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7.4.10

न माओवाद के समर्थन में, न माओवाद के विरोध में

छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले में सी.आर.पी.ऍफ़ के काफिले के 76 जवानो की मौत ने मुझे कल से दुखी कर दियावहीँ प्रिंट मीडिया में एक छुपी हुई छोटी खबर से यह ज्ञात हुआ की दंतेवाडा जिले के थाना तोंगपाल के सुदुरवाडा गाँव में गाँव वासियों को घेरकर 200 जवानो ने आदमियों और औरतों को बुरी तरीके से मारा पीटा जिसमें 26 महिलाओं को गंभीर चोटें आयीं और कई लोगों का जवानो ने अपहरण कर लिया बाद में पुलिस हस्तक्षेप के बाद ग्रामीणों को अधमरी हालत में छोड़ा गयाहमें दुःख इस बात का है कि हमारे आपके बीच में पेट की भूख को हल करने के लिए सशस्त्र बलों में लोग भर्ती होते हैंउनकी असमय मृत्यु से पूरा परिवार समाज प्रभावित होता है तो मौत किसी भी नाम से हो दुखद होती हैवहीँ देश में अधिकांश आदिवासियों को उनकी धरती हवा, पानी, जंगल छीन कर तिल-तिल मरने के लिए मजबूर करना वह अचानक मौत से ज्यादा भयावह स्तिथि पैदा करता हैकुछ लोग सशस्त्र बलों की मौत से सीना पीट-पीट कर चिल्लाने लगते हैं तब वह भूल जाते हैं की उनके बगल में जहाँ वह सभ्य समाज में रहते हैंअचानक किसी के घर में साधारण पुलिस की दबिश होती है और पूरे घर के बर्तन-भाड़े तोड़ देते हैं, औरतों से बदतमीजी करते हैं, अड़ोसी-पडोसी तमाशा देखते हैं और दस-पांच दिन जिसके घर में दबिश पड़ती है उसके सम्बन्ध में पंचायत करते हैंइससे ज्यादा वह कर नहीं सकते हैं, आज हर आदमी शांति चाहता है व्यवस्था मजबूर करती है तो हथियार उठाते हैंउस हथियार उठाने को आप कोई भी नाम दे सकते हो
आज जरूरत इस बात की है कि राजनैतिक व्यवस्था में जो भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े छेंद हैं उनका हल ढूढनाजब देश में आधे से ज्यादा आबादी 20 रुपये प्रतिदिन में जी रही हो तो आप अंदाजा लगाईये की किस तरह से उनके पेट की ज्वाला शांत होती होगीबहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी पूंजीपतियों नौकरशाहों ने जो लूट देश में मचा रखी है उसका विरोध करने के लिए जो भी आता हैव्यवस्था के दलाल तुरंत कोई नाम उसका रख के हो रही दमन की प्रक्रिया को जायज ठहराना शुरू कर देते है अच्छा यह होता की समस्या का समाधान न्यायिक मस्तिष्क के अनुरूप करना प्रारंभ कर देना चाहिए। शांति अपने आप आती जाएगीलूट पर आधारित व्यवस्थाओं के कारण हर युग में अशांति रही है और आज सबसे ज्यादा लूट है तो अशांति तो होगी हीमुझे दोनों घटनाओ से दुःख है इसीलिए मैं लिख रहा हूँ माओवाद का समर्थन करता हूँ और विरोध कुछ पक्ष उनके उजले हैं तो कुछ पक्ष काले भी हैं और सशस्त्र बल लूट को बनाए रखने की व्यवस्था का हिस्सा हैं यह उनका काला पक्ष हैमानवीय संवेदनाओ के आधार पर जो घटित हो रहा है वह कतई उचित नहीं है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

दो स्टार



6.4.10

लड़ते हो, और हाथ में तलवार भी नहीं

एक खबर पढ़िए, फिर एक चुटकुला भी सुन लीजिये- खबर यह है- स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार ने सिगरेट, बीडी, गुटखा तथा अन्य तम्बाकू उत्पादों पर मूंह के कैंसर की तस्वीर छापने के आदेश पारित कर दिए हैंतम्बाकू कैंसर समेत 26 जानलेवा बीमारियों की जनक है, आगामी जून से इसके उतापदों पर सचित्र चेतावनी छापना आवश्यक होगा
अब चुटकुला- एक शहर बार-बार बाढ़ से प्रभावित होता था, भारी बर्बादी होती थी सरकारी अफसरों के उपाय बेकार चले जातेहल निकालने के लिए मीटिंग की गयी, बहुत से सुझाव पेश हुए, परन्तु एक हल ऐसा था जिसमें कोई वित्तीय भार भी था- वह यह कि बाढ़ का डेंज़र पॉइंट बढ़ा दिया जाए
अब यह भी देखिये कि शराब के सेवन से आये दिन सैकड़ो व्यक्तियों के मरने की खबरें रही हैं- समाज कल्याण विभाग अपने काम में लगा है, मध् निषेध विभाग की भी कुछ उपलब्धियां जरूर होगी- परन्तु उत्तर प्रदेश सरकार इस बात से अति उत्साहित है कि इस वर्ष शराब के उत्पादों की 22 प्रतिशत तक सेवन- वृद्धि हुई है जिससे वित्तीय लाभ बढ़ा
जनता और सरकारों-दोनों को सोचना चाहिए कि तम्बाकू, शराब, जुआ, प्रदूषण, प्लास्टिक का प्रयोग आदि जो भी मसले हैं - उन पर 'जागरूकता' के नाम पर अपना दामन बचाना ठीक नहीं हैअगर कोई बुराई है तो उसे दृढ़ता से रोकना चाहिए, वैधानिक उपाय करने चाहिए
सिगरेट पर बहुत समय से चेतावनी लिखी हुई हैक्या कभी कोई ऐसा अध्ययन हुआ जिसके द्वारा यह बताया गया हो कि अमुक काल-खंड में इतनी संख्या के सेवन कर्ता इस जागरूकता-अभियान से प्रभावित हुए ? समस्याओं को सुलझाने के यूरोपीय नुस्खें और भी दिलचस्प हैं - जब कोई जुर्म वह रोक नहीं पाते तो उसकी वैधानिक इजाजत दी जाती है
ढुलमुल नीति के लिए हम अपनी सरकार से यह जरूर कहेंगे - लड़ते हो, और हाथ में तलवार भी नहीं ?

-डॉक्टर एस.ऍम हैदर

5.4.10

जाऊं में तुमको ढूढने अब दरबदर कहाँ

चंगुल से बच के मौत के जाए बशर कहाँ
आलामे रोज़गार से उसको मफ़र कहाँ
जिस जिंदगी पे मान है इंसान को बड़ा
वह जिंदगी भी अस्ल में है मातबर कहाँ
आवाज दो कि कौन सी मंजिल में खो गए
फिरती है तुमको ढूंढती अपनी नज़र कहाँ
तुमने तो अहद बांधा था इक उम्र का मगर
खुद ही बताओ पूरा हुआ है सफ़र कहाँ
किन बस्तियों में दूर उफ़क़ से निकाल गए
जाऊं में तुमको ढूढने अब दरबदर कहाँ
हिरमाँ नसीब रह गयी है आरजुएँ सब
हैराँ है अक्ल जाए ये फ़ानी बशर कहाँ
जाकर जहाँ से कोई भी लौटा फिर कभी
तुमने बसा लिया है भला अपना घर कहाँ
रह्वारे उम्र जीस्त की रह में खां दवाँ
लेकिन अज़ल से इसको भी हासिल मफ़र कहाँ
किरने तो चाँद अब भी बिखेरेगा सहन में
पहली सी रौशनी मगर वह बाम पर कहाँ
अश्कों से नामा लिखा जो मैंने तुम्हारे नाम
लेकर बताओ जाए उसे नामावर कहाँ
ये दस्ताने गम तो बड़ी ही तावील है
ये दस्ताने गम हो भला मुख़्तसर कहाँ
जावेद तेरे दोस्तों की है यही दुआ
मरहूमा पर हो रहमते अल्लाह की सदा

सरवर अम्बालवी
रावलपिंडी

नोट- अजीज दोस्त गुलजार जावेद की धर्मपत्नी की मौत पर

आलामेरोजगार- दुखों का आवागमन
मफर- छुटकारा
उफ़क - आसमान से आगे
हिरमाँ - निराश, नाउम्मीदी
ज़ीस्त - जिंदगी
अज़ल- मरण
बाम- छत
नामवर - ख़त ले जाने वाला संदेशवाहक
तवील- लम्बी


पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

4.4.10

बजट 2010-11: गहराते सामाजिक असमानता के खतरनाक आयाम

किसी भी साल के बजट को दो स्तरों या तत्वों के रूप में देखा जा सकता है, कम से कम उसे समझने के प्रयास की शुरूआत के रूप में। एक तो उसमें राजकीय आय और व्यय के पुराने, नये और प्रस्तावित आंकड़े या संख्या होती है जिनका सिलसिलेवार पूरा ब्यौरा विभिन्न मदों में बजट के दस्तावेजों में दर्शाया जाता है। दूसरे कुछ गुणात्मक पहलू होते हैं जो विशेष रूप से चुने हुए जुमलों, वाक्यांशों और सिद्धांतों की दुहाई देते हैं। ये एक ओर तो सरकार के कामकाज और चरित्र को जन-हितैषी साबित करने के मकसद से चुने या गढ़े जाते हैं। दूसरे, उन्हें इस तरह बहु अथवा द्विअर्थी रखा जाता है कि हमारे गैर-बराबरीमय समाज में सत्ता और शक्ति के असली ध्रुवों को भी अपनी सरकार की नीयत, नीतियों, निर्णयों और कार्यों पर भरोसा बना रह सके। वैसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बजट तथा नीति निर्माण में इन तबकों की दखल और सीधी भागीदारी पिछले दो दशकों से लगातार बढ़ी है। जैसे-जैसे आम आदमी का जीवन दूभर होता जाता है, उसे अधिकाधिक हाशिये पर डाल दिया जाता है। उसी के साथ-साथ यह आकर्षक जुमलों, मोटी संख्याओं या नम्बरों का खेल भी नटवरलाली रूप ग्रहण करता जाता है। ऐसा ही गुणात्मक, सैद्धांतिक स्तर पर भी किया जाता है।
वर्तमान बजट
सन् 2010-11 के लिये प्रस्तावित बजट के ये दोनों पक्ष काफी अंशों तक इनकी दीर्घकालिक प्रवृत्तियों को प्रकट करते हैं। इस साल पेश बजट पुरानी, जमी-जमायी आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के लिए निजी निवेश तथा तथाकथित उद्यमिता को बढ़ाने के लिए, राज्य की ‘समर्थकारी’ भूमिका को रेखांकित करने के लिए अपने बड़े मुद्दे के राजकीय खर्च को काफी कड़ाई से नियंत्रित करता है। इसका मकसद है सरकार बाजार से कम कर्ज उठाये ताकि कम ब्याज दरों पर निजी क्षेत्र, खासकर कम्पनी क्षेत्र, को प्रचुर मात्रा में कर्ज उपलब्ध होता रहे। निजी क्षेत्र को बैंक खोलने की इजाजत भी इसी काम को आगे बढ़ायेगी। राज्य खर्च की कानून हदबंदी राज्य को अपने पैर पसारने से भी रोकता है ताकि सार्वजनिक सेवाओं तक राज्य को बाहर रखकर या हाशिये पर डालकर उच्च शिक्षा, जटिल-महंगी चिकित्सा, यातायात, मूलभूत आधार क्षेत्रीय सेवाओं आदि के मलाईदार हमेशा मांग में रहने वाले भारी मुनाफादायक क्षेत्र बड़ी-बड़ी कम्पनियों के हाथ में आ जायें। बस इन कामों के ‘सार्वजनिक’ चरित्र का इस्तेमाल बायेबिली गैप फंड यानी मुनाफे की अप्रर्याप्तता को पूरा करने के लिए सार्वजनिक धन की छद्मरूप से सहायता लेकर किया जा सके।
बजट और जनता
हां, गांवों की पाठशाला या वहां की चिकित्सा व्यवस्था या गांवों को जोड़ने वाली सड़के, गांवों तथा कस्बों की सफाई, पानी आपूर्ति की व्यवस्था, बाढ़ नियंत्रण आदि अनाकर्षक काम जरूर सरकार के हाथों में रहे। किन्तु ये काम भी इतने विशाल हैं, खासकर शिक्षा के अधिकार की कानूनी मान्यता तथा सबके लिए स्वास्थ्य जैसे जुमलों के प्रचलन के कारण कि इनके लिए खर्च की अगर समुचित तजवीज की जाये तो वित्तमंत्री को इस अति धनी तथा समृद्ध से समृद्धतर होते वर्ग की जेब में हाथ डालना ही पड़ेगा। कुछ अंशों तक इस ‘खतरे’ में अपने समतुल्य और बिरादराना तबकों को बचाने के लिए अब सेवाकर तथा अन्य प्रत्यक्ष करों का दामन ज्यादा अंशों तक थामा जा रहा है और आय, सम्पत्ति तथा मुनाफे आदि पर लगने वाले प्रत्यक्ष करों में कटौती की गयी हैं किन्तु एक तीर से दो पंछियों को मार गिराने में माहिर शासक वर्ग ने सरकारी कम्पनियों के शेयर, बाजार में निजी क्षेत्र को बेचकर एक भारी राशि, चालीस हजार करोड़ रुपयों की अपने खर्च को पूरा करने का फैसला भी बजट में जोड़ दिया है। इससे न केवल धनी वर्ग का संभावित कर भार कम होगा, किन्तु मलाईदार, जन धन तथा त्याग से बने नवरत्नों, मुक्त सार्वजनिक क्षेत्र में कई तरह से संेधमारी के रास्ते भी हमारे कम्पनी क्षेत्र के तथा शेयर बाजार के स्टोरियों को मिल जायेंगे।
जो बाजार स्वयं अपने को किसी अनुशासन में नहीं रख पाता है, जहां अरबों के सत्यमनुमा घोटाले आम प्रवृत्ति है जिनका यदाकदा ही और बहुधा आकस्मिक भंडाफोड होता है, जो विकट उतार-चढ़ाव के दौर से केवल मानसिक और ‘एनिमल स्पिरिट्स’ भेड़चाल प्रवृत्ति के कारण अस्थिरता का दूसरा नाम बन गया है, उसके द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के कम्पनियों को अनुशासित करने की कोशिश एक भारी अंर्तविरोध ही दर्शाता है। किन्तु हमारे बाजारवादी शासक जो पश्चिम के भयावह, जनविरोधी अर्थशास्त्र के कायल हैं और उन्हीं के सुझाये रास्ते पर आंखे मूंद कर चलते हैं, अपने राजकोषीय अनुशासन और बजट
प्रबंधन कानून के प्रति इतने संजीदा तथा समर्पित हैं कि वे (जैसा कि कार्ल पोलान्यी ने दशकों पहले कहा था) आर्थिक उन्नयन के लिए किसी भी सामाजिक कीमत को अधिक और गैर वाजिब नहीं मानते हैं।

नवउदारवाद के दुराग्रहों के समावेशी विकास की मखमली चादर में लपेटने के प्रयासों की कुछ अन्य बानगियां इस बजट में खोज पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। कहा गया है कि तेज आर्थिक बढ़ोतरी सरकार को समाज तथा आम जन के कल्याण हेतु अधिक संसाधन उपलब्ध कराती है। इस साल के बजट अनुमान चालू कीमतों पर 12.5 प्रतिशत राष्ट्रीय आय वृद्धि की परिकल्पना पर बनाये गये प्रतीत होते हैं। जाहिर है कि राष्ट्रीय आय की वकालत उसके द्वारा ज्यादा बखूबी सामाजिक दायित्व पूरी करने की क्षमता पैदा होने का दावा करने वालों को कम से कम हर सामाजिक सेवा और गरीब तथा खास कर ग्रामीण गरीब तथा हर साल श्रम शक्ति में शामिल होते 120 लाख युवा वर्ग के लिए पुराने आबंटन को कम से कम 12.5 प्रतिशत से ज्यादा तो बढ़ाना ही चाहिए था। किन्तु शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, तंग बस्तियों और गांवों के लिए आधारभूत सेवाओं, रोजगार सृजन, सिंचाई, स्वच्छता तथा पेयजल आदि किसी भी काम के लिए राष्ट्रीय आय की अनुमानित वृद्धि के अनुपात में आबंटन नहीं किया गया है।
रोजगार एवं शिक्षा
इस बार रोजगार वृद्धि का कोई टारगेट भी घोषित नहीं किया गया है। शिक्षा के अधिकार को अमल में लाने के लिए कम से कम 81 हजार करोड़ रुपये सलाना चाहिए, किन्तु तजबीज मात्र 48 हजार रुपयों से कुछ कम की गयी है। उच्च शिक्षा के लिए 16.7 हजार करोड़ रु. की व्यवस्था तो हास्यास्पद लगती है, जब यह देखा जाता है, कि स्वयं छात्र अपनी उच्च शिक्षा के खर्च को निजी स्तर पर पूरा करने के लिए पिछले वर्ष बीस हजार करोड़ रुपयों से ज्यादा का निजी कर्ज बैंकों से लेने को विवश हुए थे। ऊपर तुर्रा यह कि उच्च शिक्षित युवकों को भी बेरोजगारी का सामना भी करना पड़ता है। चिकित्सा खर्च अब अस्पतालों के कम्पनीकरण के कारण निजी जेबों पर इतना भारी पड़ने लगा है कि वह अब किसानों और मध्य आय तबके तक के कर्ज के चक्र में फंसने का एक मुख्य कारण बन गया है। फिर भी सबके लिए स्वास्थ्य बीमा अभी कहीं भी कार्यान्वयन के क्षितिज पर नजर नहीं आता है।
यहां बहु-चर्चित, बहु-प्रशंसित और कई अर्थों में पहली गंभीर जनहितकर योजना ‘मनरेगा’ के बारे में इस साल के बजट की आपराधिक बेरूखी का अलग से उल्लेख बजट और समावेशी विकास की असलियत को समझने के लिए जरूरी है। इस तथाकथित फ्लैगशिप स्कीम के लिये महज एक हजार करोड़ की अतिरिक्त राशि की व्यवस्था संशय पैदा करती है कि यह कहीं घोषित प्राथमिकताओं के बारे में पुनर्विचार का संकेत तो नहीं है। बहरहाल केवल 5 करोड़ से कम परिवार इस योजना का आंशिक लाभ उठा पाये हैं और लाभान्वित से बाहर लोगों का आकलन 70 प्रतिशत तक किया जा रहा है। मात्र 65 लाख लोगों को एक सौ दिन का रोजगार मिल पाने की बात स्वयं गांव विकास मंत्री मानते हैं। इस साल न्यूनतम दिहाड़ी भी 100 रुपये प्रस्तावित है। सबसे गंभीर बात यह कि 15 रुपये से कम दैनिक खर्च पर लोगों को गरीब मानने वाले लोगों ने क्या कभी यह आकलन किया है कि लगभग 20 प्रतिशत खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने का असर भुखमरी, कुपोषण, श्रम उत्पादकता तथा अपराधों के बढ़ने आदि पर क्या होता है? इस बेरुखी के मुकाबले आमतौर पर करोड़पति-अरबपति निर्यातकों को वैश्विक मंदी के झटके से उबारने के लिए अपनी पहल और लाॅबीज के मिले जुले असर के प्रति अतिउदार शासकों का खुमान इतना प्रबल है कि उनके लिए सहायता कोष जारी करने में राज के बीज अनुशासन को भुला दिया जाता है। अत्यंत शर्मनाक और कारपोरेट समूहों की अंध भक्ति का और उदाहरण क्या हो सकता है सिवा इसके कि कम्पनियों के पक्ष में कर खर्च रूपी ‘प्रोत्साहन’ की मात्रा ‘मनरेगा’ से एक सौ गुणा बढ़ाकर पिछले साल के चार लाख करोड़ रुपये में से अब 5 लाख करोड़ रुपये कर दी गयी है, बदले में खाद्यान्न, भ्रष्टाचार और हवाला रूपी प्रतिफल पाने के लिए। सारे देश में मनरेगा लागू करना वैसा ही है जैसे 98 प्रतिशत गांवों में स्कूल खोल देना। अभी भी 12 करोड़ से ज्यादा बालक-बालिकाएं विद्यमान घटिया और गैर-सार्थक शिक्षा से भी वंचित हैं।
वास्तव में देखा जाये तो मनरेगा में मजदूरी नहीं राहत राशि ही बांटी जा रही है क्योंकि 100 दिन का काम और कमरतोड़ मेहनत के बाद भी पूरी दिहाड़ी का वक्त पर नहीं मिलना इस काम को रोजगार साबित नहीं कर सकता है। बजट के दिन वाॅल स्ट्रीट जर्नल भारत के वित्तमंत्री के नाम खुली चिट्ठी छाप कर यह राय देता है कि अब सरकार के सामने दकियानूसी दक्षिणपंथी तथा वामपंथी कोई चुनौती बाकी नहीं बची है। अतः वे अब तथाकथित सुधारों की सड़क पर दौड़े तथा सामाजिक सेवाओं आदि झंझटो से अपने को आजाद कर ले। क्या मनरेगा के लिए मात्र एक हजार करोड़ रुपये का चालू कीमतों पर अतिरिक्त आवंटन इसी प्रतिष्ठित पत्र की राय के प्रति सकारात्मक रूख तो नहीं दर्शाता है? याद रहे कि सरकार के कई भूतपूर्व और वर्तमान सलाहकार भी नरेगा के खिलाफ लिख चके हैं और गांवों के बड़े धनी किसान भी खेत मजदूरों को मनरेगा द्वारा प्राप्त विकल्प से परेशान हैं।
बजट का फलसफा
चन्द अन्य पहलुओं का खुलासा बजट के अंकों और फलसफे दोनों का असली खाका खींचते हैं। पिछले साल वेतन आयोग के 102 हजार करोड़ रुपये बांट कर तथा चार लाख करोड़ का मंदी-विरोधी प्रोत्साहन पैकेज देकर राष्ट्रीय आय की वृद्धि को हवा दी गयी थी। इस आय तथा उसी बढ़त के असंतुलित तथा जनहित उपेक्षक रूप से चर्चा तक नहीं होती तो फिर उनसे दो-दो हाथ होने की तजबीजों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। आयकर तथा कम्पनी कर में कमी समृद्ध लोगों को अप्रत्याशित अनायास अतिरिक्त आमदनी देकर आय की असमानता घटाने की मृतप्राय कोशिशों के ताबूत में और अधिक कील ठोक दी गयी है। इसके बलबूते अनप्रयुक्त उत्पादन क्षमता का उपयोग, नए निवेश के अवसर और विदेशी पूंजी को आकर्षित करने का आधार तैयार किया गया लगता है ताकि ‘ग्रोथ बढ़ती रहे चाहे वह एक कैंसर ग्रस्त अर्थव्यवस्था को ही और ज्यादा क्यों न फुलायें’। अप्रत्यक्ष करों का प्रत्यक्ष करों में की गयी कमी से लगभग दोगुना इजाफा कृषि जन्य पदार्थों की महंगाई को औद्योगिक उत्पादों तक ले जायेगा, खासकर ऊर्जा क्षेत्र की कीमतों को बढ़ाकर जहां पहले ही भारी भरकम बोझ विद्यमान है। लगता है कि सरकार केवल अपने द्वारा कर लगाकर आम जनता की जेब हल्की करने भर से संतुष्ट नहीं है। बाजार तक सरकार की साठगांठ से तेजी से बढ़ती महंगाई रूपी दानवी कारारोपण सरकार के चहेते पूंजीपति वर्ग की आय बढ़ाता है और देश के उत्पादन ढांचे के आम आदमी की जरूरतों के लिए उत्पादन तथा रोजगार अवसरों से विमुख करता जा रहा है।
कर संरचना
हमारे अप्रत्यक्ष करों की संरचना भी भारतीय उद्योगों के खिलाफ और आयातों यानी विदेशी उत्पादकों के हितों को बढ़ाने वाली बनती जा रही है। कई सालों से उत्पाद-शुल्क के रूप में भारत के देसी उद्योगों से ज्यादा राजस्व वसूला जा रहा है और काफी तुलना में विदेशी माल से कम राजस्व एकत्रित किया जा रहा है। इस दौरान मुक्त आयात नीति के कारण हमारा आयात बिल बेइन्तहा बढ़ा है। किन्तु सन् 2008-09 में सीमा शुल्क से प्राप्त 99879 करोड़ रुपये के मुकाबले देसी उत्पाद शुल्क से 108613 करोड़ रुपयों का राजस्व एकत्रित किया गया। सन् 2010-11 के अनुमान इसी प्रवृत्ति पर मोहर लगाते है। देसी माल खरीदने वाले साल भर में सत्रह हजार करोड़ रुपये ज्यादा सरकारी खजाने में भेजेंगे। देश के अपने उद्योगों के खिलाफ यह पक्षपात न केवल देश से रोजगार के अवसरों का निर्यात करता है बल्कि व्यापार घाटे को बढ़ता है और विदेशी पूंजी तथा भगौड़ी आवास पूंजी को आकर्षित करने वाली नीतियां अपनाने की बाध्यता को बढ़ाती है। अब तो एक-दो साल पहले यह स्थिति नजर आयी थी कि देश का आंतरिक औद्योगिक उत्पादन देश में आयातित औद्योगिक माल से कम हो चुका था। क्या यह देश के अनौद्योगीकरण की एक नयी किश्त की शुरुआत नहीं हैं?

हमने बजट में शामिल तत्वों, नीतियों और प्रावधानों की चर्चा अब तक की है। किसानों से कर्ज चुकाने पर ब्याज की दर में दो फीसदी की कमी जैसे कुछ वांछनीय और प्रशंसनीय कदमों पर उल्लास प्रकट किया जाना चाहिए। किन्तु सैकड़ों ऐसे जनहितकारी काम हैं जिनका अतापता बजट के किसी कोने में दिन में चिराग लेकर ढूंढ़ने पर भी नहीं लगेगा। वैसे कृषि के नाम पर बड़ी देसी-परदेसी कम्पनियों के पक्ष में नई सौगातों की बौछार की गयी है तथा 50 करोड़, छोटे, सीमांत किसानों की विशेष जरूरतों को नजरअंदाज किया गया है।
नवउदारवादी नीतियां
कुल मिलाकर इन नवउदारवादी नीतियों का कोई भी समर्थक यह दावा करने में समर्थ नजर नहीं आता है कि जो यह कह सके कि वृद्धि दर के लक्ष्य को प्राप्त करके, देसी-विदेशी पूंजी को चरने के लिए नए हर-भरे चारागाह देकर मुनाफा स्फीति की बेलगाम गति की ओर बढ़ाकर, अगला वित्तमंत्री अपने बजट भाषण में यह दबे स्वर में भी कह सके कि तीव्र बढ़त दर और समावेशी विकास की लघु बुनियादों के मजबूत करके हम कम से कम घटी गरीबी, बढ़ी खाद्य सुरक्षा, कम बेरोजगारी तथा कम से कम अपरिवर्तित विषमताओं और स्वास्थ्य पर्यावरण की दिशा में एक शुरूआत भर तो कर ही पाये हैं। इस साल के सीमांतक नवीन बजटीय
प्रावधान नव-उदारवाद के मृतप्रायः घोड़े को और अधिक हरी घास तथा हरे चने खिलाकर पिछले बीस सालों से मजबूत होती दुष्प्रवृत्तियों और कुविकास के चक्र को उल्टा घुमाना तो दूर रोक तक नहीं पायेंगे। क्या नक्सलवादी चुनौतियों को इन मूलभूत प्रवृत्तियों को मजबूती देकर कुछ छुटमुट प्रादेशिक स्तर तक सीमित प्रयासों से निपटा जा सकेगा? ऐसे अनेक सवाल जनता को इस बजट के निर्णयकर्ताओं और सलाहकारों से पूछने होंगे यदि भारत की जनता का विकास और जीवन जीने के अधिकार को जमीनी सच्चाई बनाना है।

कहा जाता है कि हजारों करोड़ रुपयों का आबंटन जनविकास के सामाजिक तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिये किया गया है। खासकर नवउदारवाद का समावेशी विकास से परिणय कराकर, उदाहरणार्थ, इस वर्ष के बजट में सामाजिक सेवाओं के लिये आबंटित योजना तथा योजना इतर राशि (157053 करोड़ रुपयांे), आधारभूत संरचना तथा गांवों और शहरों के गरीबों के लक्षित कार्यक्रमो की लम्बी फेहरिस्त तथा विशाल राशि का हवाला दिया जाता है। हम फिर भी यह मानते हैं कि ऐसा नवउदारवादी समावेशी विकास
अधिसंख्यक भारतवासियों की किसी भी अब तक चिरस्थाई बनी विशाल तथा कष्टकर समस्या का समाधान नहीं कर पायेगा। कुछ तथ्यों और विचारों पर नजर डालने से हमारे मत का औचित्य समझ में आ जाना चाहिए। कुल बजट खर्च करीब ग्यारह लाख करोड़ रुपये का है जो सारी राष्ट्रीय आय के करीब छठे हिस्से के करीब होता है। हमारे गैर-बराबरीमय देश में कम, अनिश्चित आमदनी वाले लोगों को जो कई आर्थिकेत्तर संख्याओं के सहारे जीते हैं, उनका अनुपात अस्सी प्रतिशत से ज्यादा है और उनकी सार्वजनिक खर्च की जरूरत भी सम्पन्न अल्पसंख्य (और आयकरों विभेदित विषमतामय) तबकों से कई गुना ज्यादा होती है। किन्तु खर्च में गरीब बहुमत का तुलनात्मक हिस्सा कम तथा शीर्षस्थ एक प्रतिशत से भी काफी कम लोगों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिस्सा पूर्णमात्रा तथा तुलनात्मक दोनों तरह से बहुत ज्यादा होता है। उदारहरण के लिए लगाये गये करों से कम्पनी तथा बड़े व्यवसायों को अनेक छूटें और रियायतें दशकों से जारी है। पिछले बजट में लगाये गये करों को छोड़कर “प्रोत्साहन“ के बतौर करीब चार लाख करोड़ रुपये का कर-खर्च किया गया था। अब यह 5 लाख करोड़ हो रहा है। कम आय वाले तबकों का दशकों का बजट बमुश्किल इस खर्च के बराबर आता है। इस साल भी इस प्रक्रिया के तहत जनता के नाम पर जारी खाद्य तथा खाद सब्सिडी में कटौती की गयी है। दूसरी ओर कम्पनी कर की छूटों को हटाने की बकाया भर की गयी है और उन्हें सब्सिडी में कटौती से 5.5 गुना से ज्यादा बढ़ा दिया गया है।
सरकारी खर्च का लाभ
सरकारी खर्च का सीधा या अप्रत्यक्ष लाभ सामान तथा सेवाएं सप्लाई करने के रूप में धनी वर्ग को मिलता है। बजट भाषण में सरकारी तंत्र के नकारेपन और अकुशलता को एक भारी दिक्कत माना गया है। इसे और ज्यादा नौकरशाहीपूर्ण तरीकों से नहीं मिटाया जा सकता है। जब तक समावेशन में एक निश्चित तथा घोषित या ज्ञात काल खंड में हर भारतीय को साधिकार, सम्मानजनक मानवीय जीवन बिताने के न्यूनतम संसाधनों की पक्की गारंटी के साथ व्यवस्था नहीं की जाती है और पहले से ही समृद्ध, शीर्षस्थ तबकों के हकों में शक्ति और संसाधनों का अत्यधिक केन्द्रीकरण जारी रहता है, ये आंशिक कवरेज वाली, आंशिक कल्याण तथा संभावित क्षमता निर्माता स्कीमें राजनीतिक तिकड़मबाजी तथा भ्रष्टाचार के स्त्रोत बने रहेंगे। गरीबों से काम कराके उन्हें मजदूरी तक नहीं देने की असंख्य घटनाएं वास्तव में एक नई दास प्रथा तथा कफनचोरों की याद ताजा करते हैं। शीर्षस्थ तबकों और उनके लग्गू-भग्गू लोगों के पास निजी विवेक जो जवाबदेहविहीन मनमानी का दूसरा नाम है, का जितना बड़ा दायरा छोड़ा जायेगा, करोड़ों गरीबों को दिये गये हकों और संसाधनों की चोरी होती रहेगी। सबको पर्याप्त लाभ निश्चित अवधि में गारंटी करके इन आपराधिक अमानवीय रूझानों से मुक्ति की शुरूआत की जा सकती है। सबको लाभार्थी बनाने की गारंटी उनमें गलाकाट स्पर्धा की जगह पारस्परिक समर्थकारी एकजुटता की जड़े मजबूत करेगी। जब हम सम्पन्न लोगों को विकास प्रक्रिया का कर्ताधर्ता बनाते हैं जो शेष लोगों के स्वावलम्बन की नींव खोद देते हैं।

राजकीय दानधीरता और राजनीतिक प्रचार की भावना से पीड़ित तथाकथित विकास और कल्याण योजनाएं एक ओर तो शासन तंत्र और अर्थव्यवस्था के संचालित होते रहने की न्यूनतम जरूरतों का भाग है और दूसरी ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा आरोपित राजनीतिक तकाजा है। संक्षेप में आय सम्पत्ति और सत्ता के केन्द्रीकरण के साथ जनता को कुछ सीमित और कुछ लोगों को अनुकम्पा और निजीविवेक आधारित “लाभ“ तो दिया जा सके है, किन्तु अनेकों को वंचित रखकर, उन्हें संभावित लाभार्थियों की लम्बी क्यू में इंतजारत रख करके। यह किसी ऐसे विकास का आधार नहीं बन सकता है जो सामाजिक असमावेशन का उन्मूलन कर सके और भावी जनपे्ररित विकास का आधार बन सके।

सन् 2010-11 के बजट के वैचारिक आधार में सच्ची, सर्वसमावेशी, समतामय सामाजिक न्याय को कोई स्थान नहीं दिया गया है। उसका मकसद और वह भी सुदूर तथा अनिश्चित रूप से निचले बीस प्रतिशत लोगों के अन्त्योदय के द्वारा एक प्रतिशत से भी कम सुपर रईसों की सम्पत्ति में इजाफा करते हुए एक शीर्षोदयी रणनीति के द्वारा भारत की राष्ट्रीय आय को दुनिया के अन्य देशों की तुलना में ऊंचे स्तर तक ले जाना है। राष्ट्रीय आय का विशाल एबसोल्यूट आकार मुख्यतः हमारे विशाल भौतिक तथा जंकीय आकार का नतीजा है। नवउदारवादी बार-बार पैंतरे बदलते हैं, नये-नये स्वांग भरते हैं, नये-नये जुमले उछालते हैं ताकि बाजार के शीर्षस्थ अति लघु तबकों के हित को राष्ट्र हित का पर्याय बनाकर पोसा जाये और जनमत से मंजूर भी करा लिया जाये। राज्य की भूमिका घटाने के नाम पर उसे एक अतिलघु वर्ग का हथियार बना लिया गया है।

निरंतर बढ़ती हुई मात्रा में कई छद्म तथा खुले रूपों में ऐसी बजटीय तथा अन्य नीतियों को चलाते हुए हमारे शासक वर्ग ने लोकतंत्र की प्रक्रिया अपनाते हुए लोकतंत्र को एक गैर लोकतांत्रिक प्रतिफलदायक निजाम में बदल दिया है। आज चुनौती इन प्रक्रियाओं को समन्द कर उन्हें बहुमुखी, बहुमतावादी, अनेक संस्थाओं, रणनीतियों और जनउभार के बीच प्रभावी तालमेल स्थापित कर चालबाजियों भरी सामाजिक परिवर्तन को दूषित दिशाओं से हटाकर उन्हें लोकतांत्रिक सात्विक सार तत्वों से विमुखित करना है। हर बजट ऐसी चुनौतियों को नए सिरे से रेखांकित करता आ रहा है और सन् 2010-11 का बजट कोई अपवाद नहीं बल्कि उसकी अगली किश्त है। सीधे-सीधे बजट के संदर्भ में प्रगतिशील सार्वजनिक खर्च पैटर्न को प्रगतिशील कराधान तथा राजस्व प्राप्ति के अन्य तरीकों द्वारा पूरा करवाना एक घोर उपेक्षित किन्तु अति अपेक्षित और वांछित जरूरत है।
-कमल नयन काबरा

3.4.10

कानून निर्माताओं का संविधान के साथ खिलवाड़

उत्तर प्रदेश विधान मण्डल ने ‘‘उत्तर प्रदेश राज्य विशेष सुरक्षा बल विधेयक 2010’’ को राज्यपाल के पास मंजूरी हेतु भेजा था। किन्तु उ0प्र0 के राज्यपाल ने उस विधेयक को अभी तक मंजूरी नहीं दी। जिस पर उ0प्र0 सरकार ने राज्यपाल को अपमानित करते हुए कैबिनेट सचिव ने सरकार द्वारा राज्य विशेष सुरक्षा बल में भूतपूर्व सैनिकों की भर्ती की घोषणा कर दी है। जिससे संवैधानिक आराजकता का माहौल पैदा हो गया है। जब संविधानिक निकाय ही संविधानिक व्यवस्था को नहीं मानेंगे तो उनके द्वारा निर्मित कानून का पालन कैसे होगा। इस दौर में अक्सर यह देखा जा रहा है कि मुख्यमंत्री की अपनी इच्छा पर कानून बनाने का कार्य हो रहा है और राज्यपालों द्वारा संविधानिक व्यवस्था का उल्लंघन कर विधेयक रोकने का भी चलन प्रारम्भ हो चुका है जबकि होना यह चाहिए कि राज्य व जनता के हित में अच्छे कानूनों का निर्माण होना चाहिए। राज्य की भलाई में जनता की भलाई मौजूद होनी चाहिए। किन्तु चाहे शिक्षा का सवाल हो, स्वास्थ्य का सवाल हो, बिजली का सवाल हो, हर क्षेत्र में सरकार जनता के हितों को दरकिनार कर मनमानी करने पर तुली है। इस समय उत्तर प्रदेश में सरकार संवैधानिक मुखिया को अपमानित करने के लिए कोई कोर कसर छोड़ना नहीं चाहती है।
-सुमन

2.4.10

सिगरेट की फिल्टर में सूअर के खून का इस्तेमाल

उद्योगिक उत्पादन में सिगरेट सहित एक सौ पचासी उद्योगिक कार्यो में सूअर का इस्तेमाल होता है कुछ वर्षों पूर्व यह भी समाचार आया था कि चाय की पत्ती को और स्वादिष्ट बनाने के लिए रक्त का इस्तेमाल होता हैकृषि उत्पादन में भी इस तरह की मिलावट जारी हैकद्दू, लौकी, खीरा आदि सब्जियों में भैंस को दूध उतारने वाले इन्जेक्सन का प्रयोग किया जाता है जिससे उनकी लम्बाई, चौड़ाई रातों-रात बढ़ जाती हैइस तरह की सब्जियां मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल स्वभाव डालती हैंभारतीय समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा अल्कोहोल (शराब) से परहेज करता है अब सब्जियों की पैदावार बढ़ाने के लिए कच्ची शराब का इस्तेमाल किया जाने लगा हैजिससे अल्कोहोल युक्त सब्जियां हम लोग प्रयोग करने लगे हैंयह पूँजीवाद का संकट हैमुनाफा इनका धर्म हैमानव जाति बचे या बचे इससे इनका कोई लेना देना नहीं हैमुनाफा होना चाहिए
आज भारतीय समाज में प्रयुक्त होने वाली खाद्य सामग्री विभिन्न अखाद्य पदार्थों के सम्मिश्रण से बिक्री की जा रही है, जिससे बहुसंख्यक आबादी मधुमेह, तपेदिक, पथरी, कैंसर जैसी बीमारियों की चपेट में हैसमाज में काफी लोग गलत तरीके से रूपया कमाने की होड़ में लगे हुए हैंउन्ही को सम्मान दिया जा रहा है पहले ऐसा नहीं थाऐसे लोगों की निंदा होती थीहमारे जनपद का सबसे बड़ा मार्फीन तस्कर उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री है और जब 26 जनवरी को पुलिस लाइन ग्राउंड में वह सलामी लेता है तो देश भर के सारे मार्फीन तस्कर अपने आप सम्मानित हो जाते हैं

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

1.4.10

इंसाफ की देवी को शर्मिन्दा करते इंसाफ के देवता

देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोयली ने न्यायालयों की जवाबदेही बनाए जाने का कानून बनाने का जिक्र करके एक लाईलाज और अति घातक बीमारी का दर्द उठाया है।
सभ्य समाज को पाप व दुराचार से पाक रखने के लिए ही न्यायिक व्यवस्था का गठन किया गया था पहले जब देश आजाद नहीं था तो अंग्रेजों के दो सौ वर्षों से ऊपर के शासनकाल और उससे पूर्व मुस्लिम शासकों के साढे़ पांच सौ साल व उससे पूर्व के हिन्दू राजा-महाराजाओं के शासनकाल में दरबार, शरई अदालते व कोर्ट में लार्डशिप जनता को न्याय देने का कार्य किया करते थे। इंसाफे जहांगीरी की चर्चा की खूब प्रशंसा इतिहासकारों ने की।
परन्तु प्रशंसा का आधार सदैव निष्पक्ष न्याय पर आधारित होता था जो बादशाह सलामत या राजाराम ने अपने दौरे हुकूमत या रामराज्य में किया। उस समय फरियादी व अपराधी के बीच वकील की भूमिका नहीं हुआ करती थी। फरियादी की फरियाद तथ्यों साझों के आधार पर न्याय की कुर्सी पर बैठकर हाकिमे वक्त सुनते थे और खून के रिश्तों, ऊँच नीच से ऊपर उठकर न्याय किया करते थे। जहांगीर ने तो अपने महल के बाहर एक घण्टा लटका कर चैबीसों घण्टे फरियादी को अपनी फरियाद दर्ज कराने की व्यवस्था की थी।
फिर मुस्लिम काल में शरई अदालतों का भी जाल पूरे देश में बिछा हुआ था और शहर काजी न्याय की कुर्सी पर बैठकर पवित्र कुरआन में दिए गये कानूनी प्राविधानों को ध्यान में रखकर इंसाफ किया करते थे।
न्यायिक प्रक्रिया में परिवर्तन अंग्रेजों के दौरे हुकूमत में शुरू हुए और आई0पी0सी0, सी.आर0पी0सी0 व सी0पी0सी0 जैसे अनेक कानून बनाकर सम्पूर्ण न्यायिक ढांचा तैयार किया गया जिसका केन्द्र प्रिवी कौंसिल के रूप में इंग्लैण्ड में होता था और देश के हर प्रान्त में उच्च न्यायालय व हर जिले में न्यायालयों के माध्यम से न्यायिक प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। अंग्रेजों के ही दौर में वकील की भूमिका प्रारम्भ न्यायालयों में हुआ लोग बार एट लॉ
की सर्वोच्च पदवी लेने इंलैण्ड जाते और उच्च न्यायालयों में वकालत करते।
फिर देश आजाद हुआ। देश का संविधान बना और वर्तमान न्याययिक व्यवस्था स्थापित हुई। न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों व जजों की प्रतिष्ठा पर कोई प्रश्न चिन्ह काफी लम्बे समय तक नहीं रहा परन्तु चूंकि सर्वोच्च न्यायालयों में जजों व चीफ जस्टिस आफ इण्डिया की नियुक्ति पर जैसे-जैसे राजनीतिक दलों की स्वार्थ से ओत प्रोत बदनीयती का काला साया पड़ना प्रारम्भ हुआ इंसाफ के मंदिरों के इन देवताओं के चरित्र पर सवालिया निशान लगने प्रारम्भ हुए। राष्ट्रीय एवं संवैधानिक मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालयों की भूमिका पर प्रश्न उठे। न्यायालयों की धर्मनिरपेक्ष छवि पर सवाल खड़े हुए परन्तु बात देश वासियों के दिलों के भीतर ही कैद रही क्योंकि अवमानना का खौफ प्रश्न उठाने वालों को बेबस किये रहा।
न्यायालयों में भ्रष्टाचार का कीटाणु नीचे की अदालत से दाखिल हुआ। जिला स्तर पर जिलाधिकारी, उपजिलाधिकारी व अन्य मजिस्ट्रेटों के न्यायालयों में न्याय की खरीद फरोख्त का कार्य प्रारम्भ हुआ। फिर यह बीमारी जिला जजी व मुंसिफ मजिस्ट्रेटों, मुंसिफ व जज की आंखों के सामने उनकी बगल में बैठा कोर्ट का अहलकार वकील के माध्यम से मुटठी गर्म करने लगा फिर कोर्ट साहबान पेनेल लायर्स के माध्यम से इंसाफ का सौदा होना शुरू हुआ। हालत अब यहां तक आ पहुंचे है कि ईमानदार जजों व मजिस्ट्रेटों पर अदालतों में वकील साहबान की ओर से हमले इस बात पर किये जाने लगे कि वह उनसे सेट नहीं हो रहे उनके साथ चैम्बरिंग नहीं कर रहे।
अदालतों में निर्दोषों को सजाएं और दोषियों को आजादी मिलने लगी। विशेष अदालतों में तो न्याय की जगह केवल सजा ही मिलने लगी। इन सब के बीच फिल्मों में जज साहबान की कुर्सी के पीछे आंखों पर पट्टी बांधे इंसाफ का तराजू लिए खड़ी इंसाफ की देवी शर्मिंदा व रूसवा होती नजर आ रही है और लोग यह कहने को मजबूर हैं कि कानून अंधा होता है।

-मोहम्मद तारिक खान

राष्ट्रमंडल खेलों में गोमांस परोसने के फैसले का चौतरफा विरोध शुरू

सफीदों (हरियाणा) : देश की राजधानी दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में आयोजक समिति द्वारा विदेशी खिलाड़ियों को गोमांस परोसने के फैसले का प्रदेश में चौतरफा विरोध होना शुरू हो गया है। आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा के उपमंत्री ओमकुमार आर्य ने जींद में प्रेस वार्ता करके सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताई है। इसी कड़ी में आर्य समाज सफीदों ने भी सरकार के इस फैसले के प्रति अपना रोष् जताया है। आर्य समाज सफीदों के संरक्षक एवं वयोवृद्ध आर्य समाजी नेता लाला फुलचंद आर्य ने पुरानी अनाज मंडी में पत्रकार समेलन को संबोधित करते हुए कहा कि राष्ट्रमंडल खेलों में विदेशी खिलाड़ियों को गोमांस परोसने का सरकार का निर्णय अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। इस निर्णय की जितनी निंदा की जाए कम है। सरकार का यह निर्णय देश के हिंदू समाज की भावनाओं के साथ सरासर खिलवाड़ है। उन्होंने कहा कि यदि सरकार अपने इस निर्णय को वापिस नहीं लिया तो देश में हिंदूओं की भावनाएं भड़क सकती हैं। सरकार इस मामले में दो भाष बोल रही है। एक तरफ तो दिल्ली सरकार ने कृषि पशु संरक्षण अधिनियम के तहत दिल्ली में गाय की हत्या करने, गोमांस का किसी भी रूप में उपयोग करने तथा दिल्ली में बाहर से गोमांस लाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है तथा नियमों को ना मानने वालों के खिलाफ इसे दंडनीय अपराध मानते हुए एक वर्ष् के कारावास का प्रावधान भी रखा गया है लेकिन दूसरी ओर दिल्ली के मुख्य सचिव राकेश मेहता तथा राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के महासचिव ललित भनोट विदेशी खिलाड़ियों को गोमांस परोसने का यान दे रहे हैं। उन्होंने सरकार से सवाल किया है कि सरकार को विदेशी खिलाड़ियों को खिलाने के लिए गोमांस के अलावा अन्य कोई खाध्य पदार्थ नहीं मिला? उन्होंने कहा कि सरकार का अपने देश की राजधानी में राष्ट्रमंडल खेल कराए जाने का निर्णय स्वागत योग्य है लेकिन खिलाड़ियों को गोमांस परोसे जाने की बात कहना बिल्कुल गलत है।सरकार को चाहिए कि वे राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय संस्कृति का प्रचार करते हुए विदेशियों को गाय के गुणों से अवगत करवाए ताकि वे भी गाय को अपनाकर लाभान्वित हो सकें। उन्होंने कहा कि गोरक्षा को लेकर आर्य समाज बेहद सजग है। अगर सरकार ने समय रहते अपना निर्णय वापिस नहीं लिया तो आर्य समाज सड़कों पर आ जाएगा। इस दौरान कोई अनहोनी घटना घट जाती है तो उसकी सारी जिमेवारी सरकार की होगी। उन्होंने बताया कि इसके विरोध में आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा के तत्वावधान में आगामी दो अप्रैल को डीसी जींद को ज्ञापन दिया जाएगा।