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11.7.09

तालीम के लब्ज़ों को....


तालीम के लब्ज़ों को हम तीर बना लेंगे।
मिसरा जो बने पूरा शमशीर बना लेंगे।

जाहिल
रहे कोई, ग़ाफ़िल रहे कोई।
हम मर्ज कि दवा को अकसीर बना लेंगे।

रस्मों
के दायरों से हम अब निकल चूके है।
हम ईल्म की दौलत को जागीर बना लेंगे।

अबतक
तो ज़माने कि ज़िल्लत उठाई हमने।
ताक़िद ये करते हैं, तदबीर बना लेंगे।

जिसने
बुलंदीओं कि ताक़ात हम को दी है।
हम भी वो सिपाही की तस्वीर बना लेंगे।

मग़रीब
से या मशरीक से, उत्तर से या दख़्ख़न से।
तादाद को हम मिल के ज़ंजीर बना देंगे।

मिलज़ुल
के जो बन जाये, ज़ंजीर हमारी तब।
अयराज़ईसी को हम तक़दीर बना लेंगे।

10.7.09

मोबाइल गुमशुदा ही क्यों होता है....

28 जून को मेरा मोबाइल और पर्स मेरे ही घर से चोरी हो था। कुछ दिनों तक तो मुझे लगा कि मेरा मोबाइल घर में ही कहीं रखा होगा। कुछ दिन बाद यकीन हो गया कि मेरा मोबाइल घर से ही चोरी हो गया है। एक टीवी चैनल में काम करता हूं तो टाइम नहीं मिल पाया कि पोलीस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई जा सके। चूंकि मोबाइल घर से चोरी हुआ था तो मेरा घर थाना सेक्टर 24 में आता है। मैं समय निकालकर थाने मे पहुंचा पहली बार किसी अपने काम से थाने में आया था। थाने में प्रवेश करते ही मैने देखा कि हर कोई अपने काम में मग्न था। आम आदमी वहां पहुंचे तो उनकी भाषाओं को समझने मे काफी देर लग जाये। एक तो एक दम अक्खड़, सख्त से चेहरे, लंबे चौड़े साथ में कुछ छोटे कद के भी थे। कुल मिलाकर जब मै वहां पहुंचा तो करीब 10 लोग होंगे। हाँ कुछ लोग बंदीग्रह में भी थे गर्मी की वजह से वहां दरवाजे के बाहर एक पंखा लगा था। अंदर पानी की बोतल थी लेकिन ज्यादा झांक नहीं सका क्योंकि वहा पर अंधेरा बहुत था। एक कमरा था जिसमें थाना प्रभारी निरीक्षक लिखा थासाथ में जो उस वक्त वहां नियुक्त थे उनका नाम..प्रभारी निरीक्षक का नाम था कैलाश चंद। दूसरे कमरे में जाने से पहले बाहर ही कुछ कुर्सियां औऱ रखी हुई थीं और एक पुलिस की वर्दी में महाशय बैठे थे नाम था फतह सिंह। अब मै उनके पास कमरे में गया जहां पर कुछ लिखा पढ़ी का काम चल रहा था। मैने वहां जाकर अपनी बात कही कि भाई साहब मेरा मोबाइल चोरी हो गया है क्या आप रिपोर्ट लिखेंगे। उन्होंने कहा क्यों नहीं मैने कहा कि तो फिर एक पर्चा दे दीजिए। उन्होने तुरंत एक पर्चा दे दिया। मैने तुरंत लिखा सारी जानकारी लिख दी कि मेरा मोबाइल और पर्स मेरे घर में चोरी हो गया है। ये घटना सुबह आठ बजे से नौ बजे के बीच की है। और भी कई जानकारी लिखी और लेकर वहां गया तो उन्होने कहा कि यार ये राम कहानी क्यों लिख दी बस इतना करों कि ये लिख दो मोबइल गुम हो गया है। मै दोबारा पर्चा लेकर गया औऱ मैने फिर वहीं बातें लिखी जो पहले लिखी थीं। इस बार दो पर्चें लेकर गया था। मैने कहा कि भाई साहब मेरा मोबाइल चोरी हुआ है कि गुम। उन्होने मेरी तरफ़ नाक सिकोड़कर कहा कि तो फिर ऐसा करो कि साहब से मिलकर आ जाओ। मै तुरंत कैलाश चंद के पास गय़ा जो कि वहां के थाना प्राभारी थे। उन्हे पूरी बात बताई फिर उन्होने कहा कि ठीक है जाकर पर्चा दे दो। मै वापस आया तो वो दूसरे साहब जी मानने को तैयार नहीं हुए कि फोन चोरी हुआ है। वो दोबारा लेकर गये पर्चा कैलाश जी के पास। वापस आये तो तेवर बदले हुए थे। मुझे समझाने लगे बोले कि यार फोन गुमशुदा ही होता है ,चोरी नहीं होता। मैने कहा कि क्यों जब मेरे घर से मोबाइल चोरी हुआ है तो मै गुमशुदा की रिपोर्ट दर्ज क्यों करवाऊं? उन्होने बारामदे में बैठे मोटे से पुलिस वाले के पास भेज दिया, कुछ देर मुझे टरकाया, लेकिन जब मै माना तो मुझे उस मोटे से पुलिस वाले के पास भेजा। उनका नाम था फतह सिंह, मोटे से, गोल चेहरा सख्त चेहरा, सांवला सा रंग, बाहर बैठे थे बारामदे में पर्चा लेकर बोले कि फोन कैसे चोरी हुआ, मैने कहा कि मेरा भाई सुबह कोचिंग के लिए निकला और मुझे बाताये बगैर वो दरवाजा बंद करके चला गया लेकिन दरवाजा पूरी तरह से बंद नहीं था। मै उठा आठ बजकर पचास मिनट पर मैने देखा कि मेरी पर्स और मोबाइल वहां नहीं था। इतना कहते ही फतह सिंह बोले कि आपकी लापरवाही है इसमें हम क्या कर सकते हैं। मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया। मुझे ऐसे जवाब की आशंका नहीं थी। मै उस वक्त क्या कहूं ये मुझसे कहते नहीं बन रहा था क्योंकि मै तो वहां मदद मांगने गया था। पर मैं बोला भाई साहब दरवाजा खुला था इसका मतलब ये तो नहीं कि आपका काम खत्म हो जाता है दरवाजा बंद होने से या खुला होने से। आप मेरी रिपोर्ट लिखिये। वो बोले कि ऐसा करों कि गुमशुदगी कि रिपोर्ट दर्ज करवा दो। मैने कहा कि नहीं फोन चोरी हुआ है। उन्होने मुझसे कहा कि फोन चाहिए या नहीं। मैन कहा कि चाहिए। तो बोले कि तो फिर गुमशुदगी कि रिपोर्ट दर्ज करवाओ। मैने कहा कि चोरी कि रिपोर्ट दर्ज करवाने पर नहीं मिलेगा इसका मतलब। वो बोले ऐसा है कि गुमशुदगी कि रिपोर्ट दर्ज करवाओं वर्ना कहीं और जाओ। मैने कहा कमाल की बात कर रहे है आप। मैरे घर इस थाने के अंतर्गत आता है तो मै और कहाँ जाउंगा। इस पर उन्होने कहा कि मै नहीं लिखुंगा ऱिपोर्ट, कहीं औऱ जाकर लिखवाओं। अब मेरे मुझे जो झटका लगा वो शायद ज्यादातर लोगों को लगता होगा। जो लोग पुलिस स्टेशन मे आते होंगे। मै अभी तक सोचता था कि पता नहीं लोग कैसे कहते है कि पुलिस स्टेशन पर रिपोर्ट नहीं लिखी जाती। लेकिन उनका गुस्सा और मुजरिमों को डराने वाले अंदाज को देखकर मै तो बिलकुल नहीं डरा। हां अक्सर लोग डरकर उनकी बात मान जाते होंगे। मैने कहां कि तो फिर ठीक आप मुझे लिख कर दे दीजिए कि आप मेरी रिपोर्ट नहीं लिखेंगे। उन्होने कहा नहीं दूंगा और मेरा प्रार्थना पत्र मेरी ओर फेंक दिया। उस वक्त मुझे पुलिस स्टेशनों की हालत औऱ असलियत सामने गई। इस बीच मुझे एक और जानकारी मिली कि दिनभर में सैकड़ों मोबाइल चोरी होते हैं कहां तक चोरी की शिकायतें लिखेगा कोई। ये बातें मुझे लिखा पढ़ी करने वाले पुलिसवाले ने बताई। मै परेशान हो गया कुछ काम होते देख मै हताश होता लेकिन पत्रकार ठहरा हताश होना सीखा नहीं है मैने। मैने तुरंत अपने एक मित्र को फोन किया उसने अपने एक मित्र जो कि आईबीएन 7 में कार्यरत है, उसके पास फोन किया ब्रजेश नाम के उस शख्स ने अपने फोन पर थाना प्राभारी से क्या बात की ये तो पता नहीं। लेकिन उसके बाद मेरा काम बनता हुआ नजर आने लगा और जो पुलिस वाले अभी तक मुझ पर हावी हो रहे थे वो हलके पड़ गये और फतह सिंह की डराने के अंदाज पर मित्र का एक फोन भारी पड़ गया और उन्होने कहा कि मै कुछ नहीं कर सकताआप लिखा पढ़ी वाले के पास जाइयें वो रिपोर्ट लिखेगा। मैने देखा कि पहले जो सुस्ती वो लोग दिखा रहे थे इस बार तेजी से काम हो रहा था। मुझसे दो कॉपियां लिखवा ली थी एक कॉपी खुद रख ली और अब मेरे पास तो बस वो दूसरी कॉपी है जिसमें तो मोहर है और ही कोई सूबूत की मैं पुलिस स्टेशन पर गया था। एक कॉपी तो उन्होने रख ली है औऱ नाम भी बता दिया है कि अश्वनी जी जांच करेंगे पर जांच होगी या नहीं ये जांच का विषय ज़रुर बन गया है।

8.7.09

ले के चलुं मैं ख़ुदा तेरा नाम

आसान हो जायें सब मेरे काम।
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
तेरी इबादत करुं सुब्हो-शाम।
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
दुनिया का कोई भी ग़म हो खुदारा।
हम पे तो तेरा करम हो ख़ुदारा।
क्श्ती को छोडा है तेरे हवाले।
तुं ही दिख़ायेगा हमको किनारा..(2)
छ्ट जायेंगे ग़म के बादल तमाम..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
ये ज़िन्दगी तेरी नेअमत बडी है।
हमपे ख़ुदा तेरी रहेमत खडी है।
फ़िर ग़म हो कैसा, करम हो जो तेरा।
अपने लिये सल्तनत जो पडी है..(2)
तूं बादशाह, हम हैं तेरे ग़ुलाम।..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
ये चाँद सूरज, चमकते सितारे।
तेरे करम से हैं सारे नज़ारे।
अय दो जहां के निगेहबान मालिक़।
दुनिया बसी है, ये तेरे इशारे..(2)
तेरी ख़ुदाई पे लाख़ों सलाम..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
बस आख़री इल्तेजा है खुदा से।
कि ज़िन्दगी जो जीयुं में वफ़ा से।
मुझको सही राह पे तूं चलाना।
भुले से भी ना हो ख़ता ये “रज़ा’ से..(2)
जब मौत आये, ज़ुबाँ पे कलाम..
ले के चलुं मैं खुदा तेरा नाम।
.................रज़िया मिर्ज़ा......

6.7.09

क्या वो लड़कियां वैश्याएँ थीं!!!!

लगभग दो साल पहले की बात है जब मैं अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था। इस वक्त एक अलग ही जोश था . दुनिया बदलने वाला टाइप का...उस वक्त सभी लड़कों की तरह मै भी दोस्तों के साथ रहता था। और हम सभी पांच लड़के इंदिरापुरम् में रहा करते थे। वैसे तो ये इंदिरापुरम.... ग़ाज़ियाबाद में आता है . लेकिन नोएडा-दिल्ली के पास ही है तो यहां का इलाका पॉश है। ऊंची सैलरी वाले लोग यहां ज्यादा रहते है। ऊंची बिल्डिंग हैं और ऊंचे लोग। एक शाम की बात है कि मै अपनी बिल्डिंग एस पी एस के पास के प्लाज़ा में चावल खरीदने जा रहा था। मेरे साथ मेरा दोस्त था.. जो कुछ दूर तो मेरे साथ आया लेकिन गर्लफ्रेंड के फोन ने उसे थोड़ा अलग कर दिया था। मै प्लाज़ा के पास पहुंचा थोड़ी भीड़ थी ...कुछ लोग दुकानों से सामान खरीद रहे थे। कुछ लड़के वहां पर आने जाने वाली लड़कियों को निहार रहे थे.....लकड़ी का काम चल रहा था फर्नीचर की दुकान थी.... कुछ लोग वहां बनी रेलिंग.. जो सीमेंट की बनी हुई और एक बार्डर की तरह काम कर रही कि कोई बाइक सवार प्लाज़ा के अंदर बाइक लेकर चला आये। उस रेलिंग पर बहुत लोग बैठे थे। कुछ मंगोलिया के लोग थे जो चीनी लोगों की तरह लग रहे थे मेरा दोस्त उनसे बातें करने लगा। उनकी समझ में अंग्रेजी ही रही थी। नोएडा के कॉल सेंटर्स में ये लोग काम करते थे। कुछ लड़के बैठे सिगरेट के कश उड़ा रहे थे। मै दुकान की सीढ़ियां चढ़ ही रहा था कि एक हट्टे-कट्टे मोटे से आदमी...वहां बैठी दो लड़कियों पर ज़ोर से चिल्लाया.... लड़कियों की उम्र यही कोई बीस से पच्चीस के बीच रही होगी.... रंग सांवला या कहूं कि सांवला से थोड़ा और काला.... दोनों लड़कियों ने एक सस्ती सीटी शर्ट जिसका रंग उड़ चुका था,पहन रखी थीं। बाल बांधे हुए थे, जिसमें क्लिप लगी थी, दोनों ने बेहद साधारण जीन्स पहन रखी थी.... पैरों में हवाई चप्पल थी... लिबास दोनों के बेहद साधारण थे.... उन्हें देखकर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वो बेहद गरीब परिवार से होंगी या कहें कि किसी घर पर नौकरानी का काम करती होंगी.... मै एक ऐसा आदमी हूं जो हर किसी से नहीं बोलता, लेकिन सबको देखकर आब्जर्व ज़रुर करता हूँ. लेकिन वो लड़कियां इतनी साधारण थी कि इत्तेफाक देखिये कि मेरी नज़र भी उन पर पहले नहीं पड़ी.....पर उस तगड़े आदमी की नज़र उन पर पड़ गई थी। वो आदमी करीब पांच फुट दस इंच के आस पास होगा मुझसे लंबा था.... तगड़ा सा.... बरमूड़ा नीचे पहन रखा था..... स्पोर्ट्स शू पहन रखे थे..... एक ब्लैक कलर की टी शर्ट पहन रखी थी.... हाथ में मोबाइल था.... पसीने से लथपथ था.... शायद थोड़ा मोटा होने की वजह से जागिंग से लौटा होगा या किसी दुकान पर समान ले रहा होगा... उसने चिल्लाकर कहा कि ... लड़की यहां कैसे बैठी है....वो लड़कियां तो एक बार को इतनी वज़नी आवाज़ सुनकर सहम गई.. और बोलीं.....हम तो यूं ही बैठे हैं बाजार घूमने आये थे........डर की वजह से उनकी आवाज़ लड़खडा रही थी शायद......मोटा आदमी बोला....साली मा*** यहां यूं ही बैठी है ***... उस आदमी की आवाज़ के भारीपन में गालियां सुनकर वो और ज्यादा डर गई..... डर कर बोली भाई साहब गाली काहे दे रहे हैं.... हम यहां घूमने नहीं सकते क्या ?... यहां और भी लोग तो बैठे थे आप उनसे कुछ क्यों नहीं कहते। आदमी का गुस्सा सांतवे आसमान पर चढ़ चुका था क्योंकि अब ये उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था..... उसने अपने गुस्से से लाल मुंह से बोला.....साली ***, मा***, रंडी साली तू मुझसे पूछ रही है.... साली ****ड़ी उठ यहां से.... इतना कहकर वो मारने के लिए आगे बढ़ा.... लेकिन इतने में लड़कियां डर के मारे खड़ी हो गई... लेकिन मोटे से आदमी का गुस्सा शांत नहीं हुआ.. उसने एक ज़ोरदार लात जड़ दी एक लड़की के... वो लड़की इस ज़ोरदार लात पड़ने से एकदम से बिखर गई.... बेसुध होकर वो लड़की इस तरह गिर पड़ी जिस तरह भूकंप के झटके से कोई बिल्डिंग भरभरा कर गिर जाती है। पहले वाली लड़की को तो होश नहीं आया काफी देर तक..... लेकिन इतने में दूसरी लड़की दीदी कह कर रोने लगी। उसके आंसू देखकर मेरी रुह कांप गई क्योंकि उसका रोना कोई आम रोना नहीं था। उसके रोने में वो दर्द था जो दर्द लिये हर झुग्गी वाला जीता है....जो विरोध करता है.... वो बदमाश बन जाता है...औऱ जो सहता है वो दम तोड़ देता है.... या जिनमें इतनी भी हिम्मत नहीं होती वो इसी तरह से बेबसी के आंसू लेकर रोते हैं।क्योंकि इन आंसूओं में वो बेबसी होती है जो कहती है कि वो कुछ नहीं कर सकते.... क्योंकि उनका साथ यहां कोई नहीं देगा.... इस समाज में क्योंकि यहां वही सभ्य माना जाता है जिसके कपड़े सभ्य होते हैं... और वो तो इन लड़कियों के बेहद साधारण थे। ख़ैर जहां कुछ लोग इसे सभ्यता मानते वहीं कुछ लोग इसका विरोध भी करते हैं। कुछ लोग आगे बढ़े उस आदमी को रोकने के लिए। लेकिन अभी भी कोई उन लड़कियों को उठाने को आगे नहींआया। दूसरी लड़की ने रोते हुए अपनी दीदी को हाथ देकर उठाया.... और उसके कपड़े झाड़कर बोली की चलो दीदी यहां से चलें.... इतने में वो मोटा आदमी बोला .... जाती कहां है मा*** रुक तेरी मां***... जाती कहां है.... इतना कहकर वो आगे बढ़ा लेकिन पहले से उसे रोक रहे लोगों ने एक बार फिर उसे रोका तब उसने राज़ खोला भड़कने का....मुझे रोको मत भाईसाहब ये साली दोनो रंडियां हैं कॉलगर्ल हैं.... इतना कह कर उसने एक बार फिर दौड़कर उन दोनों के बाल पकड़ लिए। इतने में मुझे भी लगा कि मामला बढ़ रहा है तो मैने कहा कि लोगों का साथ मुझे भी जाना पड़ेगा क्योंकि रोकने वाले ज्यादातर दुकान वाले थे जो नहीं चाहते होंगे कि उनका वो मोटा ग्राहक उनकी दुकान से सामान खरीदे। मैने उस मोटे आदमी से जो मुझसे सेहत में डबल था.... उससे कहा कि सर जी आप क्यों इन्हें मार रहे हो यार.... जाने दो इन्हें जा तो रही हैं। तो वो बोला कि अरे नहीं भाई साहब मै तो इन्हे अभी पुलिस के हवाले करुंगा..... मैने कहा कि यार आप कैसे कह सकते है कि ये रंडियां हैं। इतना कहने पर वो तो मुझपर भी तेल पानी लेकर चढ़ने लगा। बोला क्यों बे तू भी साले लगता है इनसे मिला हुआ है। मैने अपना नाम जुड़ने से पहले और लोगों की नज़र में आने से पहले उसकी अक्ल ठिकाने लगाई कि अबे ****ड़े साले यहीं घुसा दूगां समझ गया। साले यहीं रहता हूं एफ सात सौ पांच में...साले एक फोन पर यहीं मां** जायेगी। समझ गया मेरे तेवर देख कर वो भी समझ गया कि यहीं का लोकल है लगता है.... इतने मेरा दोस्त गया वो ज़रा मुझसे तगड़ा है। दोनों को देखकर उस मुटल्ले की अक्ल ठिकाने आई.... तब वो बड़े ही प्यार से बोला कि भाईसाहब ये कॉल गर्ल हैं। इतने में उन लड़कियों को अपने उपर लांछन लगता देख वो भड़क गई और बोली नहीं भाईसाहब हम पास की हैं . यहीं बंगाली कॉलोनी के पास मेरा घर है... मेरे भाईया रिक्शा चलाते हैं..... हम तो सिर्फ पास के सब्जी मार्केट से सब्जी लेने आये थे....तो सोचा कि यहां थोड़ी देर बैठ जायें..... इतने में मोटा फिर भड़का साली झूठ बोल रही है.... मारने बढ़ा लेकिन पहले ही मेरे दोस्त ने उसके हाथ को रोका। दोनों लड़कियां अपने बाल छुड़ा कर दूर हट गई.... अब मसला ये हो गया कि किसे सच माना जाये औऱ किसे गलत....मुद्दा अब कुछ लोगों के बीच था.... एक तो ख़ुदउन लडकियों के बीच, दूसरा उस मोटे आदमी के बीच जिसे पता नहीं कहां से पता चल गया था कि वो लड़कियां कॉलगर्ल थी.... तीसरा मेरे बीच। क्योंकि वहां पर खड़े बाकी सब लोग तो वो पूरा मामला किसी हिंदी फिल्म केक्लाइमेक्स की तरह बड़े चाव से देखभर रहे थे। इतने में मै बोला कि पुलिस के हवाले करने से कोई फायदा नहीं होगा अगर ये लड़कियां कॉलगर्ल नहीं होंगी तो भी वो फंस जायेंगी इस चक्कर में....तो ऐसा करना चाहिए कि इन्हें जाने देना चाहिए और हिदायत देनी चाहिए कि आइंदा आयें.... ये बात पहले तो उस मोटे आदमी को पची नहीं पता नहीं क्यों.... लेकिन जब उन लडकियों ने कहा कि वो नहीं आयेंगी.... तब जाकर वो मान गया..... उन लड़कियों ने लंबी सांस ली और धीमें कदमों से चलीं गयी। जो लड़की रो रही थी.... वो लगातार रोये जा रही.... सुबक रही थी लगता था पहली बार इस तरह के माहौल में आई थी..... क्योंकि उसे डर था कि वो बच नहीं पायेगी और कुछ कुछ गलत हो जाएगा.... और रोते रोते ही जैसे ही उसने सुना कि जाने को कह दिया गया है वो बोली जल्दी जल्दी चलो दीदी जल्दी घर चलो हम यहां कभी नहीं आयेंगे..... रोते ही जा रही थी.. उसी तरह से जिस तरह अगर आप कभी दुर्घटनाग्रस्त होकर अस्पताल में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहे हों और फिर आपकी जान बच जाय . उस वक्त आपके परिवारवाले आपको देखकर रो रहे हों कि आप मौत के मुंह से बच कर आये है। जिस तरह की भावना उस वक्त आती है वैसी ही खुशी झलक रही थी उसके आंसुओं में....कहीं कहीं मन में डर भी था कहीं ये छिन जाए.... और मन में एक तरह की ठंडक..... एक सुकून ये सोचकर कि चलो बच गये.... वो दोनों चले गये। सभी अपने अपने घर चले गये लेकिन मेरा मानसिक द्वंद चल रहा। अगले दिन मै उसी प्लाजा में गया वहां कि बेकरी सेपैटी, और पेस्ट्रीज खाने। वहां पहुंचा कि बेकरी वाले ने मुझे पहचान लिया और बोला कि.... कल तो बड़ी बहस होगई सर... मैने कहा हां यार बेकार में वो मोटा उन लड़कियों को पीट रहा था.... बेकरी वाला चुप हो गया फिर बोला.... सर वो आदमी सही कह रहा था.... मैने उसकी बात सुनी तो मेरे दिमाग सन्न रह गया.... उसने कहा कि मै उन्हें पिछले कुछ दिन से उन्हें नोट कर रहा था... वो कॉल गर्ल ही लग रही थी.... औऱ तो और मैने तो उनमें से एक को तो उस मोटे से आदमी की कार में बैठकर कहीं जाते हुए भी देखा था.... उसकी बात सुनकर मेरी पैटी मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही था.... उस वक्त मुझे अपनी बेवकूफी पर जवाब नहीं सूझ रहा था....मै जिन्हें गलत समझ रहा असल में वो सही थे और मै बेफिज़ूल में उस मोटे आदमी से लड़ बैठा.... मैने बेकरीवाले से पूछा ....तो फिर वो उनसे लड़ क्यों रहा था.... बेकरी वाला बोला कि अरे भाईसाहब पैसे की बात फिट नहीं बैठी होगी.... इसलिए वो मोटा साला ...ठर्की ...बिगड़ गया होगा... ये सब रोज़ का धंधा है सर.... पैसे वाला है इसलिए अय्याशी करता है साला.... मै अब कुछ सोच समझ नहीं पा रहा था कि सच क्या है क्योंकि कल की बहस एकदम सही थी कुछ भी बनावटी नहीं लग रहा था क्या उस लड़की के आंसू झूठे थे? क्या ये बेकरीवाला सही कह रहा है ? क्या कल की बहस फिज़ूल थी ? क्या मोटा आदमी अय्याश और वो लड़कियां वैश्या थीं ?........
(नोट: लड़कियां कुछ कुछ भोजपुरी में बोल रही थी, मैने उसे हिंदी में परिवर्तित किया है)
.. ....

3.7.09

" धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर "


धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर


कहना तो बहुत कुछ होता है ,पर जब कहने बैठते तो समझ में नही आता था कि कहाँ से आरम्भ करें ?
पर कहीं से शुरू तो करना ही था। आईये सबसे गरमा- गरम विषय के सबसे जलते शब्द "धर्म को " उठाते हैं ।
पता नही हमारे महान देश भारतवर्ष के तथाकथित महान प्रबुद्ध लोग "धर्म" शब्द से
इतना डरते क्यों हैं ? मैं तो यही समझ पाया हूँ कि देश के अधिकांश "महान प्रबुद्ध " लोगों ने धर्म के बारे में अंगरेजी भाषा के "रिलीजन " के माध्यम से ही जाना ,है न की धर्म को धर्म के माध्यम से । यही कारण है कि वे धर्म को "सम्प्रदाय "के पर्यायवाची के रूप में ही जानते हैं ,जबकि सम्प्रदाय धर्म का एक उपपाद तो हो सकता है पर मुख्य धर्म रूप नही ।

"धर्म प्राकृतिक ,सनातन एवं शाश्वत तथा स्वप्रस्फुटित (या स्वस्फूर्त )होता है : : इसे कोई प्रतिपादित एवं संस्थापित नही करता है : जब कि सम्प्रदाय किसी द्वारा प्रतिपादित तथा संस्थापित किया जाता है "|
आखिर धर्म ही क्यों ?
संस्कृत व्याकरण के नियम "निरुक्ति " के अनुसार धर्म शब्द की व्युत्पत्ति " धृ " धातु से हुयी है ; निरुक्ति के अनुसार जिसका अर्थ है ' धारण करना" {मेरे अनुसार धारित या धारणीय है अथवा धारण करने योग्य होता है } क्यों कि पृथ्वी हमें धारण करती है और इसी कारण से इसे धरणी कहते हैं|


अतः स्पष्ट है ''धर्म का अर्थ भी धारण करना ही होगा ''
इसे इस प्रकार समझें " धृ + मम् = धर्म ''

धारण करना है तो '' हमें धर्म के रूप में क्या धारण करना है ?''


आप को धारण करना है '' अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व ''
या
'' फ़रायज़ और जिम्मेदारियां ''
या
'' ड्यूटी एंड रेसपोंसबिलटीज [[ लायेबिलटीज ]] ''


  • :: धार्मिक व्यक्ति सदैव एक अच्छा समाजिक नागरिक होता है क्यों कि वह धर्मभीरु होता है और एक धर्मभीरुव्यक्ति सदैव समाजिक व्यवस्था के प्रति भी भीरु अर्थात प्रतिबद्ध ही होगा :: परन्तु एक सम्प्रदायिक व्यक्तिरूढ़वादी होने के कारण केवल अपने सम्प्रदाय के प्रति ही प्रतिबद्ध होता है।"


    इसलिए मेरी दृष्टि में धार्मिक होना,सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा एक अच्छी बात है .
अभी तक मैं ने दो ही तथ्य कहे हैं :--

१ "धर्म प्राकृतिक होता ही ; जब कि सम्प्रदाय संस्थापित एवं प्रतिपादित होता है"।


२ " सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा धार्मिक होना ही उचित होगा "।


भारत के परिपेक्ष में संप्रदाय के आलावा एक शब्द ' पंथ ' भी प्रयोग में आता है |
"पंथ" शब्द का अर्थ पथ/ राह /रास्ता /दिशा " होता है ।''सम्प्रादाय एवं पंथ दोनों का भाव व उद्देश्य एक ही होता है,परन्तु '' पन्थ '' में मुझे सम्प्रदाय की अपेक्षा गतिशीलता अनुभव होती है | मैं शब्दों के हेरफेर से फ़िर से दोहरा रहा हूँ ,"धर्मों को कोई उत्पन्न नही करता ,वे प्राकृतिक हैं उनकी स्थापना स्वयं प्रकृति करती है ।"::" जबकि सम्प्रदाय के द्वारा हम में से ही कोई महामानव आगे आ कर , कुछ नियम निर्धारित करता है ,यहाँ तक कि पूजा पद्धति भी उस में आ जाती है | हर युग में कोई युगदृष्टा महा मानव पीर ,औलिया ,रब्बी ,मसीहा या ,पैगम्बर के रूप में सामने आता है अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति द्वारा चुना जाता है ; जो देश क्षेत्र एवं युग-काल विशेष कि परिस्थियों की आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में मानव समाज के समुदायों को उन्ही के हित में आपसमें बांधे रखने के लिए एवं सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रखते हुए चलाने के लिए ; जीवन के हर व्यवहारिक क्षेत्र के प्रत्येक सन्दर्भों में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए , समाज व एक दूसरों के प्रति कुछ उत्तर दायित्व एवं कर्तव्य निर्धारित करता है :उनके परिपालन के लिए कुछ नियम प्रतिपादित करता है और "समान रूप से एक दूसरे के प्रति 'प्रतिबद्धता 'के समान नियमों को स्वीकार करने एवं उनका परिपालन करने वाले समुदाय को ही एक '' सम्प्रदाय '' कह सकते हैं | सम्प्रदाय के निर्धारित नियम वा सिद्धान्त किसी ना किसी रूप में लिपिबद्ध या वचन-बध्द होते हैं,| देश - काल एवं समाज की , चाहे कैसी भी कितनी ही बाध्यकारी परिस्थितियाँ क्यों न हों उन नियमों में कोई भी परिवर्तन या संशोधन अमान्य होता है।
यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जो नियम देश युग-काल के सापेक्ष निर्धारित किए गए थे वे यदि परिस्थितयों युग -काल के बदलने के साथ साथ ,नई परिस्थितियों एवं युग -काल के परिपेक्ष्य में यदि संशोधित तथा परिवर्तित नही किए जाते तो वह रूढ़वादिता को जन्म देते हैं और " रूढ़वादिता के गर्भ से ही साम्प्रदायिकता जन्म लेती है "
सम्प्रदाय का उद्भव कई तरीकों से होता है ।
{यह लेख http://anyonasti-chaupaal।blogspot.com/ पर पूर्व पोस्टेड लेख की प्रतिलिपि है }
सम- सामायिक विषय हैं इसे भी पढें
" स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से "

2.7.09

'आग'

हाज़िर--खिदमत है, हफ़ीज़ मेरठी साहब की कृति 'आग'।
उम्मीद
है, आपको पसंद आयेगी

ऎसी आसानी से क़ाबू में कहाँ आती है आग
जब
भड़कती है तो भड़के ही चली जाती है आग

खाक सरगर्मी दिखाएं बेहिसी के शहर में
बर्फ़ के माहौल में रहकर ठिठुर जाती है आग

पासबां आँखें मले, अंगड़ाई ले, आवाज़ दे
इतने
अरसे में तो अपना काम कर जाती है आग

आंसुओं से क्या बुझेगी, दोस्तों दिल की लगी
और
भी पानी के छींटों से भड़क जाती है आग

हल
हुए हैं मसअले शबनम मिज़ाजी से मगर
गुथ्थियाँ
ऎसी भी हैं कुछ, जिनको सुलझाती है आग

ये
भी एक हस्सास दिल रखती है पहलू में मगर
गुदगुदाता है कोई झोंका तो बल खाती है आग

जब
कोई आगोश खुलता ही नहीं उसके लिए
ढांप
कर मुहं राख के बिस्तर पे सो जाती है आग

अम्न
ही के देवताओं के इशारों पर 'हफ़ीज़'
जंग
की देवी खुले शहरों पे बरसाती है आग

1.7.09

जल्द ही प्रस्तुत करेंगे.

भारत जैसे विकासशील समाजों में फैले जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसे दकियानूसी विचारों से लड़ना मीडिया की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी हैगरीबी और अन्धविश्वास के खिलाफ लोगों की लड़ाई को ताकत देना मीडिया का एक सामाजिक और व्यवसायिक कर्तव्य हैखासकर तब, जब हमारे अधिकतर नागरिक जागरूक नही हैंऐसे में नए विचारों को उन तक पंहुचाना और उनका पिछडापन दूर करना मीडिया का ही काम है, ताकि नागरिक एक ताकतवर जागरूक राष्ट्र का हिस्सा बन पायें
दोस्तों, जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का यह पूरा आलेख गैर-ज़िम्मेदार है भारतीय मीडिया के शीर्षक से जल्द ही प्रस्तुत करेंगेबस, थोड़ा इंतजार..........