लेकर धूम-दडाके से बहुअयामी खोजें शुरू होंगीं। इस बीटल के पोषण, प्रजनन व स्थानीय प्रतिक्रिया पर एक या दो सांखिकीय-स्टार लगे ढेरों पेपर छापे जायेंगें। इस प्रक्रिया में, ये मांसाहारी बीटल कीट-शंकरों द्वारा परोसे गए भोजन व प्रयोगशालाओं की सुविधाओं के आदी हो जाते हैं। और फ़िर ये बीटल व परियोजनाए किंतु-परन्तु व समय के साथ दम तोड़ जाती हैं।पर किसानो के खेतों में कहीं नज़र नहीं आती। इसलिए कपास की फसल में इस मिलीबग रुपी चक्रब्यूह को तोड़ने के लिए किसानी अभिमन्यु को ही गुर सिखने होंगें। इसके लिए किसानों को करनी होगी स्थानीय हानिकारक व लाभदायक कीटों की पहचान। जुटानी होगी इनकी भोजन विविधता व क्षमता की जानकारी। जुटानी होगी इनकी प्रजनन क्षमता की जानकारी। जुटानी होगी स्थानीय भोजन श्रंखला की जानकारी। बाज़ार की इस चक्काचौन्द में इन कीट-शंकरों से कीट-संकट से मुक्ति की आस तो बहुत दूर की बात है यहाँ तो सतयुग में भी पारबती की एक दुखिया किसान के दुःखहरण की प्रार्थना पर शंकर जी ने यह नोट चढा दिया था कि किस-किस के दुःख दूर करैगी, या दुनिया दुखी फिरै रानी।

4.11.09

छैल गाभरू

पौ की पूनम का चाँद पराये प्रकाश से निडाना के आकाश में माघा नक्षत्र ढूँढ रहा था। सुबह शुरू होने वाले माघ महीने में इस सर्दी के मिजाज़ से अनभिज्ञ गेहूं की बालियाँ प्रजनन परीक्षा पास कर बूर के पत्तासे से बाँट रही थी। इन बालियों के पेट में पल रहे दानों के लिए भोजन पकाने का काम दिन में ही निपटा कर, पत्ताका पत्ते आराम फरमा रहे थे। इन्ही पत्तों पर टहलकदमी करते हुए एक गाभरू-गर्ब अपनी माँ बीरबहूटी तै न्यूँ बोल्या, " इब बुदापे में छैल-छींट हो कै कित चाल कै जावैगी? इब तेरी उमर के सिंगरण की रहरी सै?"
जवान बेटे कै मुंह तै या बात सुण बीरबहूटी का साँस ऊपर का ऊपर अर् तलै का तलै रहग्या। आवेश को अनुभव के आवरण में ढांप , उसने बेटे को बगल में बिठाया। फेर वा प्रेम तै पूछण लागी, "बेटा, एक तो तेरी बालक बुद्धि अर् ऊपर तै गेहूं की फसल में रहना। तनै भूल कै एक आध दाणा गेहूं का तो नहीं चाब लिया ?"
" नहीं ! माँ ! नहीं ! मैं स्प्रे लाग कै मरूं जै मनै यूँ कुकर्म करया हो तो।", गर्ब-गाभरू नै कसम खा कर बात आगै बढाई, "माँ, मनै तो छिक्मां चेपे खाए थे। तरुण सुंडियों की थोड़ी सी चटनी चाटी थी और अण्डों का जूस पीया था।"
बीरबहूटी - "बस ठीक सै बेटा। गलती तो मेरी ऐ सै। मनै सुन राख्या था अक् जिसा खावै अन्न, उसा होवै मन। तेरे मुहं तै माणसाँ जैसी बात सुनकै मनै सोचा, कदे मेरे बेटे नै भी अन्न खा लिया हो? एक दिन इस निडाना गाम के मनबीर नै भी अपनी माँ तै यही बात पूछी थी। बेटे, मनबीर की माँ बेदो बैसठ साल पहल्यां पीहर की सोलह दीवाली खा कै इस गाम में ब्याहली आई थी। सुथरी इतनी अक् दीवै कै चांदणै में भरथा काला दो घड़ी मुँह देखता रहग्या था। अगले दिन भाभी न्यूँ पूछैं थी अक् आँ हो काले! फेरयाँ आली सारी रात जागा था, के? गाम के ब्याहल्याँ कै मन में मण मण मलाल था अक् थारै इसी सुथरी बहु क्यों नही आई । कल्चर के नाम पै एग्रीकल्चर के रूप में प्रसिद्ध इस हरियाणा में बिटौडां तै बडा कैनवस अर ऊंगलियाँ तै न्यारे ब्रुश कोन्या थे। फेर भी गाम के गाभरूआँ नै भरथे की बहु के रंग-रूप के न्यारे-न्यारे नैन-नक्श मन में बिठान की कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी थी। उसके हाण का एक बुड्डा तो परसों भी न्यू कहन लाग रहा था अक् दिनाँसर तो भरथे की बहु की घिट्टी पर को पानी थल्स्या करदा। रही बेदो के हुनर की बात, उसके मांडे अर् गाजर-कचरियाँ के साग का जिक्र पीहर अर् सांसरे में समान रूप से चलै था। बसलुम्भे से बनी उसकी फाँकी नै सारा गाम पेट दर्द में रामबाण माना करदा। कवथनांक एवं गलणाँक की परिभाषा से अपरिचित बेदो टिंडी ता कै निथारन की माहिर थी। के मजाल चेह्डू रहज्या। उसके हाथ का घाल्या घी किस्से नै ख़राब होया नहीं देखा। काम बेदो तै दो लाठी आगै चाल्या करदा। उठ पहर कै तड़के वा धड़ी पक्का पीसती व दूध बिलोंदी। रोटी टूका कर कै गोबर-पानी करदी। कलेवार तक इन सरे कामा तै निपट कै खेत में ज्वारा पहुँचांदी। वापिस घर पहुँच कै एक जोटा मारदी सोण का। जाग खुलते ही पीढा घाल कै दो ढाई बजे तक आँगन में बैठ जांदी। इस टेम नै वा अपना टेम कहा करदी। इस टेम में वा गाम की बहु-छोरियां नै आचार घालना, घोटा-पेमक लाणा व क्रोसिया सिखांदी। इसी टेम कुणक अर् कांटें कढवान आले आंदे। सुई अर् नकचुन्डी तो बेदो की उँगलियाँ पर नाच्या करदी। तीन बजे सी वा खूब जी ला के नहाया करदी। मसल मसल कै मैल अर् रगड़ रगड़ कै एडी साफ़ करदी। उसनै बेरया था अक् ओल्हे में को आखां में सुरमा, नाक में नाथ अर् काना में बुजनी, किसे नै दिखनी कोन्या। फेर भी वा सिंगार करन में कोई कसर नहीं छोड्या करदी। बराबराँ में कट अर् काख में गोज आले कुर्त्ते कै निचे पहरे बनियान नै वा सलवार तले दाबना कदे नहीं भुल्या करती। आख़िर में आठूँ उँगलियों से बंधेज पर खास अलबेट्टा दे कर सलवार नै सलीके सर करदी। बन ठन कै इब वा चालदी पानी नै। उसकी हिरणी-सी चाल नै देख कै रस्ते में ताश खेलनिये पत्ते गेरने भूल जांदे अर् न्यून कहंदे या चली भरथे की बहु पानी नै।", बेटे से हुंकारे भरवाते हुए बीरबहुटी नै आगै कथा बढाई, " बस बेटा, एक या ऐ बात थी जो भरथे नै सुहाया नहीं करदी। एक दिन मौका सा देख कै बेदो नै समझावण लाग्या अक् मनबीरे की माँ इब तू दो बालकाँ की माँ हो ली। इस उम्र में सादा पहरणा अर् सादा रहणा ऐ ठीक हो सै।या सुन कै बेदो की हँसी छुट गई। अपनी इस बेलगाम हँसी को काबू कर बेदो नै मुस्कराते हुए, पहला सवाल दागा, "मनबीरे के बाबु, मनै बारह बरस हो लिए इस गाम में आई नै। आज तक कदे किसे की फी में आई?"
"ना। मनबीरे की माँ। ना।", कहन तै न्यारा कोई जवाब नहीं था भरथे के धोरै।
उसकी की इस ना से उत्साहित हो बेदो नै उल्हाना दिया, " जायरोए, को टुम-टेखरी घडाणी तो दूर कदे दो मीटर का टुकड़ा भी ल्या कै दिया सै के?"
" ना। मनबीरे की माँ। ना।",भरथे की कैसट उलझ गई थी।
" कदे? तेरै घर के दानें दुकानां पै गेरे!", -बेदो रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
" ना। मनबीरे की माँ। ना। इब क्यूँ जमा पाछै पडली। मनै तो बस न्यूँ ऐ पूछ लिया था।" - भरथे नै बेदो को टालण की सोची।
बेदो- " तेरी इस बस न्यूँ ऐ नै तरली गोज में घाल ले। मनै बेसुरापन कोण सुहावै।"
बेदो का वजूद भरथे पै घना भारी पडै था। मन-मसोस कै रहग्या। दिनां कै दिन लाग रे थे अर् दिनां सर , बेदो नै छोरे ब्याह लिए। पोते-पोतियाँ आली होगी। पर बेदो की दिनचर्या अर् रहन-सहन का सलीका वही रहा। हाँ, बहुआं नै उसका पानी भरने का काम तो छुड़वा दिया था। इब हाण्डीवार सी बेदो नहा धो कर साफ सुथरे कपड़े पहन खेतां में घुम्मन जान लगी। बेटा, बेदो का यू सलीके सर रहना ना तो कदे भरथे नै भाया अर् ना इब ख़ुद के जाया नै सुहाया। एक दिन मौका-सा देख कै मनबीर माँ कै लोवै लाग्या। हिम्मत सी करके बोल्या अक् माँ, इस उमर में .................. ।
" बस बेटा। बस। समझ गई।"- कह कै बेदो नै बेटे की बात कै विराम लगा दिया। अर् न्यूँ पूछन लागी, "बेटा, थारा किम्में फालतू खर्चा कराऊ सूं? "
" ना। माँ। ना।"-मनबीर नै भी बाबू की पैड़ा में पैड़ धरी।
बेदो- "थारी बहुआँ नै नहान धौन तै बरजू सूं?"
"ना! माँ! ना!" - मनबीर नै जवाब दिया।
"थारी बहुआँ नै साफ सुथरा पहरण तै नाटु सूं?" - बेदो का बेटे से अगला सवाल था।
मनबीर - ना! माँ ! ना!
" सोलाह की आई थी, छियासठ की हो ली। इन पच्चास सालों में आडै किसे कै उलाहने में आई हों? कदे मेरे पीहर तै कोई बात आई हो? " - बेदो इब और खोद-खोद कै पूछन लागी।
थूक गिटकते होए मनबीर बोल्या - ना ! माँ! ना!
बेटा, अब बाजी बेदो के हाथ में थी वा बोली -" फेर मेरे इस साफ सुथरा रहन पै इतना रंज क्यों?"
नीचे नै नजर कर कै मनबीर नै बस इतना ही कहा - बस ! माँ ! बस ! न्यूँ ऐ ।
बेदो - "बेटा। थारा बाप भी इस "न्यूँ ऐ" की गोज भरे हाँडै सै अर् इब थाम नै झोली कर ली। मनै तो मर्दाँ की इस "न्यूँ ऐ" अर् "रिश्तों" की थाह आज तक ना पाई।" बेदो की आपबीती अपने बेटे गर्ब तै सुणा, बीरबहूटी उसने न्यूँ समझावन लागी - "मेरे गर्ब-गाभरू, इन माणसां कै समाज के रिश्ते तो पैदावारी सै। उलझ-पुलझ इनकी पैदावार, उलझ-पुलझ इनके रिश्ते-नाते और उलझ-पुलझ इनकी मानसिकता। यें भाई नै सबतै प्यारा बतावै अर् सबतै फालतू झगड़े भी भाईयाँ गेल करै। रायचंदआला के रूहिल गाम में भाईयाँ गेल बिगाड़ कै रोहद के रूहिलां में भाईचारा ढुँढते हांडै सै। घर, कुनबे, ठौले व गाम गेल बिघाड कै सिरसा में जा समाज टोहवै सै। और के बताऊ इनका किसानी समाज तो इसा स्याणा सै अक् बही नै तो सही बताया करै अर् घट्टे बीज नै बढा। बेटा, यें ऊत तो कीडों की बीजमारी कै चक्कर में अपनी बीजमारी का जुगाड़ करदे हाँडै सै। इस लिए मेरे गाभरू आज पीछे इन माणसाँ की छौली अर् इनके कीटनाशकोँ तै बच कै रहिये। जब भी कोई मानस नजदीक आवै, ऊँची आवाज़ में गीत गाना शुरू कर दिया कर अक् .............
कीटाँ म्ह के सां कीटल
या जाणे दुनिया सारी ॥
अँगरेज़ कहें लेडी बीटल
बीरबहुटी कहें बिहारी ॥
जींद के बांगरू कहँ जोगन
खादर के म्हाँ मनियारी ॥
सोनफंखी भँवरे कहँ कवि
सां सौ के सौ मांसाहारी ॥ "






2.11.09

कपास सेदक कीट-लाल मत्कुण के कुछ फोटो











लाल मत्कुण के अंडे




मधुर मिलन





कपास का सेदक कीट-लाल मत्कुण

लाल मत्कुण एक रस चूसक हानिकारक कीट है। यह सर्वव्यापी कीट वैसे तो भारत वर्ष में सारे साल पाया जाता है पर हरियाणा में कपास की फसल पर इसका ज्यादा प्रकोप अगस्त से अक्तूबर तक देखा गया है। कपास के अलावा यह कीट भिन्डी, मक्का, बाजरा व गेहूं आदि की फसलों पर भी नुक्सान करते पाया जाता है। कीट सम्बंधित किताबों व रसालों में इस कीट को कपास की फसल का नामलेवा सा हानिकारक कीट बताया गया है। जबकि हरियाणा के किसान इसे बनिया कहते हैं तथा कपास की फसल में इसके आक्रमण को कपास के अच्छे भावः मिलने का संकेत मानते हैं। नामलेवा व मुख्य हानिकारक कीट के इस अंतर्विरोध को तो वैज्ञानिक और किसान आपस में मिल बैठ कर सुलझा सकते है या फ़िर समय ही सुलझाएगा। हाँ! इतना जरुर है कि इस कीट का आक्रमण देशी कपास की बजाय नरमा(अमेरिकन) में ज्यादा होता है तथा नरमा में भी बी.टी.कपास में अधिक होता है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ कपास के पत्तों, तनों, टिंडों व बीजों से रस चूस कर फ़सल में हानि पहुँचाते हैं। ज्यादा रस चूसे जाने पर प्रकोपित पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती हैं। टिंडों से रस चुसे जाने पर इनके ऊपर सफ़ेद व पीले से धब्बे बन जाते हैं तथा टिंडे पूर्ण रूपेण विकसित नहीं हो पाते। इनके मल-मूत्र से कपास के रेशे बदरंग हो जाते हैं। टिन्डें खिलने पर ये कीट बीजों से रस चूसते है जिस कारण बीज तेल निकलने एवं बिजाई लायक नही रह जाते। बीजों में इस नुक्सान से कपास की पैदावार में निश्चित तौर पर घटौतरी होती है जो प्रत्यक्ष दिखाई नही देती। इसीलिए तो कपास की फसल में इस कीट का भारी आक्रमण होने पर भी यहाँ के किसान घबराते नहीं और ना ही कोई किसान इस कीट के खात्मे के लिए कीटनाशकों का स्प्रे करता paya जाता। क्योंकि इस कीट से होने वाले नुकशान का अंदाजा किसान डोले पर खडा होकर नहीं लगा सकता। लेकिन बी.टी.बीजों के प्रचलन के साथ-साथ इस कीट का हमला भी कपास की फसल में साल दर साल तेज होता जा रहा हैं और वो दिन दूर नही जब इस कीट की गिनती बी.टी.कपास के मुख्य हानिकारक कीटों में होने लगेगी? इस बणिये/मत्कुण को अंग्रेजी पढने-लिखने वाले लोग Red cotton bug कहते हैं। कीट वैज्ञानिक जगत में इसे Dysdercus singulatus के नाम से जाना जाता हैं। इसके परिवार का नाम Pyrrhocoridae तथा कुल का नाम Hemiptera है। इस कीट के प्रौढ़ लम्बोतरे व इकहरे बदन के होते हैं जिनके शरीर का रंग किरमिजी होता है। किरमिजी गाढे लाल रंग की ही एक शेड होती है। इनके पेट पर सफ़ेद रंग की धारियां होती हैं। इनके आगे वाले पंखों, स्पर्शकों व स्कुटैलम का रंग काला होता है।इस कीट की मादा मधुर-मिलन के बाद लगभग सौ-सवासौ अंडे जमीन में देती है। ये अंडे या तो गीली मिट्टी में दिए जाते है या फ़िर तंग-तरेडों में दिए जाते हैं। अण्डों का aakaar गोल तथा रंग हल्का पीला होता है। अंड-विस्फोटन में सात-आठ दिन का समय लगता है। अंड-विस्फोटन से ही इन अण्डों से इस कीट के छोटे-छोटे बच्चे निकलते हैं जिन्हे कीट-वैज्ञानिक प्यार से निम्फ कहते हैं। शिशुओं को प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए समय और स्थान के हिसाब से तकरीबन पच्चास से नब्बे दिन का समय लगता है। इस दौर में ये शिशु पॉँच बार अपना अंत:रूप बदलते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि ये निम्फ प्रौढ़ के रूप में विकसित होने तक अपने जीवनकाल में पाँच बार कांझली उतारते हैं। इस कीट के प्रौढों का जीवन आमतौर पर 40 से 60 दिन का होता है। इस कीट को गंदजोर भी कहा जाता है क्योंकि यह बग एक विशेष प्रकार की गंद छोड़ता है। इसीलिए इस कीट का भक्षण करने वाले कीड़े भी प्रकृति में कम ही पाए जाते हैं। Pyrrhocoridae कुल का Antilochus cocqueberti नामक बग तथा Reduvidae कुल का Harpactor costaleis नामक बग इस लाल मत्कुण के निम्फ व प्रौढों का भक्षण करते पाए गये हैं। भांत-भांत की मकडियां भी इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को अपने जाल में फांसे पाई जाती हैं। इसीलिए तो कपास के खेत में किन्ही कारणों से मकडियां कम होने पर इस लाल मत्कुण का प्रकोप ज्यादा हो जाता है। इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को मौत की नींद सुलाने वाले रोगाणु भी हमारे यहाँ प्रकृति में मौजूद हैं। जिला जींद के निडाना गावँ के खेतों में एक फफुन्दीय रोगाणु इस कीट ख़तम करते हुए किसानों ने देखा है। आमतौर पर ये किटाहारी फफूंद सूक्ष्म बीजाणुओं के रूप में कीटों के शरीर की बाहरी सतह पर आक्रमण करती हैं। ताप और आब की अनुकूलता होने पर इन बीजाणुओ से फफूंद हाइफा के रूप में उगती है और देखते-देखते ही कीट की त्वचा पर अपना साम्राज्य कायम कर लेती है। यह फफूंद कीट की त्वचा फाड़ कर कीट के शरीर में घुस जाती है और इस प्रक्रिया में संक्रमित कीट की मौत हो जाती है। कुछ फफुन्दीय जीवाणु तो अपने आश्रयदाता कीट के शरीर में जहरीले प्रोटीन भी छोड़ते पाए जाते हैं। ये जहरीले प्रोटीन जिन्हें टोक्शिंज कहा जाता हैं, भी कीट की मौत का कारण बनते हैं।

30.9.09

जिला जींद में हितकारी डायन

जिला जींद के फसलतंत्र में किसान मित्र के रूप में डायन मक्खी भी पाई जाती। जी, हाँ! , राजपुरा, ईगराह, रूपगढ, निडाना ललित खेडा के किसान तो इसे इसी नाम से जानते हैं जबकि अंग्रेज इसे Robber Fly कहते हैं। नामकरण की द्विपदी प्रणाली के अनुसार यह मक्खी Dipterans के Asilidae परिवार की Machimus प्रजाति है। डायन मक्खी जहाँ एकतरफ स्वभावगत घोर अवसरवादी होती है वही दूसरी तरफ कौशलवत प्रभावशाली परभक्षी भी होती है। इनके भोजन में मक्खी, टिड्डे, भुंड, भिरड, बीटल, बग़, पतंगे तितली आदि कीट शामिल होते हैं। डायन मक्खी कई बार अपने से बड़े जन्नौर का शिकार भी कुशलता से कर लेती है। डायन मक्खी अपने अड्डे से शिकार करती है। यह मक्खी अपना अड्डा खुली एवं धुप वाली जगह बनाती है। अड्डे की जगह पौधों की टहनी, ठूंठ, पत्थर ढेला आदि कुछ भी हो सकता है। इस मचान से ही डाय मक्खी शिकार करने के लिए उड़ान भरती है। कीट वैज्ञानिकों का कहना है कि डायन मक्खी अपनी टोकरीनुमा कंटीली टांगों से उड़ते हुए कीटों को काबू करती है। हमने तो इस मक्खी को कई बार जमीन पर बैठे - बिठाए टिड्डों को भी झपटा मार कर अपनी गिरफ्त में लेते हुए देखा है।
शिकार को पकड़ते ही, डायन अपना डंक उसके शरीर में घोपती है इस डंक के जरिये ही वह शिकारी के शरीर में अपनी लार छोड़ती है। इसकी लार में एक तो ऐसा जहरीला प्रोटीन होता है जो तुंरत कारवाई करते हुए शिकार के स्नायु -तंत्र को सुन्न करता है तथा दूसरा एक ऐसा पाचक प्रोटीन होता है जो शिकार के शरीर के अंदरूनी हिस्सों को अपने अंदर घोल लेता है। घुले हुए इन हिस्सों को डायन मक्खी ठीक उसी तरह से पी जाती है जैसे बड़ा-बूढा दूध में दलिया घोल कर पी जाता है।

29.9.09

कांग्रेस घास, मिलीबग व परजीवी सम्भीरकाएं

कांग्रेस घास, जी हाँ! वही कांग्रेस घास जिसे कभी ख़त्म करने के लिए कृषि वैज्ञानिकों व उनकी चहेती बीटल जाय्गोग्रामा ने ताणे तक तुडवा लिए थे मगर पार नहीं पड़ी थी। पर समय सदा एकसा नही रहता। कपास की साधारण किस्मों की जगह बी.टी. हाइब्रिडों का प्रचलन हुआ। इसके साथ ही कपास की फसल में फिनोकोक्स सोलेनोप्सिस नाम का मिलीबग भस्मासुर बन कर सामने आया और देखते-देखते ही कांग्रेस घास के पौधों पर भी छा गया। संयोग देखिये, अमेरिकन कपास, कांग्रेस घास व मिलीबग का निकासी स्थल एक ही है। हिंदुस्तान में आते ही मिलीबग को कांग्रेस घास के रूप में पूर्व परिचित, एक सशक्त वैकल्पिक आश्रयदाता मिल गया। किसानों के घातक कीटनाशकों से पुरा बचाव व सारे साल अपने व बच्चों के लिए भोजन का पुरा जुगाड़। पर प्रकृति की प्रक्रियाएं इतनी सीधी व सरल नही होती। बल्कि इनमेँ तो हर जगह हर पल द्वंद्व रहता है। प्रकृति में सुस्थापित भोजन श्रृंख्ला की कोई भी कड़ी इतनी कमजोर नही होतीं कि जी चाहे वही तोड़ दे। फ़िर इस मिलीबग कि तो बिसात ही क्या जिसकी मादा पंखविहीन हो तथा अन्डे थैली में देती हो। जिला जींद की परिस्थितियों में ही सात किस्म की लेडी बिटलों, पांच किस्म की मकडियों व पांच किस्म के बुगडों आदि परभक्षियों के अलावा तीन किस्म की परजीवी सम्भीरकाओं ने मिलीबग को कांग्रेस घास पर ढूंढ़ निकाला। यहाँ स्थानीय परिस्थितियों में मिलीबग को परजीव्याभीत करने वाली अंगीरा, जंगीरा व फंगीरा नामक तीन सम्भीरकाएं पाई गई है। इनमेँ से अंगीरा ने तो कांग्रेस घास के एक पौधे पर मिलीबग की पुरी आबादी को ही परजीव्याभीत कर दिया है। इस तरह की घटना कम ही देखने में आती है। मिलीबग नियंत्रण के लिए प्रकृति की तरफ़ से कपास उत्पादक किसानों के लिए एनासिय्स नामक सम्भीरका एक गजब का तोहफा है। भीरडनूमा महीन सा यह जन्नोर आकर में तो बामुश्किल एक-दो मिलीमीटर लंबा ही होता है। एनासिय्स की प्रौढ़ मादा अपने जीवनकाल में सैकडों अंडे देती है पर एक मिलीबग के शरीर में एक ही अंडा देती है। इस तरह से एक एनासिय्स सैकडों मिलिबगों को परजीव्याभीत करने का मादा रखती है। मिलीबग के शरीर में एनासिय्स को अंडे से पूर्ण प्रौढ़ विकसित होने में तकरीबन 15 दिन का समय लगता है। इसीलिए तो एनासिय्स को अंडे देते वक्त मिलीबग की ऊमर का ध्यान रखना पड़ता है। गलती से ज्यादा छोटे मिलीबग में अंडा दिया गया तो प्रयाप्त भोजन के आभाव में मिलीबग के साथ-साथ एनासिय्स की भी मौत हो जाती है। खुदा न खास्ता एनासिय्स ने अपना अंडा एक इसे ऊमर दराज मिलीबग के शरीर में दे दिया जिसकी जिन्दगी दस दिन की भी न रह रही हो तो भी एनासिय्स के पूर्ण विकसित होने से पहले ही मिलीबग की स्वाभाविक मौत हो जायेगी। परिणाम स्वरूप एनासिय्स की भी मौत हो जायेगी। इसीलिए तो एनासिय्स का पुरा जोर रहता है कि अंडा उस मिलीबग के शरीर में दिया जाए जिसकी जिन्दगी के अभी कम से कम 15 दिन जरुए बच रहे हों। अंडा देने के लिए सही मिलीबग के चुनाव पर ही एनासिय्स की वंश वृध्दि की सफलता निर्भर करती है। मिलीबग के शरीर में अंड विस्फोटन के बाद ज्योंही एनासिय्स का शिशु मिलीबग को अंदर से खाना शुरू करता है, मिलीबग गंजा होना शुरू हो जाता है। इसका रंग भी लाल सा भूरा होना शुरू हो जाता है। मिलीबग का पाउडर उड़ना व इसका रंग लाल सा भूरा होना इस बात की निशानी है कि मिलीबग के पेट में एनासिय्स का बच्चा पल रहा है। मिलीबग को अंदर से खाते रह कर एक दिन एनासिय्स का किशोर मिलीबग के अंदर ही प्युपेसन कर लेता है। फ़िर एक दिन पूर्ण प्रौढ़ के रूप में विकसित होकर मिलीबग के शरीर से बाहर आने के लिए गोल सुराख़ करेगा। इस सुराख़ से एनासिय्स अपना स्वतन्त्र प्रौढिय जीवन जीने के लिए मिलीबग के शरीर से बहर निकलेगा। और इस प्रक्रिया में मिलीबग को मिलती है मौत तथा अब वह रह जाता सिर्फ़ खाली खोखा। यहाँ एनासिय्स यानि कि अंगीरा के जीवन कि विभिन्न अवस्थाओं के फोटों दी गई है। कांग्रेस घास सम्मेत विभिन्न गैरफसली पौधे जो मिलीबग के लिए आश्रयदाता है, एनासिय्स कि वंश वृध्दि के लिए भी वरदान है क्योंकि इन्हे इन पौधों पर अपनी वंश वृध्दि के लिए मिलीबग बहुतायत में उपलब्ध हो जाता है।

27.9.09

जिला जींद में कीटखोर कीट-बिन्दुआ बुगडा

बिन्दुआ बुगडा एक मांसाहारी कीट है जो अपना गुजर-बसर दुसरे कीटों का खून चूस कर करता है। कांग्रेस घास पर यह कीट दुसरे कीटों की लाश में ही आया है। कांग्रेस घास के पौधों पर इसे मिलीबग, मिल्क-वीड बग़ जाय्गोग्राम्मा बीटल आदि शाकाहारी कीट इनके शिशु अंडे मिल सकते है। इन पादपखोर कीटों के अलावा कीटाहारी कीट भी मिल सकते है। इन सभी मध्यम आकर के कीटों का खून चूस कर ही बिन्दुआ बुगडा इसके बच्चों का कांग्रेस घास पर गुजारा हो पाता है। आलू की फसल को नुकशान पहुचने वाली कोलोराडो बीटल के तो ग्राहक होते है ये बिन्दुआ बुगडे। इसी जानकारी का फायदा उठाकर कीटनाशी उद्योग द्वारा इन बुगडों को भी जैविक-नियंत्रण के नाम पर बेचा जाने लगा है। साधारण से साधारण जानकारी को भी मुनाफे में तब्दील करना कोई इनसे सीखे।
चलते-चलते आपको बता दे कि माँ के दूध के साथ अंग्रेजी सीखे लोग इस बिन्दुआ बुगडे को "Two spotted bug" कहते हैं। जबकि वैज्ञानिकों कि भाषा में इसे "Perillus bioculatus" kahte haen.

26.9.09

कपास में स्लेटी भुंड

स्लेटी भुंड जिला जींद में कपास का नामलेवा सा हानिकारक कीट है। लेकिन "घनी सयानी दो बर पोया करै" अख़बारों में पढ़ कर अपनी फसल में कीडों का अंदाजा लगाने वाले किसानों की इस जिला में भी कोई कमी नहीं है। कागजी व हाटिय ज्ञान से लैस किसान इस स्लेटी भुंड को ही सफ़ेद मक्खी समझ कर धड़ाधड़ अपनी फसल में स्प्रे करते हुए आमतौर पर मिल जायेगें। इसमे खोट किसानों का भी नहीं है। एक तो घरेलु मक्खी व इस भुंड का साइज बराबर हो सै। दूसरी रही रंग की बात। स्लेटी अर् सफ़ेद रंग में फर्क करना म्हारे हरियाणा के माणसां के बस की बात कोन्या। लील देकर पहना हुआ सफ़ेद कुर्ता भी दो दिन में माट्टी अर् पसीने के मेल से स्लेटी ही बन जाता है। इसीलिए तो रंगों व कीटों की पहचान का कार्य यहाँ के किसानों को बुनियाद से ही सिखने की आवश्यकता है। यह स्लेटी भुंड कपास की फसल के अलावा बाजरा, ज्वार व अरहर की फसल में भी नुकशान करते हुए पाया जाता है। इस कीट का प्रौढ़ पौधों के जमीं से ऊपरले व गर्ब जमीं के निचले हिस्सों पर नुक्शान करता है। इस कीट की दोनों अवस्थाए पौधों की विभिन्न हिस्सों को कुतरकर व चबाकर खाती हैं। इस कीट का प्रौढ़ पत्तों या फूलों की पंखुडियों के किनारे नोच कर खाता है। यह पुंकेसर भी खा जाता है जबकि इसका गर्ब पौधों की जडें खाता है।खानदानी परिचय:स्लेटी भुंड को द्विपदी प्रणाली मुताबिक कीट विज्ञानी माइलोसेर्स प्रजाति का भुंड कहते है इसके कुल का नाम कुर्कुलिओनिडि होता है। इस कीट की मादाएं पौण महीने की अवधि में लगभग साढे तीन सौ अंडे जमीन के अंदर देती हैं। इन अण्डों का रंग क्रीमी होता है जो बाद में मटियाला हो जाता है। अंडो का आकार एक मिलीमीटर से कम ही होता है। तीन-चार दिन की अवधि में अंड-विस्फोटन हो जाता है। इस कीट के शिशु जिन्हें विज्ञानी गर्ब कहते हैं, जमीन के अंदर रहते हुए ही पौधों की जड़े खाकर गुजारा करते हैं। मौसम के मिजाज व भोजन की उपलब्धता अनुसार इनकी यह शिशु अवस्था 40 -45 दिन की होती है।पैरविहिन इन शिशुओं के शरीर का रंग सफ़ेद व सिर का रंग भूरा होता है। इनके शरीर की लम्बाई लगभग आठ मिलीमीटर होती है। स्लेटी भुंड का प्यूपल जीवन सात-आठ दिन का होता है। प्युपेसन भी जमीं के अंदर ही होती है। इसका प्रौढिय जीवन गर्मी के मौसम में दस- ग्यारह दिन का तथा सर्दी के मौसम में चार-पांच महीने का होता है। सर्दी के मौसम में यह कीट अडगें में छुपा बैठा रहता है।

23.9.09

शहद की देसी मक्खी आजकल कपास के फूलों पर नहीं आती !!!

जिला जींद के ज्यादातर किसानों की तरह निडाना निवासी पंडित चन्द्र पाल ने भी अपने खेत में एक एकड़ बी.टी.कपास लगा रखी है। इस कपास की फसल में देसी शहद की मक्खियों ने अपना छत्ता बना कर डेरा जमा रखा है। एक महिना पहले जब पंडित जी ने इस छाते को देखा तो खुशी के मारे उछल पड़ा था। उछले भी क्यों ! चन्द्र पाल ने एक लंबे अरसे के बाद देसी शहद की मक्खियों का छत्ता देखा था, वो भी ख़ुद के खेत में। इस जानकारी को घरवालों पड़ोसियों से बांटने के लिए, वह अपने आप को रोक नहीं पाया था। चाह ऎसी ही चीज होती है। इसी चक्कर में, पंडित जी ने रोज खेत में जाकर इस छत्ते को संभालना शुरू कर दिया। कुछ दिन के बाद उसका ध्यान इस बात की तरफ गया कि ये मक्खियाँ इस खेत में कपास के फूलों पर नहीं बैठ रही। मज़ाक होने के डर से उन्होंने हिच्चकते--हिच्चकते अपनी इस बा को गावं के भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह से साझा किया. दोनों ने मिलकर इस बात को लगाता ती दिन तक जांचा परखा मन की मन में लिए, रत्तन सिंह ने इस वस्तुस्थिति को अपना खेत अपनी पाठशाला के बाहरवें सत्र में किसानों के सामने रखा। तुंरत इस पाठशाला के 23 किसान डा.सुरेन्द्र दलाल कपास के इस खेत में पहुंचे। आधा घंटा खेत में माथा मारने के बावजूद किसी को भी कपास के फूलों पर एक भी मक्खी नजर नहीं आई। यह तथ्य सभी को हैरान कर देने वाला था। बी.टी.टोक्सिंज, कीटों की मिड-गट की पी.एच.,व कीटों में इस जहर का स्वागती-स्थल आदि के परिपेक्ष में इस तथ्य पर पाठशाला में खूब बहस भी हुई। पर कोई निचोड़ ना निकल सका।


हाँ! डा.सुरेन्द्र दलाल ने उपस्थित किसानों को इतनी जानकारी जरुर दे दी की उसने स्वयं अपनी आँखों से पिछले वीरवार को ललित खेडा से भैरों खेडा जाते हुए सड़क के किनारे एक झाड़ी पर इन देसी शहद की मक्खियों को देखा है। देसी झाड़ के छोटे--छोटे फूलों पर इन मक्खियों को अपने भोजन शहद के लिए लटोपिन हुए देखने वालों में भैरों खेडा का सुरेन्द्र, निडाना का कप्तान पटवारी रोहताश भी शामिल थे।
इस तथ्य को हम विश्लेषण हेतु इंटरनेट के मध्यम से जनता के दरबार में प्रस्तुत कर रहे हैं।