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26.12.09

ग्लोबल वार्मिंग:दस्तक प्रलय की

आजकल जलवायु बदलाव विश्व के तापमान में वृद्धि गंभीर पर्यावरणीय समस्या के रूप में उभर कर सामने आए हैं। वैज्ञानिकों ने इस समस्या का ग्लोबल वार्मिंग नाम दिया है। धरती को बढ़ता तापमान समूचे संसार एवं मानव जाति के लिए खतरानाक सिद्ध हो रहा है। वर्तमान में जलवायु तथा मौसम में भंयकर उथल-पुथल इसी के कारण मची हुई है। ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप ग्लेशियर पिघलते जा रहें हैं। ठंड में गर्मी और गर्मी में बारिश बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। मौसम में हो रहे इस बदलाव से छोटे-बड़े जीव-जन्तु पेड़ पौधे सभी दुष्प्रभावित हो रहे हैं।वायु प्रदूषण, ध्वनी प्रदूषण मृदा प्रदूषण, जैव प्रदूषण आदि ने मिलकर पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है और आज यही जीवनदायी तत्व जीवन घातक बन गए हैं। वैज्ञानिकों को आशंका है कि परमाणु युद्ध या धरती से क्षुद्रग्रह के टकराने से जितनी तबाही हो सकती है, उतनी तबाही ग्लोबल वार्मिंग से भी संभव है। हमारे देश में वर्ष 1998 का वर्ष पिछले 50 वर्षो में सर्वाधिक गर्म रहा, जिसमें 26 दिन की लू में करीब 2500 लोगों की जान चली गई। पूरे विश्व में इसका असर देखा गया। यह धरती के मौसमी इतिहास की सबसे तेज गर्मी थी। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगले 50 वर्शो तक पर्यावरण प्रदूषण की यही गति बनी रही तो महाप्रलय सकता है, क्योंकि वायु मंडल में निरंतर बढ़ती कार्बन डाईऑक्साइड गैस से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान 3 से 4 डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ जाएगा जो पौध घर प्रभाव को नष्ट तो करेगा ही साथ ही ग्लेषियरों के पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक हिम सतह की मोटाई 1950 के बाद आश्चर्यजनक रूप से 15 प्रतिशत घट चुकी है। माउंट केन्या का सबसे बड़ा ग्लेशियर 92 प्रतिशत खत्म हो चुहा है। गंगा को जीवन देने वाले ग्लेशियर पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विश्व का तीसरा सबसे बड़ा यह ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष की तीव्र रफ्तार से सिकुड़ता जा रहा है, अब तक यह 260 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गया है, सुविख्यात पर्यावरणविद् डॉ. सैयद इकबाल हुसैन और डॉ. अरुण शास्त्री के सर्वेक्षण से पता चलता है कि यह मौमुखी ग्लेशियर निरंतर घट रहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि दुनिया भर के ग्लेशियरों एवं बर्फ के पिघलने से समुद्रों का जल स्तर निरंतर उठता जा रहा है। भारत में इसका पहला प्रभाव कच्छ पर होगा, जो हमेशा के लिए समुद्र में समा सकता है और आशंका है कि सुंदर वन एवं लक्षद्वीप भी सदा के लिए विष्व मानचित्र से लुप्त हो जाएंगे। ग्लोबल वार्मिंग के समाधान हेतु कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, समझौते एवं संधिया भी हो चुकी हैं, परंतु कोई सार्थक निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा है। यह विश्वव्यापी समस्या दिनों दिन उग्र होती जा रही है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इसके समाधान के समस्त द्वार बंद हो गए हों। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीन हाउस गैसें हैं, पेड़ पौधे इन गैसों को सोखने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। यदि वृक्षारोपण पर बल दिया जाए, तो इस संकट से काफी कुछ निपटा जा सकता है। निरंतर बढ़ रहे पर्यावरण प्रदुषण को कम करने हेतु आवश्यक कदम उठाने होंगे। हम सभी पर्यावरण को प्रदूशित करने से बचें एवं उसके प्रति संवेदनशील बनें। समय रहते धरती को बचाने के लिए सारे प्रयास किए जाएं अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब महाप्रलय जाएगा और पृथ्वी से मानव का नामो-निशान मिटकर यह एक बेजान ग्रह बनकर रह जाएगा।

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