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2.7.09

'आग'

हाज़िर--खिदमत है, हफ़ीज़ मेरठी साहब की कृति 'आग'।
उम्मीद
है, आपको पसंद आयेगी

ऎसी आसानी से क़ाबू में कहाँ आती है आग
जब
भड़कती है तो भड़के ही चली जाती है आग

खाक सरगर्मी दिखाएं बेहिसी के शहर में
बर्फ़ के माहौल में रहकर ठिठुर जाती है आग

पासबां आँखें मले, अंगड़ाई ले, आवाज़ दे
इतने
अरसे में तो अपना काम कर जाती है आग

आंसुओं से क्या बुझेगी, दोस्तों दिल की लगी
और
भी पानी के छींटों से भड़क जाती है आग

हल
हुए हैं मसअले शबनम मिज़ाजी से मगर
गुथ्थियाँ
ऎसी भी हैं कुछ, जिनको सुलझाती है आग

ये
भी एक हस्सास दिल रखती है पहलू में मगर
गुदगुदाता है कोई झोंका तो बल खाती है आग

जब
कोई आगोश खुलता ही नहीं उसके लिए
ढांप
कर मुहं राख के बिस्तर पे सो जाती है आग

अम्न
ही के देवताओं के इशारों पर 'हफ़ीज़'
जंग
की देवी खुले शहरों पे बरसाती है आग

6 टिप्पणियाँ:

'' कभी-कभी जाने-अनजाने ,
खुद की लगायी भी होती है आग ''

जनाब अकबर साहिब
नाचीज़ ज़ेरे खिदमत है | जालिम अभी तक कहाँ छिपाई थी यह आग ? मरहबा - मरहबा , और क्या कहूँ जो इस जलते दिलो-दिमाग को तस्कीन पहुंचे ? एक गुज़ारिश है कि कुछ लफ्जों को स्टार मार्क कर उनकी हिंदी भी दें दे तो जो अन्य भाषा-भाषी हैं हिदुस्तानी के निकट न हो कर हिंदी के अधिक निकट हैं भी समझ सकें | मेरा खुद का ही तलफ़ुज़ और शब्द ज्ञान बिगड़ चुका है |

" खाक सरगर्मी दिखाएं ' बेहिशी ' के शहर में " [ ? या ' बेहिसी '?,मुझे कुछ भ्रम हो रहा है ]
अगर कोई गुस्ताखी कर बैठा हूँ तो मुआफी का तलबगार हूँ ||

जनाब बीoपीo सिंह साहब, आदाब!
मैंने उर्दू की तरफ कईं बार दोस्ती का हाथ बढाया, लेकिन इस खूबसूरत ज़ुबान को अपना नही बना सका. बदकिस्मती से मेरे एरिया में ऐसा कोई बिचोलिया भी नही है, जो हमारी दोस्ती करवा दे. इसीलिए बेहिसी को बेहिशी लिख दिया था. आइन्दा भी इसी तरह से आपसे रहनुमाई दरकार है. आज फिर अगर कोई ग़लती हुई हो तो माज़रत! बेहद शुक्रिया.

मैं आग-ऐ-हस्ती आग-ऐ-तस्कीं हूँ
मैं जानता हूँ के मैं तेरा यकीं हूँ ...

बहोत बधाई...

अर्श

अकबर साहब ,
उर्दू के मामले में मैं भी कोई तुर्रमखां या अफलातून नहीं हूँ , बात फ़क़त इतनी सी है की मैं अवध का बाशिंदा हूँ इधर उर्दू या यों कहें लश्करी के बहुत से अल्फाज अपने मूल तलफ़ुज़ में बिना नुक्ते के हिंदी की स्थानीय बोली या डेलिक्ट भी चलते है |
और किसी ज़माने में मुशायरे या नशिस्त का अरेंज करने कराने शौक कुछ दोस्तों की वजह से लग गया और कुछ मुस्लिम दोस्तों की सोहबतों ने बकौल चचा ग़ालिब हमें भी निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी काम के थे | शहर छोडा मुशायरे अरेंज करना छूटा हाँ नाशिस्तें जरी रहीं ' मैं कहता नहीं था सुनता था | तैंतीस सालों की ग्राम स्तरीय नौकरी ने अब तो न शुद्ध हिंदी का रखा न उर्दू का और अंग्रेजी तो और माशाअल्लाह | यह इस लिए कह डाला कल को कहीं कच्चा न होना पड़े इज्जत ढकी छुपी ही रहने देना |

जब कोई आगोश खुलता ही नहीं उसके लिए
ढांप कर मुहं राख के बिस्तर पे सो जाती है आग
बडा ही पसंद आया ये शेर और ये गज़ल भी।

Very Very Nice Gajal,

Thanks Keep it up

Arun Sharma
www.shayari4all.com

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