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17.7.09

मैं जब पैदा हुई तो कितनी मजबूर थी ,,(कविता)


मित्रो आज की रचना मेरी नहीं मेरी एक मित्र अनु अग्रवाल ने ये मुझे भेजी है. वो बहुत ही संवेदनशील व्यक्तित्व की धनी है और उनकी कविताओं में भावना एवं एकरसता रहती है. माँ और पिता के ऊपर लिखी गयी रचना है. माँ के ऊपर बहुत सी रचनाये लिखी गयी परन्तु माँ शब्द ही येसा है, जिस पर जितना लिखा जाए वो अधुरा ही है. उसकी महानता को हम व्यक्त ही नहीं कर सकते. निर्मला जी के शब्दों में,,

माँ की ममता ब्रह्मण्ड से विशाल है॥
माँ की ममता की नहीं कोई मिसाल है,,

माँ पर लिखी गयी इस अमूल्य रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें अनुग्रहीत करें

मैं जब पैदा हुई तो कितनी मजबूर थी ,,
इस जहान की सोच से मैं दूर थी,,,,
हाथ पैर तब मेरे अपने थे ,,
मेरी आँखों में दुनिया के सपने थे ,,
कद मेरा बहुत छोटा था ,,
मुझको आता सिर्फ रोना था ,,
दूध पीकर काम मेरा सोना था ,,
मुझको चलना सिखाया था माँ ने मेरी,,
मुझको दिल में बसाया था पापा ने मेरे ,,,
माँ पापा के होने से हर एक सपना मेरा अपना था ,,,
दूकान का हर एक खिलौना मेरा अपना था ,,
माँ पापा के साये में दुलार परवान चढ़ने लगा ,,
वक़्त के साये में कद मेरा बढ़ने लगा ,,,
एक दिन एक लड़का मुझे भा गया ,,
बनके दूल्हा वो मुझे ले गया ,,,
माँ पापा की जिम्मेदारी से अब मैं दूर होने लगी ,,
फिर माँ पापा को मैं भूलने लगी ,,,
सांसो का रिश्ता अब मेरा था ,,,
माँ पापा का साया अब पराया था ,,
ऐसे माँ पापा की क्या मिशाल दूँ ,,
अपने हाथों से हर पल मुझे दुलारा था ,,,
हर गलती पर सर मेरा पुचकारा था ,,
चाहती हूँ उनके सजदे में रख दूँ अपनी तकदीर ,,
दिखती है उनके कदमो में जन्नत की तस्वीर,,,

अनु अग्रवाल

16.7.09

ज़िन्दगी में एक बार



बेहोशी के मीठे पल में,,


बेहोशी के मीठे पल में,,
मैं शून्य क्षितिज में फिरता था ,,,
हिमगिरी की ऊंचाई चढ़ता था,,
फिर सागर में गिरता था ,,
कौतुक विस्मय हो लोगों को ,,
अपलक निश्चल देखे जाता था ,,
कर्तव्य विमूढ़ हो उनकी इस ,,
चंचलता को लिया करता था ,,
फिर हो सकेंद्रित निज की ,,
मस्ती में ही तो जिया करता था ,,
प्रीत और प्रेम को अनायास ही,,
खेता था,,
नीरस इन रागों में रस्वादन लेता था ,,
माधुर्य और माधुरी की ,,,
एक प्रथक कल्पना थी मेरे मन में ,,
इन बेढंगों से अलग,,
वासना थी मेरे मन में ,,
कभी प्रेम की व्याकुलता को ,,
मैंने महसूस नहीं किया था,,
कभी ह्रदय की दुर्बलता को ,,
मैंने महसूस नहीं किया था ,,
सौन्दर्य वशन इस धरती का ,,
मेरा प्रेमांगन था ,,
ऋतुओ का परिवर्तन ही ,,
मेरा प्रेमालिंगन था ,,
हर सर्द किन्तु चौमुखी हवा,,
मुझको हर्षित करती थी ,,,
सूरज की एक एक किरण ,,
उल्लासो से भरती थी ,,,
बस नया प्रेम अब खोज रहा हूँ ,,
वो सब भूल भूला के ,,,
छेड़ रहा हूँ नयी तान ,,
रागों में खुद को मिला के ,,,

11.7.09

तालीम के लब्ज़ों को....


तालीम के लब्ज़ों को हम तीर बना लेंगे।
मिसरा जो बने पूरा शमशीर बना लेंगे।

जाहिल
रहे कोई, ग़ाफ़िल रहे कोई।
हम मर्ज कि दवा को अकसीर बना लेंगे।

रस्मों
के दायरों से हम अब निकल चूके है।
हम ईल्म की दौलत को जागीर बना लेंगे।

अबतक
तो ज़माने कि ज़िल्लत उठाई हमने।
ताक़िद ये करते हैं, तदबीर बना लेंगे।

जिसने
बुलंदीओं कि ताक़ात हम को दी है।
हम भी वो सिपाही की तस्वीर बना लेंगे।

मग़रीब
से या मशरीक से, उत्तर से या दख़्ख़न से।
तादाद को हम मिल के ज़ंजीर बना देंगे।

मिलज़ुल
के जो बन जाये, ज़ंजीर हमारी तब।
अयराज़ईसी को हम तक़दीर बना लेंगे।

8.7.09

ले के चलुं मैं ख़ुदा तेरा नाम

आसान हो जायें सब मेरे काम।
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
तेरी इबादत करुं सुब्हो-शाम।
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
दुनिया का कोई भी ग़म हो खुदारा।
हम पे तो तेरा करम हो ख़ुदारा।
क्श्ती को छोडा है तेरे हवाले।
तुं ही दिख़ायेगा हमको किनारा..(2)
छ्ट जायेंगे ग़म के बादल तमाम..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
ये ज़िन्दगी तेरी नेअमत बडी है।
हमपे ख़ुदा तेरी रहेमत खडी है।
फ़िर ग़म हो कैसा, करम हो जो तेरा।
अपने लिये सल्तनत जो पडी है..(2)
तूं बादशाह, हम हैं तेरे ग़ुलाम।..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
ये चाँद सूरज, चमकते सितारे।
तेरे करम से हैं सारे नज़ारे।
अय दो जहां के निगेहबान मालिक़।
दुनिया बसी है, ये तेरे इशारे..(2)
तेरी ख़ुदाई पे लाख़ों सलाम..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
बस आख़री इल्तेजा है खुदा से।
कि ज़िन्दगी जो जीयुं में वफ़ा से।
मुझको सही राह पे तूं चलाना।
भुले से भी ना हो ख़ता ये “रज़ा’ से..(2)
जब मौत आये, ज़ुबाँ पे कलाम..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
.................रज़िया मिर्ज़ा......

2.7.09

'आग'

हाज़िर--खिदमत है, हफ़ीज़ मेरठी साहब की कृति 'आग'।
उम्मीद
है, आपको पसंद आयेगी

ऎसी आसानी से क़ाबू में कहाँ आती है आग
जब
भड़कती है तो भड़के ही चली जाती है आग

खाक सरगर्मी दिखाएं बेहिसी के शहर में
बर्फ़ के माहौल में रहकर ठिठुर जाती है आग

पासबां आँखें मले, अंगड़ाई ले, आवाज़ दे
इतने
अरसे में तो अपना काम कर जाती है आग

आंसुओं से क्या बुझेगी, दोस्तों दिल की लगी
और
भी पानी के छींटों से भड़क जाती है आग

हल
हुए हैं मसअले शबनम मिज़ाजी से मगर
गुथ्थियाँ
ऎसी भी हैं कुछ, जिनको सुलझाती है आग

ये
भी एक हस्सास दिल रखती है पहलू में मगर
गुदगुदाता है कोई झोंका तो बल खाती है आग

जब
कोई आगोश खुलता ही नहीं उसके लिए
ढांप
कर मुहं राख के बिस्तर पे सो जाती है आग

अम्न
ही के देवताओं के इशारों पर 'हफ़ीज़'
जंग
की देवी खुले शहरों पे बरसाती है आग

29.6.09

कितनी तीव्र व्यथा ,,,



कितनी तीव्र व्यथा ,,,
ढो रहे हो हे तुच्छ जीव,,,
शायद ही सुख भान किया हो,,,कभी
शायद ही श्रम दान ना किया हो ,,,,कभी
कितना घ्रूणित है तुमारा जीवन ,,,
कितना कुंठित है तुमारा मन ,,,
कभी व्योम के पार ,,,
तुममे देखता हूँ,,,
कभी निज ह्रदय के उदगार,,,
तुममे देखता हूँ ,,,
कितना मस्त है ,,,
जीवन तुम्हारा ,,,
कितना व्यस्त है ,,,
जीवन तुमारा ,,,
पर मन ना कोई क्षोभ,,,
दिखता न कोई लोभ ,,,
हो प्रयासित ,,,
करने को प्रसारित ,,,
कर्म वड्या वधिकारस्तु,,,
माँ फलेसु कदाचिन,,,
है कितनी वयघ्रता ,,,
उन्नत नशा ,,,
कितनी दारुण दशा ,,,
कितनी तीव्र व्यथा ,,,

10.6.09

यही सत्य है न इसे भूल जाना

 

 

कैसे बताएं कितनी सुहानी
होती है ये जीवन की कहानी ।।      
कोमल मनोहर परियो  की रानी
काँटों-सी निष्ठुर होती है जिंदगानी ।।

ये छोटा सा तन जब होता मात्र एक अंश है……..
बस माता ही उसका करती पोषण है
बनता है बढ़ता , आकार धरता …….
दुनिया से पहले माता से जुड़ता ।।
माता ही धड़कन माता ही बोली ……
उसी के संग करता है कितनी ठिठोली
लेता  जन्म है , इस लोह्खंड सी दुनिया में रखता कदम है
बिना जाने समझे , की दुनिया की फितरत बड़ी वेरहम है  ।।

रोते बिलकते चले आते हो  तुम…..
जैसे किसी ने तुम पर ढाया   सितम है ।।
फिर नन्ही-नन्ही आँखों से संसार देखा ……
कुछ मस्ती भी की ……और ढेर  सारा रोया । 

नन्हे - नन्हे कदमो से नाप ली ये दुनिया ……
कहलाई सब की दुलारी सी गुडिया ।।
अपनी तोतली बोली से हर लिया सब का मन…..
घर बन गया खुशियो का उपवन …. ।।
कैसा मनोहर , ठुमकता, मटकता , किलकारी भरता……
होता है बचपन सब से अनोखा  ।।

कोमल मनोहर परियो की रानी ..............
काँटों-सी निष्ठुर होती है जिंदगानी ...........

कैसे बताएं कितनी सुहानी ..............
होती है ये जीवन की कहानी .............
कितना कष्टकारी होता है वो दिन
जब माँ के बिना तडपता है ये दिल।।
उसे छोड़ कर स्कूल जाना
और नई दुनिया में अपनी हस्ती जमाना ।।
कॉपी-कितवो से खुद को बचना
और फिर नए दोस्तों में एक दुनिया बसाना।।
गुरु की कृपा से जीवन के अनमोल ज्ञान को पाना
कभी  डांट कर , कभी दुलार कर हमको पढ़ना।। 

बहुत याद आता है उनका चश्मा पुराना
हाथो में छड़ी  , और मन में करूणा छुपना ।।
वो यारो  संग मस्ती , हमेशा साथ खाना  
वो मिलना मिलना , वो हसना हसाना  ।।

कोमल मनोहर परियो की रानी ..............
काँटों-सी निष्ठुर होती है जिंदगानी ...........

कैसे बताएं कितनी सुहानी ..............
होती है ये जीवन की कहानी .............

जीवन की इतनी अवस्थायें पार  कर के ….
जवानी की खूबसूरत दहलीज पर आना ।।
मन में उमंगें ...... लवो पर तराने ……
कितने ही किस्से............ नए और पुराने ।।
फिर मोड़ आता है ऐसा सुहाना।
जब मन हो जाता है किसी का दीवाना ।।
उसी के सपने , उसी की बातें , उसी की यादें
हमेशा उसे याद रखना और खुद को भी भूल जाना ।।
उसी की तस्वीर मन में सजाना ……….

और उसे पाने को कुछ भी कर गुज़र जाना ।।

फिर भरी आंख लेकर ससुराल जाना 
नये सारे रिश्ते नये सारे नाते  निभाना ।।
उन सब से अपना तालमेल बिठाना 
घर,परिवार , नाते , रिश्तो का एक दम से बदल जाना  ।।
जिम्मेदारी उठाना , वो घर का चलाना 

घड़ी भर को भी फुरसत न पाना ।। 
माँ , भाभी , मामी , बुआ , चाची और बहु जैसे ….
उपनाम पाना और खुद का ही नाम कहीं धुधला पड़ जाना  ।।  

कोमल मनोहर परियो की रानी ..............
काँटों-सी निष्ठुर होती है जिंदगानी ...........

कैसे बताएं कितनी सुहानी ..............
होती है ये जीवन की कहानी .............

फिर आ जाता  है जीवन का अंतिम ठिकाना 
जिसे आज तक किसीने न चाहा ।।
अकेला बुढ़ापा , जिसे कभी छोड कर न जाना। 
ये ऐसा शाखा है जो अंत तक है रिश्ता निभाता।।
बाँकी सभी को है पीछे छूट जाना 
यही वो अवस्था जिसने सब कुछ नश्वर बनाया ।।
छणभंगुर है सब कुछ हमको सिखाया 
एक हिलती सी कुर्सी , एक हिलती सी लाठी  ।।
एक अकेला सा कमरा , जहाँ नही कोई अपना। 
झूकी सी कमर और चहरे पर झुरियो की कहानी।। 
पल पल सिसकना , फिर भी मुस्करना।

बुझते दियो में सपने सजाना।।

कोमल मनोहर परियो की रानी ..............
काँटों-सी निष्ठुर होती है जिंदगानी ...........

कैसे बताएं कितनी सुहानी ..............
होती है ये जीवन की कहानी .............

फिर आ जाता है आपनो का बुलावा  
और पीछे छूट जाता है सारा जमाना ।।
पल भर में ही सब नश्वर हो जाता 
न रिश्ता, न नाता , न जवानी , न बुढ़ापा।। 
बस! उस शून्य से आकर उसी में समा जाना 
रोता रहता है पीछे संसार सारा।। 
पर तेरा तो तेरे शून्य में ही ठिकाना 
उसी से बना फिर उसी में मिल जाना।। 
इस रंगमंच को छोड कर उस ईश्वर में समा जाना। 
पञ्च तत्वो की इस देह का मिट्टी में मिल जाना  ।।
और आत्मा -परमात्मा का मिलना मिलाना
जिस के थे अंश उसी में मिल जाना ।।
बस उसी अंश का चक्कर चलते है जाना 

यही सत्य है न इसे भूल जाना

कोमल मनोहर परियो की रानी ..............
काँटों-सी निष्ठुर होती है जिंदगानी ...........

कैसे बताएं कितनी सुहानी ..............
होती है ये जीवन की कहानी ............ .

29.5.09

आज कल शहर में

आज कल शहर में, सन्नाटे बहुत गहरे हुए जाते हैं

कोई रोको हमे कि हम, अब प्यार में दीवाने हुए जाते है ।।

तेरे ख्याल बस अब मेरे, जीने के सहारे हुए जाते है

वरना आज कल तो खुद ही हम, खुद से बेगाने हुए जाते है ।।

ज़िन्दगी ले चली है, हमे जाने किस मोड़ पर।

अब तो रास्ते ही मेरे, ठिकाने हुए जाते है ।।

मोहब्बत का करम है, जो मुझे ये किस्मत बक्शी

अब तो बातो- में जाने ,कितने फसाने हुए जाते हैं॥

चंद लम्हो में मिली है, जो दौलत हम को

इतने नशे में है, कि मयखाने हुए जाते हैं॥

मेरी बातों को हसी में लेना, मैं सच कहती हूँ

कि अब हर खुशी के आप ही, बहाने हुए जाते हैं ।।

रुकी-रुकी सी नदी थी, ये ज़िन्दगी मेरी

अब तो रुकना-ठहरना लगता है, अफ़साने हुए जाते हैं॥