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21.5.09

एक मुलाक़ात- विनोद दुआ के साथ

विनोद दुआ, भारत में टेलीविज़न के जाने माने चेहरे और एक कुशल प्रसारक हैंबीबीसी के संजीव श्रीवास्तव ने अपने कार्यक्रम 'एक मुलाकात' के लिए उनसे बातचीत कीजिसे आपके लिए हम यहाँ भी प्रस्तुत कर रहे हैं

सबसे पहले ये बताएँ कि आप ब्रॉडकास्टिंग की दुनिया के सबसे जाने-पहचाने चेहरों में से एक हैं. कैसा लगता है?

बहुत अच्छा लगता है. दरअसल, शुरुआत बहुत पहले कर दी थी. जितने साल बिताए लाज़िमी है कि पहचाने जाएँगे. तो जो कमाया वो नाम है, पैसा तो आनी-जानी चीज़ है. जब सड़क पर लोग मिलते हैं, बात करते हैं तो उन्हें महसूस होता है कि ये कोई स्टार नहीं है, अपने जैसा है घर का बुना हुआ, तो और भी अच्छा लगता है.

एक पूरी पीढ़ी टेलीविज़न पर आपको देखते हुए बड़ी हुई है, जवान हुई है. तो क्या सोचा था कि इतने कामयाब होंगे. इतनी दौलत, शौहरत?

देखिए, जिस दौर में हम यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे हम बहुत बेपरवाह होते थे. हमें बिल्कुल चिंता नहीं होती थी कि हमारा करियर क्या होगा. गिने-चुने विकल्प थे. आईएएस, आईपीएस, बैंक पीओ या फिर एमबीए करके डीसीएम मैनेजमेंट ट्रेनी बन गए. उस वक़्त रास्ते ही ये होते थे. इन रास्तों की मैंने कभी परवाह नहीं की, इसलिए करियर ने कभी सताया ही नहीं. या यूँ कहें, मुझे शुरू से ही पता था कि क्या-क्या नहीं करना है.

तो क्या-क्या सोचा था कि ये नहीं करना है?

10 से पाँच की नौकरी नहीं करनी है. किसी की मिल्कियत मंज़ूर नहीं करनी है. मेरे पिताजी ने बचपन में एक शेर सुनाया था, “आज़ादी का एक लम्हा है बेहतर, ग़ुलामी की हयाते जावेदां से.”
हम शरणार्थी कॉलोनी में बड़े हुए थे इसलिए मिजाज़ में एक अक्खड़पन आ गया था. पिताजी की तनख्वाह से ही गुज़र-बसर होती थी, लेकिन इसकी भरपाई मोहल्ले की ज़िंदगी ने कर दी थी. परवरिश बहुत अच्छी हुई, असुरक्षा नाम की चीज़ नहीं थी.

जबसे मैंने आपको देखा है, तब से मैं देखता आ रहा हूँ कि आप सही शब्दों का सही जगह पर इस्तेमाल करते हैं. ये आदत कब से बनी. शब्दों की बाज़ीगरी कब से शुरू की?

मैं छठी क्लास में था. तब हमारे मुहल्ले में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की बस आया करती थी. तो छठी में ही मैंने फणीश्वर नाथ रेणू का मैला आंचल पढ़ लिया था. बेशक उस समय ये तमीज़ नहीं थी कि उस उपन्यास का विश्लेषण कर सकें. तो शुरू से ही मेरा भाषा, साहित्य, संगीत, थिएटर से जुड़ाव रहा. हिंदी माध्यम से पढ़ाई की इसलिए साहित्य से नाता बना रहा. फिर कॉलेज गए तो बीए ऑनर्स अंग्रेजी और फिर एमए अंग्रेजी किया. तो कुल मिलाकर ये समझ में आया कि आपके दिमाग में अगर बातें स्पष्ट हैं तो शब्द खुद-ब-खुद आ जाते हैं. अगर विचार स्पष्ट नहीं हैं तो आप लफ्फ़ाजी करते हैं.

अपनी पसंद का एक गाना बताएँ?

मेरी पसंद का दायरा बहुत बड़ा है. फिलहाल मैं आपको अपनी पसंद का नया गाना बताऊँगा. ‘शो मि योर जलवा’ मुझे बहुत पसंद है. इसके अलावा, ‘बिल्लो रानी, कहो तो अपनी जान दे दूँ’ काफी पसंद है. ‘जुबां पे लागा, लागा रे नमक इश्क का’, ‘इट्स रॉकिंग’, ‘दिल हारा रे’, ‘ये रात ये चाँदनी’ और ‘झूमे रे, नीला अंबर झूमे’ बहुत पसंद हैं.

आपको नए गाने भी पसंद हैं. कोई ख़ास वजह?

इसका जवाब मैं एक शेर से सुनाऊँगा. ‘जो था न है, जो है न होगा, यही है एक हर्फे मुजिरमाना, करीबतर है नुमूद जिसकी उसी का है मुश्ताक ज़माना.’ रही बात नए गानों की पसंद की तो मैं आपको बता दूँ कि मैं खुद भी गाता हूँ. मैंने संगीत शिरोमणि तक भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा है. स्कूल में जब कभी मुझे गाना सुनाने के लिए कहा जाता था तो सब टूटे हुए दिलों के गाने होते थे. लेकिन अब के गानों में बहुत आनंद है, उत्साह है.

वापस टेलीविज़न पर लौटते हैं। पहली बार कैमरे का सामना कब किया. या फिर पत्रकारिता का सफ़र कहीं और से शुरू किया?


पत्रकारिता तो कभी की ही नहीं. मैं आज भी खुद को पत्रकार नहीं मानता. मैं खुद को कम्युनिकेटर, ब्रॉडकास्टर मानता हूँ. कॉलेज के ज़माने में मैं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेता था, इसे मेरी उन गतिविधियों का विस्तार माना जा सकता था. तब टेलीविज़न पर यूथ फोरम नाम का प्रोग्राम आता था. उस समय ऐंकर नहीं बल्कि कॉम्पेयर बोला जाता था. जब भी हम दीपक वोरा और दूसरे अंग्रेज़ी कॉम्पेयर को देखते थे तो अच्छा लगता था, लेकिन उनके मुक़ाबले हिंदी के कॉम्पेयर बहुत नीरस होते थे. तभी मैंने फ़ैसला किया कि हिंदी टेलीकॉस्टिंग का सुधार किया जाना चाहिए.

ये 1974 की बात होगी. मैं ऑडीशन के लिए दूरदर्शन पहुँच गया. बढ़ी दाढ़ी, लंबे बाल, काली टी-शर्ट, नीली जींस, हाथ में अंग्रेज़ी उपन्यास. कीर्ति जैन उस समय प्रोड्यूसर थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि आपको कैसे लगा कि आप कॉम्पेयर बन सकते हैं. मैंने कहा कि जितनी बार हिंदी का युग मंच देखा है, मुझे लगता है उनसे बेहतर कर सकता हूँ.

इंटरव्यू, कैमरा ऑडिशन, वॉयस टेस्ट पास किया. उन दिनों चयन प्रक्रिया बहुत सख्त होती थी. हम चार लोग चुने गए थे. अरुण कुमार सिंह, माधवी मुदगल, विजय लक्ष्मी क़ानूनगो और मैं. इस तरह शुरुआत हुई.

लेकिन टेलीविज़न पर आपकी असली एंट्री प्रणॉय रॉय के साथ इलेक्शन स्पेशल से ही दिखी?

देखिए, तब टेलीविज़न का इतना विस्तार नहीं था. जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, टेलीविज़न भी बड़ा होता गया. फिर 1982 में एशियाई खेल हुए तब टेलीविज़न का राष्ट्रीय विस्तार हुआ. फिर 1984 के चुनाव आ गए.

इलेक्शन स्पेशल से पहले भी क्या कोई करेंट अफेयर्स जैसा प्रोग्राम किया था?

मैंने आपको बताया न कि मैंने कभी पत्रकारिता की ओर नहीं देखा. मुझे पत्रकार नहीं होने का अफसोस भी नहीं है. मैं टेलीकॉस्टर हूँ और मेरी कोशिश रहती है कि अपनी बात दर्शकों तक पहुँच सकूँ.

प्रणॉय रॉय के साथ आपकी जुगलबंदी बहुत लोकप्रिय हुई. प्रणॉय के साथ आपके अनुभव?

दो लोग मेरे दिल के बहुत नज़दीक हैं. एक हैं प्रणॉय रॉय और दूसरे एमजे अकबर. मैंने उनके साथ न्यूज़ लाइन शुरू किया था. 1985 में ये पहला ग़ैर सरकारी प्रोग्राम था. उस प्रोग्राम को मैंने प्रोड्यूस किया था और एमजे अकबर उसके एंकर थे. वो दौर था जब मेरी शादी हो चुकी थी, मेरी बेटी दो-तीन महीने की थी. मुझे अपना करियर बनाना था. ये ख़बरों की दुनिया में मेरा पहला बड़ा प्रोग्राम था. ये प्रोग्राम बहुत कामयाब रहा.

उससे पहले 1984 के चुनाव में मुझसे कहा गया कि चुनाव विश्लेषण में जो प्रणॉय रॉय और अशोक लाहिरी कहेंगे, मैं उसका अनुवाद करूँगा. मैंने इससे पहले कभी अनुवाद नहीं किया था. लेकिन क्योंकि तालीम अंग्रेजी में हासिल की थी और परवरिश हिंदी में तो दोनों भाषाओं की समझ थी. जब ये कार्यक्रम शुरू हुआ तो जैसे ही प्रणॉय अपना वाक्य खत्म करते थे, मुझे बहुत जल्द इसका अनुवाद करना था.

लेकिन इस दौरान जो दिल के रिश्ते बने उसके बारे में ये कहूँगा कि आज भी मैं अक्सर शाम की कॉफ़ी प्रणॉय के साथ पीता हूँ. प्रणॉय और राधिका रॉय और एमजे अकबर जैसे लोगों का साथ विरले ही मिलता है.

एमजे अकबर की बात करें तो सही तर्कों के साथ अपने विचारों को रखना हमने उनसे सीखा. दूसरा 24 में से 18 घंटे काम कैसे किया जाता है, ये भी मैंने उनसे सीखा है. मुझे याद है कि टेलीग्राफ में उनका लगभग 80-100 लोगों का स्टाफ था और उनमें वो सबसे अधिक काम करते थे.

मजे़ की बात ये है कि 1991-2007 तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले. किसी बात को लेकर हमारे बीच नाराज़गी थी. 16 साल हम नहीं मिले, लेकिन जब मिले तो 16 मिनट भी नहीं लगे. रही बात प्रणॉय-राधिका की तो इन दोनों से मैंने ये सीखा है कि अपनी सीमाओं को आप फैलाते रहें और हर समय अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करें.

आप 18 घंटे काम करने की बात कर रहे थे. लेकिन मुझे तो लग रहा था कि आप कुछ उन्मुक्त, किसी बंधन में न बंधने वाले होंगे. तो कितने अनुशासित हैं आप?

देखिए, जब मैं 18 घंटे की बात करता हूँ तो इसका मतलब ये नहीं कि 18 घंटे की शिफ्ट हो. लेकिन अगर ज़रूरत है कि मैं 20 घंटे काम करूँ तो मेरा वो वाला स्विच ऑन हो जाता है.

किसी ने जॉर्ज बर्नाड शॉ से पूछा था कि मैन और सुपरमैन लिखने में आपको कितना समय लगा, उनका जवाब था, छह महीने और पूरा जीवनकाल. बिल्कुल इसी तरह ये बात मुझ पर और आप पर भी लागू होती है.

मुझे ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने में बहुत मज़ा आता है. मुझे अपना आलस भी पसंद है. मुझे अपनी गतिविधियाँ भी पसंद हैं. मैं जब भी आईना देखता हूँ तो मुझे अच्छा लगता है. मैं जब अपना कार्यक्रम देखता हूँ तो मुझे बहुत बुरा लगता कि मैं इससे भी अच्छा कर सकता था. मैं जो कमाता हूँ, उसे खर्च करने में मुझे फ़ख़्र होता है. मुझे गर्व है कि मैं अपने परिवारवालों को अच्छी जीवनशैली दे सका हूँ.

आपका ब्रॉडकास्टिंग, टेलीकास्टिंग का 34 साल लंबा सफर हो गया. इस सफर में कोई मील का पत्थर?

वर्ष 1984 में इलेक्शन स्पेशल प्रणॉय के साथ शुरू किया. न्यूज़ लाइन के बाद दूरदर्शन के लिए परख किया था. टीवी टुडे के लिए न्यूज़ ट्रैक किया. जब पहला ग़ैरसरकारी टीवी ज़ी टीवी शुरू हुआ तो उस पर मेरा प्रोग्राम चक्रव्यूह आया. ख़बरदार नाम से प्रोग्राम किया. पिछले लोकसभा चुनाव में मैंने 32 दिन में 22160 किलोमीटर का सफर रेलगाड़ी में किया.

महात्मा गांधी के पोते रामू गांधी के साथ मैं अक्सर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बैठा करता था. उनका कहना था कि गांधीजी ने भी भारत को समझने के लिए रेल में सफर किया था क्योंकि वो दक्षिण अफ़्रीका से आए थे और भारत को समझना चाहते थे और देश की हक़ीक़त जानना चाहते थे.

मैंने उत्तर में अपना सफ़र जम्मू से शुरू किया. तब उधमपुर शुरू नहीं हुआ था. दक्षिण भारत में आखिरी स्टेशन कन्याकुमारी, पश्चिम में भुज और पूर्व में लीखापानी था जो बर्मा सीमा के नज़दीक था. मैंने 32 दिन तक रेलवे के सेकेंड क्लास में सफ़र किया और 22160 किलोमीटर का सफर तय किया जिनमें से नौ रातें छोटे-मोटे होटलों में बिताई और बाकी 23 रातें ट्रेन में ही बिताई. तो कुल मिलाकर बहुत अच्छा अनुभव रहा.

कोई ऐसा अनुभव जिसे आप भुलाना चाहेंगे?

नहीं, मैं ऐसे किसी काम या अनुभव को मिटाना या भुलाना तो नहीं चाहूँगा. हाँ जो बातें याद रहती हैं, वो मैं आपको बताता हूँ. 1987 में मास्को में भारतीय महोत्सव की बात है. राजीव मल्होत्रा अंग्रेजी में कमेंट्री कर रहे थे और मैं हिंदी में. राजीव गांधी और गोर्बाच्योब को एक पौधा लगाना था. राजीव गांधी को गंगा जल और गोर्बाच्योब को उसमें वोल्गा नदी का पानी डालना था. राजीव मल्होत्रा ने जब अंग्रेजी में खत्म किया और मैंने शुरू किया तो कहा कि अब राजीव गांधी इसमें गंगा जल डालेंगे और गोर्बोच्योब इसमें वोदका जल डालेंगे.

एक और किस्सा है. मैंने दूरदर्शन पर एक शेर पढ़ा था. मिर्ज़ा ग़ालिब का कहना है ‘कौन जाए ग़ालिब दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’. बहुत सारी चिट्ठियाँ आई कि हमें विनोद दुआ से ये उम्मीद नहीं थी वो शेर गलत पढेंगे और शायर का नाम भी ग़लत लेंगे.

दूरदर्शन में हड़कंप मच गया. कहा जाने लगा कि अब तो माफ़ी मांगनी पड़ेगी. लेकिन मेरा कहना था कि मैं दर्शकों से अपने अंदाज़ में निपटा लूँगा. मैंने कहा, ‘पिछले हफ्ते मैंने आपको एक शेर ग़ालिब साहब के नाम से सुनाया था. इससे पहले मैं इसे कॉलेज में अपने दादाजी के नाम से सुनाता था. लेकिन शेर ज़ौक़ का है कि हमने माना है दकन में इन दिनों क़द्रे सुख़न...कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर.’

गानों का शौक है, फ़िल्मों का नहीं?

मैंने दुनिया के क्लासिक 20-20 बार देख रखे हैं. मुझे हिंदी फ़िल्मों का बिल्कुल शौक नहीं रहा. अक्सर होता है कि शादी के बाद लोग बीवी के साथ फ़िल्में देखने जाते हैं. उस हल्ले में मैं भी एक-आध दफ़े चला गया, लेकिन फिर नहीं गया. 1994 में फ़िल्म फ़ेयर अवॉर्ड में जज बना तब मुझे 18 फ़िल्में देखनी पड़ी. उससे और पक्का हो गया कि फ़िल्में तो नहीं देखूँगा, लेकिन जो गाने पसंद आएँगे वो गाऊँगा.

फ़िल्म कौन सी पसंद आई?

मुन्ना भाई एमबीबीएस. स्लमडॉग मिलिनेयर मुझे अच्छी लगी. लेकिन मैंने फ़िल्में ज़्यादा देखी नहीं हैं. अमिताभ बच्चन, राजेश ख़न्ना, शाहरुख़ ख़ान का दौर मेरे सामने से गुज़र गया. संगीत की वजह से मैं फ़िल्मों के नज़दीक रहा. पचास के दशक से सत्तर के मध्य तक गाने बहुत अच्छे बने. तब गाने पेपर-प्लेट नहीं हुआ करते थे कि खाया और फेंक दिया. आज भी अच्छे गाने बनते हैं, लेकिन इनका जीवनकाल बहुत ज़्यादा नहीं होता.

खेलों में क्या पसंद है?

मैंने स्कूल के दिनों में सीके नायडू तक क्रिकेट खेला है. कॉलेज में वेटलिफ्टिंग में उपविजेता रहा हूँ. उसके बाद पत्रकारों की कुसंगति शुरू हो गई.

आपने ट्रेन से इतना लंबा सफ़र तय किया। आपकी पसंदीदा जगह?

रेल सफ़र के दौरान के तो कई अनुभव हैं. जो दो-तीन बातें मैं समझ पाया हूँ उसके बारे में कहूँगा कि महात्मा गांधी ने लोगों के दिलों के दर्द को महसूस किया तो उसमें रेल के सफ़र के अनुभव का बड़ा योगदान रहा होगा. क्योंकि जब आप पूरा हिंदुस्तान देखते हो तो आपको महसूस होता है कि आप शहरों में कितनी नकली दुनिया में रहते हैं. तो एक तो इससे विनम्रता का भाव आता है. दूसरा हिंदुस्तान बहुत खूबसूरत है. झारखंड, बिहार कितने खूबसूरत हैं, लोग कितने भले हैं.

विनोद दुआ को खाने का ज़बर्दस्त शौक है. कम से कम ‘ज़ायका’ (विनोद दुआ का टीवी प्रोग्राम) देखकर तो ऐसा ही लगता है?

नहीं. मैं आपको हक़ीक़त बताता हूँ. मेरी घ्राणशक्ति यानी सेंस ऑफ़ स्मेल और ज़ुबान बहुत अच्छी है. मेरा मानना है कि किसी की भी सांस्कृतिक पहचान के लिए ज़ुबान का रोल अहम है क्योंकि खाना आबोहवा के हिसाब से बनाया जाता है. खाने का मज़हब या धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. जहाँ तक खाने की बात है तो मैं पेटू नहीं हूँ.

आपके पसंदीदा व्यंजन?

मुझे शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के खाने पसंद हैं. मांसाहारी खाने में मुझे लाल गोश्त पसंद है. मेरा मानना है कि अगर ऊपर वाला है तो उसने खाली समय में घी, लाल गोश्त और अच्छी व्हिस्की बनाई. शाकाहारी खाने में मुझे हरी सब्जियाँ, केर-सांगरी, गट्टे की सब्ज़ी पसंद है. सुबह के खाने में पूरी-छोले, पुरानी दिल्ली के बेड़वी आलू अच्छे लगते हैं. इसके अलावा मुझे निहारी भी पसंद है.

प्रणॉय रॉय और एमजे अकबर के अलावा आपके पसंदीदा ब्रॉडकास्टर?

मुझे करण थापर के इंटरव्यू अच्छे लगते हैं क्योंकि वो काफ़ी तैयारी करते हैं. बरखा दत्त, अरणव गोस्वामी मुझे बहुत पसंद हैं. रोडीज़ का रघु, साइरस बरूचा मुझे अच्छे लगते हैं.

आपका पसंदीदा प्रोग्राम?

मैं एक आदर्श दर्शक हो ही नहीं सकता क्योंकि मैं खुद इसमें शामिल हूँ. इसलिए मेरे लिए टेलीविज़न चैनल देखना टैक्स्ट बुक पढ़ने के बराबर है.

आपने कहा कि करण थापर आपको पसंद हैं क्योंकि वो काफ़ी तैयारी करते हैं. आप खुद कितनी तैयारी करते हैं?

देखिए, जैसे रात आठ बजे मेरा कार्यक्रम है तो मैं चार बजे से काम शुरू करूँगा. मेरे साथ मेरी टीम होती है. मैं उनको बता देता हूँ कि क्या-क्या करना है. तो निर्भर करता है कि आपकी कसौटी क्या है. मैं अपनी स्क्रिप्ट खुद लिखता हूँ और अपने वॉइस ओवर भी खुद करता हूँ.

कुछ ख़ास करने की तमन्ना, जिसे करना चाहते हों?

देखिए. इस वक़्त जो हमारा हाल है, उसमें अगर आप चैनल की आईडी हटा दें तो आपको एक जैसे लगेंगे. तो इस वक़्त ज़रूरत है नए अंदाज़ में ख़बरों को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पहुँचाने की. मुझे लगता है कि नई सोच ज़रूरी है. यानी सिर्फ़ बाइट जर्नलिज़्म नहीं, सिर्फ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं.

कुछ व्यक्तिगत सवाल. शादी कैसे हुई आपकी?

मेरी बीवी पदमावती तमिलनाडु से हैं और एक डॉक्टर हैं. 1983 में जब उन्होंने मुझे शादी का प्रस्ताव दिया तो मैं सावधान नहीं था और मैंने हाँ कह दी. तो अब ये आप पर है कि आप इसे प्रेम विवाह माने या कुछ और.

1985 में हमारी पहली बेटी बकुल हुई. फिर 1989 में हमारी दूसरी बेटी मल्लिका हुई. बकुल अभी लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पोस्ट ग्रेजुएशन करके आई हैं. मल्लिका अभी अमरीका में पढ़ रही है. मेरा और मेरी बीवी का ये फ़ैसला था कि हम अपनी बेटियों को उम्दा तालीम देंगे. मेरी पत्नी रेडियोलॉजिस्ट हैं और बहुत अच्छा गाती हैं. मेरी बेटियां भी अच्छा गाती हैं.

विनोद दुआ को सबसे ज़्यादा खुशी किस चीज़ से होती है?

छोटे बच्चे देखकर मुझे बहुत खुशी होती है. दूसरी बात कुछ भी कुदरती साफ़ बहता पानी, हरियाली मुझे अच्छी लगती है. तीसरी बात नेकनीयती से किए गए काम मुझे अच्छे लगते हैं. चौथी बात देसी घी में बना गोश्त मुझे बहुत खुशी देता है.

तो अपनी सेहत ठीक रखने के लिए क्या करते हैं?

इसका सीधा जवाब ये है कि मैं कम खाता हूँ और जो अच्छा लगता है कभी-कभी खाता हूँ. मेरा खाना-पीना बहुत सादा है. मसलन इस इंटरव्यू में आने से पहले मैं लंच में लौकी, बड़े की सब्ज़ी और दो चपातियाँ खाकर आया हूँ.

आप खुद को दो वाक्यों में कैसे बताएँगे?

नीयत तो है कि मैं नेकनीयत हूँ, मुख़्तार रहूँ और रोशन वजूद रहूँ. काफ़ी हद तक कामयाबी मिली है. लेकिन हक़ीक़त ये भी है कि कभी ब्रह्मांड की सच्चाई मेरी समझ में आ गई और कभी अपने ही भ्रम में उलझ कर रह गया.



9 टिप्पणियाँ:

विनोद दुआ जी अच्छे आदमी है...

लेकिन आजकल उन्हे कुछ हो गया है... आजकल NDTV पर ये कुछ ऐसे बाते करते है जो की देश और समाज के हित मे नही होती... वैसे तो मैने आब NDTV ही देखना छोड दिया है... लेकिन फिर भी कभी कभी लगता है की अगर ये लोग ऐसे ही बोलते रहेंगे तो समाज मे और ज़्यादा परेशानी पैदा होती रहेगी...

आज हर तरफ जात और धरम के नाम पर बाते होती है , और विनोद दुआ भी कुछ अलग बात नही करते ... ये भी ऐसे ही बोलते हैं ... बस फ़र्क सिर्फ़ ये है की भाजपा वाले हिन्दुत्वकी बात करते है और ये अल्पसंख्यक की बात करते हैं.

इन्हे चाहिए की ये लोग देश के हित की बात करें और अपने माध्यम से लोगों को भी राष्ट्रभक्ति के लिए प्रेरित करें... आज देश को इसी चीज़ की ज़रूरत है....

धन्यवाद ...

vinodji ko dekhna, sunna aur anubhav karna jitna saral hai, utna hi jatil bhi hai.
ndtv me maine kai program kiye hain,vahin shooting k dauran 2-3 bar mulaqat bhi hui hai,,,,,,mujhe sabse achhi baat jo unme nazar aayi vo hai unka husmukh swabhav aur uurja se bhara vyaktitava
ACHHI POST K LIYE BADHAI

विनोद दुआ जी मेरे फेवरेट बॉडकास्टर में से एक हैं...और एंकरिंग का उनका अंदाज़ में कुछ फेरबदल करके अपनाना चाहता हूं क्योंकि मै भी अपने एंकरिंग करियर की शुरुआत कर रहा हूं...

टिप्पणियाँ भेजने हेतु आप सबका बहुत धन्यवाद!
देशप्रेमी जी, आपने ठीक कहा हमारे लिए राष्ट्रहित सर्वोपरी होना चाहिए. परन्तु मुझे विनोद दुआ जी पर कतई शक नही.
अलबेला खत्री जी व शशांक शुक्ला जी आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.कृपया हमारे साथ सक्रियता से जुडें.

लिखते रहिये
चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

गार्गी

हुज़ूर आपका भी .......एहतिराम करता चलूं .....
इधर से गुज़रा था- सोचा- सलाम करता चलूं ऽऽऽऽऽऽऽऽ

कृपया एक अत्यंत-आवश्यक समसामयिक व्यंग्य को पूरा करने में मेरी मदद करें। मेरा पता है:-
www.samwaadghar.blogspot.com
शुभकामनाओं सहित
संजय ग्रोवर

बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

मैं संगीता पुरी जी से पूरी तरह समहम हूं ।

संजीव श्रीवास्तव की शानदार हस्ती से मुलाकात को हम तक लाने के लिए शुक्रिया जी।

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