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22.10.09

लो क सं घ र्ष !: पाकिस्तानी कहानी-1

भगवान दास दरखान-१ -शौकत सिद्दीक़ी
कचहरी शुरू नहीं हुई थी। जिस कमरे में मुक़दमों की सुनवाई होती थी, अभी तक ख़ाली था। अलबत्ता सदर दरवाजे़ की दहलीज़ के पास दो मुलाज़िम किवाड़ों से टेक लगाये फ़र्श पर फसकड़ा मारे बैठे थे। कमरे के ठीक बीचोबीच दीवार से ज़रा हटकर रंगीन खाट पड़ी थी। यह चैड़ा चकला पलंग था। उसके पाये ऊँचे-ऊँचे थे। उन पर रंग-रोगन से निहायत खुशनुमा नक़्क़ाशियाँ बनी थीं। पलंग पर साफ़ सुथरी झलकती हुई सफे़द चादर बिछी थी। पाँयती की तरफ़ दोहती थी। उस पर रंगीन धागों से आँखों को भानेवाली क़शीदाकारी की गयी थी और हाशिया सुर्ख़ नोल का था। सिरहाने बड़े-बड़े मोटे तक़िये रखे थे।
कमरे के आगे लम्बा बरामदा था। बरामदे के सामने चैड़ा अहाता था, जिसके पूरबी कोने में घने दरख़्तों का झुण्ड था। बरामदे में और दरख़्तों के नीचे किसान, बकरे और भेड़ों को लड़ानेवाले और अलग-अलग पेशों से ताल्लुक़ रखने वाले कामगार जगह-जगह छोटी-बडी़ टोलियों में बैठे थे। उनमें बडी़ तादाद ऐसे मर्दों-औरतों की थी, जिनके मुक़दमों की सुनवाई सरदार की कचहरी में चल रही थी या जिनकी सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई थी। वे हँस रहे थे या अपने मुक़दमों के बारे में एक-दूसरे से विचार-विमर्श कर रहे थे। उनकी मिली-जुली आवाजों का शोर आहिस्ता-आहिस्ता उभर रहा था, जिसमें सरायकी के साथ-साथ कहीं-कहीं बलूची भी मिली हुई थी।
तमाम आवाजें एकाएक बन्द हो गईं। हर तरफ़ गहरी ख़ामोशी छा गयी। कचहरी के सदर दरवाजे़ की दहलीज़ पर
बैठे हुए दोनों मुलाज़िम घबराकर उठे और नज़रंे झुकाकर मुस्तैदी से खडे़ हो गये। देखते ही देखते दरवाजे़ पर सरदार शहजो़र खान मजा़री प्रकट हुआ। वह घुटनों से भी नीची लम्बी कमीज़ और पूरे बीस गज़ की घेरदार शलवार पहने हुए था। उसके उजले लिबास पर इत्र लगा था, जिसकी तेज़ खुशबू से कमरे की फ़िजा़ महकने लगी। उसकी स्याह दाढी़ खूब घनी थी। मूँछें भी घनी थीं और चढी़ हुई थीं। आँखों से जलाल टपकता था। चेहरे पर रूआब और दबदबा था। पीछे, उसका कारदार चाकर खा़ँ सरगानी और हवेली का मालिशिया था। दोनों गरदनें झुकाये उसके पीछे-पीछे चल रहे थे।
सरदार को देखते ही मुलाज़िमों ने आगे बढ़कर उसके पैरों को हाथ लगाकर पैरनपून किया। ऊँची आवाज़ में दुआएँ दीं। ‘सई’ सरदार सदा जीवें। सुखी-सेहत होवें। खै़र-ख़ैरियत होवे। बाल-बच्चे सुखी सेहत होवंे। सब राज़ी-बाज़ी होवे।
सरदार मज़ारी ने हौले-हौले गरदन हिलायी और उनकी तरफ़ देखे बग़ैर कहा ‘‘खै़र-ख़ैर सलाये।’’ वह गरदन उठाये आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ा। रंगीन खाट के करीब गया। टाँगे समेटकर ऊपर पहुँचा। चाकर खा़ँ सरगानी ने झुककर उसके पैरों से ख़स्से उतारे। सरदार तक़ियों से टेक लगाकर बैठ गया। उसने दोनों पैरों के पंजे जोड़कर एक दूसरे से मिलाये और घुटने उठाकर ऊँचे कर लिए। सरगानी के इशारे पर एक मुलाज़िम बढ़कर आगे आया। उसके हाथ में ख़ीरी थी। यह सफे़द मलमल का ढ़ाई गज़ लम्बा टुकड़ा था, जिसे तह करके लगभग छह इंच चैड़ा कर लिया गया था। मुलाज़िम झुका और निहायत मुस्तैदी से ख़ीरी उसकी कमर और घुटनों के गिर्द लपेटकर बग़लबन्दी कर दी। फिर ख़ीरी के दोनों सिरे जोड़कर इस तरह दमोका लगाया कि आँखों के सिवा चेहरे का ज़्यादातर हिस्सा छुप गया। जारी =>

सुमन
loksangharsha.blogspot.com
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

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