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23.10.09

लो क सं घ र्ष !: पाकिस्तानी कहानी

भगवान दास दरखान -2
बलूच नवाज़ सरायकी रईसों की परम्परा के मुताबिक़ जब इस तरह वेठ मारकर बैठ गया तो एक मुलाज़िम ने हुक्क़ा ताज़ा करके रंगीन खाट के करीब स्टूल पर रख दिया। सरदार ने हुक्के की नै सँभाली और होंठों में दबाकर कश लगाने लगा। तम्बाकू की खुशबू कमरे में फैलने लगी। मालिशिया फ़ौरन सरदार मज़ारी की पीठ के पास पहुँचा और तेज़ी के साथ उसके कन्धे और कमर हौले-हौले दबाने लगा।
कचहरी की कार्रवाई शुरू हुई, तो चाकर ख़ाँ सरगानी ने, जो पेशकार का फ़र्ज़ अदा कर रहा था, पहला मुक़दमा सुनवाई के लिए पेश किया। मुलाज़िम गड़रिया था और सरदार के सामने गरदन झुकाये सहमा हुआ खड़ा था। उसके खिलाफ़ यह इल्ज़ाम था कि उसकी रेवड़ की दो भेड़ें सरदार मज़ारी के एक खेत में घुस गयी थीं और मक्की के कई पौधों को नुकसान पहुँचाया था। गड़रिया गिड़गिड़ाकर माफ़ी माँगता रहा, क़समें खाकर यक़ीन दिलाता रहा कि आइन्दा ऐसी ग़लती नहीं होगी, मगर उसकी एक न सुनी गयी। सरदार की नज़र में जुर्म की नौइयत संगीन थी। लिहाजा उसे जुर्माने में पाँच भेडें़ मालखा़ने में पहुँचाने के अलावा तीन महीने जेल में कै़द रखने की सजा़ दी गयी।
चाकर खा़ँ सरगा़नी ने दबी जुबान से सूचित किया, ‘‘सई सरकार, जेल में जगह नहीं है।’’
‘‘जेल में जगह नहीं, तो मुजरिम को सुक्के खोह में डाल दिया जाये।’’ सरदार मजा़री ने हुक्म सुनाया, ‘‘जब तक जेल में जगह नहीं है, सजा़ पानेवाले तमाम कै़दियों को सुक्के खोह में डाल दिया जाये।’’
सुक्के खोह अन्धे कुएँ थे। ये चैड़े मुँहवाले ऐसे कुएँ थे, जो कभी सिंचाई के काम आते थे। मगर सूख जाने की वजह से न उनमें अब पानी था, न उसके निकलने की कोई संभावना थी। सरदार की निजी जेल जब कै़दियों से भर जाती और उसमें कोई गुंजाइश न रहती, तो क़ैदियों को सुक्के खोह में बन्द कर दिया जाता। वे अन्धे कुएँ में उठते-बैठते, सोते, खाना खाते और वहीं पेशाब-पाखाने से फ़ारिग़ होते। न उन्हें किसी से मिलने की इजाज़त होती, न बात करने की। खाना-पानी निश्चित वक़्त पर सुबह शाम रस्सी में बाँधकर पहुँचा दिया जाता। जाड़ा हो, गर्मी हो या बरसात, वे सुक्के खोह से बाहर न आते। अलबत्ता सर्दी के मौसम में कै़दियों को एक कम्बल दे दिया जाता और वह भी उनके घरवाले मुहैया करते। क़ैदियों को जो खाना दिया जाता, चाहे वे सरदार की निजी जेल में बन्द हों या सुक्के खोह में, उसकी की़मत भी सगे-सम्बन्धी ही अदा करते। अगर की़मत अदा न होती, तो कै़दियों को फा़का करना पड़ता। अक्सर कै़दी लगातार भूखों रहने से सिसक-सिसककर मर भी जाते। सुक्के खोह में साँप, बिच्छू और ऐसे ही ज़हरीले कीडे़-मकोडे़ भी होते, जो कभी-कभी कै़दियों की मौत की वजह बनते।
सरदार के फै़सला सुनाये जाने के बाद उस पर फौ़री तौर पर अमलदरामद शुरू हो गया। जुर्माने की अदायगी और सुक्के खोह में कै़द करने की ग़रज से मुजरिम को खींचते हुए कचहरी से बाहर ले जाया गया। सरदार का फै़सला आखि़री और अटल फै़सला था। उसके खि़लाफ़ किसी भी अदालत में न उज्रदारी हो सकती थी न अपील।
चाकर ख़ान सरगानी ने दूसरा मुक़दमा पेश किया। मुक़दमा सरदार शहजो़र खाँ मजा़री के सामने पहली बार पेश नहीं किया गया था, उसकी सुनवाई लगभग चार महीने से जारी थी। अब तक कई पेशियाँ पड़ चुकी थीं। मुक़दमा ख़ासा पेचीदा ओर निहायत संगीन था। लिहाजा़ सरदार मजा़री मसलेहत से काम लेते हुए उसे जानबूझकर तूल दे रहा था, कि गुज़रते वक़्त के साथ-साथ फ़रीका़ें के दिलों में पाया जानेवाला शदीद ग़म व गुस्सा ठण्डा पड़ जाये और उसके फै़सले से हर फ़रीक़ इस तरह मुतमइन हो जाये कि दिलों से बैरभाव हट जाये।
यह पानी के बँटवारे का पुराना झगडा़ था। नौइयत यह थी कि फ़रीकै़न एक ही रूदकोही से अपनी फ़सलों कीे सिंचाई करते थे। रूदकोही के खड्ड में पानी का ज़खी़रा कम था और फ़सलों के लिए ज़रूरत ज़्यादा थी। अंजाम यह हुआ कि पानी के बँटवारे पर झगड़ा पैदा हुआ। ऐसे झगड़े उन बारानी इलाक़ों में अक्सर होते हैं, जहाँ खेतों को रूदकोहियों से पानी दिया जाता है। डेरा ग़ाजी ख़ाँ और उसके आसपास के पहाड़ी इलाक़े में सिंचाई की यह व्यवस्था बहुत पुरानी है। इतनी पुरानी कि सही-सही नहीं पता कि यह कैसे प्रचलित हुई और किसने प्रचलित की। सिंचाई की इस व्यवस्था के तहत बारिश का पानी एक तरफ़ तो बरबाद होने से बचाया जाता है और दूसरी तरफ़ उसे खेती के लिए ज़्यादा उपयोगी बनाने की कोशिश की जाती है। होता यह है कि जब पहाड़ों पर बारिश होती,है तो पानी ऊँची-नीची चोटियों और चट्टानों की बुलन्दियों से ढलान की तरफ़ निहायत तेज़ रफ्तार से बहता है। मशहूर है कि उसके तेज़ धारे में ऐसी काट होती है कि अगर ऊँट उसकी ज़द में आ जाये, तो पैरों और कूचों की हड्डियाँ भी आरी की तरह काट देता है।

-शौकत सिद्दीक़ी

सुमन
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