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5.4.10

जाऊं में तुमको ढूढने अब दरबदर कहाँ

चंगुल से बच के मौत के जाए बशर कहाँ
आलामे रोज़गार से उसको मफ़र कहाँ
जिस जिंदगी पे मान है इंसान को बड़ा
वह जिंदगी भी अस्ल में है मातबर कहाँ
आवाज दो कि कौन सी मंजिल में खो गए
फिरती है तुमको ढूंढती अपनी नज़र कहाँ
तुमने तो अहद बांधा था इक उम्र का मगर
खुद ही बताओ पूरा हुआ है सफ़र कहाँ
किन बस्तियों में दूर उफ़क़ से निकाल गए
जाऊं में तुमको ढूढने अब दरबदर कहाँ
हिरमाँ नसीब रह गयी है आरजुएँ सब
हैराँ है अक्ल जाए ये फ़ानी बशर कहाँ
जाकर जहाँ से कोई भी लौटा फिर कभी
तुमने बसा लिया है भला अपना घर कहाँ
रह्वारे उम्र जीस्त की रह में खां दवाँ
लेकिन अज़ल से इसको भी हासिल मफ़र कहाँ
किरने तो चाँद अब भी बिखेरेगा सहन में
पहली सी रौशनी मगर वह बाम पर कहाँ
अश्कों से नामा लिखा जो मैंने तुम्हारे नाम
लेकर बताओ जाए उसे नामावर कहाँ
ये दस्ताने गम तो बड़ी ही तावील है
ये दस्ताने गम हो भला मुख़्तसर कहाँ
जावेद तेरे दोस्तों की है यही दुआ
मरहूमा पर हो रहमते अल्लाह की सदा

सरवर अम्बालवी
रावलपिंडी

नोट- अजीज दोस्त गुलजार जावेद की धर्मपत्नी की मौत पर

आलामेरोजगार- दुखों का आवागमन
मफर- छुटकारा
उफ़क - आसमान से आगे
हिरमाँ - निराश, नाउम्मीदी
ज़ीस्त - जिंदगी
अज़ल- मरण
बाम- छत
नामवर - ख़त ले जाने वाला संदेशवाहक
तवील- लम्बी


पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

1 टिप्पणियाँ:

this seeems to beeat piece of writing but i understand a liittle only due to difficult words used in it

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