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1.12.10

बेटियों की माँ-------- कहानी

कहानी--- बेटियों  की माँ
सुनार के सामने बैठी हूं । भारी मन से गहनों की पोटली पर्स मे से निकाल कर कुछ देर हाथ में पकड़े रखती हूं । मन में बहुत कुछ उमड़ घमुड़ कर बाहर आने को आतुर है । कितन प्यार था इन जेवरों से । जब कभी किसी शादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते । किसी राजकुमारी से कम नही लगती थी । खास कर लड़ियों वाला हार कालर सेट पहन कर गले से छाती तक सारा झिलमला उठता । मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादी व्याह हो तो सारे जेवर पहून । मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे । दिल में टीस उठती है ----- दबा लेती हू ---- लगता है आगे कभी व्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा -------- बनने संवरन की इच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जाएगी । सब हसरतें लम्बी सास खींचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हू । सामने बेटी बैठी है -------- अपने जेवर तुड़वाकर उसके लिए जेवर बनवाने है ----- क्या सोचेगी बेटी ----- मा का दिल इतना छोटा है ? अब मा की कौन सी उम्र है इतने भारी जेवर पहनने की ------------- अपराधी की तरह नज़रें चुराते हुए सुनार से कहती हू ‘ देंखो जरा, कितना सोना है ? वो सारे जेवरों को हाथ में पकड़ता है - उल्ट-पल्ट कर देखता है - ‘इनमें से सारे नग निकालने पड़ेंगे तभी पता चलेगा ?‘‘
टीस और गहरी हो जाती है --------इतने सुन्दर नग टूट कर पत्थर हो जाएगे जो कभी मेरे गले में चमकते थे । शायद गले को भी यह आभास हो गया है -------बेटी फिर मेरी तरफ देखती है ----- गले से बड़ी मुकिल से धीमी सी आवाज़ निकलती है ---हा निकाल दो‘ ।
उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी या अपने सपनों में खोई हुई मा की आखें में देखने का समय ही नही था । शायद उसकी आखों में वही कुछ था जो आज मेरी आखें में है, दिल में है ---- शरीर के रोम-रोम में है । अपनी मा का दर्द कहा जान पाई थी । सारी उम्र मा ने बिना जेवरों के काट दी । वो भी तीन बेटियों की शादी करते-करते बूढ़ी हो गई थी । अब बुढ़े आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं । बच्चे कहा समझ पाते हैं ---- मैं भी कहा समझ पाई--- इसी परंपरा में मेरी बारी है फिर कैसा दुख ----मा ने कभी किसी को आभास नहीं होने दिया, उन्हें शुरू से कानों में तरह-तरह के झूमके, टापस पहनने का शौक था मगर छोटी की शादी करते-करते सब कुछ बेटियों को दे दिया । फिर गृहस्थी के बोझ में फिर कभी बनवाने की हसरत घरी रह गई । किसी ने इस हसरत को जानने की चेष्टा भी नही की । औरत के दिल में गहनों की कितनी अहमियत होती है ---- यह तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उन्हें सोने के टापस मिले । मा के चेहरे का नूर देखते ही बनता था ‘देखा, मेरे दोहते ने नानी की इच्छा पूरी कर दी‘‘ वो सबसे कहती ।
धीरे-धीरे सब नग निकल गए थे । गहने बेजान से लग रहे थे । शायद अपनी दुर्दाशा पर रो रहे थे --------------‘ अभी इन्हें आग में गलाना पड़ेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना निकलेगा ।‘‘
‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्‌ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।
उसने गैस की फूकनी जलाई । एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा, उसमें उसने गहने डाले और फूकनी से निकलती लपटों से गलाने लगा । लपलपाटी लपटों से सोना धधकने लगा । एक इतिहास जलने लगा ---- टीस और गहरी हुई । लगा जीवन में अब कोई चाव ----- नही रह गया है ---- एक मा‘-बाप के बेटी के लिए देखे सपनों का अन्त हो गया और मेरे मा- बाप के बीच उन प्यारी यादों का अन्त हो गया ----- भविष्य में अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हू तो ठेस लगती है । मेरी तीन समघनें और मैं एक तरफ खड़ी बातें कर रही है । इधर-उधर लोग खाने पीने में मस्त है । कुछ कुछ नज़रें मुझे ढूंढ रही है । थोड़ी दूर खड़ी औरतें बातें कर रही है । एक पूछती है ‘लड़की की मा कौन सी है ? ‘‘दूसरी कहती है ‘अरे वह जो पल्लू से अपने गले का आर्टीफिशल नेकलेस छुपाने की कोशिश कर रही है ।‘‘ सभी हस पड़ती हैं । समघनों ने शायद सुन लिया है ----- उनकी नज़रें मेरे गले की तरफ उठी --------- क्या है उन आखों में जो मुझे कचोट रहा है ---- हमदर्दी ----- दया--- नहीं--नहीं व्यंग है, बेटिया जन्मी हैं तो सजा तो मिलनी ही थी ----- उनके चेहरे पर लाली सी छा जाती है । बेटों का नूर उनके चेहरे से झलकने लगता है । अन्दर ही अन्दर ग‌र्म से गढ़ी जा रही हूं, क्यों ? क्या बेटियों की मा होना गुनाह है ---- सदियों से चली आ रही इस परंपरा से बाहर निकल पाना कठिन है । आखें भर आती हैं । साथ खड़ी औरत कहती है बेटियों को पराए घर भेजना बहुत कठिन है और मुझे अन्दर की टीस को बाहर निकालने का मौका मिल जाता है । एक दो औरतें और सात्वना देती है । ---- आसुयों को पोंछकर कल्पनाओं से बाहर आती हू । मैं भी क्या उट पटाग सोचने लगती हू --- अभी तो देखना है कि कितना सोना है । शायद उसमें थोड़ा सा मेरे लिये भी बच जाए । सुनार ने गहने गला कर सोने की छोटी सी डली मेरे हाथ पर रख दी । मुटठी में भींच कर अपने को ढाढस बंधाती हू । इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास समाया हुआ था । तोल कर हिसाब लगाती हू तो बेटी के जेवर भी इसमें पूरे नही पड़ते है ------ मेरा सैट कहा बनेगा । फिर सोचती हू सास का सैट रहने देती हू ---- बेटी को इतना पढ़ा लिखा दिया है एक महीने की पगार में सैट बनवा देगी । मुझे कौर बनावाएगा ? मगर दूसरे ही पल बेटी का चेहरा देखती हू । सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पड़ेंगे कि तुम्हारे मा-बाप ने दिया क्या है------ नहीं नही मन को समझाती ह अब जीवन बचा ही कितना है । बाद में भी इन बेटियों का ही तो है । एक चादी की झाझर बची थी । उस समय - समय भारी घुघरू वाली छन छन करती झाझरों का रिवाज था ----- नई बहू की झाझर से घर का कोना कोना झनझना उठता । साढ़े तीन सौ ग्राम की झाझर को पुरखों की विरासत समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नही पड़ रहे थे दिल कड़ा कर उसे भी सुनार को दे दिया । सुनार के पास तो यू पुराने जेवर आधे रह जाते है ------- झाझर को एक बार पाव में डालती हू -------------- बहुत कुछ आखें में घूम जाता है । बरसों पहले सुनी झकार आज भी पाव में थिरकन भर देती है । मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज बेसुरी लग रही है ---शायद आज मन ठीक नही है । उसे भी उतार कर सुनार को दे देती हू ।
सुनार से सारा हिसाब किताब लिखवाकर गहने बनने दे देती हू । उठ कर खड़ी होती हू तो लड़खडार जाती हू । जैसे किसी ने जान निकाल दी हो । बेटी बढ़कर हाथ पकड़ती है---- डर जाती हू कहीं बेटी मेरे मन के भाव ने जान ले । उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।
सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू । ाायद बाकी बेटियों की मायें भी ऐसा ही सोचती होंगी । आज पहली बार लगता है मेरी आधुनिक सोच कि बेटे-बेटी में कोई फरक नहीं है , चूर-चूर हो जाती है --- जो चाहते हैं कि समाज बदले बेटी को सम्मान मिले --- वो सिर्फ लड़की वाले हैं । कितने लड़के वाले जो कहते है दहेज नहीं लेंगे ? वल्कि वो तो दो चार नई रस्में और निकाल लेते है । उन्हें तो लेने का बहाना चाहिए । लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर । लगता है तीसरी बेटी की शादी पर बहुत बूढ़ी हो गई हू ----- शादियों के बोझ से कमर झुक गई है ----- खैर अब जीवन बचा ही कितना है । आगे बेटियां कहती रहती थी ‘मा यह पहन लो, वो पहन लो---- ऐसे अच्छी लगती है -----‘अब बेटिया ही चली गई तो कौन कहेगा । कौन पूछेगा ----मन और भी उदास हो जाता है । रीता सा मन----रीता सा बदन- लिए हफते बाद सुनार के यहा फिर जाती हू ---- बेटी साथ है ---- बेटी के चेहरे पर चमक देखकर कुछ सकून मिलता है ।
जैसे ही सुनार ने गहने निकाल कर सामने रखे, बेटी का चेहरा खिल उठता है ---- उन्हें बड़ी हसरत से पहन-पहन कर देखती है और मेरी आखों के सामने 35 वर्ष पहले का दृष्य घूम गया--------मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है -----मैं वही तो कर रही जो मेरी मा ने किया ---बेटी की तरफ देखती हू उसकी खूशी देखकर सब कुछ भूल जाती ---- अपनी प्यारी सी राजकुमारी बेटी से बढ़कर तो नहीं हैं मेरी खुायॉं -----मन को कुछ सकून मिलता है ----जेवर उठा कर चल पड़ती हॅ बेटी की ऑंखों के सपने देखते हुूए । काष ! मेरी बेटी को इतना सुख दे, इतनी शक्ति दे कि उसको इन परंपराओं को न निभाना पड़े ----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- अपनी बेटी के लिए----मेरी ऑंखों में चमक लौट आती है -----पैरों की थिरकन मचलने लगती है --------------।

22.10.09

लो क सं घ र्ष !: पाकिस्तानी कहानी-1

भगवान दास दरखान-१ -शौकत सिद्दीक़ी
कचहरी शुरू नहीं हुई थी। जिस कमरे में मुक़दमों की सुनवाई होती थी, अभी तक ख़ाली था। अलबत्ता सदर दरवाजे़ की दहलीज़ के पास दो मुलाज़िम किवाड़ों से टेक लगाये फ़र्श पर फसकड़ा मारे बैठे थे। कमरे के ठीक बीचोबीच दीवार से ज़रा हटकर रंगीन खाट पड़ी थी। यह चैड़ा चकला पलंग था। उसके पाये ऊँचे-ऊँचे थे। उन पर रंग-रोगन से निहायत खुशनुमा नक़्क़ाशियाँ बनी थीं। पलंग पर साफ़ सुथरी झलकती हुई सफे़द चादर बिछी थी। पाँयती की तरफ़ दोहती थी। उस पर रंगीन धागों से आँखों को भानेवाली क़शीदाकारी की गयी थी और हाशिया सुर्ख़ नोल का था। सिरहाने बड़े-बड़े मोटे तक़िये रखे थे।
कमरे के आगे लम्बा बरामदा था। बरामदे के सामने चैड़ा अहाता था, जिसके पूरबी कोने में घने दरख़्तों का झुण्ड था। बरामदे में और दरख़्तों के नीचे किसान, बकरे और भेड़ों को लड़ानेवाले और अलग-अलग पेशों से ताल्लुक़ रखने वाले कामगार जगह-जगह छोटी-बडी़ टोलियों में बैठे थे। उनमें बडी़ तादाद ऐसे मर्दों-औरतों की थी, जिनके मुक़दमों की सुनवाई सरदार की कचहरी में चल रही थी या जिनकी सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई थी। वे हँस रहे थे या अपने मुक़दमों के बारे में एक-दूसरे से विचार-विमर्श कर रहे थे। उनकी मिली-जुली आवाजों का शोर आहिस्ता-आहिस्ता उभर रहा था, जिसमें सरायकी के साथ-साथ कहीं-कहीं बलूची भी मिली हुई थी।
तमाम आवाजें एकाएक बन्द हो गईं। हर तरफ़ गहरी ख़ामोशी छा गयी। कचहरी के सदर दरवाजे़ की दहलीज़ पर
बैठे हुए दोनों मुलाज़िम घबराकर उठे और नज़रंे झुकाकर मुस्तैदी से खडे़ हो गये। देखते ही देखते दरवाजे़ पर सरदार शहजो़र खान मजा़री प्रकट हुआ। वह घुटनों से भी नीची लम्बी कमीज़ और पूरे बीस गज़ की घेरदार शलवार पहने हुए था। उसके उजले लिबास पर इत्र लगा था, जिसकी तेज़ खुशबू से कमरे की फ़िजा़ महकने लगी। उसकी स्याह दाढी़ खूब घनी थी। मूँछें भी घनी थीं और चढी़ हुई थीं। आँखों से जलाल टपकता था। चेहरे पर रूआब और दबदबा था। पीछे, उसका कारदार चाकर खा़ँ सरगानी और हवेली का मालिशिया था। दोनों गरदनें झुकाये उसके पीछे-पीछे चल रहे थे।
सरदार को देखते ही मुलाज़िमों ने आगे बढ़कर उसके पैरों को हाथ लगाकर पैरनपून किया। ऊँची आवाज़ में दुआएँ दीं। ‘सई’ सरदार सदा जीवें। सुखी-सेहत होवें। खै़र-ख़ैरियत होवे। बाल-बच्चे सुखी सेहत होवंे। सब राज़ी-बाज़ी होवे।
सरदार मज़ारी ने हौले-हौले गरदन हिलायी और उनकी तरफ़ देखे बग़ैर कहा ‘‘खै़र-ख़ैर सलाये।’’ वह गरदन उठाये आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ा। रंगीन खाट के करीब गया। टाँगे समेटकर ऊपर पहुँचा। चाकर खा़ँ सरगानी ने झुककर उसके पैरों से ख़स्से उतारे। सरदार तक़ियों से टेक लगाकर बैठ गया। उसने दोनों पैरों के पंजे जोड़कर एक दूसरे से मिलाये और घुटने उठाकर ऊँचे कर लिए। सरगानी के इशारे पर एक मुलाज़िम बढ़कर आगे आया। उसके हाथ में ख़ीरी थी। यह सफे़द मलमल का ढ़ाई गज़ लम्बा टुकड़ा था, जिसे तह करके लगभग छह इंच चैड़ा कर लिया गया था। मुलाज़िम झुका और निहायत मुस्तैदी से ख़ीरी उसकी कमर और घुटनों के गिर्द लपेटकर बग़लबन्दी कर दी। फिर ख़ीरी के दोनों सिरे जोड़कर इस तरह दमोका लगाया कि आँखों के सिवा चेहरे का ज़्यादातर हिस्सा छुप गया। जारी =>

सुमन
loksangharsha.blogspot.com
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित