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25.10.09

लोकसंघर्ष :पाकिस्तानी कहानी

भगवान दास -4

रात आँखों में कटी। सूरज निकला। धूप पहाड़ों की चोटियों से फैलती हुई नीचे उतरने लगी। सुबह हो गयी। वे कमर कसकर बक्कल के स्थान पर पहुँच गये। वे निहायत जोशो-ख़रोश से नारे लगा रहे थे। ढोल बजा रहे थे। पगड़ियाँ उछाल रहे थे। हाथों में दबे हुए हथियारों को सरों से ऊपर उठाकर लहरा रहे थे। तरह-तरह से खून को गरमा रहे थे। अपने हौसले बुलन्द से बुलन्दतर कर रहे थे। बलूचों की युद्ध संहिता में यह मुगदर मारना था।
वे कुछ देर तक आमने-सामने खडे़ रहे। मुगदर खींचकर अपनी ताक़त और दुस्साहस का प्रदर्शन करते रहे; फिर तलवारें सूँतकर और कुल्हाड़ियाँ और दूसरे हथियार सँभालकर वे आगे बढे़ और दाढ़ियाँ दाँतों तले दबाकर भयानक गुस्से के आलम में एक-दूसरे पर टूट पडे़। तलवार तलवार से और कुल्हाडी़ कुल्हाडी़ से टकरायी। गर्द के बादल उठे। फ़िजा़ धुआँ-धुआँ हो गयी। नारे बुलन्द से बुलन्दतर होते गये। शोर बढता गया। हर तरफ़ ख़ून के छींटे उड़ने लगे।
ग़ज़ब का रन पडा़। मगर बहुत ज़्यादा ख़ून-ख़राबे की नौबत न आयी। हुआ यह कि लडा़ई शुरू होते ही एक हिन्दू चीख़ता-चिल्लाता, दुहाई देता एक ओर से प्रकट हुआ और तेजी़ से दौड़ता हुआ क़रीब पहुँच गया। उसका नाम भगवानदास था। अधेड़-उम्र था। सिर और दाढी़ के बाल खिचडी़ थे, मगर जिस्म मज़बूत था। क़द ऊँचा था। पेशे के एतबार से वह दरखान था, यानी बढ़ई होने के साथ-साथ राजगीर का काम भी करता था और पड़ोस की बस्ती कोटला शेख़ में रहता था। उसके इलावा कोटला शेख़ में हिन्दुओं के चन्द और खा़नदान भी आबाद थे जो खेती-बाडी़ करते थे, भेड़ चरवाही करते थे या भगवानदास दरखान की तरह मेहनत-मज़दूरी करते थे।
भगवानदास दरखान भाग-दौड़ करने के बाद बुरी तरह हाँफ रहा था। उसका चेहरा पसीने से सराबोर था। उसकी पगडी़ खुलकर गले में आ गयी थी। सिर के लम्बे-लम्बे बाल बिखरे हुए थे। हक्कल की इत्तिला सूरज निकलने से पहले ही उसे मिल गयी थी। इत्तिला मिलते ही वह तारों की छाँव में घर से निकल खड़ा हुआ। उसने हक्कल के मुकाम पर जल्द से जल्द पहुँचने की कोशिश की और गिरते-पड़ते समय से पहुँचने में कामयाब भी हो गया। उसने निहायत दुस्साहस और बेबाक़ी का प्रदर्शन किया। अपनी जान की बाज़ी लगाकर वह बेधड़क लड़नेवालों की पंक्तियों में घुस गया। मेढ़ करने के लिए चीख़-चीख़कर दुहाई देता रहा और उनके दरमियान चट्टान की तरह तनकर खड़ा हो गया। उसने दोनों हाथ बुलन्द किये। तलवारों और कुल्हाड़ियों के वार हाथों पर रोके। वह ज़ख़्मी हुआ और ज़ख़्मों से निढाल होकर गिर पड़ा।
उसने मार-धाड़ बन्द कराने के लिए यह हथियार आज़माया था, जिसे बलूची में मेढ़ कहा जाता है। भगवानदास दरखान हिन्दू था और चूँकि हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, लिहाज़ा मुसलमान बलूच अपनी श्रेष्ठ क़बाइली परम्परा के मुताबिक उनकी जानो-माल का इस हद तक ख़याल रखते हैं कि उनको ऐसा समझा जाता है कि किसी को म्यार बनाने के बाद उसका खून बहाना या किसी तरह की तकलीफ़ पहुँचाना बलूचों की क़बाइली आचार संहिता की दृष्टि से अत्यन्त घृणित और जवाबी कार्रवाई जैसा माना जाता है। इसलिए भगवानदास दरखान की कोशिश और दुस्साहस सनकियों-सा साबित हुआ। हंगामा करने वाले ठण्डे पड़ गये। उठे हुए हाथ रुक गये। जो जहाँ था, वहीं रुक गया। लड़ाई फ़ौरन बन्द हो गयी। वैसे ही मेढ़ के लिए उस हिन्दू दरखान के अलावा अगर कोई सैयदज़ादा क़ुरान शरीफ़ उठाये साक्षात् फ़रीकै़न के दरमियान आ जाता या क़बीलों की चन्द बूढ़ियाँ सिर खोले, बाल बिखराये, गले में चादर डाले ठीक लड़ाई के दौरान रणभूमि में पहुँच जातीं, तो उनके सम्मान में भी लड़ाई बन्द करने का ऐलान कर दिया जाता।
मेढ़ की दृष्टि से तात्कालिक ढंग पर जं़ग बन्द हो गयी। भगवानदास दरखान की फ़ौरी तौर पर मरहम पट्टी की गयी और उसे कोटला शेख़ पहुँचा दिया गया। रस्तमानी और मस्दानी शूरवीर भी अपने-अपने ज़ख़्म लिए चले गये। मगर उनके चेहरों पर अभी तक भयानक क्रोध छाया हुआ था। आँखें शिकार पर झपटनेवाले बाज़ की तरह चमक रही थीं। ख़ून खौल रहा था। शूरवीरों का जोश सवा नैजे़ पर था। दोनों तरफ़ खींचातानी और ग़मो-गुस्सा का वातावरण था। उस वक़्त सूरते हाल निहायत संगीन हो गयी, जब तीसरे रोज़ सूरज डूबने से कुछ देर पहले मस्दानी क़बीले का एक ज़ख़्मी चल बसा। मृतक के घर में कुहराम मच गया। उसके भाइयों और क़बीले के दूसरे लोगों के सीनों में बदले की आग शिद्दत से भड़क उठी और मस्सत करने यानी ख़ून के बदले ख़ून की तैयारियाँ जा़ोर-शोर से होने लगीं। बदले की ऐसी कार्रवाई को लस्टदबीर कहा जाता है।
रस्तमानियों को जब उस लस्टदबीर का पता चला, तो उधर भी लोहा गरम हुआ। मरने-मारने की तैयारियाँ शुरू कर दी गईं। फ़ौरन डाह का बन्दोबस्त किया गया। इसके लिए यह तरीक़ा अपनाया गया कि एक ऐसे शख़्स को डाहडोक मुकर्रर किया गया, जिसका ताल्लुक़ एक तटस्थ क़बीले से था। डाहडोक क़द्दावर जवान था और मँझा हुआ ढोलकिया था। दिन चढ़े वह गले में ढोल डालकर निकला और ढोल बजाकर हर तरफ़ मुनादी करने लगा। वह पहले तड़ातड़ कई बार ढोल पर तमची से चोट लगाता और फिर बायाँ हाथ झटककर ख़ास अन्दाज़ में इस तरह थाप देता, जिसका स्पष्ट भाव यह था कि लड़ाई का ख़तरा सरों पर मँडरा रहा है। रणभेरी बजने वाली है। वह दिन ढले तक इसी तरह फ़रीकै़न को ख़बरदार करता रहा।



-शौकत सिद्दीक़ी


सुमन
loksangharsha.blogspot.com

जारी

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