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17.5.09

कहाँ गई वो संवेदनाएं.....?

जीवन व मृत्यु सिक्के के दो पहलु हैं. संसार में जो भी प्राणी आया है, उसका एक समय मृत्यु के लिए भी निश्चित है. चाहे वह पशु हो या इन्सान. राजा हो या रंक. लेकिन फ़र्क सिर्फ इतना है कि इन्सान कि मृत्यु के बाद उसके निष्क्रय शरीर का निपटान तो सलीके से कर दिया जाता है. चाहे उसे जलाया जाए या उसे दफनाया जाए. लेकिन पशुओं के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है. जंगली पशुओं की तो बात ही छोडिये पालतू पशुओं के मामले में भी कुछ ऐसा ही है. पशुओं की मृत्यु के बाद उन्हें या तो उनके हाल पर सड़कों पर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है या उन्हें हड्वारे के ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है.
विडम्बना तो यह है कि जब तक पशु मनुष्य के काम आता है तब तक उसकी सेवा में कोई कोर कसर नहीं छोडी जाती, लेकिन जब वह उपयोग में आना बंद हो जाता है, तो पशुपालक उसे अपने ऊप बोझ समझने लगता है. तब उसे या तो बूचड़खाने में बेच दिया जाता है या लावारिस अवस्था में छोड़ दिया जाता है. लावारिस हालत में पशु अक्सर सड़क दुर्घटनाओं में काल का ग्रास बनते हैं तथा बूचड़खाने में पशुओं को बेदर्दी से इंसान ही उन्हें अपना पेट भरने के लिए काट डालते हैं. वही देखने में यह भी आता है कि आमतौर पर लोग मृत पशुओं को हड्वारे के ठेकेदारों को सौंप देते है और ठेकेदार उन पशुओं के मृत शरीरो से जरूरी कीमती अंगो को निकाल लेते है. देखने व सोचने वाली बात यह है कि बेचारा पशु तो मरकर भी इन्सान के काम आता है स्वार्थी मानव उसके एक एक अंग से लाभ उठाता है. कही उसके चमडे से अपनी जरूरत की वस्तुएं बनाई जाती है तो कही उसके सींगो व हड्डियो से श्रंगार प्रसाधन जैसे स्त्रिओं के बालों के लिए क्लिप्स, चक्कुओं के दस्ते और खुबसूरत बटन आदि बनाये जाते है. अब तो ये भी सुनने में आया है कि कुछ पशुओं के अंग मानव शरीर में भी पर्त्यारोपित किये जाने लगे है. लेकिन उसके बावजूद भी पशुओं के अस्थिपिन्जरो को खुले मे छोड़ दिया जाता है जिससे वातावरण तो दूषित होता है, वही उन अस्थिपिन्जरों को देखकर संवेदनशील मानव मन भी विचलित हो उठता है.
खुले में पड़े इन पिंजरों से हवा रोगों के कीटाणु तो फैलने की आशंका तो रहती ही है. साथ ही उनमे से मांस खाने वाले कुत्ते व पशु आदि भी खुद भंयकर बिमारियों से ग्रस्त होकर महामारियां फैलाने में सहायक होते हैं.बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू जैसी भयानक बीमारियाँ लगभग इसी तरह से फैलती हैं. अब सवाल यह उठता है कि मानव दिन प्रतिदिन इतना खुदगर्ज क्यों होता जा रहा है. कहाँ गई वो संवेदनाएं और जीवो के प्रति प्रेम भावना जो हमारे अध्यात्म संस्कृति मे शामिल था?

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