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5.11.09

लो क सं घ र्ष !: संप्रभुता से समझौता नहीं - उत्तरी कोरिया - अन्तिम भाग


अमेरिका को धीरे-धीरे ईरान की ओर बढ़ता देख, उत्तरी कोरिया को यह समझने में मुष्किल नहीं हुई होगी कि बुष की बनायी शैतान त्रयी में ईरान के बाद अगला क्रम किसका है। और जब बचाव का कोई रास्ता न समझ में आये तो आक्रामकता ही बचाव का अंतिम संभव हथियार बचती है। बेषक उत्तरी कोरिया के इस कृत्य से कोरियाई खाड़ी और पूर्वी एषिया में तनाव बढ़ा है और अमेरिका को अपनी पूर्वी एषिया में मौजूदगी बढ़ाने का बहाना भी मिला है, लेकिन उत्तरी कोरिया अगर परमाणु परीक्षण नहीं करता तो कौन सा अमेरिका उसे बख़्ष रहा था। 21वीं सदी की भीषणतम बाढ़ और उसके बाद आने वाली भुखमरी और अकाल जैसी परेषानियों से जूझते देष को 1985 से हाल-हाल तक सिर्फ़ मदद के वादे से बहलाया ही तो है अमेरिका ने।

उधर सीआईए और अमेरिकी राजनीतिकों का ये कहना जारी रहा है कि उत्तरी कोरिया एक बदमाष देष (रोग स्टेट) है। अमेरिका उत्तरी कोरिया पर यह दबाव डालता रहा कि वो अपना मिसाइल कार्यक्रम बंद कर दे ताकि उस पर से प्रतिबंध हटाये जा सकें और उत्तरी कोरिया का कहना था कि प्रतिबंध हटाना 1994 के एग्रीड फ्रेमवर्क समझौते में निहित है फिर ये नयी शर्त क्यों। उधर उत्तरी कोरिया को जिस 5 लाख टन मीट्रिक टन भारी तेल की आपूर्ति का वादा किया गया था और उसे सुनिष्चित करने के लिए केडो (केईडीओ) नामक एजेंसी बनायी गयी थी, वो लगातार फण्ड की कमी का षिकार बनी रही और इस कारण वक्त पर तेल आपूर्ति की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकी। नतीजतन 10 जनवरी 2003 को उत्तरी कोरिया ने परमाणु अप्रसार संधि से अपने हटने का ऐलान कर दिया। तब से अनेक अनेक द्विपक्षीय व बहुपक्षीय वार्ताएँ चलती रहीं लेकिन उनसे उत्तरी कोरिया को न कोई मदद हासिल हुई और न अमेरिका की मंषाओं पर भरोसा हुआ। एक तरफ़ जाॅर्ज बुष ने उत्तरी कोरिया को 2008 में उस सूची से बाहर कर दिया जो अमेरिका ने आतंकवादी देषों की बनायी हुई थी लेकिन दूसरी तरफ़ उसे शैतानियत की त्रयी की सूची में दर्ज कर दिया। सन् 2003 के बाद से लगातार उत्तरी कोरिया के अनेक जहाज रोके गये, अनेक कंपनियों के व्यापार को प्रतिबंधित किया गया और दूसरे देषों में जमा उत्तरी कोरिया के करोड़ों डाॅलर ये इल्जाम लगाकर जब्त कर लिये गये कि इन पैसों से वो परमाणु हथियार बनाने की कोषिषें कर रहा है। एक तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे हर तरह की संभव मदद से दूर करके और फिर उसके आर्थिक, सामरिक व व्यापारिक रिष्तों को काटने की कोषिष अमेरिका कर रहा है ताकि उसे हर तरह से कमज़ोर किया जा सके।

नयी शक़्ल में पुराना निजाम

बराक ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से अनेक विष्लेषकों को लगा था कि अमेरिकी सरकार युद्ध की विभीषिकाओं को जान समझ गयी है और ओबामा विष्व शांति कायम करने की दिषा में वाकई कुछ ठोस कदम उठाएँगे। लेकिन सिर्फ़ शक़्लें बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदलती। इसीलिए सब कुछ थोड़ी-बहुत फेरबदल के साथ वैसा ही चल रहा है जैसे वो क्लिंटन या बुश के ज़माने में चलता था।

अमेरिकी टी वी चैनलों पर अमेरिकी विदेष विभाग व रक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने उत्तरी कोरिया को किसी अन्य ग्रह का देष बताया है जिसे कुछ पागल चला रहे हैं। जून 2009 में बराक ओबामा ने फ्रांस में बयान दिया कि ‘उकसावे की घटनाओं को पुरस्कृत करने की नीति जारी नहीं रखेंगे।’ इसके बाद 23 सितंबर 2009 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिये गये अपने पहले संबोधन में भी ओबामा ने उत्तरी कोरिया तथा ईरान का नाम साथ-साथ लेते हुए चेतावनी दी कि वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के नियम-कानूनों के मुताबिक बर्ताव करें वर्ना उन्हें परिणाम भुगतने होंगे। अंतरराष्ट्रीय शांति के इन छद्म पैरोकारों को इज़रायल या पाकिस्तान की शांति भंग करने की कोषिषें नहीं दिखायी देतीं क्योंकि वहाँ के हिंसक व अमानवीय अभियान अमेरिका के समर्थन व शह पर चलते हैं।

समय के परदे से झाँकतीं आषंकाएँ और संभावनाएँ


आधुनिक दौर में लड़ाइयाँ सिर्फ़ हौसलों और सैनिकों की गिनती से नहीं लड़ीं और जीती जातीं। इराक़ की मिसाल हमारे सामने है। ऐसे में एक छोटा सा देष उत्तरी कोरिया चाहे तो भी वो अमेरिका जैसी ताक़त का मुक़ाबला नहीं कर सकता। ज़ाहिर है कि उसके सामने बचाव का रास्ता यही है कि वो अपने आपको दुष्मन के सामने अधिक खतरनाक बना कर पेष करे। संभवतः यही रणनीति उत्तरी कोरिया को इस मंज़िल तक लायी है जहाँ उसने परमाणु हथियार बना लिये हैं या बनाने की क्षमता व तकनीक विकसित कर ली है। जिस मिसाइल कार्यक्रम को बुष के ज़माने में चीन और रूस के इसरार पर व अमेरिका से हल्के जल वाले रिएक्टर प्राप्त करने की उम्मीद में उत्तरी कोरिया ने एकतरफा स्थगित कर दिया था, मौजूदा अमेरिकी असहयोगात्मक रवैये से पूरी तरह नाउम्मीद होकर उसे फिर से शुरू कर दिया गया। अप्रैल 2009 में उत्तरी कोरिया ने राॅकेट से एक उपग्रह का सफल प्रक्षेपण करने का दावा किया। उत्तरी कोरिया के मुताबिक यह उपग्रह कार्यक्रम उनके शांतिपूर्ण वैज्ञानिक अभियान का हिस्सा था लेकिन उधर जापान, अमेरिका व दक्षिण कोरिया के रक्षा विषेषज्ञों का मानना है कि शांति के घोषित उद्देष्य की आड़ में उत्तरी कोरिया ने दरअसल लंबी दूरी की मार करने वाली मिसाइल तेपोंदोंग-2 का परीक्षण किया है जिसकी मारक जद में अलास्का और हवाई जैसे सुदूर अमेरिकी ठिकाने भी आते हैं। अनेक रक्षा विषेषज्ञ 4 जुलाई 2009 को किये गये उत्तरी कोरिया के बैलिस्टिक मिसाइल परीक्षणों को कम दूरी की मार करने वाले व दक्षिणी कोरिया व जापान के लिए सीधा खतरा मानते हैं।

दरअसल चीन व रूस, दोनों ही से सीमाएँ जुड़ने के कारण तथा जापान व दक्षिण कोरिया जैसे अमेरिका के घनिष्ठ सहयोगियों के दुष्मन होने के कारण और परमाणु शक्ति संपन्न देष होने के कारण उत्तरी कोरिया की भौगोलिक व सामरिक अहमियत अमेरिका के लिए काफी ज़्यादा हो जाती है। उत्तर कोरिया की अधिकांष ऊपरी सीमा चीन से लगी हुई है, केवल एक बहुत छोटा सा हिस्सा रूस के साथ भी सटा हुआ है। नीचे दक्षिण कोरिया है। गर्दन की शक़्ल वाले इस देष के एक तरफ पीला सागर है और दूसरी तरफ जापान सागर।

उत्तरी कोरिया व दक्षिणी कोरिया, दोनों ही देषों के पास विष्व की सबसे बड़ी तैनात और मुस्तैद सेनाएँ हैं। उत्तरी कोरिया की फौज दुनिया में चैथे क्रम की सबसे बड़ी तैनात फौज है जिसमें 12 लाख फौजी किसी भी युद्ध की आकस्मिक स्थिति के लिए तैयार हैं। दक्षिण कोरिया भी अमेरिकी फौजों के सहयोग से पीछे नहीं है। दोनों ही देषों में हर नागरिक को एक निष्चित अवधि तक फौज में काम करना अनिवार्य है।

दूसरे विष्वयुद्ध के बाद भी कोरियाई खाड़ी में जंग के हालात बने रहे और 1948 से शुरू हुई उत्तरी कोरिया व दक्षिण कोरिया की लड़ाई 1953 में जाकर रुकी लेकिन तब तक 35 लाख कोरियाई लोग अपनी जान खो चुके थे। उत्तरी कोरिया में सिर्फ़ चंद इमारतें ही साबुत बची थीं। समाजवाद के रास्ते पर चलने का निष्चय करने के बाद उत्तरी कोरिया को लगातार रूस और चीन का सहयोग मिलता रहा था। उधर दक्षिणी कोरिया को अमेरिका ने बड़े जतन से अपने खेमे में बनाये रखा, क्योंकि तत्कालीन सोवियत संघ और चीन जैसे दो ताक़तवर प्रतिद्वंद्वियों के बीच दक्षिणी कोरिया के रूप में उसे पूर्वी एषिया के भीतर वैसा ही सहयोगी हासिल हो रहा था जैसे मध्य एषिया के भीतर इज़राएल। अमेरिका के प्रति निष्ठा का फल दक्षिणी कोरिया को तमाम किस्म की माली और फौजी इमदाद के रूप में आज तक हासिल होता रहा है। दक्षिणी कोरिया की विस्मयकारी तरक्की में बहुत बड़ी भूमिका अमेरिका की रही है, यह सर्वज्ञाात तथ्य है। लेकिन बर्लिन की दीवार टूटने और सोवियत संघ के बिखरने से उत्तरी कोरिया के हालात बेहद नाजुक स्थिति में पहुँच गये।

मानवाधिकारवादी संगठन व एनजीओ उत्तरी कोरिया के हालातों की भयंकर तस्वीर खींचते हैं जहाँ लोग लोग तानाषाही में पिस रहे हैं, बच्चे भूख से मर रहे हैं और पूरा निजाम भ्रष्ट है और वो सिर्फ़ शासक के प्रति जवाबदेह है, न कि जनता के। जहाँ समाजवाद के नाम पर किस तरह की व्यवस्था उन्होंने बनायी है कि एक तरफ़ तो सारी खेती की ज़मीन राज्य की है व सहकारिता के आधार पर खेती होती है लेकिन जहाँ लोगों का जीवन स्तर बेहद खराब है, जहाँ उद्योग-धंधे लगाने और चलाने के लिए भले उर्जा की कमी है लेकिन मिसाइलें बनाने में वो इतना बड़ा विषेषज्ञ है कि उससे अमेरिका भी खौफ खाता है, जहाँ एक व्यक्ति को संविधान ने शाष्वत राष्ट्रपति का दर्जा देते हुए सामंतवाद की वंष परम्परा को भी स्वीकारा गया है।

दूसरे विष्वयुद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद व सोवियत समाजवाद के खेमों में बँटी दुनिया के बीच की अदृष्य रेखा को लौह परदे का नाम दिया गया था। तत्कालीन समाजवादी देषों की अंदरुनी खामियों, साम्राज्यवादी साज़िषों और सम्मोहक उपभोक्तावाद की वजह से लोहे का परदा भी तार-तार होता गया और बर्लिन की दीवार गिरने के साथ ही वो इतिहास में गर्क हो गया।

लेकिन पूरी तरह नहीं। क्यूबा और उत्तरी कोरिया के भीतर लाल रंग काबिज रहा। एक ओर क्यूबा ने जहाँ अपने छोटे से भौगोलिक वजूद के बावजूदअंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को लगातार शक़्ल देने की कोषिष की, वहीं उत्तरी कोरिया ने अपने दरवाजे एक तरह से बाहरी दुनिया के लिए बंद कर लिए। रास्ता कौन सा सही है, ये तो सिर्फ़ इतिहास ही तय करता है लेकिन यह तो तय है कि आज भले ही क्यूबा और उत्तरी कोरिया अपने भौगोलिक विस्तार में बड़े देषों की तुलना में बहुत छोटे मुल्क हों, लेकिन वे उस छोटे से तिनके की तरह हैं जो साम्राज्यवादी देषों की आँखों में घुपकर उन्हें तिलमिलाने में सक्षम हैं।

मौजूदा परिस्थितियों में न तो चीन और न ही रूस उस तरह उत्तरी कोरिया के साथ आ सकते हैं जिस तरह कभी हुआ करते थे, लेकिन फिर भी उत्तरी कोरिया के पड़ोसी होने के नाते वे अच्छे से जानते हैं कि अगर उत्तरी कोरिया पर अमेरिका ने किसी तरह कब्जा कर लिया तो पूर्वी एषिया में अमेरिका की जड़ें और गहरी पकड़ बना लेंगी। इसलिए, जैसे भी हो सके, वे भी अमेरिका को इस क्षेत्र में और अधिक हस्तक्षेप के बहाने नहीं देना चाहते।

उत्तरी कोरिया के लौह परदे से हवा भी शासकों की मर्जी के बिना नहीं आती-जाती, इसलिए वो क्या सोचते हैं, पता नहीं चलता। लेकिन फिर भी जब चारों तरफ साम्राज्यवाद के आॅक्टोपसी पंजों की जकड़बंदी महसूस हो रही हो तो सोचा जा सकता है कि अपने आप में बंद रहने की रणनीति आत्मरक्षा के लिए अपनायी गयी होगी। साथ ही उत्तरी कोरिया के मई में किये गये परमाणु परीक्षणों ने विष्व के परमाणु सत्ता समीेरणों को भी प्रभावित किया है। ऐसे में, जब भारत जैसे बड़े देषों की राजनीतिक सत्ताएँ अमेरिकी वर्चस्ववाद के सामने घुटने टेक रही हों तो उत्तरी कोरिया जैसे छोटे से देष का यह निर्भीक कदम भारत सहित बहुत से अन्य देषों को भी उनकी गौरवषाली, उपनिवेषवाद विरोधी संघर्ष की परंपरा को याद दिलाता है।

बेषक उत्तरी कोरिया के परमाणु परीक्षणों ने पूर्वी एषिया ही नहीं, पूरी दुनिया में जंग के तनाव को बढ़ा दिया है; बेषक परमाणु हथियारों को किसी भी स्थिति में शांति के उपकरण नहीं कहा जा सकता और बेषक जंग सभ्य दुनिया में विवादों को हल करने का रास्ता नहीं होना चाहिए, लेकिन उत्तरी कोरिया के मामले में ये याद रखना ज़रूरी है कि एसके सामने जंग के हालात या परमाणु हथियार बनाने की परिस्थितियाँ पैदा करने की बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका की है।


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विनीत तिवारी
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4.11.09

लो क सं घ र्ष !: संप्रभुता से समझौता नहीं - उत्तरी कोरिया - 3

साम्राज्यवाद के घड़ियाली आँसू


दोनों पक्ष एक-दूसरे पर भरोसा नहीं जता रहे थे। नतीजतन, उत्तरी कोरिया ने अपने आपको आईएईए से अलग करने का इरादा ज़ाहिर किया। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग तरह की समस्याओं के उभरने का खतरा था। तब तक बड़े बुष जा चुके थे और क्लिंटन महोदय राष्ट्रपति बन चुके थे। इराक पर किये गये पहले हमले की आलोचनाएँ थमी नहीं थीं और क्लिंटन सर्बिया में फौजी कार्रवाई करने की तैयारी में थे। उधर दक्षिण कोरिया व उत्तरी कोरिया की सीमा पर तनाव बढ़ रहा था। अमेरिकी फौजें तो दक्षिण कोरिया में 1950 से ही डेरा डाले हुए हैं। क़रीब 30 हजार अमेरिकी फौजी समुंदर, ज़मीन और आसमान में दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए हर वक्त उसी ज़मीन पर मौजूद रहते हैं। उत्तर कोरिया की परमाणु हथियार बनाने की सरगर्म ख़बरों की वजह से कोरियाई खाड़ी में युद्ध जैसे हालात बन गये थे। क्लिंटन के विषेषज्ञ सलाहकारों ने युद्ध छिड़ने की स्थिति में भीषण नरसंहार की चेतावनियाँ दी थीं।

इन परिस्थितियों में उत्तरी कोरिया के साथ टकराव की स्थिति अमेरिका के लिए अनुकूल न लगती देख तत्कालीन राष्ट्रपति क्लिंटन ने शांति का कोई रास्ता निकालने के लिए पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर को जून 1994 में उत्तरी कोरिया भेजा था। क्लिंटन की हालिया यात्रा की तरह ही वो यात्रा भी आधिकारिक और सरकारी नहीं थी, लेकिन उस गैर आधिकारिक यात्रा में ही उस संधि के बीज छिपे थे जिसे एग्रीड फ्रेमवर्क ;।हतममक थ्तंउमूवताद्ध समझौते के नाम से जाना जाता है। प्रमुख रूप से उस संधि के मुताबिक उत्तर कोरिया ने अपने कुछ परमाणु अनुसंधानों को रोकने और योंगब्योन स्थित प्लूटोनियम आधारित रिएक्टर को बंद करने की सहमति दी थी। उत्तरी कोरिया के मुताबिक उसके वैज्ञानिकों ने ग्रेफाइट आधारित रिएक्टर बनाने की तकनीक विकसित कर ली थी और हालाँकि वो तकनीक हल्के जल वाले रिएक्टरों की तुलना में कम दक्ष भले ही थी लेकिन ग्रेफाइट की उपलब्धता उत्तरी कोरिया में पर्याप्त मात्रा में होने से वे उसी पर आगे अनुसंधान कर रहे थे। समझौता यह भी था कि यदि उहें हल्के जल वाले रिएक्टर हासिल होते हैं तो वे ग्रेफाइट वाले रिएक्टर बंद कर देंगे। अमेरिका ने इसी समझौते में यह वादा किया कि वो उत्तर कोरिया को दो हल्के जल वाले रिएक्टर देगा, पिछले 50 वर्षों से उत्तर कोरिया पर लगे तमाम आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबंधों को भी हटा लिया जाएगा, और साथ ही नये रिएक्टरों के निर्माण के दौरान उत्तरी कोरिया की उर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका ने पहले रिएक्टर के बनने तक उत्तरी कोरिया को 5 लाख मीट्रिक टन भारी तेल की सालाना आपूर्ति का वादा भी किया था। उत्तरी कोरिया ने समझौते के मुताबिक अपने ग्रेफाइट से चलने वाले रिएक्टर को नष्ट कर दिया। आईएईए ने भी निरीक्षण कर उत्तरी कोरिया के इस कदम पर संतोष ज़ाहिर कर दिया लेकिन अमेरिका ने उत्तरी कोरिया से किये हुए अपने किसी वादे पर अमल नहीं किया-न आधी सदी से चले आ रहे आर्थिक प्रतिबंध हटाये गये और न ही भारी तेल की पूरी आपूर्ति की गयी। उल्टे 1996 में अमेरिका ने उत्तरी कोरिया पर नये मिसाइल प्रतिबंध लगा डाले। इसके चलते उत्तरी कोरिया ने अपनी मिसाइल परीक्षण की योजना को रद्द कर दिया। पूरे चार साल इसी तरह खींचतान में गुजर गये। फिर 1998 में दक्षिण कोरिया में किम दे जुंग के राष्ट्रपति काल में कोरियाई भूभाग पर शांति प्रक्रिया को फिर गति मिली और दोनों देषों के बीच जमी बर्फ पिघली। कई मौकों पर जुंग ने अपने अमेरिकी सहयोगियों को उत्तरी कोरिया पर अपने फर्क ज़ाहिर कर नाराज़ भी किया। लेकिन अमेरिकी उपस्थिति से न तो उत्तरी कोरिया पूरी तरह दक्षिण कोरिया की मंषाओं पर यकीन कर सकता था और पूँजीवादी रास्ते से ही तरक्की हासिल कर सके दक्षिण कोरिया को भी उत्तरी कोरिया के लाल झण्डे पर पूरा ऐतबार होना मुष्किल ही था। हालाँकि वो प्रक्रिया किसी नतीजे पर तो नहीं पहुँच सकी लेकिन उसके निर्माता किम दे जुंग को शांति का नोबल ज़रूर दिया गया।

बाद में 2001 में बिल क्लिंटन के पद से हटने व जूनियर बुष के सत्ता में आने और 2003 में किम दे जुंग के राष्ट्रपति काल की समाप्ति से ये प्रक्रियाएँ धीरे-धीरे षिथिल पड़ती गयीं। जाॅर्ज डब्ल्यू. बुष ने सत्ता में आते ही उत्तरी कोरिया के बारे में नरम रवैया छोड़ कर वही पारंपरिक नज़रिया अपनाया जो उनके पिता जाॅर्ज एच. बुष और उनके भी पहले से चला आ रहा था। उत्तरी कोरिया द्वारा मई में किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद फिर से सीमाओं पर मिसाइलें और बंदूकें तनी हुई हैं।

जूनियर बुष के सत्ता में आने के आठ महीने के भीतर ही 11 सितंबर 2001 का वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ और उसकी आड़ लेकर बुष प्रषासन ने उन सभी को ठिकाने लगाने की योजनाओं पर सुनियोजित ढंग से अमल शुरू कर दिया जो किसी भी तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व को चुनौती दे रहे थे और झुकने से इन्कार कर रहे थे। दुनिया से आतंकवाद के सफाये का नाम देकर साम्राज्यवादी आतंक का जो कहर सारी दुनिया के कमज़ोर देषों पर उस दौरान बरपाया गया, उसके सामने हिरोषिमा और नागासाकी की अमेरिकी बर्बरताएँ भी पीछे रह गयीं। यूँ तो बुष प्रषासन के सामने अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, क्यूबा, वेनेजुएला, नेपाल, पेरू, मेक्सिको, ब्राजील, फ़िलिस्तीन, लेबनान, सूडान सहित 50-60 देषों को सबक सिखाने का लक्ष्य था लेकिन 29 जनवरी 2003 को दिये गये अपने भाषण में बुष ने ‘‘शैतान की धुरी’’ कहते हुए तीन देषों पर ख़ास नज़रे इनायत बख़्षी। ये तीन देष थे - उत्तरी कोरिया, ईरान और इराक़।

यूँ इन तीनों देषों में कोई समानता नहीं थी सिवाय इसके कि ये तीनों ही देष अमेरिका की दादागिरी मानकर अपने घुटने टेकने को तैयार नहीं थे और तीनों ही सामरिक दृष्टि से अमेरिका की सर्वषक्तिमान बनने की राह में बाधा बन सकते थे।

इराक़ को सबसे पहले निषाना बनाया गया। बहाना बनाया गया उसके पास जनसंहारक हथियारों की संभावित मौजूदगी का, जबकि अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण दल भी इराक़ के निरीक्षण के बाद वहाँ ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी की संभावना से इन्कार कर चुका था। फिर भी बुष महोदय ने वहाँ हमला किया, राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फाँसी पर लटकाया गया, लाखों निर्दोषों का क़त्लेआम किया गया जो अब तक जारी है।

मध्य एषिया में इराक़ को बारूद के ढेर में बदल देने के बाद फ़िलिस्तीन और ईरान ही अमेरिका की ‘‘तेल लूट परियोजना’’ की रुकावट हो सकते हैं। फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध की कमर तोड़ने के लिए अमेरिका का वफ़ादार इज़राएल वहाँ मौजूद है ही। ईरान के मामले में हालात थोड़े जुदा हैं। एक बड़ा मुल्क होने और वहाँ राष्ट्रपति अहमदीनेजाद की लोकप्रिय अमेरिका विरोधी सरकार के होने से अमेरिका सही मौके की ताक में है। वो इराक़ जैसा लंबा प्रतिरोध झेलने के लिए तैयार नहीं है। इल्जाम ईरान पर भी यही लगाया गया है कि उसके पास जनसंहारक क्षमता वाले हथियार मौजूद हैं और वो परमाणु हथियार बनाने की साज़िष कर रहा है। हालाँकि इराक़ की ही तरह अब तक इसका कोई सबूत नहीं पेष किया जा सका है फिर भी इन अमेरिकी बहानों की असलियत सभी जानते हैं।

इन तीनों देषों में से एक उत्तरी कोरिया ही ऐसा देष है जिसने अपने पास परमाणु हथियार होने की न केवल ठोक-बजाकर घोषणा की है बल्कि साथ ही यह भी कहा है कि वो अपना हथियार पहले नहीं इस्तेमाल करेगा, लेकिन अगर अमेरिका देष की सुरक्षा पर हमला करता है तो वो चुप नहीं रहेगा। उत्तरी कोरिया जैसे छोटे से देष का यह रवैया ‘आ बैल, मुझे मार’ जैसा भले नज़र आता हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विष्लेषकों के इस संकेत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि अब तक जितने भी देषों पर अमेरिका ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हमले किये या करवाये हैं उनमें से एक भी देष परमाणु शक्ति संपन्न देष नहीं था। दूसरे शब्दों में, अमेरिका किसी परमाणु शक्ति संपन्न देष से भिड़ने का खतरा नहीं उठाना चाहेगा।

विनीत तिवारी

छैल गाभरू

पौ की पूनम का चाँद पराये प्रकाश से निडाना के आकाश में माघा नक्षत्र ढूँढ रहा था। सुबह शुरू होने वाले माघ महीने में इस सर्दी के मिजाज़ से अनभिज्ञ गेहूं की बालियाँ प्रजनन परीक्षा पास कर बूर के पत्तासे से बाँट रही थी। इन बालियों के पेट में पल रहे दानों के लिए भोजन पकाने का काम दिन में ही निपटा कर, पत्ताका पत्ते आराम फरमा रहे थे। इन्ही पत्तों पर टहलकदमी करते हुए एक गाभरू-गर्ब अपनी माँ बीरबहूटी तै न्यूँ बोल्या, " इब बुदापे में छैल-छींट हो कै कित चाल कै जावैगी? इब तेरी उमर के सिंगरण की रहरी सै?"
जवान बेटे कै मुंह तै या बात सुण बीरबहूटी का साँस ऊपर का ऊपर अर् तलै का तलै रहग्या। आवेश को अनुभव के आवरण में ढांप , उसने बेटे को बगल में बिठाया। फेर वा प्रेम तै पूछण लागी, "बेटा, एक तो तेरी बालक बुद्धि अर् ऊपर तै गेहूं की फसल में रहना। तनै भूल कै एक आध दाणा गेहूं का तो नहीं चाब लिया ?"
" नहीं ! माँ ! नहीं ! मैं स्प्रे लाग कै मरूं जै मनै यूँ कुकर्म करया हो तो।", गर्ब-गाभरू नै कसम खा कर बात आगै बढाई, "माँ, मनै तो छिक्मां चेपे खाए थे। तरुण सुंडियों की थोड़ी सी चटनी चाटी थी और अण्डों का जूस पीया था।"
बीरबहूटी - "बस ठीक सै बेटा। गलती तो मेरी ऐ सै। मनै सुन राख्या था अक् जिसा खावै अन्न, उसा होवै मन। तेरे मुहं तै माणसाँ जैसी बात सुनकै मनै सोचा, कदे मेरे बेटे नै भी अन्न खा लिया हो? एक दिन इस निडाना गाम के मनबीर नै भी अपनी माँ तै यही बात पूछी थी। बेटे, मनबीर की माँ बेदो बैसठ साल पहल्यां पीहर की सोलह दीवाली खा कै इस गाम में ब्याहली आई थी। सुथरी इतनी अक् दीवै कै चांदणै में भरथा काला दो घड़ी मुँह देखता रहग्या था। अगले दिन भाभी न्यूँ पूछैं थी अक् आँ हो काले! फेरयाँ आली सारी रात जागा था, के? गाम के ब्याहल्याँ कै मन में मण मण मलाल था अक् थारै इसी सुथरी बहु क्यों नही आई । कल्चर के नाम पै एग्रीकल्चर के रूप में प्रसिद्ध इस हरियाणा में बिटौडां तै बडा कैनवस अर ऊंगलियाँ तै न्यारे ब्रुश कोन्या थे। फेर भी गाम के गाभरूआँ नै भरथे की बहु के रंग-रूप के न्यारे-न्यारे नैन-नक्श मन में बिठान की कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी थी। उसके हाण का एक बुड्डा तो परसों भी न्यू कहन लाग रहा था अक् दिनाँसर तो भरथे की बहु की घिट्टी पर को पानी थल्स्या करदा। रही बेदो के हुनर की बात, उसके मांडे अर् गाजर-कचरियाँ के साग का जिक्र पीहर अर् सांसरे में समान रूप से चलै था। बसलुम्भे से बनी उसकी फाँकी नै सारा गाम पेट दर्द में रामबाण माना करदा। कवथनांक एवं गलणाँक की परिभाषा से अपरिचित बेदो टिंडी ता कै निथारन की माहिर थी। के मजाल चेह्डू रहज्या। उसके हाथ का घाल्या घी किस्से नै ख़राब होया नहीं देखा। काम बेदो तै दो लाठी आगै चाल्या करदा। उठ पहर कै तड़के वा धड़ी पक्का पीसती व दूध बिलोंदी। रोटी टूका कर कै गोबर-पानी करदी। कलेवार तक इन सरे कामा तै निपट कै खेत में ज्वारा पहुँचांदी। वापिस घर पहुँच कै एक जोटा मारदी सोण का। जाग खुलते ही पीढा घाल कै दो ढाई बजे तक आँगन में बैठ जांदी। इस टेम नै वा अपना टेम कहा करदी। इस टेम में वा गाम की बहु-छोरियां नै आचार घालना, घोटा-पेमक लाणा व क्रोसिया सिखांदी। इसी टेम कुणक अर् कांटें कढवान आले आंदे। सुई अर् नकचुन्डी तो बेदो की उँगलियाँ पर नाच्या करदी। तीन बजे सी वा खूब जी ला के नहाया करदी। मसल मसल कै मैल अर् रगड़ रगड़ कै एडी साफ़ करदी। उसनै बेरया था अक् ओल्हे में को आखां में सुरमा, नाक में नाथ अर् काना में बुजनी, किसे नै दिखनी कोन्या। फेर भी वा सिंगार करन में कोई कसर नहीं छोड्या करदी। बराबराँ में कट अर् काख में गोज आले कुर्त्ते कै निचे पहरे बनियान नै वा सलवार तले दाबना कदे नहीं भुल्या करती। आख़िर में आठूँ उँगलियों से बंधेज पर खास अलबेट्टा दे कर सलवार नै सलीके सर करदी। बन ठन कै इब वा चालदी पानी नै। उसकी हिरणी-सी चाल नै देख कै रस्ते में ताश खेलनिये पत्ते गेरने भूल जांदे अर् न्यून कहंदे या चली भरथे की बहु पानी नै।", बेटे से हुंकारे भरवाते हुए बीरबहुटी नै आगै कथा बढाई, " बस बेटा, एक या ऐ बात थी जो भरथे नै सुहाया नहीं करदी। एक दिन मौका सा देख कै बेदो नै समझावण लाग्या अक् मनबीरे की माँ इब तू दो बालकाँ की माँ हो ली। इस उम्र में सादा पहरणा अर् सादा रहणा ऐ ठीक हो सै।या सुन कै बेदो की हँसी छुट गई। अपनी इस बेलगाम हँसी को काबू कर बेदो नै मुस्कराते हुए, पहला सवाल दागा, "मनबीरे के बाबु, मनै बारह बरस हो लिए इस गाम में आई नै। आज तक कदे किसे की फी में आई?"
"ना। मनबीरे की माँ। ना।", कहन तै न्यारा कोई जवाब नहीं था भरथे के धोरै।
उसकी की इस ना से उत्साहित हो बेदो नै उल्हाना दिया, " जायरोए, को टुम-टेखरी घडाणी तो दूर कदे दो मीटर का टुकड़ा भी ल्या कै दिया सै के?"
" ना। मनबीरे की माँ। ना।",भरथे की कैसट उलझ गई थी।
" कदे? तेरै घर के दानें दुकानां पै गेरे!", -बेदो रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
" ना। मनबीरे की माँ। ना। इब क्यूँ जमा पाछै पडली। मनै तो बस न्यूँ ऐ पूछ लिया था।" - भरथे नै बेदो को टालण की सोची।
बेदो- " तेरी इस बस न्यूँ ऐ नै तरली गोज में घाल ले। मनै बेसुरापन कोण सुहावै।"
बेदो का वजूद भरथे पै घना भारी पडै था। मन-मसोस कै रहग्या। दिनां कै दिन लाग रे थे अर् दिनां सर , बेदो नै छोरे ब्याह लिए। पोते-पोतियाँ आली होगी। पर बेदो की दिनचर्या अर् रहन-सहन का सलीका वही रहा। हाँ, बहुआं नै उसका पानी भरने का काम तो छुड़वा दिया था। इब हाण्डीवार सी बेदो नहा धो कर साफ सुथरे कपड़े पहन खेतां में घुम्मन जान लगी। बेटा, बेदो का यू सलीके सर रहना ना तो कदे भरथे नै भाया अर् ना इब ख़ुद के जाया नै सुहाया। एक दिन मौका-सा देख कै मनबीर माँ कै लोवै लाग्या। हिम्मत सी करके बोल्या अक् माँ, इस उमर में .................. ।
" बस बेटा। बस। समझ गई।"- कह कै बेदो नै बेटे की बात कै विराम लगा दिया। अर् न्यूँ पूछन लागी, "बेटा, थारा किम्में फालतू खर्चा कराऊ सूं? "
" ना। माँ। ना।"-मनबीर नै भी बाबू की पैड़ा में पैड़ धरी।
बेदो- "थारी बहुआँ नै नहान धौन तै बरजू सूं?"
"ना! माँ! ना!" - मनबीर नै जवाब दिया।
"थारी बहुआँ नै साफ सुथरा पहरण तै नाटु सूं?" - बेदो का बेटे से अगला सवाल था।
मनबीर - ना! माँ ! ना!
" सोलाह की आई थी, छियासठ की हो ली। इन पच्चास सालों में आडै किसे कै उलाहने में आई हों? कदे मेरे पीहर तै कोई बात आई हो? " - बेदो इब और खोद-खोद कै पूछन लागी।
थूक गिटकते होए मनबीर बोल्या - ना ! माँ! ना!
बेटा, अब बाजी बेदो के हाथ में थी वा बोली -" फेर मेरे इस साफ सुथरा रहन पै इतना रंज क्यों?"
नीचे नै नजर कर कै मनबीर नै बस इतना ही कहा - बस ! माँ ! बस ! न्यूँ ऐ ।
बेदो - "बेटा। थारा बाप भी इस "न्यूँ ऐ" की गोज भरे हाँडै सै अर् इब थाम नै झोली कर ली। मनै तो मर्दाँ की इस "न्यूँ ऐ" अर् "रिश्तों" की थाह आज तक ना पाई।" बेदो की आपबीती अपने बेटे गर्ब तै सुणा, बीरबहूटी उसने न्यूँ समझावन लागी - "मेरे गर्ब-गाभरू, इन माणसां कै समाज के रिश्ते तो पैदावारी सै। उलझ-पुलझ इनकी पैदावार, उलझ-पुलझ इनके रिश्ते-नाते और उलझ-पुलझ इनकी मानसिकता। यें भाई नै सबतै प्यारा बतावै अर् सबतै फालतू झगड़े भी भाईयाँ गेल करै। रायचंदआला के रूहिल गाम में भाईयाँ गेल बिगाड़ कै रोहद के रूहिलां में भाईचारा ढुँढते हांडै सै। घर, कुनबे, ठौले व गाम गेल बिघाड कै सिरसा में जा समाज टोहवै सै। और के बताऊ इनका किसानी समाज तो इसा स्याणा सै अक् बही नै तो सही बताया करै अर् घट्टे बीज नै बढा। बेटा, यें ऊत तो कीडों की बीजमारी कै चक्कर में अपनी बीजमारी का जुगाड़ करदे हाँडै सै। इस लिए मेरे गाभरू आज पीछे इन माणसाँ की छौली अर् इनके कीटनाशकोँ तै बच कै रहिये। जब भी कोई मानस नजदीक आवै, ऊँची आवाज़ में गीत गाना शुरू कर दिया कर अक् .............
कीटाँ म्ह के सां कीटल
या जाणे दुनिया सारी ॥
अँगरेज़ कहें लेडी बीटल
बीरबहुटी कहें बिहारी ॥
जींद के बांगरू कहँ जोगन
खादर के म्हाँ मनियारी ॥
सोनफंखी भँवरे कहँ कवि
सां सौ के सौ मांसाहारी ॥ "






3.11.09

लो क सं घ र्ष !: संप्रभुता से समझौता नहीं - उत्तरी कोरिया - 2

साम्राज्यवाद के घड़ियाली आँसू


उत्तरी कोरिया ने 25 मई 2009 को परमाणु विस्फोट करके ये ऐलान कर दिया था कि उसने परमाणु हथियार बनाने की तकनीक व आवष्यक सामग्री हासिल कर ली है। उत्तरी कोरिया ने अपने संदेष में कहा कि उसने ऐसा करके अपने देष की संप्रभुता की सुरक्षा को बढ़ाया है जिस पर लगातार खतरा बढ़ता जा रहा है। साथ ही यह भी कि अमेरिका ने जिस तरह उत्तरी कोरिया पर परमाणु हमले के खतरे को बढ़ाया है, उसकी वजह से उसे ये कदम उठाना पड़ा है। उत्तरी कोरिया के प्रवक्ता ने अपने बयान में कहा कि उत्तरी कोरिया द्वारा किया गया यह परमाणु परीक्षण धरती पर अब तक किये जा चुके परमाणु परीक्षणों में 2054वाँ है। इसके पूर्व तक किये गये 2053 परमाणु परीक्षणों में से 99.99 प्रतिषत उन पाँच देषों ने ही किये हैं जो परमाणु अप्रसार संधि के आधार पर परमाणु हथियार रखने की पात्रता लिए हुए हैं और यही पाँचों देष- अमेरिका, रूस, चीन, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य भी हैं। अगर परमाणु परीक्षण विष्व शांति के लिए खतरा हैं तो पृथ्वी को सबसे बड़ा खतरा इन देषों से है। बयान में आगे साफ़ कहा गया है कि अमेरिका ने ही क्षेत्रीय शांति की संभावनाओं के रास्ते पर बड़ा पत्थर रखा है और उत्तरी कोरिया को अपने देष व लोगों की सुरक्षा के लिए ये कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा है। अंत में यह भी कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् द्वारा दबाव बढ़ाये जाने की स्थिति में उत्तरी कोरिया अपने सुरक्षा उपायों को और मजबूत करेगा।

अमेरिका रिंग मास्टर, लेकिन उत्तरी कोरिया सर्कस का जानवर नहीं

उत्तरी कोरिया परमाणु शक्ति संपन्न बनने को अपनी सुरक्षा का उपाय मान रहा है और अमेरिका हरगिज़ नहीं चाहता कि उसकी मर्जी के बग़ैर कोई देष अपने आपको सुरक्षित कर लेे। अमेरिका, योरप व जापान जैसे समृद्ध देषों का दिखावे का तर्क यह है कि परमाणु हथियार सर्वनाषी किस्म के हथियार हैं इसलिए उन्हें ही इनके रखने की इजाज़त हो सकती है जो जिम्मेदार व समझदार हों। ये दोनों ही योग्यताएँ पाँच ऐसे देषों ने अपने भीतर पायी हैं जो न केवल संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हैं बल्कि अन्यथा भी काफी ताक़तवर हैं। ये पाँचों देष-अमेरिका, रूस, चीन, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस, परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के ज़रिये दुनिया के बाकी 189 देषों को यह मनवाने में सक्षम रहे हैं कि चूँकि वे समझदार और ज़िम्मेदार हैं अतः वे ही परमाणु हथियार रखेंगे और कोई अन्य देष अगर परमाणु शक्ति संपन्न बनने की कोषिष करेगा तो उसे हिमाकत माना जाएगा और ऐसी हिमाकत के लिए तरह-तरह के प्रतिबंध व अन्य सबक सिखाने के प्रावधान एनपीटी में किये गये हैं।

1985 में उत्तरी कोरिया ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर किये। उसके मुताबिक ऐसा करने के पीछे उसे उम्मीद थी कि अमेरिका, योरप व परमाणु तकनीक संपन्न अन्य देष उनकी उर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में उसकी मदद करेंगे। सोवियत संघ के विघटन से कुछ ही पहले बुष सीनियर ने घोषणा की कि अमेरिका बिना शर्त अपने 100 से ज़्यादा परमाणु हथियार, जो उत्तरी कोरिया को निषाना साधकर दक्षिण कोरिया की ज़मीन व समुद्र में तैनात थे, उन्हें हटा लिया जाएगा। उत्तरी कोरिया और दक्षिण कोरिया ने भी कुछ सकारात्मक कदम उठाते हुए परमाणु हथियार न बनाने, न रखने और न इस्तेमाल करने की संधि पर हस्ताक्षर किये। अगले वर्ष 1992 में उत्तरी कोरिया ने सेफगार्ड एग्रीमेंट पर भी हस्ताक्षर कर दिये जिससे अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी (आईएईए) को उत्तरी कोरिया की ज़मीन पर निरीक्षण का रास्ता साफ़ हो गया। लेकिन अगले दो वर्षों में आईएईए व उत्तरी कोरिया के बीच निरीक्षणों को लेकर लगातार विवाद चलते रहे। आईएईए का आरोप था कि उत्तरी कोरिया अपने परमाणु परीक्षण स्थलों का ठीक तरह से निरीक्षण करने में बाधाएँ खड़ी कर रहा है और दूसरी तरफ़ उत्तरी कोरिया का कहना था कि आईएईए परीक्षण के बहाने से उसकी गोपनीय सामरिक जानकारियों को हासिल करने की कोषिष कर रहा है जो कि उसकी संप्रभुता से छेड़छाड़ है। इस बीच सीआईए की उत्तरी कोरिया विरोधी रिपोर्टों ने इस संवाद प्रक्रिया को और भी पीछे धकेल दिया। दो-तीन कोषिषों के बाद उत्तरी कोरिया ने आईएईए के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिये। इस बीच सोवियत संघ का बिखराव हो गया था सो वहाँ से भी उसे मदद मिल नहीं पा रही थी। पानी और ताप तथा अन्य माध्यमों से बिजली बनाने के काफी उपाय करने के बावजूद उत्तरी कोरिया उर्जा संबंधी हालातों के सबसे खराब दौर से गुजर रहा था। एनपीटी का सदस्य बनने के पीछे उसने मूल मंषा ही ये ज़ाहिर की थी कि उसे परमाणु उर्जा के निर्माण की तकनीक और अन्य ज़रूरी मदद हासिल हो सके, लेकिन 1985 से 1994 तक उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ था।

विनीत तिवारी

2.11.09

भीष्ण सड़क हादसे में पांच घायल

फतेहाबादः यहां से चार किलोमीटर दूर फतेहाबादभूना रोड़ पर गांव बिसला के बस स्टेंड पर सोमवार को हुए एक बस हादसे में बस चालक कृष्ण कुमार निवासी गांव गुनियाना कैथल की सहित पांच लोग गभीर रुप से घायल हो गए। बस चालक की तत्परता से बड़ा हादसा टल गया। प्राप्त जानकारी के अनुसार कैथल डिपो की बस फतेहाबाद से चंडीगढ जा रही थी कि फतेहाबाद भूना रोड़ पर गांव बिसला के बस अड्‌डे के पास बिसला की ओर से एक मोटरसाईकिल अचानक सड़क पर आ गया। मोटरसाईकिल को बचाने की कोशिश में बस बिसला बस अड्‌डे के पास एक वृक्ष से जा टकराई। जिससे वृक्ष के पास बंधी एक भैंस की मौत हो गई व बस चालक कृष्ण कुमार बस के अंदर ही फंस गया। बस जिस पेड़ से टकराई उसके पास ही साईकिल रिपेयर का एक खोखा था जिस पर काफी संチया में लोग बैठे थे लेकिन बस चालक ने बस को लोगों पर चढ़ने से बचा लिया। मोटरसाईकिल पर सवार गांव धारनिया निवासी हनुमान व गुलाब बस में सवार भूना निवासी नरव्ंद्र व ऐलनाबाद निवासी हरमिंद्र घायल हो गए। गभीर रुप से घायल हरमिंद्र को फतेहाबाद से अग्रोहा रैफर कर दिया गया है। सड़क दुर्घटना की सूचना तुरंत हाईवे ट्रेफिक मोबाईल को दी गई। हाईवे पुलिस तुरंत घटनास्थल पर पंहुच गई व सभी घायलों को एबुलैंस में डालकर फतेहाबाद के सरकारी हस्पताल में लाया गया। कैथल डिपो की बस का चालक दुर्घटना के बाद बस के अंदर ही फंसकर रह गया। बिसला अड्‌डे पर मौजूद लोगों ने पिचकी बस से रस्से बांधकर ट्रैटर से बस के पिचके हिस्से को खींचा जिस पर ड्राईवर को बाहर निकाला जा सका। दुर्घटना में बस चालक की एक टांग टूट गई है।

कपास सेदक कीट-लाल मत्कुण के कुछ फोटो











लाल मत्कुण के अंडे




मधुर मिलन





कपास का सेदक कीट-लाल मत्कुण

लाल मत्कुण एक रस चूसक हानिकारक कीट है। यह सर्वव्यापी कीट वैसे तो भारत वर्ष में सारे साल पाया जाता है पर हरियाणा में कपास की फसल पर इसका ज्यादा प्रकोप अगस्त से अक्तूबर तक देखा गया है। कपास के अलावा यह कीट भिन्डी, मक्का, बाजरा व गेहूं आदि की फसलों पर भी नुक्सान करते पाया जाता है। कीट सम्बंधित किताबों व रसालों में इस कीट को कपास की फसल का नामलेवा सा हानिकारक कीट बताया गया है। जबकि हरियाणा के किसान इसे बनिया कहते हैं तथा कपास की फसल में इसके आक्रमण को कपास के अच्छे भावः मिलने का संकेत मानते हैं। नामलेवा व मुख्य हानिकारक कीट के इस अंतर्विरोध को तो वैज्ञानिक और किसान आपस में मिल बैठ कर सुलझा सकते है या फ़िर समय ही सुलझाएगा। हाँ! इतना जरुर है कि इस कीट का आक्रमण देशी कपास की बजाय नरमा(अमेरिकन) में ज्यादा होता है तथा नरमा में भी बी.टी.कपास में अधिक होता है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ कपास के पत्तों, तनों, टिंडों व बीजों से रस चूस कर फ़सल में हानि पहुँचाते हैं। ज्यादा रस चूसे जाने पर प्रकोपित पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती हैं। टिंडों से रस चुसे जाने पर इनके ऊपर सफ़ेद व पीले से धब्बे बन जाते हैं तथा टिंडे पूर्ण रूपेण विकसित नहीं हो पाते। इनके मल-मूत्र से कपास के रेशे बदरंग हो जाते हैं। टिन्डें खिलने पर ये कीट बीजों से रस चूसते है जिस कारण बीज तेल निकलने एवं बिजाई लायक नही रह जाते। बीजों में इस नुक्सान से कपास की पैदावार में निश्चित तौर पर घटौतरी होती है जो प्रत्यक्ष दिखाई नही देती। इसीलिए तो कपास की फसल में इस कीट का भारी आक्रमण होने पर भी यहाँ के किसान घबराते नहीं और ना ही कोई किसान इस कीट के खात्मे के लिए कीटनाशकों का स्प्रे करता paya जाता। क्योंकि इस कीट से होने वाले नुकशान का अंदाजा किसान डोले पर खडा होकर नहीं लगा सकता। लेकिन बी.टी.बीजों के प्रचलन के साथ-साथ इस कीट का हमला भी कपास की फसल में साल दर साल तेज होता जा रहा हैं और वो दिन दूर नही जब इस कीट की गिनती बी.टी.कपास के मुख्य हानिकारक कीटों में होने लगेगी? इस बणिये/मत्कुण को अंग्रेजी पढने-लिखने वाले लोग Red cotton bug कहते हैं। कीट वैज्ञानिक जगत में इसे Dysdercus singulatus के नाम से जाना जाता हैं। इसके परिवार का नाम Pyrrhocoridae तथा कुल का नाम Hemiptera है। इस कीट के प्रौढ़ लम्बोतरे व इकहरे बदन के होते हैं जिनके शरीर का रंग किरमिजी होता है। किरमिजी गाढे लाल रंग की ही एक शेड होती है। इनके पेट पर सफ़ेद रंग की धारियां होती हैं। इनके आगे वाले पंखों, स्पर्शकों व स्कुटैलम का रंग काला होता है।इस कीट की मादा मधुर-मिलन के बाद लगभग सौ-सवासौ अंडे जमीन में देती है। ये अंडे या तो गीली मिट्टी में दिए जाते है या फ़िर तंग-तरेडों में दिए जाते हैं। अण्डों का aakaar गोल तथा रंग हल्का पीला होता है। अंड-विस्फोटन में सात-आठ दिन का समय लगता है। अंड-विस्फोटन से ही इन अण्डों से इस कीट के छोटे-छोटे बच्चे निकलते हैं जिन्हे कीट-वैज्ञानिक प्यार से निम्फ कहते हैं। शिशुओं को प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए समय और स्थान के हिसाब से तकरीबन पच्चास से नब्बे दिन का समय लगता है। इस दौर में ये शिशु पॉँच बार अपना अंत:रूप बदलते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि ये निम्फ प्रौढ़ के रूप में विकसित होने तक अपने जीवनकाल में पाँच बार कांझली उतारते हैं। इस कीट के प्रौढों का जीवन आमतौर पर 40 से 60 दिन का होता है। इस कीट को गंदजोर भी कहा जाता है क्योंकि यह बग एक विशेष प्रकार की गंद छोड़ता है। इसीलिए इस कीट का भक्षण करने वाले कीड़े भी प्रकृति में कम ही पाए जाते हैं। Pyrrhocoridae कुल का Antilochus cocqueberti नामक बग तथा Reduvidae कुल का Harpactor costaleis नामक बग इस लाल मत्कुण के निम्फ व प्रौढों का भक्षण करते पाए गये हैं। भांत-भांत की मकडियां भी इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को अपने जाल में फांसे पाई जाती हैं। इसीलिए तो कपास के खेत में किन्ही कारणों से मकडियां कम होने पर इस लाल मत्कुण का प्रकोप ज्यादा हो जाता है। इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को मौत की नींद सुलाने वाले रोगाणु भी हमारे यहाँ प्रकृति में मौजूद हैं। जिला जींद के निडाना गावँ के खेतों में एक फफुन्दीय रोगाणु इस कीट ख़तम करते हुए किसानों ने देखा है। आमतौर पर ये किटाहारी फफूंद सूक्ष्म बीजाणुओं के रूप में कीटों के शरीर की बाहरी सतह पर आक्रमण करती हैं। ताप और आब की अनुकूलता होने पर इन बीजाणुओ से फफूंद हाइफा के रूप में उगती है और देखते-देखते ही कीट की त्वचा पर अपना साम्राज्य कायम कर लेती है। यह फफूंद कीट की त्वचा फाड़ कर कीट के शरीर में घुस जाती है और इस प्रक्रिया में संक्रमित कीट की मौत हो जाती है। कुछ फफुन्दीय जीवाणु तो अपने आश्रयदाता कीट के शरीर में जहरीले प्रोटीन भी छोड़ते पाए जाते हैं। ये जहरीले प्रोटीन जिन्हें टोक्शिंज कहा जाता हैं, भी कीट की मौत का कारण बनते हैं।

लो क सं घ र्ष !: संप्रभुता से समझौता नहीं - उत्तरी कोरिया - 1

साम्राज्यवाद के घड़ियाली आँसू


हाल में 5 अगस्त 2009 को बिल क्लिंटन उत्तर कोरिया से दो अमेरिकी पत्रकारों को रिहा करवा के अपने निजी चार्टर्ड प्लेन में बिठाकर अमेरिका ले आये। ये चीनी-अमेरिकी और दक्षिण कोरियाई-अमेरिकी मूल के पत्रकार मार्च 2009 में चीन की सीमा के नज़दीक उत्तर कोरिया में शरणार्थियों की स्थिति पर भ्रामक रिपोर्टिंग करने के आरोप में गिरफ़्तार किये गये थे। क्लिंटन ने उक्त दोनों पत्रकारों की रिहाई के लिए उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेताओं से विनती की और उत्तर कोरिया के राजनीतिक नेतृत्व ने भी अपनी मानवीयता प्रदर्शित करते हुए उनकी 12 साल की सश्रम सज़ा माफ कर उन्हें क्लिंटन को सौंप दिया। ओबामा प्रशासन ने इस कार्य से अपने आपको पूरी तरह अलग बताते हुए यह बयान जारी किया कि यह बिल क्लिंटन का स्वप्रेरित मानवीय कदम था। इसे साबित करने के लिए ये तर्क भी दिया गया कि क्लिंटन उत्तरी कोरिया सरकारी हवाई जहाज से नहीं बल्कि निजी चार्टर्ड हवाई जहाज से गये थे। हालाँकि उत्तर कोरिया की सरकारी समाचार एजेंसी ने यह ख़बर दी कि क्लिंटन ओबामा प्रशासन का शांति संदेश भी लेकर आये थे।

प्रसंगवश कैलेंडर में 6 अगस्त 1945 हिरोशिमा पर अमेरिकी परमाणु बम गिराये जाने की भी तारीख है। सन 1945 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रुमैन ने इतिहास के सबसे क्रूरतम कारनामे को अंजाम दिया था और 2009 की 5 अगस्त को निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने शांति का कारनामा करने का बीड़ा उठाया। इसे इतिहास का प्रायश्चित मानने वाले वे भोले जानकार ही होंगे जिन्हें उत्तर कोरिया के मई में किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिकी आकाओं के दाँतों की किटकिटाहट नहीं सुनायी दी होगी। अफग़ानिस्तान, इराक़, नेपाल, लेबनान और फ़िलिस्तीन में तमाम पत्रकारों और मानवाधिकारवादी कार्यकत्र्ताओं की हत्याओं से जिनके कानों पर जूँ नहीं रेंगी, उनका मन अचानक ही अगर उत्तर कोरिया में गिरफ़्तार इन दो पत्रकारों के लिए द्रवित होने लगे तो शक़ होना लाजिमी है।

मौजूदा अंतरराष्ट्रीय हालातों को देखते हुए ये कयास लगाना मुष्किल नहीं कि क्लिंटन की यात्रा उत्तरी कोरिया व अमेरिका के बीच पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ते जा रहे आण्विक तनाव को टालने के मकसद से की गयी थी।
ज़ाहिर है कि महज 2 करोड़ की कुल आबादी और अमेरिका के मुकाबले शायद 1 प्रतिषत से भी कम परमाणु क्षमता वाले उत्तरी कोरिया से दोस्ती बढ़ाने में अमेरिका को विष्व शांति का ख़याल तो नहीं ही रहा होगा। उत्तरी कोरिया की राजधानी प्योंगयांग के हवाई अड्डे पर क्लिंटन की अगवानी के लिए मौजूद लोगों में किम-क्ये क्वान भी थे जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आणविक मसलों की वार्ताओं में उत्तरी कोरिया के प्रमुख रणनीतिकार थे। क्लिंटन की इस यात्रा के पीछे एक कूटनीति ये भी हो सकती है कि शांतिपूर्ण भंगिमाओं के ज़रिये पूर्वी एषिया से उभरी इस नयी चुनौती को कम से कम फिलवक़्त एक तरफ़ से टाला जा सके और पूरा ध्यान ईरान पर लगाया जा सके।

इराक़ की जंग ने अमेरिकी रणनीतिकारों को ये तो समझा ही दिया है कि हमेशा जंग शुरू करने वाले के हाथ में जंग ख़त्म करने का भी माद्दा ज़रूरी़ नहीं होता। सद्दाम हुसैन को मारने और इराक-अफगानिस्तान को मलबे में बदल डालने के बावजूद, या इज़रायल के ज़रिये हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का क़त्लेआम करवाने के बावजूद इन जगहों पर जंग ख़त्म नहीं हुई, और अमेरिका के प्रति ज़हर वहाँ की पीढ़ियों की नस-नस में उसी तरह समा गया है जिस तरह वहाँ की हवाओं में बारूद। दरअसल अमेरिका को ये सच्चाई समझ आ रही है कि तमाम हथियारों के बावजूद जंग में जीत इतनी आसान नहीं रह गयी है, खासतौर पर जब बेलगाम अमेरिकी दादागिरी के ख़िलाफ़ सारी दुनिया में विरोध बढ़ता जा रहा है और लाखों- करोड़ों लोग अपनी जान देकर भी अपनी आज़ादी बचाये रखना चाहते हों।

काफी मुमकिन है कि ईरान पर हमले की रणनीति बनाते समय अमेरिका को उत्तर कोरिया में एक और मोर्चा खोलना मुश्किल लग रहा हो और इसीलिए फिलहाल अमेरिकी रणनीति किसी तरह उत्तर कोरिया को शांत रखने की होगी। ऐसे में जब अमेरिका के सामने तेल की लूट की लड़ाई में अगला निषाना ईरान है तो वो ये खतरा नहीं उठाना चाहेगा कि उत्तरी कोरिया की शक्ल में एक दूसरा मोर्चा भी खुल जाए। इसलिए उत्तरी कोरिया के मसले को कम से कम तब तक टालने की अमेरिका की कोशिश रहेगी जब तक वो ईरान से न निपट ले।



विनीत तिवारी

1.11.09

लो क सं घ र्ष !: कैसे सैनिटेशनयुक्त हो यह देश ?

इक्कीसवीं सदी में महाशक्ति में शुमार होने के लिए आतुर हिन्दोस्तां के कर्णधारों ने कमसे कम यह उम्मीद नहीं की होगी कि वह एक ऐसे ढेर पर बैठे मिलेंगे जिसमें एक बड़ी त्रासदी के बीज छिपे होंगे।
यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजी रिपोर्ट (Saddest stink in the world, TheTelegraph, 16 Oct 2009) इस बात का विधिवत खुलासा करती है कि किस तरह दुनिया भर में खुले में शौच करनेवाले लोगों की 120 करोड़ की संख्या में 66.5 करोड़ की संख्या के साथ हिन्दोस्तां ‘अव्वल नम्बर’ पर है। प्रस्तुत रिपोर्ट अनकहे हिन्दोस्तां की हुकूमत द्वारा अपने लिए निर्धारित इस लक्ष्य की लगभग असम्भव्यता की तरफ इशारा करती है कि वह वर्ष 2012 तक खुले में शौच की प्रथा को समाप्त करना चाहती है। लोगों को याद होगा कि अप्रैल 2007 में यूपीए सरकार के प्रथम संस्करण में ही ग्रामीण विकास मंत्रालय ने यह ऐलान किया था कि हर घर तक टायलेट पहुंचा कर वह पूर्ण सैनिटेशन के लक्ष्य को 2012 तक हासिल करेगी।
अपने पड़ोसी देशों के साथ भी तुलना करें तो हिन्दोस्तां की हालत और ख़राब दिखती है। वर्ष 2001 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के विकास कार्यक्रम के तहत मानवविकास सूचकांक की रिपोर्ट ने इस पर बखूबी रौशनी डाली थी। अगर स्थूल आंकड़ों के हिसाब से देखें तो हिन्दोस्तां में 1990 में जहां 16 फीसदी आबादी तक सैनिटेशन की व्यवस्था थी वहीं 2000 आते आते यह आंकड़ा आबादी के महज 28 फीसदी तक ही पहुंच सका था। पाकिस्तान, बांगलादेश और श्रीलंका जैसे अपने पड़ोसियों के साथ तुलना करें तो यह आंकड़ें थे 36 फीसदी से 62 फीसदी तक ; 41 फीसदी से 48 फीसदी तक तथा 85 फीसदी से 94 फीसदी तक।
यह अकारण नहीं मलविसर्जन/सैनिटेशन की ख़राब व्यवस्था, पीने के अशुद्ध पानी, और हाथों के सही ढंग से न धो पाने से अधिक गम्भीर शक्ल धारण करने वाली दस्त/डायरिया जैसी बीमारी से हर साल दुनिया भर में मरनेवाले 15 लाख बच्चों में से तीन लाख 60 हजार भारत के होते हैं। (विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की एक अन्य ताजा रिपोर्ट से)
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि खुले में मलविसर्जन में भारत को हासिल ‘अव्वल’ नम्बर क्या अत्यधिक आबादी के चलते है ? भारत से अधिक आबादी वाले चीन के साथ तुलना कर हम इसे जान सकते हैं। मालूम हो कि यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की वही रिपोर्ट बताती है कि खुले में मलविसर्जन करनेवालों की तादाद चीन में है महज 3 करोड 70 लाख है और दस्त/डायरिया से मरनेवाले बच्चों की संख्या है चालीस हजार।
सैनिटेशन जिसे पिछले दिनों एक आनलाइन पोल में विगत डेढ़ सौ से अधिक साल के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सकीय प्रगति कहा गया था, उसके बारे में हमारे जैसे मुल्क की गहरी उपेक्षा क्यों ? दिलचस्प है कि उपरोक्त मतसंग्रह में 11 हजार लोगों की राय ली गयी थी, जिसने एण्टीबायोटिक्स, डीएनए संरचना और मौखिल पुनर्जलीकरण तकनीक (ओरल रिहायडेªशन थेरेपी) आदि सभी को सैनिटेशन की तुलना में कम वोट मिले थे। (टाईम्स न्यूज नेटवर्क, 22 जनवरी 2007)।
क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि दरअसल सैनिटेशन की सुविधा महज एक चैथाई आबादी तक पहुंचने का कारण भारतीय समाज में जड़मूल वर्णमानसिकता है, जिसके चलते प्रबुद्ध समुदाय भी इसके बारे में मौन अख्तियार किए हुए हैं। इसका एक प्रतिबिम्बन आज भी बेधड़क जारी सर पर मैला ढोने की प्रथा में मिलता है, जिसमें लगभग आठ लाख लोग आज भी मुब्तिला हैं जिनमें 95 फीसदी महिलाएं हैं और जो लगभग स्वच्छकार समुदाय कही जानेवाली वाल्मीकि, चूहड़ा, मुसल्ली आदि जातियों से ही आते हैं। और यह स्थिति तब जबकि वर्श 1993 में ही इस देश की संसद ने एक कानून पूर्ण बहुमत से पारित करवाया था जिसके अन्तर्गत मैला ढोने की प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवाया है अर्थात इसमें शामिल लोगों को या काम करवानेवालों को दण्ड दिया जा सकता है। आखिर कितने सौ करोड़ रूपयों की आवश्यकता होगी ताकि आबादी के इस हिस्से को इस अमानवीय, गरिमाविहीन काम से मुक्ति दिलायी जाए।
दरअसल शहर में सैनिटेशन एवम सीवेज की आपराधिक उपेक्षा की जड़ें हिन्दु समाज में मल और ‘प्रदूषण’ के अन्तर्सम्बन्ध में तलाशी जा सकती हैं, जो खुद जाति विभेद से जुड़ा मामला है। सभी जानते हैं कि मानव मल तमाम रोगों के सम्प्रेषण का माध्यम है। जाहिर है मानव मल के निपटारे के उचित इन्तज़ाम होने चाहिए। दूसरी तरफ भारत की आबादी के बड़े हिस्से में मल को अशुद्ध समझा जाता है और उसकी वजह से उससे बचने के उपाय ढूंढे जाते हैं। मलविसर्जन के बाद नहाना एक ऐसाही उपाय है। वर्णसमाज में तमाम माता-पिता अपनी सन्तानों को यही शिक्षा देते हैं कि वे मलविसर्जन के बाद ही नहाएं। और चंूकि मल से बचना मुश्किल है इसलिए इस ‘समस्या’ का निदान ‘छूआछूत’ वाली जातियों में ढंूढ लिया गया है जो हाथ से मल को हटा देंगी। कुल मिला कर देखें तो मैला हटाने से लेकर सैनिटेषन की कमी का खामियाजा भुगतने का काम चन्द दलित जातियों को ही झेलना पड़ता है, इसलिए शेष प्रबुद्ध समुदाय को इनकी कमी का कोई खामियाजा भुगतना नहीं पड़ता और समय बदलने के बाद भी यथास्थिति बनी रहती है।
एक तरह से कह सकते हैं कि सैनिटेशन की कमी के चलते अचानक हैजा या ऐसी ही अन्य बीमारियों की जकड़ में तमाम लोग आ सकते हैं। इसकी वजह यह है कि भारत में इस कमी को दूर करने के नाम पर लोग खुली नालियों को टायलेटों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। और सिर्फ शहर की ही बात करें तो सभी शहरों में एकत्रित जल-मल का 70 फीसदी हिस्सा ठीक से डिस्पोजल न होने के कारण रिस-रिस कर नीचे पहुंचता है और जमीनी पानी को उल्टे प्रदूषित कर रहा है।
सैनिटेशन के मामले में आधुनिक भारत की दुर्दशा के बरअक्स मोहनजोदारो एवं हरप्पा संस्कृतियों अर्थात सिन्धु घाटी की सभ्यता का अनुभव दिखता है। सभी जानते हैं सिंधु घाटी के तमाम शहर उस दौर में शहर नियोजन प्रणाली का उत्कृष्ट नमूना थे। इनमें सबसे अधिक सराही जाती रही है यहां मौजूद भूमिगत डेªनेज (निकासी) प्रणाली। एक अन्य विशिष्टता रही है कि आम लोगों के घरों में भी स्नानगृहों का इन्तज़ाम था और ऐसे निकासी के इन्तज़ाम थे जिसके तहत घर का तमाम अवशिष्ट एवं गन्दा पानी नीचे अवस्थित भूमिगत जारों में पहुंचाया जाता था।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस सभ्यता में आज से लगभग पांच हजार साल पहले आम आदमी को केन्द्र में रख कर जल-मल निकासी और सार्वजनिक स्वास्थ्य की योजना को वरीयता मिली थी, वहीं आज हम बहुत विपरीत स्थिति पा रहे हैं।
सुभाष गाताडे,
एच 4 पुसा अपार्टमेण्ट, रोहिणी सैक्टर 15, दिल्ली 110089