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24.12.09

रास्ट्र वादिता और प्रगति

आदरणीय अकबर जी से बात हुई और मैंने उनसे आज्ञा ली दरअसल मै रास्ट्र चिंतन और रास्ट्र प्रगति पर एक जन जाग्रति अभियान चलाना चाहता था जिसके लिए मैंने मांननीय अकबर जी से दनेटप्रेस को रास्ट्र वादी मंच के रूप में प्रयोग करने का आग्रह किया और मुझे ख़ुशी इस बात की है आंतरिक सामाभाव रखने वाले अकबर जी ने मेरे अनुग्रह को स्वीकार करते हुए मुझे इसकेलिए आज्ञा तो दी ही साथ ही प्रोत्साहित भी किया और अपनी सक्रीय भागीदारी का अस्वाशन भी दिया ,,,,अतः मै उनका ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ और \हाजिर हूँ रास्ट्र वाद पर अपना चिंतन लेकर


जब कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओ में परिवर्तन होता है ,--उनकी गति और अविरल प्रवाह में परिवर्तन होता है ,, तब नयी व्यवस्थाये जन्मती है और धीरे धीरे पुरानी व्यवस्थाये विलुप्त होने लगती है--- ,व्यवस्थाओ के इस परिवर्तन का समाज और रास्ट्र पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है , यह प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही हो सकता है ----, यदि प्रभाव सकारात्मक है तो थोड़ी हील हुज्जत के बाद ये व्यवस्था समाज द्वारा स्वीक्रत हो जाती है,---- और पुरानी व्यवस्था की जगह ले लेती है , परन्तु यदि यही प्रभाव नकारात्मक होता है,, तो इसके खिलाफ रास्ट्र वाद की दुहाई देता हुआ एक प्रबुद्ध वर्ग खड़ा हो जाता है ,,और व्यवस्था परिवर्तन का विरोध करता है ,, आम जन उस समय कर्तव्य विमूढ़ होता है ,,वह ना तो नयी व्यवस्था को पूर्णता अस्वीकार करता है--- और न ही स्वीकार ही , प्रबुद्ध वर्ग द्वारा असंगत व्यवस्था परिवर्तन के विरोध को और अल्प प्रबुद्ध वर्ग(यहाँ प्रबुद्ध वर्ग और अल्प प्रबुद्ध वर्ग के मेरे मानक के अनुसार चिंतन शील समाज का वह वर्ग जो प्रगति का तो विरोधी नहीं है- परन्तु किसी भी व्यवस्था परिवर्तन को पूर्ण चिंतन और मनन के साथ ही स्वीकार करता है तथा भविष्य की पीढियों पर उस व्यवस्था परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा इसके प्रति जाग्रत होकर ही व्यवस्था परिवर्तन को स्वीक्रति देता है -प्रबुद्ध वर्ग में आता है --समाज का वह वर्ग जो समाज और रास्ट्र के हितो के प्रति तो चिंतित होता है ,,परन्तु उसका यह चिंतन सामायिक और वर्तमान परस्थितियों को लेकर ही होता है समाज और रास्ट्र पर व्यवस्था परिवर्तन के द्वारा पड़ने वाले दीर्घ गामी प्रभाव को लेकर ये वर्ग मौन होता है अल्प प्रबुद्ध वर्ग में आता है ) द्वारा व्यवस्था परिवर्तन के समर्थन को आंख बंद कर के ही देखता है ,--- यदि पुरानी व्यवस्था असंगत और शोषक है तो यह वर्ग उसके शोषण को तो महसूश करता है और उसके परिवर्तन की उत्कंठा भी रखता है परन्तु यह बिना चिंगारी का ईधन है ,जो आग को जलाए तो रख सकता है परन्तु जिसमे आग उत्पन करने की क्षमता नहीं है यही वो वर्ग है जो दोनों वर्गों ( प्रबुद्ध और अल्प प्रबुद्द वर्ग ) द्वारा आसानी से अपने साथ जोड़ा जा सकता है ,,, इस वर्ग द्वारा राष्ट्रीयता रास्ट्र वाद और रास्ट्र भक्ति की कोई स्वनिर्धारित व्याख्या नहीं होती . यह विभिन्न वर्गों द्वारा निर्धारित रास्ट्र वाद की व्याख्याओ के अनुसार अपने आप को रास्ट्रवादी सिद्ध करने का प्रयाश करता रहता है,,, अब यहाँ जो मुख्य बात पर दिखती है वह यह है की समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग रास्ट्र वाद के स्पस्ट और तर्क पूर्ण अर्थ से ही अनभिग्य है तिस पर विभिन्न राजनैतिक और सामाजिकदलों ने
अपने फायदे के हिसाब से रास्ट्र वाद की मनगढंत व्यखाये करके कोढ़ में खाज का काम किया है ,, जिससे बहुत बड़ा और दीर्घ गामी नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ा ,और आम जन की रूचि अस्मिता और आत्म गौरव से जुड़े इन शब्दों से हट गयी ,, इन शब्दों को इतना गूढ़ कर दिया गया की ये शब्द भारी साहित्य की तरह नीरश और भारी लगने लगे जिनका प्रयोग लिखने पढने और बोलने तक ही रह गया और आम जन का जुड़ाव इन शव्दों से ख़त्म होने लगा ,, जब की सीधे शव्दों में देखा जाए तो अपनी अस्मिता और पहिचान को बचाए रखने के लिए नकारात्मक व्यवस्था परिवर्तन का विरोध ही प्रखर रास्ट्र वाद है ,,और यही सच्ची रास्ट्र भक्ति है . क्यों की रास्ट्र वादिता है तो रास्ट्र है और रास्ट्र है तो राष्ट्रीयता और यही रास्ट्रीयता हमारी पहिचान है ,, तो इन अर्थो में रास्ट्र वाद कोई गूढ़ विषय न होकर वयक्तिक विषय है जो सीधे सीधे व्यक्ति विशेष से जुड़ा है,, रास्ट्र वाद की व्याख्या में दो सबसे महत्पूर्ण अवयव है रास्ट्र और जन ,, रास्ट्र संस्क्रति , अध्यात्म ,धर्म दर्शन तथा भूखंड का वह भाग है जिसमे जन निवास करते है ,,, जन किसी भी रास्ट्र में रहने वाले मनुष्यों का वह समूह जो उस रास्ट्र की सांस्क्रतिक ,अध्यात्मिक, धार्मिक और इतिहासिक पहिचान की ऱक्षI करते हुए और उससे गौरव प्राप्त करते हुए निरंतर उस रास्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए प्रयाश रत रहता है जन कहलाता है ,, यहाँ ये ध्यान देने योग्य बात है की किसी भी रास्ट्र की भौगोलिक सीमाए परिवर्तनीय हो सकती है परन्तु किसी रास्ट्र का आस्तित्व तभी तक है जब तक उसकी सांस्क्रतिक और अध्यात्मिक पहिचान जिन्दा है जिसके ख़त्म होते ही रास्ट्र विलुप्त हो जाता है , और वह केवल भूखंड का एक टुकड़ा मात्र रह जाता है . यही सांस्क्रतिक धार्मिक और अध्यात्मिक पहिचान जन में राष्ट्रीयता का बोध कराती है, परन्तु एक जो चीज सबसे महत्व पूर्ण है वह ये है की रास्ट्र और जन एक दुसरे के पूरक तो है, परन्तु रास्ट्र सर्वोच्च है , जन के पतन से रास्ट्र का शनै शनै पतन तो होता है परन्तु रास्ट्र के पतन से जन का सर्व विनाश हो जाता है , अतः रास्ट्र की सर्वोच्चता और अस्तित्व को बनाये रखना प्रत्येक जन का कर्तव्य है क्यों की रास्ट्र है तो जन , रास्ट्र प्रेम की यही भावना रास्ट्र वाद है जिसमे व्यक्तिगत हितो को तिरोहित करके संघ समाज समूह के विस्तर्त वर्ग में अपना हित देखा जाता है,,यही त्याग की भावना रास्ट्रवादी होने का गौरव प्रदान करती है ,, अगर इसे सीधे शब्दों में देखे तो अपनी पुरातन उर्ध गामी व्यवस्था संस्क्रति और गौरव को बचाए रख कर प्रगति के मार्ग पर बढ़ना ही सच्चा रास्ट्र वाद है-- , यही राष्ट्रीयता की भी सच्ची पहिचान है ,,जो आज कल विभिन्न राजनैतिक दलों संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद की व्याख्या से सर्वथा अलग है , अगर हम विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद का विश्लेषण करे तो तो हम यही पाते है की उनके द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद अधूरा रास्ट्र वाद है, और वे पूर्ण रास्ट्र वादिता का समर्थन नहीं करते ,,क्यों की कोई भी वाद एक के द्वारा स्वीकार्य तथा दूसरे के द्वारा अस्वीकार्य और दूसरे के द्वारा स्वीकार्य और पहले के द्वारा अस्वीकार्य हो कर प्रखर रास्ट्र वाद की व्याख्या नहीं कर सकता ,,,,,,
इसे हम धर्म से भी नहीं जोड़ सकते ,क्यूँ की हम किसी विशेष धर्म को रास्ट्र वादी और दूसरे को रास्ट्र विरोधी तब तक नहीं मान सकते जब तक उस धर्म के मानने वाले रास्ट्र वाद की परिक्षI में पास या फेल नहीं होते , अब हम फिर उसी विषय पर आ जाते है की आखिर रास्ट्र वाद है क्या ?क्या किसी एक वर्ग विशेष द्वारा प्रतिपादित मानको को पूरा करना रास्ट्र वाद है या फिर दूसरे वर्ग द्वारा निर्धारित मानको को पूरा करना सच्चा रास्ट्र वाद है ,,,इसे हम आधुनिक परिपेक्ष में सबसे विवादस्पद विषय वन्दे मातरम को ले कर देख सकते है , एक वर्ग विशेष इसके गायन को प्रखर रास्ट्र वाद और इसके विरोध को रास्ट्र द्रोह मानता है , वही दूसरा वर्ग इसके गायन की बाध्यता को धार्मिक स्वतन्त्रता का हननमानता है,, अब इन दोनों में किसे रास्ट्र वादी कहा जाए और किसे नहीं ,,यहअपर मै अपने विचार स्पस्ट करना चाहूँगा " की किसी व्यक्ति के अन्दर रास्ट्र वाद को डर ,भय ,प्रलोभन और बाध्यता के द्वारा नहीं पैदा किया जा सकता है , यह वो भावना है जो व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर आत्म गौरव और सामाजिक त्याग से शुरू होती है ,,जो केवल और केवल जाग्रति के द्वारा ही संभव है , मै नहीं मानता की जो वन्देमातरम नहीं गाते वो रास्ट्र वादी नहीं और न मै ये मानता हूँ की जो वन्देमातरम गाते है वो प्रखर रास्ट्र वादी है ,,रास्ट्र वाद एक भावनात्मक जुड़ाव है जो संस्क्रति के प्रति महसूस होने वाले गौरव के रक्षIर्थ स्वत उत्पन्न होता है ,,ये बाध्यता नहीं है परन्तु आस्तित्व का संघर्ष है ,,अतः रास्ट्र वादिता के विराट स्वरूप को किसी गीत संगीत या दलगत राजनीति के मानको में ढालना उचित नहीं है ,,,रास्ट्र वाद आस्तित्व की पहिचान है ,,,जो जाति समाज वर्ग, धर्म और संघ से ऊपर उठी हुई त्याग की एक भावना है जो पूर्णता पुष्ट होने पर बलिदान में परिवर्तित हो जाती है ,,रास्ट्र वाद की उस श्रेष्ठता में पहुचने पर व्यक्तिगत आबश्यकताये व्यक्तिगत पहिचान , और व्यक्ति विषेयक सारे नियम रास्ट्र के हित में तिरोहित हो जाते है यही प्रखर रास्ट्र वाद की अति है ,, जो धर्म जाति और वर्ग संघर्ष से ऊपर है ,,रास्ट्र वादिता में जो एक चीज मुख्य रूप से दिखाई देती है वो हैआत्म त्याग की निस्वार्थ भावना ,, क्यूँ की इसके न रहते हुए रास्ट्र वाद की बात नहीं की जा सकती ,, जहा रास्ट्र जन के सम्मान पहिचान और गौरव के लिए उत्तरदायी होता है,, और जहाँ जन रास्ट्र के इतिहास प्रगति और उत्थान से गौरव पाते है,,वही रास्ट्र की सांस्क्रतिक विरासत को बनाये रखना और रास्ट्र को निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ाये रखना प्रत्येक जन का परम कर्तव्य होता है ,,,,,
इसे हम इस प्रकार समझ सकते है ,,की जन का एक वर्ग जहा रास्ट्र के लिए प्रगति और उत्थान कर उसके गौरव को निरंतर चर्मौत्कर्ष पर ले जाता है ,,वही दूसरा वर्ग रास्ट्र की संस्क्रति विरासत और इतिहास को सभाल कर आने वाले पीढ़ी को गौरवान्वित करने की व्यवस्था करता है,,और आने बाली पीढ़ी अपने गौरवान्वित इतिहास सेआत्म संबल प्राप्त कर के रास्ट्र के उत्थान में नित नए आयाम स्थापित करती है ,,,अतः रास्ट्र वादिता उत्थान की सीढ़ी है ,,,और चर्मोत्कर्स पर पहुचने का तरीका है

बिना रास्ट्र के जन अस्तित्व हीन है अतः आस्तिव को बचाए रख ने के लिए रास्ट्र वादिता नितांत आवश्यक है ,,,परन्तु रास्ट्र वादिता प्रलोभन नहीं है वह स्वीक्रति है, निर्भरता नहीं है उन्नति है ,,,, और प्रखर रास्ट्र वादिता से नित नयी उन्नति की जा सकती है और उन्नति के लिए नए आयाम स्थापित किये जा सकते है ,,,अतः रास्ट्र वादिता और प्रगति की प्रचलित वो धारणा की रास्ट्र वादिता में संस्क्रति और इतिहास के संरक्षण के कारण रास्ट्र वादिता प्रगति के मार्ग में बाधक है और प्रगति से रास्ट्र वादिता खो जाती है,,नितांत भ्रामक है,,,अतः रास्ट्र वादिताऔर प्रगति दोनों एक दूसरे के पूरक है ,,,प्रगति के नए आयामों के संयोजन के बिना तथा पुराने गौरव को बचाए बिना रास्ट्र को बचाना मुश्किल है ,,,अतः प्रखर रास्ट्र वादिता के लिए प्रगति वादिता आवश्यक है ,,परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा की प्रगति वादिता के मानक रास्ट्र के गौरव मय इतिहास और संस्क्रति को ध्यान में रख कर ही तय करने होगे वही सच्ची रास्ट्र भक्ति होगी और वही सच्ची रास्ट्र वादिता होगी अंत में दो शब्दों के साथ मै अपनी लेखनी को विराम देता हूँ ,,,
"जिस व्यक्ति के अन्दर अपनी संस्क्रति सभ्यता और इतिहास को सजोने की क्षमताऔर प्रगति के नित नए आयाम स्थापित करने की तत्परता नहीं है वो न तो रास्ट्र वादी है और न ही प्रगति वादी है वो निरे पशु के सिवा कुछ भी नहीं है " ,

16.10.09

प्रतिदिन प्रदेश में हो रही हैं सैंकड़ों भ्रूण हत्याएं

हिसार (प्रैसवार्ता) ''देसां में देस हरियाणा, जहां दूध दही का खाना'' की कहावत देने वाले हरियाणा प्रदेश में, जहां नशे का चलन बढ़ रहा है वहीं भ्रूण हत्या में निरंतर बढ़ रही संख्या के चलते भविष्य में युवकों के विवाह को लेकर होने वाली गंभीर समस्या को प्रदेशवासी व सरकार चिंतित तो है, मगर सक्रियता से इस ओर ध्यान न देने के कारण भ्रूण हत्याएं धडल्ले से हो रही है। हरियाणा सरकार ने भू्रण हत्या को रोकने के लिए एक कानून बनाकर अपना कत्र्तव्य निभा दिया है। मगर प्रदेश में ज्यादातर चिकित्सक सरकार के इस कानून की उल्लंघना करते प्रतिदिन सैंकड़ों भू्रण हत्याएं कर रहे है, और यदि यही सिलसिला एक दशक तक चलता रहा, तो दूसरे दशक तक पहुंचते पहुंचते एक तिमाही प्रदेश के युवक अविवाहत रह जाएंगे। अविवाहित युवकों का रूझान अपराधों की ओर बढेगा तथा प्रदेश में बलात्कार, दुष्कर्म आदि की घटनाओं में भी वृद्धि होगी। प्रैसवार्ता द्वारा दिए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि भू्रण हत्या के मामले में ग्रामीण क्षेत्र शहरों को पीछे छोड़ गए है और मुस्लिम, सिक्ख व अन्य वर्गों के लोग भी भू्रण हत्या की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहे है। हरियाणा सरकार ने भू्रण हत्या रोकने के लिए एक कानून बनाया है लेकिन उसकी पालना नहीं हो रही है। सरकार ने कई योजनाएं चलाकर भी भू्रण हत्या को रोकने के लिए भी कई प्रयास किए है, परन्तु यह प्रयास भी कारगर सिद्ध हो रहे है। पिछले पांच वर्षों में हरियाणा में 100 पुरूषों के पीछे 78 महिलाओं की दर निरंतर कम होकर 72 प्रतिशत पहुंच गई है और यदि यही रफ्तार चलती रही, तो यह आंकड़ा 60 प्रतिशत तक भी पहुंच सकता है। हरियाणा में मृत्यु दर के संबंध में भी पुरूषों की मृत्यु दर यदि 100 है तो महिलाओं की यह दर 63 प्रतिशत के करीब ही है। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में अंध विश्वास की सोच के चलते भू्रण हत्या तेजी पकड़ रही है। जबकि प्रैसवार्ता को ज्यादातर लोगों ने इसके लिए कन्याओं की समाज द्वारा उपेक्षा को जिम्मेवार ठहराते हुए सरकार को कटघरे में खड़ा किया है, क्योंकि कानून बनाकर उसे लागू करवाना उसकी जिम्मेवारी है। कुछ महिलाओं ने प्रैसवार्ता को यह भी बताया कि स्वास्थ्य विभाग की ही महिला कर्मचारी उन्हें भू्रण हत्या के लिए न केवल प्रेरित करती है, बल्कि मददगार भी बनती है। प्रदेश में लड़कियों की कम हो रही संख्या का एक दुखद पहलू यह भी है कि बीमार होने पर 80 प्रतिशत लड़कियों को अस्पताल नसीब नहीं होता, जबकि शेष लड़कियां अस्पताल तक पहुंच तो जाती है, मगर तब जब मौत करीब पहुंच चुकी होती है। दो दशक पूर्व 1981 की जनगणना के अनुसार एक हजार पुरूषों के मुकाबले लड़कियों की संख्या 972 थी, जो आज कम होते होते 742 तक पहुंच गई है, और यदि भू्रण हत्या को रोकने के कारगर कदम न उठाए गए तो आने वाले दशक में यह आंकड़ा 600 तक पहुंच सकता है। वर्तमान की जन्म दर को देखने से पता लगता है कि भारतवर्ष में प्रति मिन्ट 400 के करीब महिलाएं गर्भवती होती है। 190 अनचाहे गर्भ को लेती है, 110 गर्भ से संबंधित बीमारियों का शिकार है, 40 प्रतिशत गर्भपात करवाती है और करीब एक प्रतिशत जन्म देते समय बच्चे को खो बैठती है या स्वयं मृत्यु का शिकार बन जाती है। निरंतर कम हो रही लड़कियों की संख्या के लिए भारतीय संस्कृति के पुराने रिवाज व मान्यताओं को ही दोषी माना जा सकता है। हमारे समाज में औरतों की भूमिका की अनदेखी की जा रही है जन्म लेने से पूर्व मृत्यु द्वार दिखा दिया जाता है और फिर भी यदि वह बचती बचाती दुनिया में आ ही जाए, तो वह समाज में फैली कुरीतियों का शिकार हो जाती है। कम हो रही संख्या में पुरूषों का हाथ नहीं है - बल्कि महिलाएं स्वयं ही अपनी नस्ल को समाप्त करने का मुख्य कारण बन रही है। कई बार सास भी पुत्ररत्न प्राप्ति के चक्कर में पुत्रवधु को गर्भपात के लिए विवश भी कर देती है। इस प्रकार गर्भपात से, जहां भू्रण हत्या होती है, वहीं कई बार गर्भपात करवाने वाली महिला की मृत्यु भी हो जाती है। भारतीय समाज में लड़कों के लालन-पालन, शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है - जबकि लड़कियों की तरफ कम। लड़के के बीमार होने पर हर तरह का उपचार करवाया जाता है, जबकि लड़की के बीमार होने पर उपचार की अनदेखी की जाती है। सरकार कानून बनाकर या महिलाओं को आकर्षित करने के लिए योजनाएं बनाकर अपनी जिम्मेवारी से नहीं बच सकती, बल्कि उसे कानून का पालन करवाने के लिए तथा भ्रूण हत्या के लिए प्रेरित करने वाली सरकारी तंत्र पर कानूनी शिकंजा कसते हुए धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से जागरूकता लाने के लिए प्रयास करने चाहिए, ताकि भू्रण हत्या पर अंकुश लगाया जा सके, अन्यथा आने वाले समय में अविवाहितों के लिए लड़की ढूंढना टेढ़ी खीर साबित होगा।